वर्णीजी-प्रवचन:समयसार - गाथा 397
From जैनकोष
कम्मं ण हवइ णाणं जम्हा कम्मं ण याणए किंचि।
तम्हा अण्णं णाणं अण्णं कम्मं जिणा विंति।।397।।
कर्म का ज्ञान में अत्यंताभाव ―कर्म ज्ञान नहीं है, क्योंकि कर्म अचेतन है। वह कुछ जानता नहीं है, इसलिए ज्ञान भिन्न बात है और कर्म भिन्न बात है। लोग तो यहाँ तक कह डालते हैं कि ज्ञान भी कर्म से मिलता है, भाग्य से मिलता है। भाग्य बढ़ा हो तो ज्ञान मिलेगा, परंतु ज्ञान भाग्य से नहीं मिलता, बल्कि भाग्य के फूटने से मिलता है। आनंद भी भाग्य से नहीं मिलता, किंतु भाग्य के फूटने से मिलता है। शायद कुछ लोगों को बुरा लगा हो कि हम को कह रहे हैं कि इन का भाग्य फूट जाय। अरे भाग्य फूट जाय तो सब लोगों को तुम्हारे हाथ जोड़ने पड़ेंगे। यदि बहुत ही भाग्य फूट जाय तो बड़े बड़े मुनीश्वर राजा महाराजावों को तुम्हारे हाथ जोड़ने पड़ेंगे।
कर्म का विवरण ―भाग्य मायने है कर्म। जिन्हें पुण्य के फल में रुचि है उन्हें भाग्य के फूटने की बात नहीं सुहाती। पर जि से सुख और दु:ख समान मालूम होते हैं और सुख दु:ख का कारणभूत पुण्य और पाप भी एक समान विदित होते हैं तथा पुण्य पाप का कारणभूत शुभभाव और अशुभ भाव एक समान विदित हुए हैं वही ज्ञानी संत ऐसा साहस कर सकता है कि मुझे एक भी कर्म न चाहिए। मुझे यह कर्म अवस्था हित रूप नहीं है। ये कर्म कार्माणवर्गणाएँ नामक पुद्गल है। इन वर्गणावों में ऐसी योग्यता है कि जीव विभाव का निमित्त पाये तो यह कर्मरूप हो जाता है।
कर्म का कर्म से बंधन ―देखिए कर्म-कर्म से ही बँध गए हैं, जीव से बँधे हुए नहीं है। वे बँधे हुए कर्म जीव के साथ निमित्तनैमित्तिक रूप बंधन को लिए हुए हैं। एक तो बंधन होता है मिलकर, जुड़कर और एक बंधन होता है इस निमित्तनैमित्तिक भाव का लगना। इस शरीर का बंधन है मिलकर भिड़कर जुड़कर और हमारा किसी से वात्सल्य हो, प्रीति हो तो हमारा उसका भी बंधन हो गया। वह बंधन, भिड़कर, मिलकर जुड़कर नहीं है किंतु निमित्तनैमित्तिक रूप है। इसका एक मोटा दृष्टांत लीजिये जैसे गिरमे से गाय बाँधी जाती है तो गिरमा का बंधन मिलकर जुड़कर, भिड़कर, डटकर गांठ उस गिरमा से ही है, गाय से नहीं है, पर गिरमा का और गाय का बंधन निमित्तरूप है। जैसे गिरमा का एक छोर दूसरे छोर के साथ बांध दिया जाता है, गांठ लगा दी जाती है, ऐसी ही गांठ कर्मों की कर्मों से जुड़ी हुई है। इसलिए जुड़कर मिलकर भिड़कर बंधन, कर्म का कर्म के साथ है और उन पुद्गल कर्मों का जीव के साथ बंधन निमित्तनैमित्तिक भाव के रूप में हैं।
उदयागत कर्म में कर्मसंबंधन की निमित्तता ―चूँकि कर्म का बंधन कर्म से है, इसी कारण सूक्ष्मदृष्टि से आप जानेंगे कि नवीन कर्मों के बंधन का निमित्त उदयागत कर्म है। जीव के रागद्वेष मोह भाव नहीं है पर उदयागत कर्मों में नवीन कर्मों के बंधन का निमित्तपना आ जाय, इस बात का निमित्त होता है जीव का रागद्वेषमोहभाव। जैसे मालिक तो कुत्ते को सैन करता है―छू-छू और सीधा आक्रमण करता है कुत्ता। ऐसे ही रागद्वेष मोह भाव तो उदयागत कर्मों को सैन करता है, सीधा निमित्त बनना, आक्रमण करना, नवीन कर्मों का लेना, ये सब कलाएँ बनती हैं उदयागत कर्मपुद्गलों में । ये कर्म कामार्णवर्गणा जाति के पुद्गलद्रव्य हैं, इन में कर्मत्वरूप होने की योग्यता है, इस प्राक्रतिकता से सब हैरान हो गये। यह बात नहीं बदली जा सकती है। कृत्रिमता अपने मन की कल्पना के अनुसार दृष्टपदार्थों में बना लीजिए, किंतु यह प्राकृतिकता नहीं टाली जा सकती है। निमित्तनैमित्तिक भाव का सही रूप में बनना इसे कौन टाल सकता है? जैसे कर्मों के उदय के निमित्त से जीव में विभाव होते हैं ऐसे ही जीव के शुद्ध भावों के निमित्त से अनंतभवों के बांधे कर्म भी क्षणमात्र में खिर जाते हैं।
अनंत भवों के बद्ध कर्मों के वर्तमान में सत्त्व की संभवता ―आप कहेंगे अनंतभवों में बाँधे कर्म कैसे? तो इतना तो अंदाज होगा कि 60 - 65 कोड़ा कोड़ी सागर तक की स्थिति के कर्म तो होंगे, हो सकते हैं। अब वह 50,60 कोड़ा- कोड़ी सागर कितना समय होता है, उन समयों के बीच में जरा एक सागर तक ही यह निगोद अगर बन जाय तो कितने भव हो जायेंगे? जो अवधिज्ञान के विषय परे है उसका भी नाम अनंत है। एक अनंत उसे कहते हैं जिस का अंत न हो और अनंत नाम उसका भी है जो अवधिज्ञान के विषय से परे हो।
दृश्यों की प्राकृतिकता – जब कभी लोग कहते हैं पहाड़ नदियों का दृश्य देख कर शिमला मंसूरी की घाटी निरखकर कि देखो कितना सुहावना प्राकृतिक दृश्य है? यह सब प्रकृति का खेल है। प्रकृति का खेल, इसका क्या मतलब? कुदरत का खेल। तो वह प्रकृति और कुदरत क्या है जिसकी यह सृष्टि है, खेल है, रचना है? वह सब प्रकृति कर्म प्रकृति है, रंग बिरंगे फूलों का होना, झाड़ियां, लतावों के रूप में इन वनस्पतिकायों का फैलाव, नुकीले पाषाणों का बनना, वृक्ष और हरियाली का खूब होना, यह सब प्रकृति का ही तो खेल है। विभिन्न कर्म प्रकृतियां, उनके उदय में स्थावर काय की ये विभिन्न रचनाएँ हैं। उन्हीं बनियों में चिड़ियां भी चैं चैं करती हों, तालाब भी बना हो;सारस हंस भी कल्लोल कर रहे हों, ये सब भी तो प्राकृतिक दृश्य हैं। उनमें भी सब कर्मप्रकृति का परिणाम है। तो जो यह सब सुहावना लगता है यह कर्मप्रकृति का खेल है। इसी को प्रकृति कहते हैं, कुदरत हैं, प्राकृतिक दृश्य कहते हैं।
कार्माण वातावरण – भैया ! एक ऐसा सूक्ष्म कार्माण वातावरण है कि जहाँ जीव ने रागद्वेष विभाव किया कि उसकी सैन पाकर उदयागत पुद्गल नवीन कर्म बंध का कारण हो जाते हैं। ऐसे ये कर्म जो जीव में एक क्षेत्रावगाहरूप स्थित हैं और इतना निकट संबंध है कि जैसे घड़ी की चाभी भर दें और घड़ी का ख्याल भी न रहे तो भी घड़ी अपना काम नहीं रोक सकती। इसी तरह ये कर्म जहाँ जैसे बद्ध हैं और ये विभाव हैं, इन का परस्पर जहाँ जैसा निमित्तनैमित्तिक योग है, यह सब काम चल रहा है। मनुष्य यश के लिए बड़ा श्रम करता है और अंतर में हो अयश: कीर्ति प्रकृति का उदय तो अयश ही चलता है। लोग इष्ट विषय चाहते हैं और हो असातावेदनीय का उदय तो वह इष्ट सामग्री नहीं मिलती। जो न चाहिए ऐसे ही अनिष्ट का समागम होता है, इसमें इतना निकट संबंध है।
निकट संबंध होने पर कभी कर्म की ज्ञान से भिन्नता ―जीव का कर्म के साथ निकट संबंध होने पर भी यह भ्रम नहीं करना कि कर्म ज्ञान है अथवा कर्म प्रभु है या मेरा पालनहार है, वह तो अचेतन है। कर्म कुछ जानता नहीं है। इस कारण कर्म न्यारा पदार्थ है, ज्ञान न्यारा पदार्थ है। इस कर्म का रंग किसी ने देखा है? नहीं देखा होगा। इस कर्म का रंग सफेद बताया है। जब यह जीव मरकर दूसरे भव में जाता है तो रास्ते में उस कार्माण शरीर का शुक्ल रंग बताया है। करणानुयोग जानने वाले समझते होंगे कि कार्माणशरीर का शुक्ल रंग है, और कुछ ऐसा अनुमान आता है कि जो सूक्ष्म से सूक्ष्म स्कंध हों उन्हें सफेद रंग पसंद है। पर वह दिख नहीं सकता। उन 6 प्रकार के स्कंधों में सूक्ष्म स्कंध बताये गये हैं। ये कर्म जो कि रूप रस गंध स्पर्शमय हैं, इस आत्मा के साथ, जब मानी हुई दुनिया से बिलगाव बन गया है याने मरकर जीव अन्य भव में जाता है तो साथ जाता है, ऐसा अत्यंत निकट संबंध वाला भी कर्म ज्ञान नहीं है। कर्म अन्य तत्त्व है, ज्ञान अन्य तत्त्व है। ऐसा जैन आगम में स्पष्ट बताया है। इसलिए कर्म मात्र से राग मत करो, चाहे शुभ कर्म हों, चाहे अशुभ कर्म हों, वहाँ आत्मा की स्वच्छता का आवरण होता है, उन से विविक्त ज्ञानमात्र आत्मतत्त्व ही अनुभव करने का यत्न करना चाहिये।
शुभ अशुभ कर्मों के ज्ञातृत्व की प्रेरणा ―कार्माणवर्गणा जाति के द्रव्यकर्म ज्ञान नहीं है, क्योंकि वे कुछ जानते नहीं हैं। द्रव्य कर्म से उदय का निमित्त पाकर होने वाला भावकर्म भी ज्ञान नहीं है, क्योंकि वह कुछ जानता नहीं है। इस कारण ज्ञान अन्य बात है और कर्म अन्य बात है, ऐसा जानकर किसी भी प्रकार के कर्म में चाहे वह पुण्य कर्म हो अथवा पापकर्म हो, चाहे वह शुभ भावकर्म हो, चाहे वह अशुभ भावकर्म हो, ये सब चेतना जाति से परे हैं। इस कारण इन में किसी में भी रागबुद्धि और विरोध न करो किंतु सब के ज्ञाता द्रष्टा रहो।
सकलकर्म भेदभावना ― कार्माण द्रव्यकर्म अथवा ये भावकर्म अपनी पदवी के अनुसार ये अशुभ अथवा शुभ रूप से बँधते रहते हैं। शुभ और अशुभ दोनों का बंधन तो दशम गुणस्थान तक सम्यग्दृष्टि के भी चलता रहता है। घातिया कर्म बँधते हैं दशम गुणस्थान तक। तो घातिया कर्म क्या पुण्य कर्म है? घातिया कर्म को पाप कर्म माना गया है और साथ ही विशिष्ट पुण्य कर्म भी बँधता है। सो बँधने वाले कर्म तो दृष्टि ध्यान में नहीं हुआ करते हैं, जो भावकर्म है वह भाव कर्म अनुभवन के रूप से आता है, उन्हें यह भिन्न समझता है, अपने को केवल चैतन्य मात्र मानता है।
सकलकर्मभेदभावना ―अब धर्म, अधर्म, आकाश और काल इन चार अमूर्त पदार्थों के संबंध में भेद विज्ञान का वर्णन चलेगा, उनमें प्रथम कहते हैं―