वर्णीजी-प्रवचन:समयसार - गाथा 398
From जैनकोष
धम्मो णाणं ण हवइ जम्हा धम्मो ण याणए किंचि।
तम्हा अण्णं णाणं अण्णं धम्मं जिणा विंति।।398।।
धर्मद्रव्य और ज्ञान में व्यतिरेक ―धर्म ज्ञान नहीं होता है क्योंकि धर्म जानता कुछ नहीं है। धर्म से यहाँ प्रयोजन धर्मास्तिकाय से है। धर्मास्तिकाय नामक द्रव्य ज्ञानरूप नहीं है। इस ज्ञान में धर्मास्तिकाय ज्ञेय तो होता है पर धर्मास्तिकाय को जानने के कारण कहीं यह ज्ञान धर्मास्तिकाय नहीं बन जाता है। लोगों की ऐसी प्रकृति है कि वे जिस ज्ञेय को जानते हैं वे उस ज्ञेयरूप अपने को मानते हैं अथवा दूसरे को कहते भी हैं। जैसे कोई चने बेचने वाला जा रहा हो तो चने खाने की इच्छा वाला पुरुष उसे यों कह कर बुलाता है कि ऐ चने ! यहाँ आवो, और वह चने वाला खड़ा होकर अपनी ठेली के चनों से कहे कि ऐ चनो, जावो तुम्हें अमुक बुला रहा है ऐसा नहीं देखा जाता है। उसने बुलाया और वह पहुँच गया, यहाँ तो चने का और पुरुष का निकट संबंध भी नहीं है, फिर भी वह आदमी चना बन गया। उसे लोगो ने चना बना डाला। यों ही ज्ञेय पदार्थ से इस ज्ञान का कोई संबंध नहीं है, लेकिन यह मोही प्राणी अपने को ज्ञेयभूत बना डालता है।
तत्त्वचर्चा में विवाद का कारण ज्ञेयविकल्प में आत्मत्व का प्रत्यय ―जब धर्मास्तिकाय के बारे में चर्चा हो रही हो―एक कोई कहे कि धर्मद्रव्य नहीं है, न मानो धर्मद्रव्य तो क्या हर्ज है, दूसरा कोई धर्मद्रव्य की सिद्धि कर रहा है अथवा धर्मद्रव्य में निमित्त के संबंध में चर्चा चल रही है और चर्चा चलते-चलते कुछ गरमागरमी हो जाय, झगड़ा तू तू बन जाय, तो भाई बतावो यह झगड़ा किस बात पर हो गया? इस बात पर हो गया कि अपने को धर्मास्तिकाय मान लिया। धर्म के संबंध में जो बात हम कह रहे है उसको दूसरा न माने तो वह इतना अधिक महसूस कर डालता कि मानो वह बीमार ही हो गया। वह यों सोचता है कि मैं कुछ भी नहीं रहा। तो ज्ञेय पदार्थों के जानने में भी यह आत्मा ऐसा भ्रममय हो जाता है कि अपने सत्त्व को मना कर डालता है और ज्ञेयरूप बन जाता है।
धर्मद्रव्य का संक्षिप्त विवरण ―यह धर्मद्रव्य एक अमूर्त पदार्थ है, समस्त लोकाकाश में एक है और व्यापक है। यह चलते हुए जीव पुद्गल के चलने में सहकारी कारण होता है अर्थात् निमित्त होता है। निमित्त का और उपादान का परस्पर में अत्यंताभाव है, तभी ये निमित्त कहलाते हैं और यह उपादान कहलाता है। एक हो जायें उनमें कोई किसी को करने लगे भोगने लगे तो निमित्त उपादान की संज्ञा नहीं रह सकती। निमित्त और उपादान की संज्ञा रह सकती है तो इस ही बात का द्योतन कर के रह सकती है कि निमित्त का और उपादान का परस्पर में अत्यंताभाव है।
धर्मद्रव्य व आत्मा में सादृश्य व वैलक्षण्य ―यह मैं ज्ञानमात्र आत्मतत्त्व चेतन हूँ, धर्मास्तिकाय मैं नहीं हो सकता। यद्यपि धर्मास्तिकाय और मुझ में अनेक बातों का सादृश्य है। धर्म द्रव्य अमूर्त है तो मैं भी अमूर्त हूँ । धर्मद्रव्य असंख्यातप्रदेशी है और मैं भी असंख्यातप्रदेशी हूँ। धर्मद्रव्य बाह्य जीव पुद्गल के गमन में निमित्त होकर भी उन से न्यारा रहता है और यह मैं भी अनेक पुद्गल परिणमनों में निमित्त होकर भी उन से न्यारा रहता हूँ। फिर भी एक असाधारण लक्षण महान् अंतर है जिस से धर्मद्रव्य और इस ज्ञानमात्र आत्मद्रव्य में अत्यंताभाव बना हुआ है। यह मैं चेतन हूँ और धर्मद्रव्य अचेतन है। मैं धर्मद्रव्य नहीं हूँ और धर्मद्रव्य के संबंध में होने वाले जो विकल्प हैं वे विकल्प भी मैं नहीं हूँ, वे विकल्प भी अचेतन हैं, किंतु यह मैं ज्ञान स्वरस निर्भर चैतन्य पदार्थ हूँ। इस कारण ज्ञान अन्य चीज है और धर्म अन्य चीज है, धर्मास्तिकाय अन्य पदार्थ है ऐसा जिनेंद्रदेव कहते हैं। धर्मद्रव्य का भेद बताकर अब अधर्म द्रव्य के संबंध में कह रहे हैं।