वर्णीजी-प्रवचन:समयसार - गाथा 400
From जैनकोष
कालो णाणं ण हवइ जम्हा कालो ण याणए किंचि।
तम्हा अण्णं णाणं अण्णं कालं जिणा विंति।।400।।
कालद्रव्य व ज्ञान में व्यतिरेक ― काल ज्ञान नहीं होता है, क्यों कि काल द्रव्य जानता कुछ नहीं है। कालद्रव्य एक प्रदेशप्रमाण अथवा एक परमाणु प्रमाण अपने स्वरूप को लिये हुए लोकाकाश के एक एक प्रदेश पर अवस्थित है और उस काल द्रव्य का परिणमन समय है। जिस से व्यवहार काल बनता है, अपने-अपने कालाणु पर अवस्थित जो पदार्थ हैं उन पदार्थों के परिणमन में वह समयपर्यायपरिणत कालद्रव्य निमित्त कारण है।
आलोकाकाश के परिणमन का बाह्य निमित्त ―एक यहाँ शंका की जा सकती है कि आकाश द्रव्य तो बड़ा व्यापक है। लोकाकाश में भी वह आकाश है, लोक के बाहर भी वही आकाश है। तो लोकाकाश में रहने वाले कालाणु लोकाकाश के आकाश को परिणमाने में निमित्त कारण हो जायेंगे, ठीक है, पर लोकाकाश के बाहर जो अनंत आकाश पड़ा हुआ है वह तो परिणमन के बिना रह जाएगा, क्योंकि वहाँ कालद्रव्य तो है नहीं। समाधान उसका यह है कि आकाश द्रव्य एक अखंड द्रव्य है। जैसे एक अखंड बांस का एक छोर हिला देने पर सारा बांस हिल जाता है, उस सारे बांस को हिल जाने के लिये पूरे बांस भर में निमित्त के चिपकाने की आवश्यकता नहीं है, इसी प्रकार यह आकाश अखंड द्रव्य है, इसके परिणमन के लिये लोकाकाश में अवस्थित काल निमित्त है और उसका निमित्त पाकर आकाश जो परिणमा तो चूंकि वह अखंड है इसलिए समस्त आकाश परिणमा और वह परिणमन एक है, क्षेत्रभेद से भिन्न नहीं है। जो परिणमन लोकाकाश में हुआ है वही का वही परिणमन सर्वत्र आकाश में है। इस तरह एक जगह अवस्थित काल द्रव्य आकाशद्रव्य के परिणमन का निमित्त कारण है।