वर्णीजी-प्रवचन:समयसार - गाथा 401
From जैनकोष
आयासंपि ण णाणं जम्हाऽयासं ण याणए किंचि।
तंपा यासं अण्णं अण्णं णाणं जिणा विंति।।401।।
आकाश व ज्ञान में व्यतिरेक ―अपने स्वरूप में परिणमता हुआ यह आकाशद्रव्य इस ज्ञान में ज्ञेय तो होता है, पर यह ज्ञान आकाश नहीं बन जाता है। आकाश-आकाश है और ज्ञान-ज्ञान है। ये दोनों भिन्न-भिन्न पदार्थ हैं, ऐसी जैन शासन में आकाश और ज्ञान के संबंध में भेदविज्ञान की बात बतायी गयी है। मैं आकाशरूप नहीं हूँ किंतु ज्ञानमात्र हूँ, ऐसे भाव से इस आधारभूत आकाश से भी अपने को न्यारा कर के मैं ज्ञानमात्र के ही अनुभव में रहूं।