वर्णीजी-प्रवचन:समयसार - गाथा 403
From जैनकोष
जम्हा जाणइ णिच्चं तम्हा जीवो दु जाणओ णाणी।
णाणं च जाणयादो अव्वदिरित्तं मुणेयव्वं।।403।।
आत्मा शब्द का तात्पर्य – जब कि यह सब भाव इस जीव से भिन्न हैं, इस कारण यह जीव तो ज्ञायक है, परिज्ञानी है, क्योंकि यह ज्ञायकस्वरूप ज्ञानमय तत्त्व निरंतर जानता रहता है। जैसे कोई पुरुष कभी चलता है, कभी नहीं चलता है। इस तरह यह आत्मा कभी जानता है, कभी नहीं जानता है ऐसा नहीं है, किंतु यह निरंतर जानता रहता है, किस ही प्रकार जाने, इस कारण इस जीव का नाम आत्मा रखा है। आत्मा कहते हैं, ‘अतति सततं गच्छति इति आत्मा।‘ जो निरंतर जानता रहे उसका नाम आत्मा है।
जाना और जानना, इन दोनों के प्रयोग में संस्कृत में प्राय: एक धातु आती है। गच्छति मायने जाता है और अवगच्छति मायने जानता है। थोड़ा उपसर्ग लगाकर जरा भेद डाल देते हैं, पर उस धातु में दोनों को बताने का भाव पड़ा है। अन्य अन्य भी गत्यर्थक जो धातुयें हैं वे सीधा जानन का भी अर्थ रखती हैं और कुछ अपने आप की समझ में भी ऐसा आता है कि कोई पदार्थ तो जाने का काम धीरे-धीरे करता है, किंतु यह आत्मा तो बहुत जल्दी चला जाता है। आत्मा है ज्ञानमात्र। अभी यहीं बैठे बैठे ही बंबई का ख्याल आ जाय तो हवाई जहाज को तो 5 घंटे लग जायेंगे किंतु आत्मा को पहुंचने में पाव सेकंड भी नहीं लगता है, बंबई पहुंच गया। तो यह आत्मा ज्ञान द्वार से बहुत तेज जाता है, ऐसा व्यवहार होने में भी कुछ यह बात ठीक बैठती है कि जाने और जानने – इन दोनों की मूल धातु एक है।
आत्मा का व ज्ञान का अभेद – यह आत्मा निरंतर जानता रहता है। सो यह ज्ञान इस ज्ञायक से अभिन्न जानना चाहिए। ज्ञान का समस्त ही परद्रव्यों के साथ भेद है, यह पूर्णतया निश्चित हो गया। अब ज्ञान के बारे में ऐसा जानना कि यह एक जीवस्वरूप ज्ञान है, क्योंकि जीव चेतन है, ज्ञान और जीव भिन्न-भिन्न बातें नहीं हैं। कोई भी परमार्थभूत द्रव्य अर्थात् इकहरा पदार्थ मात्र स्वयं अपने लक्षणरूप ही होता है। जैसे कुछ स्कंधों में यह व्यवहार कर डालते हैं कि इस खंभे में अमुक रूप है। तो ये खंभादिक पदार्थ बहुत मिलकर एक द्रव्यपर्याय बने हैं। उसमें कुछ ऐसा लगता है कि यह सही है और इसमें रूप है। प्रथम बात तो यह है कि स्कंध में भी ऐसा भेद रूप का नहीं है। यह खंभा है और इसमें रूप है यह व्यवहार में लगता है, पर परमाणु में ऐसा सोचना कठिन है कि परमाणु में अमुक रूप है वह इकहरा द्रव्य है, परमार्थ वस्तु है। वहाँ तो ऐसा लगता है कि रूपमात्र है परमाणु, मुर्तिकतामात्र है परमाणु। आत्मा कुछ अलग से कोई पदार्थ हो और उसमें ज्ञान आता हो, भरा जाता हो, ऐसा तो है नहीं। ज्ञान ही आत्मा है। जब से ज्ञान है तब से आत्मा है अथवा ज्ञानभाव का ही नाम आत्मा रखा गया है।
अलंकार की पद्धति से भी कथनभेद – वह ज्ञान कैसा है? सूक्ष्म है। यह ज्ञान कैसा है? अमूर्त है। यह ज्ञान कैसा है कि आत्मा से निरंतर वृत्तियां उत्पन्न हो रही हैं। जिस रूप में आत्मद्रव्य को आप उपस्थित कर सकते हो उस रूप में इस ज्ञान को भी मैं उपस्थित कर सकता हूँ। ज्ञानमात्र भाव का नाम जीव है। लो अब चाहे जीव शब्द को कहो या ज्ञान शब्द को कहो। जैसे कुछ गुंडे लोग ऊधम मचाने लगें तो कोई तो व्यक्ति का नाम लेकर कहते हैं कि अब गुंडों ने ऊधम मचाया और कोई यों कहते हैं कि देखो कुछ अनिष्ट तत्त्वों ने ऊधम किया। बात एक ही पड़ी। पहिले हुआ पदार्थ रूप से कथन, अब हुआ भाव रूप से कथन। तो ज्ञान का कथन भाव रूप से है और जीव का कथन पदार्थरूप से है । जीव स्वयं ज्ञानस्वरूप है। जीव के ज्ञानरूपता है। इस कारण जीव से भिन्न कोई ज्ञान होगा, ऐसी शंका नहीं करनी चाहिए।
आत्मा और ज्ञान के भेद का मंतव्य – क्या कोई ऐसी शंका भी करता है कि जीव एक पूर्ण वस्तु है और ज्ञान उसमें ऊपर से लादा गया है, किसी का क्या ऐसा मंतव्य है? हाँ, एक सिद्धांत ऐसा कहता है कि पुरुष का स्वरूप चैतन्य है, ज्ञान नहीं है। ज्ञान प्रकृति की तरंग है। आत्मा की वस्तु नहीं है और राग, द्वेष अहंकार – ये जीव से न्यारे हो जाते हैं तब मोक्ष मिलता है, इस ही भांति जब जीव से ज्ञान भी अलग हो जाता है तब इसे मोक्ष मिलता है ऐसाभी एक मंतव्य है। उनका कहना है कि जीव यदि ज्ञान का काम करे तो वह आपदा में ही पड़ेगा। उसे ज्ञान मैल सब दूर करना चाहिए और आराम से रहना चाहिए। यह है उनका सिद्धांत।
ज्ञानस्वरूपता के अभाव में चैतन्यस्वरूप का अभाव – अब इस पर विचार करो―जानना कुछ है नहीं तब फिर जानना नाम किस बात का है? यह पुरुष चेतता है। कि से चेतता है? उस चेतने का रंग ढंग क्या है? यद्यपि जैसा हम लोग जानते हैं ऐसा जानना मेरा स्वरूप नहीं है। वह चेतने की शुद्ध वृत्ति नहीं है, ऐसे ज्ञान से हम दु:खी रहते हैं। पर यह ज्ञान का असली स्वरूप नहीं है। इसके साथ रागद्वेषादिक अनेक विभाव लग बैठे हैं, इस कारण वहाँ एक मिथ्या रूपक बन गया है। ये कल्पनाएँ ज्ञान का स्वरूप नहीं है। ज्ञान का स्वरूप शुद्ध जानन वृत्ति है। इस अशुद्ध ज्ञानस्वरूप को हम बोलते हैं लेकिन शुद्ध ज्ञान और इससे सूक्ष्म सामान्यरूप व्यापक कोई जानन होता है, इसका परिचय न हो तो यह कथन ठीक बैठता है, मेरे उपयोग में, किंतु ऐसा तो है नहीं। ज्ञान न हो तो चेतने का स्वरूप भी नहीं रह सकता है। यह ज्ञान जीव ही है जीव से भिन्न कुछ ज्ञान है, ऐसी रंच शंका न करनी चाहिए।
ज्ञान की व आत्मा की समता –यह जीव ज्ञानमात्र ही है। न तो ज्ञान से कम है यह जीव और न ज्ञान से अधिक है यह जीव। यदि यह ज्ञान से कम हो अर्थात् ज्ञान तो हो गया बड़ा और जीव रह गया छोटा तो जितना यह जीव है उतने में तो यह ज्ञान है ना, पर इस जीव से बाहर भी जो ज्ञान पड़ा है उस ज्ञान का आधार क्या है? क्या कोई भाव आधारभूत द्रव्य के बिना भी हुआ करता हैं? नहीं। जब आधार नहीं है तो ज्ञान का अभाव होगा। यदि ज्ञान छोटा और जीव बड़ा है तो जितना यह ज्ञान है वहाँ तो जीव है ही क्योंकि जीव बड़ा है, ज्ञान छोटा है। तो जहाँ तक ज्ञान है वहाँ तक के जीव में तो हमें शंका नहीं है पर उस ज्ञान से आगे जो जीव और फैला हुआ है जहाँ कि ज्ञान नहीं है उस जीव का स्वरूप क्या है? क्या स्वभाव के बिना भी पदार्थ रहा करता है? नहीं। इससे यह सिद्ध है कि यह जीव ज्ञानमात्र है।
ज्ञानभावना से आत्मनिर्णय ―अच्छा अब जरा प्रयोग करके देखो अपने आप में यह मैं यह मैं ज्ञानमात्र हूँ, जो जाननस्वरूप है उतना ही मैं हूँ ऐसी बार बार भावना बनाए और इस ज्ञानमात्र को अपनाए याने यह मैं आत्मा हूँ, इस तरह का अनुभव करे तो समग्र आत्मा जो कुछ है एक साथ हमारे ग्रहण में आ जाता है। जैसे हम किसी पुरुष को देखते हैं तो केवल रूप ही तो दिखता है, किंतु रूप को रूप में देखने पर हमें केवल अपने आप में निर्णय उस के बारे में केवल रूप का नहीं होता है किंतु उस पूरे मनुष्य का निर्णय हो जाता है। ज्ञानमात्र रूप से आत्मा का अनुभव किया जाने पर फिर आत्मा का कोई तत्त्व छूटता नहीं है, समग्र वस्तु ग्रहण में आ जाती है। इस ही कारण एक ज्ञानभाव को अपनाने से हमारे भविष्य के सारे निर्णय हो जाते हैं।
ज्ञानानुभूति की पद्धतिपर अपनी सृष्टि की निर्भरता ―हम किसी परवस्तु के वियोग होने पर इस ज्ञान को इस रूप से अपनाते हैं कि हम दु:खी हो जाते हैं और कोई उस ही वियोग में अपने ज्ञान को इस रूप से अपनाते हैं कि उन्हें सम्यक्त्व हो जाता है। ज्ञान को अपनाने की कला में ही हमारी सारी सृष्टि का निर्णय है। बाहर बाहर ही बैठने पर हमारी सृष्टि का निर्णय नहीं है, इस ही बात को अब आगे कुंदकुंदाचार्यदेव इस गाथा में कह रहे हैं―