वर्णीजी-प्रवचन:समयसार - गाथा 404
From जैनकोष
णाणं सम्मादिटि्ठं दु संजमं सुत्त्मंगपुव्वगयं।
धम्माधम्मं च तहा पव्बज्जं अब्भुवंति बुहा ।।404।।
ज्ञान का सम्यक्त्व ―ज्ञान जीव से भिन्न नहीं है, जीव ज्ञानरूप ही है इसलिए सर्वव्यवसाय करके इस ज्ञानमात्र आत्मतत्त्व को देखें। इस उपाय से, यहाँ के विपरीत आशय सब दूर हो जाते हैं। ज्ञान में विपरीत आशय का दूर हो जाना, स्वच्छता का होना यही सम्यग्दर्शन है। पानी में स्वच्छता गुण है, उस स्वच्छता का विकार परिणमन है और स्वभाव परिणमन है। स्वच्छता का विकार परिणमन तो विधिरूप से समझ में आता है कि इसमें मैल है, कीचड़ है, गंदगी है, पर स्वच्छता का जो स्वभाव परिणमन है उसे विधिरूप में क्या कहा जाय? वहाँ यही कहना होता है कि उस गंदगी का न रहना ही स्वच्छता है। इसही प्रकार आत्मा में एक श्रद्धा गुण है, सम्यक्त्वगुण है इसका शास्त्रपरंपरागत नाम है सम्यक्त्व गुण। उस सम्यक्त्व गुण की दो परिणतियां होती हैं―एक मिथ्यात्वरूप परिणमन और एक सम्यक्त्वरूप परिणमन। सो मिथ्यात्वरूप परिणमन तो विधि रूप में समझाया जा सकता है। खोटा आशय रहे उसे मिथ्यात्व कहते हैं। ये समस्त परपदार्थ भिन्न-भिन्न हैं और उन्हें अपना मानने का आशय हो तो इसे मिथ्यात्व कहते हैं। किंतु सम्यक्त्व को समझाने के लिए विधि रूप में कुछ शब्द नहीं है। वहॉ इस प्रकार बताया जायेगा कि जहाँ विपरीत अभिप्राय का अभाव हो गया है ऐसी शुद्धता का नाम है सम्यग्दर्शन। गंदा जल और साफ जल। इसी प्रकार मिथ्यात्व और सम्यक्त्व। पानी का साफ हो जाना इसका नाम है साफ जल, निर्मल जल। यों ही आत्मा में मिथ्यात्व का मल दूर हो जाय, इसका नाम है सम्यक्त्व।
ज्ञान के आश्रय से सम्यग्दर्शन, सम्यग्ज्ञान व सम्यक्चारित्र का स्वरूप ―सम्यक्त्व के इसी मर्म के कारण अमृतचंद्र सूरि ने पुरुषार्थ सिद्ध्युपाय में सम्यग्दर्शन, सम्यग्ज्ञान और सम्यक्चारित्र का जो लक्षण किया है उसमें उत्पादव्ययध्रौव्य जैसी स्थिति बतायी है। विपरीत अभिप्राय को दूर करके और निज तत्त्व को निर्णीत करके इस ही निज तत्त्व में स्थिरता से ठहर जाना सो रत्नत्रय है। इसमें तीन अंश हैं। विपरीत अभिप्राय को दूर करना यह तो हुई सम्यग्दर्शन वाली बात, जो कि निषेध रूप में व्यय रूप में समझाया है और भली प्रकार निश्चय करके निज तत्त्व का निश्चय करना सो ज्ञान, इस अंश को उत्पादरूप से बताया है यह है सम्यग्ज्ञान वाली बात, तथा उस ही में स्थिर हो जाना यह है स्थिति वाली बात। इसे सम्यक् चारित्र कहा है।
ज्ञान के ही संयमपना व श्रुतपना – यह ज्ञान ही विपरीत अभिप्राय से रहित स्वरूप में देखा जाय तो यही हुआ सम्यग्दर्शन और यह ज्ञान जैसा कि सम्यग्दर्शन में देखा गया है उस ही रूप से ज्ञान का ज्ञान बनाए रहना, यही हुआ संयम। सो ज्ञान ही संयम हुआ और श्रुत, आगम, अंगपूर्ण श्रुत ये सब क्या बाहर है? पाथी पन्नों का नाम अंगसूत्र नहीं है है। जो शब्द बोले जाते हैं उन शब्दों का नाम अंगसूत्र नहीं है, किंतु एक विशिष्ट प्रकार का जो अवबोध है, जिस को शब्दों द्वारा समझाया गया है, वह विशिष्ट बोध ही ज्ञान है, श्रुत है, सूत्र है। यहाँ ज्ञानदेव की भक्ति में सर्व कुछ ज्ञान में ही समाया हुआ है। यह महिमा बतायी जा रही है।
भक्त को प्रभुता के विराट् दर्शन ―महाभारत में एक प्रकरण आया है कि अर्जुन का एक संदेह दूर करने के लिए कि मैं ही भगवान हूँ, मैं ही विराट् रूप हूँ, कृष्ण ने अपना विराट् रूप दिखाया और उस विराट में सारा लोक समा गया। उसका मर्म क्या है? कि वह विराट् रूप अर्जुन जैसे स्वच्छ हृदय वाला (अर्जुन कहते हैं चांदी को) जैसा चांदी का स्वच्छ रूप है ऐसे स्वच्छ आशय वाले भक्त अर्जुन को काम, क्रोधादिक के ध्वस्त करने में कृष्ण रूप लेकर अर्थात् कषायध्वंसिता को लेकर उपस्थित हुआ यह ज्ञान देव अपना विराट् रूप दिखा रहा है। यह ज्ञान ही सम्यग्दर्शन है, यह ज्ञान ही संयम है, यह ज्ञान ही सूत्र है।
लोकव्यवहार में भी सर्वत्र ज्ञान की विराट्ता ―अरे लोकव्यवहार में भी इस ज्ञानदेव की विराट्ता निरखो, ज्ञान ही कुटुंब परिवार है, ज्ञान ही लाखों और करोड़ों का वैभव है, ज्ञान हीसम्मान, अपमान, प्रशंसा, निंदा, भला, बुरा सब कुछ है। बाह्य पदार्थों की परिणति से यह ज्ञान लखपति करोड़पति नहीं बना है किंतु ज्ञान में जब जब यह विकल्प समा जाता है कि मैं लखपति हूँ, मैं करोड़पति हूँ, तो इस विकल्प से वह लखपति, करोड़पति बना है। यह बात आश्रयभूतपने की अवश्य है कि हो पास में पुद्गल का ढेर तो उसका आश्रय करके यह विकल्प बना है कि मैं लखपति और करोड़पति हूँ। कुटुंब परिवार बाहर नहीं है, यह निश्चय से व्यवहार की बात बता रहे हैं, लोक व्यवहार की बात है। ज्ञान में विकल्प बना हो कि मैं कुटुंब वाला हूँ तो वह ‘कुटुंब वाला हूँ’ ऐसा अनुभव करता है और ज्ञान में यह विकल्प न बना हो तो बाहर में कितने ही कुटुंब पड़े हों वह तो कुटुंब वाला अपने को अनुभव नहीं करता। ज्ञान का विराट्रूप देखते जाइए। कहीं भी जाय यह ज्ञान, अपने विराट्रूप की प्रकृति को नहीं छोड़ता है।
ज्ञान का विस्तार – मेरा तो मेरे ज्ञान भाव से अतिरिक्त जगत में अन्य कुछ नहीं है। किसी परपदार्थ में भ्रम करके कुछ विकल्प बनाऊँ तो वह भी ज्ञान के विराट् रूप की एक कला है, कहीं असुहावनी कला है, कहीं सुहावनी कला है, पर ज्ञानदेव सर्वत्र अपने विराट् ज्ञान रूप में समाया हुआ कभी सुखी होता है, कभी दु:खी होता है और कभी शुद्ध आनंद रस में मग्न होता है। हमारा यह विराट्रूप कहीं तो लोक में दूसरे की निगाह में फैलता हुआ व्यक्त होता है और कहीं अपने आप में बुझता हुआ, संतुष्ट होता हुआ, ज्ञानानंदरस मग्न होता हुआ अपने स्वाभाविक विराट्रूप को ग्रहण करता है। ज्ञान विषय नहीं है, विषयभूत बाह्य पदार्थ ज्ञान नहीं है, किंतु यह ज्ञानस्वरूप अपने आप उस विषयविषयक रूप को बनाता है। लोकव्यवहार में भी इसकी विराट्रूपता है और अपने आप के धर्म-पथ में भी इस ज्ञान की विराट्रूपता है।
स्वच्छता का उपाधिनिषेधमुखेन विवरण ―ज्ञान ही सम्यग्दर्शन है, ज्ञान ही स्वच्छ जल है। कूड़ा कचड़ा हट गया ऐसे स्वच्छ जल में वह स्वच्छता हाथ पर रख कर बताई नहीं जा सकती। वहाँ तो यही दिखता है कि जो अब यह केवल जल रह गया है, यही इसकी स्वच्छता है ।
अनादि की भूल और अचानक झक्काटा ―भैया ! इस जीव पर मिथ्यात्व का विकट भार अनादिकाल से चला आ रहा है। अपने आप की कुछ सुध भी नहीं रही। किस-किस बाह्य पदार्थ को यह अपनाता रहा, आज भी बता नहीं सकता। अनंत शरीर पाये और अनंत भवों में परिजन, बच्चे, मित्र, अचेतन समागम सर्व कुछ मिला, इस 343 घनराजू प्रमाण लोक में प्रत्येक प्रदेश पर यह जन्मता रहा, मरता रहा, अनेक कर्मों के बीच पड़ा पड़ा यह पर की ओर दृष्टि बनाकर अपने को भूला रहा। कितना मिथ्यात्व का इस पर बोझ था? जहाँ ही ज्ञानानंदरस मात्र अमूर्त भावस्वरूप एक निज तत्त्व का श्रद्धान हुआ कि अब झक्काटा हुआ, वह सब अंधेरा विलीन हो गया, एकदम स्पष्ट दिखने लगा कि सर्व परपदार्थ मुझ से अत्यंत भिन्न्ा हैं, किसी भी परपदार्थ का मुझ से रंच मात्र संबंध नहीं है, सब जुदे हैं। जहाँ यह प्रकाश हुआ कि मोह समाप्त हुआ। मोह जहाँ नहीं रहा ऐसा जो ज्ञान का परिणमन है उसका ही नाम है सम्यग्दर्शन ।
ज्ञान की संयमता का वर्णन ―संयम की बात भी देखो। इस जीव के साथ अनादि से चले आ रहे जो क्रोध, मान, माया, लोभ हैं, इन कषायों में से बदल बदल कर कभी कोई किसी कषाय में, कभी कोई किसी कषाय में यह बर्तता चला आ रहा था, सो जिस ही इस ज्ञानभावना के प्रसाद से मोह विलय को प्राप्त हुआ था उस ही ज्ञानभावना के प्रसाद से ये कषायें भी पृथक हो जाती हैं, तो वहाँ ज्ञान ज्ञान में स्थिर हो जाता है। अब वहाँ संयम नाम की चीज कुछ अलग से है भी क्या? अरे ज्ञान, ज्ञानरूप स्थिर हो गया ऐसे ज्ञान की इस महिमा को ही संयम कहा जाता है। ज्ञान का प्रसाद अतुल है। कोई भव्य पुरुष अपने को केवल ज्ञान मात्र ज्ञानमात्र ही भाता चला जाय तो इस ज्ञानभावना के प्रसाद से वह ज्ञानरस का अनुभव करता हैं और वहाँ जो अतुल आनंद प्रकट होता है उस आनंद के स्वाद से वह समझ लेता है कि अब मुझे इस कार्य के अतिरिक्त कुछ भी कार्य करने को नहीं रहा। यह ज्ञान ही संयम है।
ज्ञान में ही ज्ञेय के सद्भाव का व्यवहार ―यह ज्ञान ही अंगपूर्व रूप सूत्र है, और क्या कहा जाय? यह मैं तो अपनी ओर से अपनी बात को देखकर यह निर्णय करता हूँ कि जो कुछ भी जगत में बताया जाता है―चाहे सूक्ष्म धर्म अधर्म द्रव्य हो, पदार्थ हो और चाहे स्थूल पुद्गल स्कंध हो, पर्याय हो, सब कुछ ये ज्ञान ही है। यह ज्ञान की महिमा के प्रकरण में और इस संचालक ज्ञान की कला में यह बात कही जा रही है कि न मुझे पता पड़ता तो मेरे लिये कहीं कुछ न था। स्थूल पदार्थ के संबंध में तो यह ज्ञानरूपता की बात इस प्रकरण में कुछ देर में आयेगी क्योंकि आंखों तो देखते हैं कि यह पड़ी है भींत, यह पड़ा है खंभा, किंतु सूक्ष्म धर्म, अधर्मद्रव्य के संबंध में जब कुछ चर्चा करते हैं तो हमें दूर में कहाँ क्या नजर आता है, और समझ में खूब आ भी रहा है कि लोकाकाश में व्यापक एक अमूर्त धर्मद्रव्य है, पर बाहर यह विशद नहीं हो रहा है, भीतर में ही यह स्पष्ट नजर आ रहा हैं। लो यह धर्मद्रव्य और अधर्मद्रव्य भी ज्ञान स्वरूप है।
पुण्यपापरूप ज्ञानपद्धति ― अथवा पुण्य और पाप ये और बात हैं क्या? ज्ञान मात्र स्वरूप वाला यह आत्मस्वरूप अपने ज्ञान को किस रूप परिणमाये तो वहाँ पाप होता है और अपने ही ज्ञान को किस रूप परिणमाये तो वहाँ पुण्य होता है। ये सब बातें भी इस ज्ञान में भरी हुई हैं।
प्रव्रज्या की ज्ञानमयता ― यहाँ प्रव्रज्या और दीक्षा भी ज्ञान है। हो इस भूले भट के ज्ञानी ने जब अपने ज्ञानस्वरूप को संभाला तो यह उत्कृष्ट रूप से अपने आप में चला, इसी ही काम का नाम प्रव्रज्या है। दीक्षा को प्रव्रज्या कहते हैं। उत्कृष्ट रूप से जो व्रजे व्रजधातु गमन करने के अर्थ में है व्रज गतौ। बाह्य दीक्षा कोई ले रहा हो, नग्न हुआ, कमंडल लिया, पीछी लिया ये बाह्य बातें बन गयी हैं, मगर जिस भव्य आत्मा के अंतर में ज्ञान की ज्ञान में प्रव्रज्या के कारण बाहर की ये बातें बन रही हैं उस के लिए तो भली बात है किंतु जहाँ ज्ञान की ज्ञान में प्रव्रज्या नहीं बन रही है और बाह्य में यह सब बातें बन रही है, वह सब एक व्यवहारिक बातें हैं। उसे परमार्थ से प्रव्रज्या न कहेंगे।
वैराग्य का आतिथ्य ― भला एक मोटीसी बात तो बतावो―किसी को वैराग्य या मुनि दीक्षा लेने का भाव पहिले से तिथि तय करके हुआ करता है क्या कि अब फलाने साहब फलाने दिन वैराग्य धारण करेंगे, सातवें गुणस्थान में आवेंगे फिर छटे में आवेंगे दीक्षा लेंगे। चारों ओर निमंत्रण गए, लोग जुड़े, बड़े ठट्ट लग गए, अब क्या होगा? ये साहब वैराग्य धारण करेंगे। अरे वैराग्य आता है चुप के से, कोई न जाने तब। तिथि दिन समय मुकर्रर करके वैराग्य दिन नहीं आया करता है। इसी कारण पुराणों में जिन-जिनने दीक्षा ली है उन सब ने अचानक ली है। महीना भर या साल भर पहले से तिथि, दिन, समय मुकर्रर सब जगह निमंत्रण भेज करके कि इस समय दीक्षा ली जायेगी, ऐसा हमें कहीं किसी ग्रंथ में पढ़ने को मिला नहीं है।
वैराग्य के आमंत्रण - पत्रिका की अधीनता का अभाव―कोई ऐसा कथन भी हो कहीं वैराग्य का विचार बताने वाला तो वह वैराग्य के लिये तिथि नियत का कथन न होगा किंतु अपने झंझटों वाली बात की अंदाजिया व काल्पनिक तिथि हुई होगी। हम इन झंझटों से इतने दिन में निपट पायेंगे, सोच लिया होगा कि हम तीन चार महीने बाद इस बात को करेंगे। शोरगुल करके दुनिया को आमंत्रण देकर यह बात नहीं होती। यह तो बड़े पुरुषों की विलक्षणता है कि अचानक ही वैराग्य हुआ और 10 मिनट में या 10 घंटे में ही सारा ठट्ठ जुड़ जाय। जैसे मरने की कोई तिथि नहीं बताता, पर बड़े पुरुष मरें तो 24 घंटे में ही लाखों का समुदाय जुड़ जाता है। हुआ भी आप के यहाँ ऐसा गांधी, नेहरू गुजरे कि 24 घंटे में ही लाखों की संख्या जुड़ गई। तीर्थंकर प्रभु जिस समय दीक्षा लेते हैं, पता ही नहीं पड़ता लोगों को कि क्या होगा? सभा में बैठे थे। नीलांजना का नृत्य हो रहा था, बड़ी मस्ती से सब देख रहे थे, अचानक ही वैराग्य हो गयाऔर बड़े पुरुष थे ना, सो थोड़े ही समय में लाखों की जमात जुड़ गई। जुड़ जावो पर यहाँ यह बात कही जा रही है कि प्रव्रज्या ज्ञान ही का नाम है और ज्ञान का इस रूप में परिणम जाना यह पहिले से तिथि मुकर्रर करके नहीं होता। ज्ञान ही प्रव्रजा है।
ज्ञान की संभाल में सर्वस्व संभाल ― ऐसे ज्ञान का समस्त पर्यायों के साथ की अभिन्नता निश्चय से समझ लेना चाहिए, यह ज्ञान सर्व विषयों से जुदा है और अपने आप के अंतर की रत्नत्रय की कलावों से अभिन्न है। ज्ञान की संभाल में सब संभाल जाता है। तप, व्रत, रत्नत्रय, समिति, गुप्ति, सब कुछ, इस ज्ञान की संभाल से ही संभालते हैं। एक ज्ञानभाव को संभाला और बाहरी क्रिया करतूत मन, वचन, काय की करता रहे तो वह प्रव्रज्या नहीं है और वह साधुता भी नहीं है। इस प्रकरण में यह बात कही गयी है कि जो तुझ से भिन्न हैं वे सब अहित रूप हैं, जो हितरूप हैं वे सब तुझ ज्ञानमात्र से अभिन्न हैं, वे सब तेरे हितरूप हैं। तू हित की खोज बाहर मत कर, अपने आप में अपने आप की ही रुचि करके अपने आप के सिवाय अन्य सब को भुला करके अपने आप के ज्ञानरस में मग्न हो तो तुझ में अपने आप के सर्वविलाश विकास के चमत्कार अनुभूत होंगे और तू सर्व प्रकार के संकटों से मुक्ति पायेगा।
भेदाभेद का यथातथ्य अथवा त्रिदोषता का अभाव ― इस प्रकार समस्त परद्रव्यों से भिन्न रूप से और समस्त ज्ञान दर्शन आदिक जीवों के स्वभाव में अभिन्न रूप से इस आत्मतत्त्व को देखना चाहिये और ऐसे लक्षणों से पहिचानना चाहिये जिन में अव्याप्ति और अतिव्याप्ति का दोष न हो। जीव का निर्दोष लक्षण क्या बना है? जीव में धर्म बहुत से पाये जाते है। साधारण धर्म से पदार्थ का लक्षण नहीं बनता और साधारणासाधारण धर्म से भी पदार्थ का लक्षण नहीं बनता, किंतु जो अपनी जाति में तो साधारण रूप से पाया जाये और भिन्न अचेतन में न पाया जाय वहाँ असाधारण हो, ऐसे लक्षण से पदार्थ की पहिचान होती है।
अव्याप्त के लक्षणत्व का अभाव ― जीव का लक्षण राग नहीं है, क्योंकि राग समस्त जीवों में नहीं पाया जाता है। जो अपनी समस्त जातियों में साधारण रूप से रहे और अन्यत्र रंच भी न रह सके उसे लक्षण कहते है। यह राग यद्यपि इस जीव में पाया जाता है और जीव को छोड़कर अन्य पदार्थों में कभी नहीं पाया जाता है, फिर भी समस्त जीवों में साधारण न होने से अर्थात् वीतराग, मुक्त जीवों में राग नहीं पाया जाता। सो राग जीव का लक्षण नहीं है पदार्थ का लक्षण वह है जो पदार्थ में शाश्वत रह रहा हो। जीव का लक्षण अमूर्तिकता भी नहीं कहा जा सकता है। यद्यपि जीव अमूर्त है और जीव के अतिरिक्त अन्य पदार्थ भी तो अमूर्त हैं इस कारण अमूर्तपना जीव का लक्षण नहीं है। जो जीवादिक सर्व परद्रव्यों से भिन्न रूप से रहे, किसी परद्रव्य में न रहे और जीव जीव में सम रहे बराबर एक समान रहे उसे जीव का लक्षण कहा जायेगा।
जीव का निर्दोष लक्षण ― जीव का लक्षण है ज्ञान। ज्ञान सामान्य सब जीवो में पाया जाता है। ज्ञानविशेष की बात नहीं कही जा रही है कि जैसा हम जानते हैं वैसा जानना जीव का लक्षण हो किंतु ज्ञानस्वभाव, जिस का आश्रय कर करके ज्ञान की वृत्तियां अर्थात् जानन प्रकट होता है, उसे जीव का लक्षण कहा है। यह ज्ञान जीव को छोड़कर अन्य किसी भी पदार्थ में नहीं रहता है और समस्त जीवों में रहता है। ऐसे अव्याप्ति और अतिव्याप्ति दोषों से दूर रहने के स्वभाव वाले चित्स्वरूप आनंदमयी आत्मतत्त्व को देखना चाहिए। इसके अतिरिक्त पुण्यरूप अथवा पापरूप शुभ अथवा अशुभरूप जितने भी परिणमन हैं यह परिणमन सब स्वरसत: नहीं है। वे सब परपदार्थ का निमित्त पाकर विभाव रूप है। स्वयमेव ही ज्ञान स्वरूप में ज्ञान गमन करे, ऐसी दीक्षा को भव्य पुरुष ग्रहण करता हा। दीक्षा वास्तव में निज ज्ञानरूवरूप में जो गमन करना, इस ही का नाम है प्रवज्या।
अपने अपराध के होने पर बाह्यसाधनों का प्रभुत्व ― कर्म का बंधन, कर्म का निर्जरण इस जीव के भाव का निमित्त पाकर होता है। जो जीव अपने आप के ज्ञानस्वभाव में गमन करता है तो ये पर लोग मेहमान परबिरादरी के लोग इन की हिम्मत इतनी नहीं हो पाती है कि वे इसके साथ अर्थात् जहाँ उपयोग जाय वहाँ ये भी पहुंच जायें अर्थात् बंधन हो जाय, ऐसी परपदार्थों में हिम्मत नहीं है। ये बाहर ही बाहर रह कर उपद्रव के निमित्त होते हैं। जैसे कोई पुरुष बाहर से घर आ रहा है तो जब तक बाहर है तब तक रास्ते में प्राय: कुत्ते भोंकते हैं, छेड़ते, परेशान करते हैं। जैसे ही उसका मकान आया, दरवाजे में घुसा तो वे कुत्ते विवश होकर लौट जाते हैं। जब यह उपयोग बाहर चलता फिर रहा है तो ये कर्म, विधि उपद्रव करते हैं, बंधन होते हैं, लगे रहते हैं, किंतु जैसे ही यह उपयोग इस सहज शुद्ध ज्ञानस्वरूप के महल में प्रवेश करता है तो यह द्रव्यकर्म फिर विवश होकर रह जाता है।
पुण्य पाप की अटक ― पुण्य और पाप भावों में जिन की अटक है, जो उन को आत्मरूप मानते हैं, उन्हें हितरूप मानते हैं, उनके अभी द्रव्यकर्म की भी उलझन यथावत् बनी हुई हैं। ज्ञानी जीव के भी पुण्य भाव होता है, किंतु पुण्य भाव में आत्मीयता नहीं करता है। पुण्यभाव को हितरूप मानने का अर्थ यह है कि उसे आत्मरूप मानते हो। हितरूप तो आत्मतत्त्व है। औपाधिक भाव हितरूप नहीं है किंतु जो शुभ भाव पहले के अहित को बचाकर होते हैं ऐसे भाव को हितरूप कहा जाता है। जैसे 104 डिग्री बुखार से पीड़ित मनुष्य 100 डिग्री बुखार में आ जाय तो वह अपने को स्वस्थ मानता है। कोई पूछे अब कैसी है तबीयत है तो वह कहता है कि अब तबीयत अच्छी है। परमार्थ से अब भी 2 डिग्री बुखार है। इस ही प्रकार कितने-कितने कठिन पापों से निकलकर पुण्य रूप भाव में आये, जहाँ संक्लेश नहीं है किंतु खेद अवश्य है। उस भाव को हितरूप यों कहा जाता है कि विषय कषाय पापों के परिणाम से कुछ बरी हुए हैं।
परसमय का वमन ― भैया ! परमार्थत:रागभाव जब तक है तब तक इस जीव का स्वास्थ्य उत्तम नहीं कहा जा सकता। अत: पुण्य पाप शुभ-अशुभ भाव रूप परसमय का उद्वमन करते हुए स्वसमय का ग्रहण करना चाहिये। वमन की हुई चीज फिर ग्रहण में नहीं ली जाती है उसी तरह विभाव भाव को ऐसी दृढ़ता से आत्मीयरूप मान लेना कि फिर ग्रहण न किया जाय, यही इसका वमन है। अब किसी भी विभाव को आत्मरूप नहीं माना जाता है। मान ले तो वह ज्ञानी नहीं रहेगा। जैसे कोई वमन किये हुए को फिर से ग्रहण कर ले तो वह स्वस्थ दिमाग वाला नहीं रहा, पागल की गिनती में आ गया इस ही तरह पुण्य पापरूप समस्त विभावों को अनात्मीय मानकर फिर कोई यदि आत्मीय मान ले तो वह अब ज्ञानियों की गोष्ठी में नहीं रहा। वह अज्ञानी हो गया।
प्रव्रज्या और अप्रव्रज्या ― यह प्रव्रज्या इस जीव के स्वयमेव अंतरंग में होती है। उस प्रव्रज्या रूप को प्राप्त करके अब दर्शन, ज्ञान, चारित्र में स्थित रहने रूप स्वहित की प्राप्ति करो। इस जगत में चारों ओर सब क्लेश ही क्लेश हैं, क्लेश बाहर नहीं है किंतु जहाँ यह आत्मा अपने स्वरूप से चिगता है और बाह्य पदार्थों में इष्ट अनिष्ट रागद्वेष भाव को करता है तो यह क्लेश में पड़ जाता है। ऐसे निर्वाध स्वरूप महल में विराज कर फिर जहाँ आग पानी बरस रहा हो, सो इस बाहर के मैदान में निकले तो उसे कौन विवेकी कहेगा? बाहर घोर वर्षा चलती है जिस वर्षा में आग भी बरसती है और पानी भी बरसता है, पानी तेज बरस रहा है उसी बीच में जब आग बरस जाती है तो जिस पर वह आग गिरती है वह मनुष्य या पशु मर जाता है। तो ऐसे बड़े तूफान में आग पानी बाहर बरस रहे हैं, बिजली तड़क रही है, गाज गिर रही है, ये सब उपद्रव जहाँ हो रहे हो वहाँ यह भागने लगे तो उसकी बरबादी का ही समय समझिये। ऐसे ही ज्ञानानंद करि परिपूर्ण निज आत्मतत्त्व के महल में सुख शांति से विराजने की बात रहती है, फिर भी ऐसे आराम को छोड़कर रागद्वेष इष्ट अनिष्ट कल्पनावों के द्वार से इन विषय कषायों के पानी और बिजली में कोई भागने लगे तो वह विवेकी नहीं है, उसकी बरबादी निकट है।
आत्मा की ज्ञानघनता – अपने आप के दर्शन, ज्ञान, चारित्र स्वरूप में स्थिर होना यही है मोक्षमार्ग। इस ही मोक्षमार्ग को अपने आप में ही परिणत करके देखे अपने अंतर में विराजमान परमार्थरूप एक इस शुद्ध ज्ञानस्वभाव को, जो ज्ञानगुणभाव को लिए हुए है। इस आत्मा में ठोस ज्ञान पड़ा है। ठोस कहो, घन कहो एक ही अर्थ है। इसका अर्थ वजन नहीं है किंतु इस चीज के अतिरिक्त अन्य चीज को न छूना, इसका ही नाम ठोस है, घन है। एक ज्ञान के अतिरिक्त अन्य भाव, अज्ञानभाव, अज्ञान पदार्थ इसमें कुछ नहीं है। यह तो ज्ञान ज्ञान से भरा हुआ है। अन्य सब धर्म जो बखाने जाते हैं वे इस ज्ञान धर्म की सिद्धि के लिये बखाने जाते हैं। हमें सूक्ष्मत्व गुण से क्या पड़ी है; पर ज्ञान ही स्वरूप से सूक्ष्म है। कैसा है स्वयं? जैसा है सो है।
भेदकथन की आवश्यकता ―जब हम ज्ञानमात्र आत्मतत्त्व का निरूपण करने बैठते हैं तो गुणभेद हो जाता हैं, किंतु अनुभवन में पहुंचने के लिये तो आत्मा के संबंध में एक ज्ञानभाव का ही आराधन चला करता है। वह ज्ञान कैसा है? ज्ञायक स्वभाव क्या है? वह आत्मस्वरूप क्या है? उसकी समझ जिन्हें है उन्हें तो वहाँ भी एकत्व नजर आता है किंतु जब वह दूसरे को समझाने के लिए पुरुषार्थ करता है तो उसमें ही भेद करके और ऐसा भेद करके जो उस एकत्व का वर्णन कर सके, कहा गया है। इसही का नाम गुणभेद है। उन गुणों की भी जब समझ नहीं बैठती है तो गुणभेद से आगे बढ़कर पर्यायभेद में उतरकर समझाया जाता है। जगत के जीव सब व्यवहार के लोलुप हैं। व्यवहार में जो बताया गया है उसको छोड़कर अन्य कुछ भी पहिचाना ही नहीं गया, तब उन्हें आत्मस्वरूप समझने की पद्धति यह है कि पहिले पर्यायमुखेन इस आत्मतत्त्व का वर्णन कर दिया जाय। जब पर्यायमुखेन यह जीव जीव के संबंध में विशेष परिचित हो जाता है तब उसे उन पर्यायों के आधारभूत जिस का कि परिणमन हुआ है उस आधारभूत शक्ति के परिज्ञान की प्रमुखता बनाये तब उस ज्ञान में यह पर्यायरूप ज्ञान विलीन हो जाता है। फिर भेदरूप अभेदरूप से जाने गये ये गुणपुंज इन के स्रोतभूत एक अखंड जीव में विलीन हो जाता है और वह योगी पुरुष उस समय केवल ज्ञानभाव को ग्रहण करता है।
अद्वैतरूपता – भैया ! परभाव के त्यागरूप और अपने आप के सब कुछ ग्रहण रूप इस आत्मतत्त्व को निरखना है अथवा न वहाँ किसी का त्याग है, न वहाँ किसी का ग्रहण है, वह तो जो है सो ही है, ऐसे त्याग और ग्रहण के श्रम से रहित साक्षात् समयसारभूत परमार्थरूप एक शुद्ध ज्ञानस्वरूप स्थित है ऐसा देखना चाहिए। यह ज्ञान अन्य परद्रव्यों से अत्यंत जुदा है, अपने आप में यह नियत है। उस नियत का भेद क्या है? यह ज्ञान ही आत्मा है। यहाँ गुण गुणी का भी भेद स्वरूप की सही दृष्टि करने वाले को सहन नहीं है। यह आत्मा एक पदार्थ है उसमें ज्ञान पाया जाता है, ऐसा वहाँ कुछ भेद नहीं है। समस्त वस्तुवों के स्वरूप में एक ही कायदा है। बस है। पदार्थ है और उसका यह स्वभाव है ऐसी बात वस्तु में नहीं है। वहाँ तो है यह है―यह है―अब जो यह है उसे समझाने के लिए अपन व्यवहार मार्ग में आते हैं तो इस स्वभाव को स्वभावी का भेद किया जाता है। यह पदार्थ है और इसका यह स्वभाव है।
अभेद में प्रथम भेदोपक्रम ―एक आत्मा को ही देखिए, प्रथम तो यह अद्वैतरूप है और अद्वैतरूप में ही अनुभूत है। अद्वैत कहो, एकत्व कहो, एक ही बात है। इस अद्वैतस्वरूपी आत्मा को जब हम समझने के लिए चलें तो स्वभाव-स्वभावी का भेद किए बिना हम समझ नहीं सकते हैं। यह है, यह है। मेरे ज्ञान में आ गया, यह है, यह है, इतने मात्र से कोई काम नहीं चलता है या कह दिया कि आत्मा है आत्मा है। इतने मात्र से काम नहीं चलता है। उन्हें समझाना होता है कि देखो जो जानता है, जो देखता है, जो रमता है, जहाँ आनंद का अनुभवन होता है ऐसे पदार्थों को जीव कहते हैं। तो सर्वप्रथम इस स्वभाव-स्वभावी में भेद करना पड़ा।
सामान्य विशेष का भेद – अब और विशेष वर्णन करने के लिए स्वभाव में भेद करने की आवश्यकता हुई। आत्मा तो एक स्वभावरूप है। उसे हम चित् स्वभाव शब्द से कहा करते हैं। यह चित् सामान्यविशेषात्मक है। तब सामान्य चित् का नाम दर्शन हुआ और विशेष चित् का नाम ज्ञान हुआ। देखिए यहाँ तक स्वभाव में द्वैत चला। यह आत्मा चिदात्मक है, यह आत्मा ज्ञानदर्शनात्मक है।
ज्ञान ज्ञेय का भेद ― अब ज्ञान की ही बात निरखिए । ज्ञान का काम जानना है। जहाँ जानन हुआ वहाँ द्वैत हो गया कि एक तो जाननहार तत्त्व और एक जानने में जो कुछ आया हुआ है वह तत्त्व। अब यह ज्ञान और ज्ञायक का द्वैत हो गया। अब धीरे धीरे छूटकर यह द्वैतभाव कैसी बरबादी के वातावरण में पहुंचाता है, देखते जाइए। ज्ञान ज्ञेय के भेद के बाद इस ज्ञेयरूप जीव को ज्ञेयों में भी द्वैत होने लगा है। अमुक मेरे लिए इष्ट है, और अमुक मेरे लिए अनिष्ट है। यह विपदा की बात अब चलने लगी। सबसे बड़ी विपदा है―अंतर में किसी पदार्थ के प्रति इष्ट की कल्पना बन जाय और किसी पदार्थ के प्रति अनिष्ट की कल्पना बन जाय। इससे बढ़कर और विपदा इस जीव पर क्या हो सकती है ?
भेदविस्तार में विपदा का प्रसार ― मोही जीव को तो इस भावात्मक विपदा का भी भान नहीं है, सो बाहरी वस्तुवों के संयोग और वियोग से विपदा समझता है। वहाँ उस के विपदा है कहाँ? वह तो बाहरी पदार्थ है। वहाँ विपदा नहीं है। विपदा तो इसके अंतर में ही है। यह अपने ज्ञानस्वभाव से चिगा, चित्स्वरूप के अनुभवन से हटा, बाहरी पदार्थों में इष्ट और अनिष्ट की बुद्धि की कि बस यही सबसे भयंकर विपदा है क्योंकि इस भाव के होने पर इस भाव के साथ ही होड़ मच जाया करती है।
ज्ञानी के आत्मस्वभाव की निर्दोषता का भान ― ज्ञानी जानता है कि यह ज्ञान अन्य सब भावों से, पदार्थों से पृथक् है, सो वह ज्ञानी अपने स्वरूप में ही नियत है। वह अन्य किसी को ग्रहण करे और अन्य किसी को छोड़े ऐसी अटपट बात भी पड़ी हुई नहीं है। यह निर्मल है। जैसा इसका स्वरूप है वैसा ही अवस्थित है। आदि अंत के विभाग से मुक्त सहज ही जो इसमें ज्ञानप्रभा है उस प्रभा से देदीप्यमान् ज्ञानज्योति से सदा चकचकायमान् यह शुद्ध ज्ञानघन आत्मा, जिसकी महिमा सदा उदित है, स्वभाव अंतर में सदा उदित है, निर्दोष है। जैसे जल कीचड़ से गंदा भी हो जाय तो गंदा होने पर भी जल का स्वभाव उस ही जल में निर्मल है और सदा उदित है। पर जानने वाले लोग उपाय करके उस निर्मल जल को प्रकट कर लेते हैं। इस ही प्रकार इस संसारी अवस्था में भी यह आत्मा अपने निर्मल स्वभाव को लिए हुए सदा प्रकाशमान् है। जो पहिचानता है वह प्रज्ञा के उपाय से इसे प्रकट कर लेता है।
आत्मोपलब्धि में ― जिस जीव ने निजस्वरूप को, निजरूप को जान लिया है और पुद्गलादिक समस्त परद्रव्यों को और पुद्गल उपाधि के निमित्त से होने वाले भावों को, परभावों को जिसने पररूप से मान लिया है ऐसा यह जीव सब कुछ अपने आप में अपने ज्ञानतत्त्व को देख रहा है। जो कुछ मेरा है वह सब मेरे में है, मेरे से बाहर कहीं कुछ नहीं है। ऐसा जानकर परसमय का वमन करता है, स्वसमय को प्राप्त करता है और वह ज्ञानमात्र आत्मा में स्थिर होता है। तब यह समझिये कि इस ज्ञानी जीव को जो कुछ छोड़ने योग्य है वह सब कुछ छोड़ देता है और जो कुछ ग्रहण करने योग्य है वह सब कुछ ग्रहण कर लेता है, क्योंकि अब इस आत्मा ने अपनी सर्वशक्तियों को संग्रहित करके इस निज पूर्ण आत्मतत्त्व को अपने आप में ही धारण कर लिया है। यही तो मोक्षमार्ग है।
आत्मवृत्ति में मोक्षमार्ग ― भैया ! मोक्षमार्ग कहीं बाहर शरीरादिक की चेष्टा में नहीं है। छूटना है जीव को, तो मार्ग भी मिलेगा जीव में , अचेतन में मार्ग न मिलेगा, पर इस भावमोक्षमार्ग में चलने वाले जीव के साथ जब तक शरीरादिक का संबंध लगा हुआ है तब तक शरीरादिक किस तरह चलते, बैठते, उठते हैं? यह लौकिक जनों में विलक्षणता को लिए हुए बात है। इस प्रकार समस्त परद्रव्यों से यह ज्ञान बिल्कुल भिन्न व्यवस्थित हो चुका है। जो ज्ञान पुद्गलादिक समस्त पदार्थों से भिन्न है उस ज्ञान को फिर आहारक कहना, आहार करने वाला बताना, यह कैसे युक्त हो सकता है? इस ज्ञान को इस आत्मतत्त्व को आहारक होने की शंका नहीं की जानी चाहिए। इस ही बात को कुंदकुंदाचार्यदेव कहते हैं।