वर्णीजी-प्रवचन:समयसार - गाथा 406
From जैनकोष
णवि सक्कइ घित्तुं जं ण विमोत्तं जं य जं परद्दव्वं।
सो कोवि य तस्स गुणो पाउगिओ विस्ससो वावि।।406।।
आत्मा में आहारकत्व का अभाव ― आत्मा में ऐसा कोई गुण नहीं है जिस गुण के द्वारा यह आत्मा आहारादिक परद्रव्यों को ग्रहण कर सके अथवा छोड़ सके। न तो आत्मा में स्वभाव से ऐसा गुण है और न किसी के प्रयोग से ऐसा गुण उत्पन्न होता है। हे आत्मन् ! यह आत्मा जब केवल अपने ही परिणमन को ग्रहण करता है और अपने ही परिणमन को विलीन करता है, अर्थात् पदार्थ के नाते से जैसे कि सभी पदार्थ यह काम करते हैं, यह मैं भी कर रहा हूँ, तब इसमें परद्रव्यों को ग्रहण करने की और त्यागने की बात कहाँ से कही जा सकेगी ?
प्रायोगिक गुणसंबंधी शंका समाधान ― यहाँ शंका हो सकती है कि देख तो रहे हैं कि समस्त लोग आहार करते हैं। कर्मजनित एक प्रायोगिक गुण हुआ है अन्य आत्मा में जिस के कारण ये सब आहार ग्रहण किये जा रहे हैं और तुम कहते यह आत्मा ज्ञान अनाहारक है। यह आहार को ग्रहण नहीं करता है, यह बात कैसे समझ में आए? इसका उत्तर है कि बात तो तुम्हारी ठीक है, भोजन बिना गुजारा नहीं देखा जा रहा है और यहाँ सभी जीव उसमें प्रवृत्त भी हो रहे हैं, लेकिन स्वरूप की बात कही जा रही है, क्या यह ज्ञान अथवा आत्मा उस पौद्गलिक आहार में तन्मय होता है? यह व्यवहार की सब बात है कि जीव खाता है, चलता है, फिरता है, बैठता है, उठता है, यह सब व्यवहारनय का कथन है। व्यवहारनय के कथन का अर्थ यह है कि स्वभाव वाली बात नहीं है, किंतु परपदार्थजनित ये सब चेष्टाएँ हैं। यह तो निश्चय का आलंबन स्वरूप दृष्टि से कथन किया जा रहा है।
ज्ञान की वृत्ति ― ज्ञान पौद्गलिक आहार को ग्रहण नहीं करता है इतनी बात खा चुकने के बाद भी समझलें तो भी गनीमत है। खाते समय तो ध्यान कुछ न रहता होगा, और जो ज्ञान खाते समय भी ध्यान में रख सकते हैं खाते जा रहे हैं और यह दृष्टि बराबर भी बनी जा रही है कि यह मैं ज्ञानमात्र आत्मा हूँ, इस आत्मा में तो इस भोजन रस का संबंध भी नहीं होता है, आकाशवत् निर्लेप यह ज्ञानमात्र आत्मा हूँ, इतना ध्यान यदि बना रह सके तो इसी को ही तो कहते हैं आहार करते हुए भी आहार नहीं करता है। जीव का जो कुछ करना हो रहा है वह ज्ञान गुण के द्वारा हो रहा है। यह ज्ञान जिस ओर प्रवृत्त होता है कार्य करना वही कहलाता है। जि से स्वभाव की खबर है और इस ओर जिसकी दृष्टि है वह अपने आप में अपने आप का दर्शन ज्ञान आचरण करने वाला है। वै से कर्मोदयजनित प्रायोगिक गुण के निमित्त से जो कुछ आहार गुण की क्रिया हो रही है उस के करने वाले इस ज्ञानमात्र आत्मा को नहीं देख सकते हैं। यह आत्मा यह ज्ञान आहारक नहीं है। जब ऐसी बात है तब इसका निष्कर्ष क्या निकला? इस बात को शेष संबंधित इस तीसरी गाथा में कह रहे हैं।