वर्णीजी-प्रवचन:समयसार - गाथा 405
From जैनकोष
अत्ता जस्सामुत्तो ण हु सो आहारओ हवइ एवं।
आहारो खलु मुत्तो जम्हा सो पुग्गलमओ उ ।।405।।
अमूर्त में मूर्ताहार की असंभवता ― शुद्धनय के अभिप्राय से आत्मा मूर्तिक नहीं है, आत्मा के स्वरूप और स्वभाव को देखकर विचार करो तो यह आत्मा मूर्तिक नहीं है, अमूर्त है: रूप, रस, गंध, स्पर्श आदि से रहित है। जब ऐसा यह अमूर्त है आत्मा तो फिर यह आहारक कैसे हो सकता है? आहार तो स्पष्ट मूर्त है। यह स्वरूप देखकर बात कही जा रही है। अपने आप में परख लो, तुम्हारा आत्मा रूप रस गंध स्पर्श वाला है क्या? वह तो ज्ञानमात्र अमूर्त तत्त्व है। तो उसमें भोजन रोटी, लड्डू, क्या चिपक सकते है? क्या इसका ग्रहण कर सकते हैं? इस कथन में स्वभावदृष्टि को न छोड़ना, उसको नजर में रखकर यह सब उपदेश ग्रहण करना। यह मैं ज्ञानमात्र आत्मा भोजन ग्रहण नहीं करता हूँ पर हुई कुछ खामी इस मुझ में जिस के कारण धीरे-धीरे बढ़कर यह इसकी नौबत आ गयी है कि आज कल अब तो भोजन ही सर्व कुछ है। आहार, भय, मैथुन, परिग्रह―इन चारों संज्ञावों से पीड़ित ये जीव पाये जा रहे हैं, पर स्वरूप को देखें तो तुरंत ही यह विवेक हो सकता है और उत्साह जग सकता है। आत्मा का भोजन से तो कुछ संबंध ही नहीं है।
अपनी प्रभुता की स्मृति में बलप्रयोग ― एक क्षत्री पुरुष था और एक बनिया था। क्षत्री तो दुर्बल शरीर का था और बनिया हृष्ट पुष्ट शरीर का था। दोनों में हो गयी लड़ाई। उस लड़ाई में बनिया ने क्षत्रिय को पटक दिया और फिर छाती पर बैठ गया। बहुत देर तक उसने हैरानी सही, आखिर वह एक बात पूछता है कि यह बतावो कि हो तुम किस के बेटा? वह बोलता है कि मैं बनिये का बेटा हूँ। अरे तू बनिये का बेटा है, इतना सुनते ही उस के ऐसा जोश आया कि जैसे ही उसने हिम्मत की कि वह बनिया नीचे और वह क्षत्रिय ऊपर हो गया। यह विभाव परिणाम रागद्वेषादिक भाव ये ही प्रभु पर लदे हुए क्षोभ बनाए हुए इसे हैरान किए जा रहे हैं। बहुत हैरान होने के बाद यह प्रभु भीतर से आवाज देता है कि यह बतावो कि तुम हो किस के बेटा? तो विभावों के पास कोई उत्तर मजबूत है ही नहीं और कुछ है तो जैसी दृष्टि बनावो तैसा उत्तर है। उन्हें चाहे पुद्गल के बेटा कह लो, चाहे विकारों के बेटा कह लो, कुछ पता ही नहीं है कि किसके बेटा हैं, ये कैसे हो गए हैं? चाहे इन्हें फालतू बेटा कह लो और प्राय: पुद्गल के उद्भव समझें, जैसे ही उनका लप्पड़ उत्तर सुना कि यह प्रभु ज्ञानदेव अपने अंतर में उत्साह करता है कि इन व्यर्थ के राग द्वेषों से मैं क्यों दबूं? ये कुछ नहीं हैं। एक अंतर में उपयोग को संभालने भर की ही तो बात है। फिर सन्मार्ग इसका निर्वाध पड़ा हुआ है।
आत्मा का व आहार का अत्यंताभाव होने पर भी कल्पना में एकरसता ― यह मैं आत्मा रूप, रस, गंध, स्पर्श से रहित हूँ, अमूर्त हूँ और ये पुद्गल द्रव्य मूर्त हैं, इन का ग्रहण करने वाला आहार करने वाला मैं नहीं हूँ, इतना तो भेद है, पर इस मोही जीव में भोजन के प्रति इतना अधिक आकर्षण है कि ये क्षुधा के विनाश के प्रयोजन से भी नहीं खाता किंतु खूब मजा हो, सुख हो इसलिये नाना तरह के भोजन बना -बनाकर खाता है। भोजन की विविधता का क्या ठिकाना है? अभी देख लो बेसन से बनने वाली कोई 50 तरह की चीजें होती हैं, एक ही गेहूं के आटे से पचासों तरह की चीजें बनायी जाती हैं, किंतु शक्ल भी अच्छी हो, रूप भी अच्छा हो, रस भी बढ़िया हो और कैसे कैसे रसों से यह मोही जीव बंधा हुआ है। संबंध कुछ है नहीं। इस समय की हालत में यह भी एक कठिन बात है कि बाहर की कुछ परवाह नहीं करके केवल अपने आप के प्रयोजन की बात कर लें। आत्महित के लिए आवश्यक है कि वर्तमान कमजोरी में शरीर का कुछ स्वस्थ रहना, इसके ही प्रयोजन से बात हो तिस पर भी यह जानता रहे कि मैं आत्मा अमूर्त हूँ। ये पुद्गल, भोजन सब अमूर्त हैं, इनका मेरे साथ कुछ संबंध नहीं है। इस विषय को बढ़ाते हुए अब और कह रहे हैं।