वर्णीजी-प्रवचन:समयसार - गाथा 57
From जैनकोष
एएहिं य संबंधो जहेव खीरोदयं मुणेयव्वो ।
ण य हुंति तस्स ताणि हु उवओगगुणाधिगो जम्हा ।।57।।
210. दृष्टांतपूर्वक देह और आत्मा की भिन्नता का वर्णन―जैसे पानी और दूध ये मिलकर एक तो नहीं हो गये, केवल दोनों एक जगह हैं, पर एक नहीं हैं । इसी तरह आत्मा और शरीर दोनों एक जगह हैं पर दोनों एक नहीं हुए हैं । शरीर सबका आत्मा से भिन्न है क्योंकि सबमें असाधारण गुण हुआ करते हैं । असाधारण गुण उसे कहते हैं जिससे मुख्य पदार्थ जुदा किया जावे । जितने द्रव्य होते हैं वे अपना असाधारण गुण जरूर रखते हैं । जैसे आत्मा में चैतन्य स्वभाव का होना तथा पुद्गल पिंड में एक गुण ऐसा है जो पुद्गल को छोड़कर अन्यत्र पाया ही नहीं जाता; वह गुण स्पर्श, रूप, रस, गंधरूप मूर्तपना है । धर्मद्रव्य में असाधारण गुण जीव पुद्गलों को चलने में सहायक होना है । अधर्म द्रव्य में असाधारण गुण जीव पुद्गलों को ठहरने में मदद करना है । आकाश का असाधारण गुण है―द्रव्यों को अवकाश देना । कालद्रव्य का असाधारण गुण परिणमन करना है । जैसे समय बीतने पर संसारी से मुक्त हो जाना, मिथ्यात्व से सम्यक्त्व हो जाना, काल व्यतीत हुए बिना तो कुछ नहीं । पूंजी पर ब्याज भी समय बीतने पर मिलता है । यहाँ जीव और देह एक स्थान में हैं । जीव का गुण चेतना है और देह का असाधारण गुण स्पर्श रूप रस गंध का होना है । दूध और पानी इन दोनों के जुदे-जुदे लक्षण हैं । दूध की पूर्ति पानी नहीं कर सकता और पानी की पूर्ति दूध नहीं कर सकता । दूध और पानी के गुण इकट्ठे हो जायेंगे, पर एक न होंगे । आत्मा और शरीर के गुण इकट्ठे हो जायेंगे पर एक न होंगे ।
211. निश्चय से वर्णादिक जीव के न होने का कारण―जैसे दूध मिला पानी, उसमें दूध और पानी परस्पर अवगाहरूप से हैं । एक गिलास में बराबर-बराबर दूध और पानी डाल दिया जाये तो वहाँ यह भेद तो नहीं पड़ पाता कि गिलास के इतने हिस्से में तो पानी है और इतने हिस्से में दूध है । मगर जो पारखी लोग हैं वे दूध के स्वरूप को जानते हैं तो पानी के स्वरूप रूप में जो न हो उससे अधिक कोई लक्षण रखता है उसे दूध मानते हैं । तो वहाँ वह तादात्म्य नहीं निरखता । तादात्म्य संबंध तो अग्नि और उष्णता है । तो जैसे निश्चय से पानी में दूध नहीं, पानी दूध में नहीं है इसी तरह देह में आत्मा में या रागादिक भावों में परस्पर भेद जिन्होंने जाना वे जानते हैं कि जीव के रागादिक भाव नहीं हैं । भले ही उन रागादिक भावों से मिला हुआ आत्मा है । जैसे वर्तमान में अपने को ही देख लें, क्या यह जुदा-जुदा रख सकते हैं कि यह ज्ञानभाव है, यह रागभाव है? एक समय में एक पर्याय चल रही है और वह मिश्रित है । लेकिन ज्ञान का जब हम उपयोग करते हैं, यथार्थ ज्ञान करते हैं तो वहाँ प्रतीत हो जाता कि जहाँ उपयोग गुण पाया जा रहा जो एक चैतन्य से संबंध रखता सो जीव है और रागादिक भावों में चेतना नहीं है सो वह अजीव है । धन घर वैभव इनसे उपयोग हटावो और अपने आत्मा में लगो―यह तो एक मोटा उपदेश है, ऐसा तो करना, किंतु यह भी करना होगा कि जो औदयिकभाव रागद्वेषादिक परिणाम हैं उनसे निराला एक ज्ञानमात्र जीव है सो इससे हटकर एक जीव स्वभाव के उपयोग में लगना । जब इन विभावों में और आत्मा के स्वभाव में समझ बनाते हैं तो यह समझ स्पष्ट होती है कि इनसे आत्मा का तादात्म्य संबंध नहीं है । ये निश्चय से वर्णादिक पुद्गल द्रव्य हैं, वे जीव के हैं । कहते हैं कि ये दो बातें न्यारी-न्यारी हैं । कोई कहे कि ये रागादिक जीव के नहीं और कोई शास्त्र कहते कि ये रागादिक जीव हैं तो यह तो विरोध वाली बात हो गयी । उत्तर में कहते कि विरोध वाली बात नहीं है ।
212. स्वरूपत: एक का दूसरे रूप होने की गुंजाईश का अभाव―सुख में और दुःख में मोहीजन समता खो देते हैं । बड़े धर्मात्मा बने सो सोचते हैं आत्मा पर बड़ी विपत्ति है, कर्मों से बंधा है, पर यह नहीं सोचते कि आत्मा आत्मा की जगह है और शरीर शरीर की जगह है । आत्मा परपदार्थ के बारे में एक ख्याल बनाता है, उन्हें अपने अधीन बनाये रखने का ही विचार रूप प्रयत्न करता रहता है, इससे आकुलता है । यहाँ यह निर्णय कर लेना चाहिए कि परपदार्थ कब तक आत्मा के साथ रहकर सच्चा हित करेगा? परपदार्थ आत्मा का कुछ नहीं है । दोनों की सत्ता जुदी-जुदी है । ये अनेक विकल्प जो पर के बारे में हो रहे हैं वह आत्मा के साथी कब तक हैं? क्या वह सुख देंगे या निराकुलता पैदा करेंगे ? राग-द्वेष क्या हैं? आत्मा पर आपत्ति आ गई है जो अनादि काल से चल रही है । ज्ञान तो अपना स्वभाव है । रास्ते में कोई चीज मिलती है तो उसके बारे में जानकारी करते हैं, यह क्या वस्तु है? किसकी है? दिख जाये तो अपने को उससे मतलब क्या, परंतु नहीं, जानकारी की उत्सुकता बनी रहती है । प्रत्येक की सत्ता भिन्न-भिन्न है । कोई किसी का परिणमन कर देता है क्या? यथार्थ ज्ञान करने का फल यह अवश्य है कि अज्ञाननिवृत्ति के कारण उपेक्षा भाव जागृत हो जाता है जिससे शांति की धारा बह निकलती है । द्रव्य क्या वस्तु है, उसको जाना जावे । आत्मा द्रव्य है, आत्मा में अनंत गुण हैं । आत्मा में जानने की विशेषता है, वह ज्ञान गुण है, रमण करने की विशेषता है वह चारित्र गुण है । आत्मा में सब गुणों को संभालने की विशेषता है तो वह वीर्य गुण हो गया । अस्तित्व गुण साधारण है । आत्मा में पुद्गल में भी अस्तित्व गुण है । जो अन्य में भी पाया जावे उसे साधारण गुण कहते हैं एवं जो अन्य में नहीं पाया जावे उसे असाधारण गुण कहते हैं । जैसे चेतना गुण जीव को छोड़कर अन्यत्र नहीं मिलता । परिणमनशीलता आदि साधारण गुण हुए ये सब द्रव्यों में मिलेंगे । आत्मा की चेतना कर्म आदि में नहीं पहुंच जायेगी । ज्ञान दर्शन गुण दूसरे में नहीं पहुंचते । आत्मा का गुण किसी दूसरे द्रव्य रूप नहीं बन जायेगा । पुद्गल का गुण अन्य रूप नहीं बन जायेगा । यह अगुरुलघुत्व, यह भी साधारण गुण है । जितनी जगह शरीर है उतनी जगह आत्मा है । आत्मा का प्रदेशत्व गुण साधारण है । आत्मा समझ में आ सकता है । इसका नाम प्रमेयत्व गुण है । कुछ गुण ऐसे हैं जो अन्य द्रव्य में नहीं पाये जाते व कुछ ऐसे हैं जो अन्य द्रव्य में पाए जाते हैं । आत्मा कभी अन्य वस्तु रूप नहीं बनता है ।
213. मिथ्या बोध में क्लेश की हेतुता―आत्मा में जितना गुण जो व्यक्त दिखता है, वह पर्याय दिखता है, अथवा वस्तुत: पर्याय रूप से द्रव्य जाना जाता है । जिस पुद्गल की पर्याय है क्या वह आंखों से दिख जायेगी? पर्यायों का झमेला है । क्षणिक चीज में जीव की रुचि जा रही है वह रुचि आत्मा का अहित करने वाली है । यदि वह रूचि छूट जावे और आत्मा की रुचि बन जावे तो सम्यक्त्व हो जाये । पर की संयोगबुद्धि रखना इसे मिथ्यात्वी कहते हैं । संयोग में जो सुख माना है उसका बाद में कितना दुःख होता है? संयोग में हर्ष मानने वालों को वियोग में नियम से दुःख होता है । यह क्षणिक मेल हो गया है पर नियम से यह मेरे नहीं है । कोई लोग ऐसे होते हैं जो स्त्री के गुजर जाने पर दुःख मानते हैं । इसका कारण संयोग था । जिससे दुःख हुआ उसी का संयोग मोही मनुष्य फिर सोचता है । अगर अवस्था अच्छी हुई तो दूसरा विवाह करने की सोचता है । लोग मिर्च खाते हैं और चरपरी लगने से आँखों में आँसू आ जाते हैं फिर भी वह उसे पुन: भक्षण करता है । अनादि काल के अज्ञान के संस्कार जो चले आ रहे हैं उन्हें वह त्यागने में कठिनाई महसूस करता है । यहाँ दूध पानी की बात बतलाई है, पर उन दोनों में ऐसे तादात्म्य संबंध नहीं है जैसा अग्नि का उष्णता में है । आत्मा का उपयोग गुण आत्मा में है ऐसा अधिक रूप से मालूम पड़ता है जैसा अग्नि में उष्णता । शरीर भी यह अपना नहीं रहेगा सो प्रत्यक्ष देखेंगे यह तो ठीक किंतु वर्तमान में भी अपना नहीं है ।
214. व्यवहार की सीमा में उपयोगिता―अभेद आत्मा को समझने के लिये भेदरूप से भी पहिले समझना आवश्यक है । जीवस्थान चर्चा को पढ़ने में 15 दिन तो उसमें मन नहीं लगता । उसके बाद ज्ञान की लगन लग जावे तो जब भी साधर्मी भाइयों से वे पड़ने वाले मिलेंगे तो अन्य कथाओं को छोड़ इस जीवस्थान की चर्चा करेंगे, उसमें ही रस लेंगे और अन्य पदार्थ की चर्चा नीरस मालूम पड़ने लगती है । भेदरूप से समझकर फिर निरपेक्ष तत्त्व समझो । निश्चय से वर्णादिक पुद्गल में हैं । आत्मा में रूप रस गंध स्पर्श नहीं हैं । जड़ व चेतन में प्रकट अंतर है । भेद विज्ञान के बल से आत्मस्वरूप की दृष्टि को जिन्होंने कर लिया है उन्हें ही सच्चा आनंद आता है । लगन जब लग जाती है तो आत्मा की अमित शक्ति को समझने में देर नहीं होती । इन सबको सुनकर शिष्य प्रश्न करने लगे कि यह कैसे कहते हों कि जीव में वर्णादिक नहीं हैं, फिर अन्य ग्रंथों में जीव के औदारिक, वैक्रियिक, आहारक, तैजस, कार्माण शरीर क्यों बताये हैं तथा देव, नारकी, मनुष्य, तिर्यंच के भी शरीर पाये जाते हैं ? यह सब भी तो वर्णन जैन सिद्धांत में है, इसके उत्तर में यही बतावेंगे कि यह सब व्यवहार से जीव के कहे गये हैं ।