वर्णीजी-प्रवचन:समयसार - गाथा 58-60
From जैनकोष
पंथे मुस्संतं पस्सिदूण लोगा भणंति ववहारी ।
मुस्सदि एसो पंथो ण य पंथो मुस्सदे कोई ।58।।
तह जीवे कम्माणं णोकम्माणं च पस्सिदुं वण्णं ।
जीवस्स एस वण्णो जिणेहिं ववहारदो उत्तो ।।59।।
गंध रसफासरूवा देहो संठाणमाइया जे य ।सव्वे ववहारस्स य णिच्छयदण्हू ववदिसंति ।।60।।
215. दृष्टांतपूर्वक व्यवहारोपदेशविधि का निर्देश―जैसे किसी रास्ते में लुटते हुए रास्तागीरों को देखकर व्यवहारी लोकजन ऐसा कहते हैं कि यह रास्ता लुटता है, किंतु वास्तव में देखो तो कोई रास्ता लूट ही नहीं सकता । इसी तरह जीव के निवास क्षेत्र में एक क्षेत्रावगाह स्थित कर्म और नोकर्मों के वर्ण को देखकर व्यवहार से यह वर्ण जीव का है, ऐसा जिनेंद्रदेव के द्वारा कहा गया (प्रणीत हुआ है) । इसी प्रकार गंध, रस, स्पर्श, रूप, देह, संस्थान आदिक जितने भी भाव हैं वे सब व्यवहारनय के आशय में जीव के हैं ऐसा निश्चयतत्त्वज्ञ पुरुष व्यपदेश करते हैं । 216. सद्बोध से ही सत्य संतोष का लाभ―अपना ज्ञान निर्मल हुए बिना आत्मा का भान नहीं हो सकता और जीव राग-द्वेष करता है, ऐसी मिथ्या कल्पना ही आत्मा में न आवे तो भलाई है । दुनिया कहती है, भगवान सबको देखता है । जब अपना ज्ञान निर्मल होवे तो भगवान के ज्ञान की समझा जाये । क्या भिखारी करोड़पति की संपत्ति को जान सकता है? मलिनज्ञान में भगवान का स्वरूप नहीं जाना जा सकता । ज्ञान सर्वदा जान सकता है ऐसी प्रतीति होने पर रत्नों का ढेर हमारी आत्मा की कौन-सी वृद्धि कर सकता है? रत्नों का ढेर वहाँ कुछ भी नहीं कर सकता । उसके लिए एकांत में बैठकर सोचें―मैंने नरजन्म पाया है वह किसलिए पाया है? भैया ! प्राय: अपनी उमर जितनी बीत गई क्या अब उतनी बाकी रही है, जो समय बीत चुका उसमें कुछ करा क्या? इतनी आपत्ति मिली, दुःख मिले, औरों के तानें मिले, घृणा मिली । इससे क्या लाभ हो रहा है, तथा क्या लाभ होने की उम्मीद है? अब तक मैंने जो दिया, उसमें परिवार से, स्त्री से, पुत्र से, समाज से, मित्रों से कुछ मिला है क्या? कुटुंब में अनेक झंझटें आई, फिर भी हम भूल जाते हैं । ऐसा कोई नहीं होगा जिसे स्त्री से दुःख न मिला हो । बाह्य वस्तुओं से मोह तब तक नहीं छूट सकता जब तक असली आत्मा में आनंद का विश्वास नहीं करेगा । परपदार्थों में सुख नहीं है, यह विश्वास जब आत्मा में जम जाये तब कहीं उनसे निवृत्त होवे । अंतरंग में आनंद का आना और स्वात्मानुभूति का होना यह दोनों एक साथ होते हैं । जिस आनंद के आने पर तीन लोक की विभूति भी तुच्छ मालूम होती है । ज्ञान वस्तुस्वरूप का होना चाहिये । जैसे भौतिक पदार्थों के जानने में उपयोग लगा है, उसी तरह वस्तु के यथार्थस्वरूप को जानने का उपाय करें तो वस्तुस्वरूप का ज्ञान हो सकता है । वस्तुस्वरूप का ज्ञान समझना कठिन नहीं । पहले यह जानना वस्तु कितनी होती है ? जितना एक खंड है उतनी एक वस्तु है । आपका और हमारा जीव भिन्न-भिन्न है वह मिलकर एक नहीं हो सकता । वह अनादि से भिन्न-भिन्न है । उसी तरह दो परमाणु मिलकर भी एकमेक नहीं हो सकते । पिंड रूप होने पर जुदा जुदा है व प्रकट जुदा हो जावेगा । सत्ता न्यारी-न्यारी है ।
217. स्वयं का स्वयं में करतब करने का सामर्थ्य―देखिये पिता अपना परिणमन करता है, पुत्र अपना परिणमन करता है । झोपड़ी में जो आ गया उसे अपना मानने लगा । पाप एक व्यक्ति करता है उसका बाँटने वाला अन्य नहीं होता । अन्याय किया, उसका समर्थन किया, इससे उसने नया पाप और किया । प्रत्येक जीव पाप पुण्यादि स्वयं भोगते हैं । अन्य को सहारा बनाकर सुखी व्यर्थ मानते हैं । लौकिक सुख भी स्वयं से होता है, पर सोचें तो वह सुख सदैव अपने अनुकूल भी रहता है या नहीं । स्त्री प्रेम, पुत्र प्रेम, धन से प्रेम, मकान से प्रेम इत्यादि पदार्थों से प्रेम करना ही कर्तव्य मान रखा है । पर यदि इनका आनंद नहीं मानते, इनमें ही नहीं पगे रहते तो हम करोड़गुना आनंद प्राप्त कर सकते हैं । जो इतने ज्ञान की श्रेणी तक पहुंचे हुए हैं उनके अलौकिक सुख की झलक मोह के नाश से होती है । स्वतंत्रसत्ता वाले तो हैं ही, अब भिन्न-भिन्न पदार्थ को समझ जावें कि चैतन्यमात्र को छोड़कर और सब जड़ पदार्थ हैं । जब ये भिन्न हैं तो मेरा क्या है इनमें? भिन्न-भिन्न जान जाने पर मोह छूटेगा ही । कोई व्यक्ति कहे त्यागी से, हमारे इस बच्चे को क्रोध छुड़ाने का नियम दिला दो, तो वह नहीं छोड़ सकता । क्रोध आने पर मंत्र पढ़ना, क्रोध के स्थान से दूर बैठ जाना, किताब पढ़ने लगना, शीतल जल पी लेना, मिष्ट पदार्थ को मुंह में डाल लेना, गिनती गिनने लगना इत्यादि तो जबर्दस्ती भी किया जा सकता है । क्रोध का त्याग कैसे दिलाया जावे? क्रोध से मेरा ही नुक्सान होता है, इसे मैं अपने पास क्यों आने दूँ, क्रोध मेरा स्वभाव नहीं है इत्यादि विचारों एवं आत्मा कार्यों के द्वारा उससे छुटकारा पाया जा सकता है ।
218. ज्ञान से मोहक्लेश का अभाव―मोह छूटे तो ज्ञान करें यह कहकर ज्ञान में लग जावे तब मोह छूटेगा ही । ज्ञान का आवरण हट जाये, ज्ञान विशुद्ध हो गया तभी वह अनुभव करेगा । भगवान का गुणगान करने से पहले छोटे भगवान बनें । निर्मल ज्ञान हो सो वह भगवान है । लौकिक आनंद के लिए जो कुछ मिला है उसे तो छोड़ें तथा सच्चे आनंद के लिए प्रयत्न किया जाये । लाखों रुपया लगाकर कंपनी खोली, पूर्व में उनका नुक्सान किया । आगे जाकर उनका लाभ मिलेगा ऐसी हिम्मत रखते हो या नहीं । असली जो हमारा स्वरूप है उसके अनुभव होने पर बाह्य पदार्थ का ममत्व होगा क्या? जैसा विषयसुख मिला, इसी तरह निर्बाध यह सुख मिल सकता होता तो चलो वही धर्म था । स्त्री वृद्ध नहीं होवे, वह पहले जैसा ही भाव रखे रहे, बच्चा खिलाने योग्य ही बना रहे, जो इष्ट था वही बना रहे सो होता नहीं, इसी कारण ये आकुलता के कारण हैं, सदा स्वाधीन आनंदमय स्थिति है वह निज की है । वर्तमान स्थिति जो कुछ भी हो उसी में हित का विचार करें, उसके इस विवेक के अनुसार कार्य बन भी सकता है अन्यथा नहीं । रु. 200) माह की आमदनी और बढ़ जावे, आगे और भाव बनेगा, बढ़िया साज समाज जुटाने की इच्छा होगी । या जो दो वर्ष पश्चात् आत्मकल्याण के पथ पर चलने की इच्छा थी, कदाचित् उतने समय में मृत्यु हो गई या स्थिति गिर गई तब कौन सहायक होगा ? अपने-अपने पुण्य के अनुसार कार्य होगा । अपने कर्तव्य को निभाकर स्वतंत्र तो बना जावे । आपकी जो आज स्थिति है उसी में विभाग करके पुरुषार्थ करके परिणति संभाली जावे तो सुखी न हो, यह हो नहीं सकता । जीवन में अन्य कार्य तो सदैव किये और अंतिम कार्य यह करके देखें । इतना सब करके ज्ञान के लिये फकीर बन जावे, छात्र बन जावे, मुझे तो पढ़ना है । जो कर लेवे सो वीर है । चक्रवर्तियों को वैभव छोड़ना पड़ा तब अपनी तो बात क्या?
219. शुद्ध तत्त्व की दृष्टि में विकल्पों का अभाव―शुद्ध तत्त्व की दृष्टि बहुविकल्पों को उत्पन्न नहीं करती, इसलिए शुद्धतत्त्व पर दृष्टि जमाना चाहिए । वैदांतिक लोग ब्रह्म व माया को मानते हैं । बौद्ध लोग आत्मा को क्षणिक मानते हैं या क्षणिक चित्त को मानते हैं । जबकि जैन सिद्धांत ने यह माना “व्यक्तिगत सत्ता में रहने वाला जो सामान्य स्वरूप है वह शुद्ध तत्त्व है” । जैसे आत्मा में, शुद्ध तत्त्व में रहने वाला ज्ञायक स्वरूप चेतनामात्र है, परमाणुओं में रहने वाला शुद्ध पुद्गल तत्त्व है। ऐसे शुद्ध तत्त्व की दृष्टि में अन्य विकल्प नहीं होते । उस जीव के स्वरूप में न क्षायिक भाव है न केवलज्ञान है । जीव के किन्हीं पर्यायों का कहना सामान्य दृष्टि में नहीं आता, द्रव्य दृष्टि में नहीं आता । अध्यात्म शास्त्रों में इसका जितना महत्त्व है वह सर्व वर्णन में नहीं आता यदि नयदृष्टि, द्रष्टा की शुद्धदृष्टि, सामान्य दृष्टि न लगाई जाये । किंतु पर्यायों पर दृष्टि न देना । मैं जो हूँ वह हैं भगवान, जो मैं हूँ वह हैं भगवान । द्रव्य का द्रव्यत्व उतरता नहीं । पर्याय क्षणिक है वह ऊपरी अंतर है । वे विराग यहाँ रागवितान । वे अत्यंत विराग हैं, यहाँ राग का फैलाव चला रहा है । जीव में न संयम है, न तप है, न व्रत है । संयम, तप, व्रतों को अपना मान बैठे तो वह अपने कुछ नहीं । ज्ञानी जीव के चैतन्यस्वरूप अपने आपको अविशेषरूप से अनुभव करने में विकल्प नहीं होते हैं । प्रमाण से अपने को सर्व प्रकार समझ जावें । समझाने के लिये एक वैज्ञानिक पद्धति व एक आध्यात्मिक पद्धति होती है । वैज्ञानिक पद्धति में तो हेय उपादेय की चर्चा नहीं होती, केवल वस्तु का हर तरह से ज्ञान करना मात्र लक्ष्य रहता है । आध्यात्मिक पद्धति वह है जिसमें पर से हटें, निजात्म पर लग जावें । इसमें हेयोपादेय पर दृष्टि रहती है ।
220. देहादि से आत्मा की विविक्तता―जैसे पानी दूध मिले हुए हैं । एक गिलास में पानी और दूध का अवगाह हो गया, इतना हो जाने पर भी पानी का स्वरूप पानी में है, दूध का स्वरूप दूध में है । पानी और दूध मिल जाये तो किसी का यथार्थ स्वाद नहीं, फिर भी वह एक में एक नहीं हुए हैं, दोनों की भिन्न-भिन्न दशा है, स्वरूप एक नहीं हुआ । क्षीर में क्षीरत्व है वह क्षीर में व्याप्त है । सलिल का गुण सलिलत्व में है । पानी और दूध का तादात्म्य नहीं हो सकता । अग्नि और उष्णता में जैसे तादात्म्य है तैसे इसमें नहीं है । अग्नि से गर्मी कब हटेगी जब अग्नित्व हटेगा । एक क्षेत्रावगाही शरीर से आत्मतत्त्व मिल रहा है । शरीर पर गुजरती है उस निमित्तक होने वाली वेदना का अनुभव आत्मा को भी करता पड़ता है । आत्मा सब द्रव्यों से जुदा नजर आता है । अग्नि उष्णता के समान शरीर और आत्मा का संबंध नहीं है । जब कोई मर गया तब हम जानते हैं, इस शरीर में आत्मा नहीं रहा, जीव नहीं रहा, चैतन्य नहीं रहा । जब शरीर जीव का नहीं तो शरीर के वर्णादिक जीव के कैसे हो जावेंगे, यह नहीं कहते कि आत्मा ही शरीरमय था । यह तो हुआ जिनका शरीर उपादान नहीं है उनका कथन, किंतु जो सुख दुःख आदि आत्मा में होते, वह भी जीव के नही हैं । पुद्गल को निमित्त पाकर जीव सुख दुःख भोगता है। निश्चय से तो तरंग ही जीव के नहीं है शुद्धदृष्टि जीव को देखता है केवल रागादिक किसके हैं? जब एकदेश शुद्धदृष्टि है तब कहेंगे पुद्गल के हैं । शुद्धतत्त्व की दृष्टि तब जानी जावे जब सोचे मैं शुद्ध तत्त्व हूँ ।
221. परिणतिजाति का आधार अनुभूति―मैं पुरुष नहीं, मैं स्त्री नहीं, धन नहीं, मैं गरीब नहीं, मैं तो चेतना मात्र वस्तु हूँ । इस प्रतीति से पुण्य भी बढ़ेगा, निर्जरा होगी, पाप का क्षय होगा । यह प्रतीति छूट गई हो तब समझो, मैंने 12 वर्ष पूजन करके, स्वाध्याय करके भी कुछ नहीं पाया । मैं उपयोग गुण करके चेतना मात्र हूँ । जो मेरे नहीं हैं उनमें मैं क्या रति करूं? जिसके ज्ञान में ममता भरी है सो बुद्धू है । इस चेतना दृष्टि में न भाव कर्म का संबंध देखा, न कर्मभाव का संबंध देखा गया तब अपना मर्म पहिचानने में आया । अगर पर्यायरूप ही अनुभव किया कि अन्य भी ऐसा करते हैं तथा दादे परदादे करते आये हैं मैं भी ऐसा ही करूं तो अनादिकाल से जो पर्याय मिलती आ रही है उन्हें कौन आगे टाल देगा? यह है नवीन क्रांति एवं धर्म का पालन । किसी का नाम लेकर बुलाया तो जल्दी ख्याल उठता है, क्या है । क्योंकि वह अपने नाम से सजग रहता है, वह सदैव उस रूप नाम वाला मानता है । इसी तरह चेतना मात्र की प्रतीति समायी रहे तो स्वात्मानुभव नजर में आवे कि मैं तो चेतना मात्र आत्मतत्त्व हूँ, ज्ञायकरूप हूँ । यह धर्म है । तो ऐसे धर्म की दृष्टि रखकर फिर देखो जगत में कोई ऐसी जगह बता सकते हो जहाँ चेतना न हो । चेतना के विचारने में सीमा नहीं आई, चेतना से खाली कोई जगह नहीं, इसी बात को देखकर वेदांत में एक ब्रह्म उल्लिखित हुआ । चेतना मात्र ही प्रतीति हो तो वह है असली कमाई, ऐसा ज्ञानमात्र आत्मा का अनुभव करना सो धर्म है । ज्ञान जिनका बढ़ने को होता है वह बार-बार खाने पीने में समय व्यतीत नहीं करते । ज्ञानमात्र कार्यक्रम बन गया वही हुआ व्रत, तप संयम । फिर भी उन क्रियाओं में अपन की दृष्टि गई तो वह शुद्ध दृष्टि नहीं रही । यही शुद्ध दृष्टि सब सुखों का बीज है । जिसे शुद्ध दृष्टि हुई तो वह गहने भी इतने अधिक नहीं पहनेगा, दूसरों की सेवा करने में अपने भले बुरे की भावना लायेगा ।
222. व्यवहार की अविरोधकता का उदाहरण―जैसे रास्ते में कोई जा रहा, जिस रास्ते में प्राय: चोर लूटते रहते हैं तो लोग कहते हैं कि सेठ जी कहां जा रहे हो? पता भी है कुछ, यह रास्ता लुट जाया करता है । तो भाई रास्ता कितने का नाम है? एक नियत आकाश में जो प्रदेशपंक्ति है उसका नाम रास्ता है । उस रास्ते को कोई लूटकर ले जा सकता है क्या घर पर? फिर क्यों कहते ऐसा कि यह रास्ता लुटता है? कुछ संबंध है, रास्ते में चलते हुए लोगों को लुटा हुआ देखा, उनकी गठरी धन पैसा छुड़ाते देखा तो चूँकि उस रास्ते में वे जा रहे थे और लुटे तो उनके वहाँ निवास रहने मात्र से उपचार करके कहा जाता है कि यह रास्ता लुट जाया करता है । तो यह व्यवहार कथन हुआ कि निश्चय कथन? क्या वास्तव में उस विशिष्ट आकाश से प्रदेशरूप कोई रास्ता लुटा? नहीं । इसी तरह अनुभव में जब हम बंध पर्याय को निरखते हैं तो वहाँ कर्म है, नोकर्म है, उनमें रह रहा जीव भी उनमें रहता हुआ, उनमें उपयोग देता हुआ जीव लुट रहा, बरबाद हो रहा । जब उन देहों का विभावों का आश्रय करके वर्ण आदिक देखे गए तो उपचार से वे वर्णादिक जीव के ही कह दिये जाते हैं, पर निश्चय से जीव तो अमूर्त-स्वभावी है, उसमें उपयोग गुण विशेष है । सो उस जीव के कोई भी वर्ण नहीं है । वर्ण नहीं है इसके मायने और रूप भी नहीं है, रस भी नहीं, गंध भी नहीं, स्पर्शादिक भी नहीं । जितने भी ज्ञान के उपयोगी होने से जो-जो भी वर्णन किये जाते हैं वे सब जीव के नहीं हैं, क्योंकि उनके साथ जीव का तादात्म्य रूप संबंध है । तो जीव वस्तुत: कैसा हुआ? एक शुद्ध ज्ञानमात्र, सहज ज्ञानस्वरूप । इस विकासरूप भी नहीं, जो जान रहे इन परिणमनोंरूप भी नहीं, किंतु इनका आधारभूत जो शक्तिमय चित्स्वरूप है तद्रूप जीव है ।
223 जीव के कैवल्य-स्वरूप के दर्शन का प्रभाव―जीव के कैवल्यस्वरूप को जब देखते हैं तो विदित होता है कि इससे बाहर तत्त्व कुछ नहीं है, वह तो चैतन्यस्वरूप है । ऐसे उस जीव के दर्शन करने का नाम है सम्यग्दर्शन । जैसा स्वयं सहज स्वरूप है उसका अनुभव कर लेना और अनुभव के प्रसाद से फिर जो बात समा जाती है उसके समाने का नाम है सम्यग्दर्शन । जीव के धर्मपालन में इस सम्यक्त्व ने सब कुछ सहयोग किया, इसी ने सबका सम्यक् रूप बना दिया है, इस कारण हर संभव प्रयत्न से जीव के स्वरूप को जानें, इससे ही हम आप सबकी भलाई का रास्ता मिल सकेगा । इस प्रकरण में जीव का ऐसा विशुद्ध स्वरूप बताया जा रहा है कि जिस स्वरूप पर दृष्टि होने से जिसको ‘यह मैं हूं’ ऐसो श्रद्धानपूर्वक जान लेने से संसार की सर्व बाधायें दूर हो सकती हैं । जीव को दुःख का कारण तो केवल भ्रम है । अपने स्वरूप से अतिरिक्त अन्य जो-जो कुछ भी भाव हैं उनको सार मानकर उनमें जो लगाव लग रहा है उतना ही मात्र दुःख का कारण है । यदि बाह्य भावों में उपयोग न लगे और आत्मा का जो सहज स्वरूप है उसकी ओर दृष्टि रहे तो ये सारी बाधायें दूर हो सकती हैं, वह स्वरूप क्या है? तो पहिले बता दिया गया है कि जीव का स्वरूप केवल चैतन्यमात्र है । न तो ये रागद्वेषादिक स्वरूप हैं जीव के और न जो छुटपुट विकास चलते हैं वे विकास जीव के स्वरूप हैं, किंतु जिसका सर्वस्वसार एक चैतन्यशक्ति में व्याप्त हो गया है जीव तो उतना ही है । इसके वर्णादिक कुछ नहीं हैं । रूप, रस, गंध आदिक ये जीव के नहीं हैं, इस प्रसंग में शंकाकार कह रहा है कि―
224. जीव के सहजस्वरूप की परिणमनों से विविक्तता―कर्म के उदय से होने वाले संक्लेश परिणाम औदायिक होते हैं और कर्म के क्षयोपशम से होने वाले क्षायोपशमिक परिणाम होते हैं । ये दोनों भी जीव के नहीं हैं । संयम जो होता है वह भी कषाय के अभाव से होता है । किसी कषाय के अभाव में जो चीज हुई है उसे कहने में दोष तो पहले ही बता दिया है कि यह कषायवान था । निर्मलता के तारतम्यता से संयम के स्थान बनते हैं । संयम के स्थान भी जीव के नहीं, गुणस्थानों में जीव का होना स्वभाव-सा है । किंतु वह भी व्यवहार से है, निश्चय से गुणस्थान भी जीव के नहीं हैं क्योंकि गुणस्थान भी कोई कर्म के उदय से, कोई क्षयोपशम से, कोई क्षय से होता है । 14 जीवसमास भी जीव के नहीं हैं । निश्चय से जीव तो प्रवृति के हैं । उपयोग गुण करके जीव अधिक है । उसमें संयम तक तो ऐसा नहीं है जो अनादि और अनंत तक होवे । करणानुयोग में भी कहा गया है कि सिद्ध भगवान संयम, असंयम, संयमासंयम तीनों से रहित हैं । अनुभागस्थान भी जीव के नहीं हैं । इनमें जीव का कोई तादात्म्य नहीं है । इससे जीव के नहीं हैं । केवलज्ञान केवलदर्शन भी जीव के स्वभाव नहीं । सामायिकादि संयम के संकल्प जीव में आते हैं वह जीव के नहीं क्योंकि वह पैदा होकर नष्ट हो जाते हैं । जो स्वभाव होता है वह जीव का है, अन्य दशायें कोई जीव की नहीं । किसी ने प्रश्न किया जीव का वर्णादि के साथ तादात्म्यपना क्यों नहीं? उत्तर देते हैं ।