वर्णीजी-प्रवचन:समयसार - गाथा 65-66
From जैनकोष
एक्कं च दोण्णि तिण्णि य चत्तारि य पंच इंदिया जीवा ।
बादर पज्जत्तिदरा पयडीओ णामकम्मस्स ।।65।।
एदेहिं य णिव्वत्ता जीवट्ठाणा उ करणभूदाहिं ।
पयडीहिं पुग्गल मईहिं ताहि कहं भण्णदे जीवो ।।66।।
252. पुद्गलप्रकृति से हुई रचनाओं की पुद्गलमयता ―चौदह के चौदह जीवसमास की भी विभिन्न नाम कर्म की प्रकृतियाँ हैं ― बादरनाम कर्म, सूक्ष्मनामकर्म, पर्याप्ति नामकर्म, जातिनामकर्म । इनके द्वारा पुद्गल की रचना होती है, इनके द्वारा बना पुद्गल ही है । दूसरा कर्मों का कार्य शरीर है । इस पर यह जीव इतना मुग्ध हो रहा है । पुराणों तक में उनके रूप रंग, हावभाव आदि को लेकर शरीर का भी कितना विचित्र वर्णन जगह-जगह पर किया गया है? यथार्थ में शरीर मैं नहीं हूँ । यह जड़ है । शरीर से पसीना आता है, बदबू से युक्त रहता है तब भी इसे अनेक विलेपनों से सजाया जाता है । क्या आत्मा में भी पसीना आता है? जीव में तो यह वस्तु नहीं है । अथवा भैया! शरीर को क्या अपवित्र कहें, अपवित्र तो सचमुच रागादि भाव हैं । जीव में राग द्वेष मोह की अपवित्रता नहीं होती तो औदारिक, वैक्रियिक शरीर की वर्गणायें बड़ी अच्छी थी, राग द्वेष से युक्त जीव बना तो ग्रहण की हुई वर्गणायें शरीररूप बन गई, शरीर आदि तो कालकृत हैं । माँस, हड्डी, चर्बी एवं शरीर की धातुएं क्या अपवित्र हैं? पुद्गल में इष्ट अनिष्ट की कल्पना करके पवित्र अपवित्र मान लिया है । इसमें सब राग द्वेष का नाता है । इसने ही सब मलियामेट कर दिया है तिस पर भी मोह नहीं छोड़ा जाता ।
253. मोह संतप्त का भी मोह छोड़ने में अनुत्साह―एक वृद्ध पुरुष था, उसके नाती पोते बहुत से थे । वह सब बुड᳭ढे को कोई मुक्का मारता, कोई मूंछ पटाता, कोई मलमूत्र भी ऊपर कर देता, अपशब्द कहते आदि । यह कृत्य प्रतिदिन चालू था । वहाँ से एक साधु निकला उसने ठहरकर वृद्ध से कहा क्यों रोते हो? वृद्ध बोला बच्चे मारते पीटते, गाली बकते हैं । साधु ने कहा, यह दु:ख तो अभी हाल मिट जायेगा । वृद्ध बड़ा खुश होकर कहने लगा इससे और अधिक क्या चाहिए “सूर माँगे दो आखें ।” तब साधुजी ने कहा इन सबको छोड़कर हमारे साथ चल दो । इस पर वृद्ध उत्तर देता―साधुजी हमारे वह पोते हैं हम उनके बाबा हैं, मारते जरूर हैं दुःख होता है किंतु हम उनके मुँह से बाबा कहना सुनकर खुश भी तो होते हैं । वह हमारे पोते तो नहीं मिट जावेंगे । दूसरा उपाय बताओ । जीव को कितनी आपत्ति लगी है? जो पदार्थ राग-द्वेष का कारण बनता है उसी के प्रति यह अज्ञ प्राणी आकर्षित होता है । धन इतना हो गया, इतना और चाहिए इस तरह के विकल्पजाल सदैव बुनता रहता है । इन परपदार्थों से न निजी हित सधता है और न बात बनती है । फिर भी उसी कीचड़ में लिप्त होना चाहता है । भगवान महावीर स्वामी की स्तुति करते समय महावीराष्टक में कहा है:―“महामोहातङ᳭क-प्रशमनपराकस्मिकभिषग् । निरापेक्षो बंधुर्विदितमहिमा मंगलकर: । शरण्य: साधूनां, भवभय-भृतामुत्तमगुणो । महावीर-स्वामी नयनपथगामी भवतु मे ।।” जो महामोहरूपी आतंक को नष्ट करने में आकस्मिक वैद्य हैं, भगवान् महावीर स्वामी एक आकस्मिक वैद्य हैं, निरपेक्ष बंधु हैं, भवभयधारी साधुवों को एक शरण्य हैं ऐसे महावीर स्वामी नेत्रपथगामी रहो । यहाँ प्रभु में मोह उजाड़ने की विशेषता पहिले कही, वे थे बालब्रह्मचारी याने कुमार-वैरागी ।
254. कर्मविपाक का विचय―कदाचित ज्ञान भी हो जाये तो भी मोह की बात कह जाता है । कोई मौलिक अविरक्त मरते समय कहता है, तुम हमारे कुल की लाज रखना । राग द्वेष रूपी मोह झट से पिंड नहीं छुड़ाता, अपने आपको अनुभव भी करते हैं फिर भी कहते लाज रखना । परपदार्थ को दुःख का कारण जानने पर तथा अपनी सत्ता स्वतंत्र अनुभव करने पर भी पर की परिणति से अपना दुःख परिणमन बनाते हैं । पहले के भ्रम से फिर भी भ्रम को प्राप्त होते हैं । साधु होकर उपशम श्रेणी चढ़कर वीतराग बनकर भी 11वें गुणस्थान में पहुंचकर भी अर्ध-पुद᳭गल परावर्तन काल तक मिथ्यादृष्टि रहता है । कहाँ 11वें गुणस्थानवर्ती और कहां अपन इन दोनों की असावधानी में अंतर देखो―वे हमसे बहुत उच्च हैं फिर भी हम और आप कितने पर्यायों से ऊंचे उठे हुए हैं । यहाँ कोई यह न सोचे कि हम तो धनी हैं, ज्ञानी है, व्रती हैं, हमें अपराध करने पर भी कुछ सहूलियत मिल जावेगी । यहाँ धनवानों को दंड मिलने में कुछ सहूलियत मिल जाती है । किंतु क्या वह अधिक पापमय प्रवृत्ति भी करते रहें और उन्हें कम बंध होगा ? यह नहीं हो सकता । निमित्तनैमित्तिक संबंध अनादिकालीन है, इसकी बात सब पर एकसी गुजरती, अधिक अपराध करने वाला भी लोक में तो वह अपराधी माना जाने से दोषी सिद्ध हो चुका । व्यवहार में लोक दंड कुछ होता रहे ।
255. करनी का फल―एक जंगल में फकीर रहता था । वहाँ एक सेठ का लड़का सोने हीरा आदि के आभूषण पहने पहुंच गया । उस फकीर साधु की नियत बिगड़ गई तो उसने लड़के के सब गहने उतार लिए और गला घोंटने लगा । तब बच्चा बोला―साधु जी इतना अन्याय मत करो । साधु ने कहा―यहाँ कौन देखता है? तब लड़के ने कहा, ये बुलबुले जो उठ रहे हैं पानी के वे तेरे पाप की बात को कह देंगे । साधु हंसने लगा तथा उसकी जीवन की लीला समाप्त कर दी । बड़े आदमी का लड़का होने से खोजबीन की गई । कहीं पता नहीं चला । तब एक खुफिया पुलिस गुप्तचर सिपाही साधु के पास भक्ति दर्शाता हुआ रहने लगा । बड़ा विश्वास जमा लिया । 1 वर्ष बाद पानी गिर रहा था । पानी में बुलबुले उठ रहे थे । उन्हें देखकर साधु को हंसी आ गई तब गुप्तचर ने पूछा―आपको हंसी किस कारण से आ गई है? साधु ने सोचा यह एक वर्ष से सेवा कर रहा है बड़ा भक्त है अत: कहने में क्या नुक्सान है? साधु ने लड़के को मारने का सर्व वृतांत कह सुनाया । गुप्तचर ने सूचना पुलिस में दे दी और साधु पकड़ा गया । कोई सोचे प्रच्छन्न पाप है कौन देखता है ? कौन क्या कहेगा, यह सोचना निरर्थक है । क्योंकि सर्वप्रथम तो, अपने पापों को अपनी आत्मा ही देखती है । जो जैसा कर्म करेगा उसे फल नियम से भोगना पड़ेगा । प्राय:कर प्रत्येक गांव में अपरिचित मनुष्य आदमी कहने लगते―यह फलाना गांव है यहाँ फूंक-फूंक कर पाँव रखना । मानों यह कह कर डराते हैं । यह संसार है इसमें विवेकपूर्ण कार्य करना । जैसी करनी की है उसके अनुसार परिणति बनेगी । आत्मा को विकल्प का कारण निरर्थक में बनाया है । बाह्यपदार्थ का संग करना अशांति का कारण है । यह तो संसार जुवारियों का निवास है, पुण्य में हर्ष व पाप में दुःख की जीत-हार है । जुआ खेलने से कोई जुआरी हटना चाहे तो दूसरे साथ के जुआरी हटने नहीं देते, कहेंगे ऐसे खुदगर्ज हो जीत कर चले । कोई हार जाये तो कहेंगे बस इतना ही दम है सो खेलने में फिर जुटा देंगे । वहाँ से हारने व जीतने वाले दोनों नहीं आ पाते जब तक सब तरह से बर्बाद नहीं हो जाते । प्रत्येक जीव जुवारी है । पुण्य में जीतना मानता है, पाप में हारना मानता है । पुण्य के फल में हर्ष और पाप के फल में विषाद करता है । सुख दुःख मानने वाला यह जीव ही है । किसी को मालूम हो जाये कि यहाँ से निकल भागना चाहिए फिर भी अन्य साथी रोक लेते हैं और यह अपने हित से वंचित रहता है । चींटी चढ़ते-चढ़ते छत से गिर गई तो चढ़ना निरर्थक रहा । धर्म करते-करते अंत मरण समय में बिगड़ गये तब सब प्रयास प्रयोजनभूत नहीं हो पायेगा ।
256. कषाय के शमन में धर्मवृत्ति का जागरण―गुरुवर्य श्रीमद् गणेशप्रसादजी वर्णी कथा सुनाया करते थे । दो भाई थे । उनमें छोटा भाई पूजन करे तथा बड़ा दुकान संभाले । छोटा भाई बड़े भाई से कहता―तुम न पूजन करो, न अन्य धार्मिक कार्य । तब बड़े भाई ने उत्तर दिया―मेरे भी तो कुछ अच्छे परिणाम होंगे तभी तो तुम्हें पूजन करने की अनुमति दी है । छोटे भैया के मरने का समय आया तो बड़े भैया से बोला ये नन्हें मुन्ने तुम्हारी गोद में हैं तब बड़े भाई ने कहा― अरे बेवकूफ ! यही धर्म किया और बोला इस धन में से जितना दान धर्म करना चाहे कर ले और चाहे सारा धन बच्चों को लिख दे मैं तो एक कुटी में ही रह जाऊंगा । इस पर छोटे भाई ने सोचा―घने दान के विकल्प में क्यों पडूं ? मेरा तो सचमुच आत्मा ही मात्र है । उसने ज्ञान संभाला और बड़े भाई से समाधिमरण के द्वारा मनुष्य जन्म सफल किया । मोह के शमन में यही बात रहती है । जो ज्ञानी है उनकी सब क्षणों धर्म में वृत्ति ही रहेगी । इन जड़ पदार्थों की रति में पांडवों कौरवों को क्या मिला? राम, रावण के बारे में आज यह भी नहीं मालूम कि कौन-सी लंका थी, कौन-सा दंडक वन आदि । संयुक्तानां वियोगश्च भविता हि वियोगत: । किमन्यैरंगतोप्यंगी निःसंगो हि निवर्तते ।। वियोग होने वाले के संयोग का निश्चय नहीं है । संयोग का वियोग नियम से होता है । वियोग दु:ख का कारण है । संयोग में जो सुख मानते उसी में दुःख है । 8 कर्मों का संयोग हो गया क्या मिला? भोगभूमि में पुरुष स्त्री एक साथ पैदा होते और आयु पर्यंत भोग-भोग कर मरते हैं । किंतु उन्हें तीसरा स्वर्ग भी नहीं मिलता । दूसरे स्वर्ग से आगे भोगभूमियाँ के जीव नहीं जा सकते । जहाँ वियोग है, क्लेश है, उस भूमि के मनुष्य भी दुःख पाते, भूख प्यास यह सब देह के संयोग से होते हैं । अगर यह कर्म आत्मा से छूट जावें तो सुख ही सुख है । सुख दुःख और आनंद तीन परिणतियाँ हुआ करती हैं । सुख का अर्थ है इंद्रियों को सु माने सुहावना लगे तथा दुःख का अर्थ है यहाँ ख माने इंद्रियों को दु: याने बुरा, असुहावना लगे । ये दोनों विकार हैं, आकुलतारूप हैं । परंतु आनंद अनाकुलतारूप है । इसका अर्थ है आ समंतात् ननंद: आनंद: । जो सब ओर से समृद्ध बना । वह आनंद है । मेरा आनंद मेरी आत्मा में है । वीतराग प्रभु की शरण मिल रही यह बड़ा अच्छा सौभाग्य है पर इसकी रफ्तार बनाना है । भेद विज्ञान को बढ़ा कर, रुचिपूर्वक चाव से एवं उत्तम वृत्ति से धर्म करो ।
257. आत्मा का परमार्थ और व्यवहारस्वरूप―पर्याप्त, अपर्याप्त बादर सूक्ष्म पुद्गल की पर्यायें हैं । यह शास्त्रों में कहा है । फिर भी वह भी शास्त्र है, यह भी शास्त्र है । यहाँ निरपेक्ष दृष्टि से देखो वस्तुस्वरूप में यहाँ वहाँ की बात न मिलाकर सही लक्षण कहो । एक का उपचार अन्य में न करके वास्तविक बात बताओ । जीव आनंदघन है, आनंद का पुंज है, अपनी शक्तियों में तन्मय बादर सूक्ष्मादि देह हैं, इनमें जीव की संज्ञा का कहना उपचार है । जीव की बात जीव में है । पुद्गल और जीव का निमित्त-नैमित्तिक भाव संबंध है । एक अच्छे कुल का लड़का अच्छे आचार विचार से रहता हुआ कभी कोई खोटी संगति में आ गया, तथा उसके बारे में अनेक चर्चायें चलें तब भी उसके निजीबंधु कहते हैं, इसमें उसका दोष नहीं है किंतु अमुक व्यक्ति की आदतें इसमें आ गई हैं । इसमें न राग है और न द्वेष, संगति से जीव में यह विकार आ गया है । मैं कितना शक्तिशाली हूँ, अलौकिक ज्ञान का पुंज हूँ, सिद्ध समान हूँ । जैसे सिद्ध का द्रव्य है, वैसा मेरा भी द्रव्य है । जिन उपायों के द्वारा वह सिद्ध बने उन्हीं से मैं भी बन सकता हूँ । परिणतियां निर्मल बनाऊं तो क्यों नहीं उस उत्कृष्ट पद को पा सकता हूं? मैं वह हूँ जैसा प्रभु हैं । जो सम्यग्दर्शन-ज्ञान-चारित्र के पथ में चलेगा वह मुक्ति के पथ में क्यों नहीं पहुंचेगा? जरूर पहुंचेगा । मिथ्यादर्शन-ज्ञान-चारित्र के फंदे में पड़कर संसार में रुकना ही पड़ेगा । शुद्ध स्वभाव की दृष्टि करके मोक्षपथ में चलना ही पड़ेगा । एक स्थान पर लिखा है, तुम्हारे सामने एक खल का टुकड़ा रखा है तथा एक रत्न रखा है तुम इनमें जो माँगो वह मिल जायेगा । अगर वह खल का टुकड़ा ही मांगने लगे तो उसे क्या कहा जाये? वही रत्न पाने से वंचित रहेगा । एक ओर मोह राग द्वेष है और एक ओर मोक्षमार्ग है । आजादी ही है तू जिसे चाहेगा वह मिल जायेगा । यदि वहाँ कोई राग-द्वेष विषय कषाय लौकिक सुख ही मांगने लगे तो क्या किया जाये? वही मोक्षमार्ग माने शांतिपथ से वंचित रहेगा ।
258. जीव में भाव का ही कर्तृत्व―भैया! पर की तो चाह ही चाह बनाई जाती है । पर का कोई कुछ करता थोड़े ही है । इसका कारण यह है कि प्रत्येक पदार्थ सब अन्य द्रव्यों से जुदा है । जीव सिवाय अपने मतलब के करता क्या है । कोई धर्मकार्य भी करता है, मंदिर बनवाता है, प्रतिष्ठा कराता है आदि तो केवल अपना पथ या अन्य कुछ आगे चाहता है, इसमें केवल उसने अपना भाव किया । विषय कषाय के साधन जुटाये तो अपना भाव किया । बच्चे जब खेल खेलते समय पंगत करते हैं तब पत्ते तोड़ लेते हैं । और बड़े पत्ते को पातल बनाकर परोस लेते हैं तथा छोटे पत्तों की पूड़ी व पत्थर ईंट के टुकड़ों में लड्डू बर्फी आदि की कल्पना कर परोसते हैं तथा गरीबों के बच्चे उन्हीं में रोटी की कल्पना करते तथा गुड़ के टुकड़े की कल्पना करके परोसते हैं । यथार्थ में जिसको जो भाव मिलता आ रहा है वह उसी रूप अन्य पदार्थों को समझता है । यही दशा हम संसारी प्राणियों की हो रही है, अनादि काल से संसार में रहने से उसकी बात ही प्रिय लगती है, उसी की ओर जल्दी दृष्टि दौड़ जाती है । गरीब का लड़का क्यों नहीं बढ़िया से बढ़िया लड्डू पुड़ी की कल्पना कर लेता है ? संस्कारबद्ध मूल हो चुके, जब उसे स्वादिष्ट पदार्थ का रस मिलने लगेगा तब वह उसी रूप बर्ताव करने लगेगा । लोक में देखा जाता है―गरीब लड़का पढ़कर ऊंचे पद पर आसीन होने से पैसा वाला होकर एवं सभ्य तथा धनाढ्य समाज में रहकर उन्हीं जैसा खाने पीने कपड़े पहनने आदि में बर्ताव करने लगता है । प्रत्येक जगह हम भाव ही तो करते हैं तब वह कार्यरूप में परिणमते हैं । मान लो एक शत्रु है, उसने बहुत अन्याय किया तथा मारने पीटने की धमकी दी । हम उस शत्रु का बदले में बुरा भला न कहकर तथा न बदले की भावना रखकर प्रेमपूर्वक बर्ताव करें और कहें मैंने आपका कसूर किया था इसीलिए आपको अपने परिणाम बिगाड़ना पड़े, अब मेरे प्रति साम्य भाव रखें, इस प्रिय वचन से उसे भी संतोष होगा तथा अपने लिए भी हर्ष रहेगा तथा परस्पर प्रेम बढ़ेगा । मनुष्य की पहचान बोली से होती है । मुख तो एक धनुष है । धनुष से जैसे बाण घाला जाता है उसी तरह मुखरूपी धनुष को फैलाकर वचनरूपी बाण निकाला जाता है । बाण चलने पर उससे कोई हाथ जोड़कर कहे तुम लौट आओ, भूल से दूसरे पर छोड़ दिया तो यह सब कहना निरर्थक जायेगा । इसी तरह वचन मुख से निकलने पर कोई कहे हमारी बात हमें वापिस कर दो । तो जिसको अपशब्द कहा जाता है वह कहता है “पहले तो जूता मार लिए । फिर कहते माफी दे दो ।” बड़ेपन की कसौटी वचन ही है । जिससे खुद सुखी रहते तथा अन्य भी सुखी रहते हैं ।
259. कटुवचन के प्रयोग से अनर्थ―एक समय लकड़हारा लकड़ी बीनकर जंगल विश्राम कर रहा था । इतने में एक शेर जिसके पैर में कांटा लगा था आया, लकड़हारा डरा किंतु शेर ने कहा डरो मत और आकर पैर उसके सामने रख दिया । लकड़हारे ने चतुराई से कांटा निकाल दिया । इससे शेर बड़ा प्रसन्न हुआ और कहने लगा, लकड़ी हमारी पीठ पर रख दो । इस तरह लकड़हारा सिर पर 20-25 सेर लकड़ी लाता, 2-2।। मन तक शेर के पीठ पर लाने लगा जिससे वह खूब धनवान हो गया । एक दिन किसी ने पूछा―आप इतने जल्दी धनवान कैसे हो गये? लकड़हारा बोला एक नालायक गीदड़ (स्याल) उल्लू हाथ लग गया, उस पर लकड़ी लाता हूँ । सिंह यह बात सुनकर अनमना हो गया । अब फिर से उसने तीन मन लकड़ी इकट्ठी कर ली थी । सिंह इस दिन भी वहाँ आया और बोला―जो कुल्हाड़ी आप अपने हाथ में लिए हो वह मेरे सिर पर मार दो, नहीं तो मैं तुम्हें मार दूँगा । अब तो लकड़हारे ने अपने प्राण संकट में पड़ते देख कुल्हाड़ी मारने को तैयार हो गया सिंह ने भी गर्दन टेक दी और लकड़हारे ने कुल्हाड़ी का प्रहार कर दिया । तब अर्धमृतावस्था में सिंह बोला―इतना मुझे तेरे द्वारा इस कुल्हाड़ी मारने का दुःख नहीं है जितना दुःख खोटे वचन मेरे प्रति बोलने का है । कुल्हाड़ी की धार तो सह ली किंतु वचन बाण की धार नहीं सह सका । धर्म की ओर आगे बढ़ने वाले को प्रिय वचन तो बोलना आवश्यक ही है क्योंकि जो किसी को कठोर वचन कहेगा उससे उसका दिल दुखेगा, जिससे हिंसा पाप का भागी होगा । मौन का लक्षण है, मौन मुनेर्भावः मौनम् । मुनि के जैसा भाव जिसका हो वह मौन है । मुनि के लिये अहिंसा, सत्य, अचौर्य, ब्रह्मचर्य और अपरिग्रह महाव्रत तथा गुप्ति इंद्रिय-विजय एवं परिषह जय आदि कई बातें बताई हैं । किंतु मौन की उन सबमें चुपचाप रहने की प्रधानता ही है । यद्यपि जितने मुनि के काम हैं उन्हें मौन कहते हैं । तथापि कम बोलना प्रिय वचन बोलना चुप रहना आत्मकल्याण के अति निकट है । अत: मौन की प्रसिद्धि यहां हुई । जो बोली को सुधारकर उत्तम वचन बोलता है वह लौकिक कार्यों में भी सफलता पाता है ।
260. वचन से भले बुरे की पहिचान―कहीं राजा, मंत्री और सिपाही जा रहे थे । वे सब रास्ता भूल गये । रास्ते में एक अंधा बैठा था । सिपाही अंधे से पूछता है, क्यों रे अंधे ! यहाँ से कोई निकला है ? उस ने कहा, सिपाही जी नहीं । इसके बाद मंत्री आया, उसने कहा ए सूरदास ! इस तरफ से कोई निकला है ? कहा ― हां, एक सिपाही निकला । दोनो के बाद राजा आया तो कहता है―सूरदास जी ! यहां से कोई निकला है ? वह कहता है ― हाँ राजा जी ! पहले सिपाही निकला था, बाद में मंत्री साहब । जब तीनों मिल गये तो कहा, वह तो अंधा था उसने कैसे बता दिया कि सिपाही व मंत्री निकले हैं । तीनों ने कहा अंधे से चलकर पूछना चाहिए । तब उससे कहा―सूरदास जी ! आपने हम तीनों को कैसे पहिचान लिया था ? तो सूरदास ने बताया―जिस व्यक्ति ने क्यों रे अंधे कहा था वह सिपाही था? क्योंकि सिपाही की जितनी योग्यता होती है वह उसी तरह बोलेगा । इसके बाद ऐ सूरदास कहने वाले मंत्री थे तथा सूरदास जी कहने वाला राजा था । तीनों का अनुमान मैंने उनकी बोली बोलने से लगाया है । सफर में जब एक दूसरे से बात होती है तो सज्जन, दुर्जन, विद्वान, धनवान आदि का पता चल जाता है । अध्यात्मिक विकास के लिए बोली बड़ी प्रिय व्यवस्थित बोलना चाहिए ।
261. भाषाव्यवहार―बोली जीव का गुण नहीं है । मैं भाषा का कर्ता नहीं, मैं केवल भाव ही कर सकता हूँ । मैं तो आत्मप्रदेश वाला हूं, आत्मा और शरीर एक जगह इकट्ठे हो रहे हैं । भाषा पुद्गल की वर्गणायें हैं । मुंह में वायु का संचार होते ही यथा स्थान जीभ, ओंठ, दाँत, तालु चलाने से अक्षर निकलते हैं, जो भाषारूप परिणम जाते हैं । यह मुँह हारमोनियम से कम कार्य नहीं करता । एक विलायती बाजा आता है जिसका बटन दबाने से अपने अनुकूल भाषा निकाली जा सकती है । उसी तरह अपना जैसा भाव होगा वैसी बात मुंह से निकलेगी । भावों का बोली में केवल निमित्त-नैमित्तिक संबंध है । सबको मूल भाव का अच्छा बनाना है । भाव अच्छा नहीं बनाया तो बोली अच्छी कैसे निकलेगी? मन की कषाय हटाने पर प्रिय वचन मुंह से निकलेगा । व्यवहार में भी अच्छा वचन बोलने से दूसरों के द्वारा आदर पाता है । लोक में परीक्षा भी वचनों से होती है । अध्यात्म में भाव अच्छा बनाया जावे जिससे आत्मोन्नति के पथ पर सुलभता से पहुंच जाओगे । निर्मल भाव बनाने के लिए किसी से कुछ ऋण नहीं लेना पड़ता, किंतु वह आत्मा की एक आवाज होती है जो दूसरों के लिए अपनी मुहर (सील) होती है । इस मुहर का प्रयोग करना, वचन बोलने वाले पर निर्भर है । वह चाहे श्रेष्ठ मुहर स्थापित कर लेवे अपनी या भद्दी प्रिय वचन सब जनों के लिए अमृत का कार्य देते, जब कि कटु वचन जहर का कार्य करते हैं । जहर तो एक ही समय प्राण हरता है किंतु खोटा वचन हमेशा खटकता रहता है । भव-भव में वैर बांध लेने का कारण भी कटु वचन हो जाता है ।
262. देहविविक्त अंतस्तत्त्व के आश्रय में कल्याणलाभ―जो यह देह नामकर्म की प्रकृति से निर्मित हुआ है वह जीव नहीं है । उसी तरह शरीर, संस्थान, संहनन इत्यादि भी पुद्गलमय नाम प्रकृति से रचे गये हैं । इससे ये भी जीव नहीं हैं । जब जीव एक इस शरीर से मुक्त होता है तो जो तैजस कार्माण सूक्ष्म शरीर है वह अन्य शरीर के ग्रहण का कारण बनता है । अपने से अतिरिक्त अन्य भावों का रहना दुःख व क्लेश है । एक भ्रम ही क्लेश है । जैसे कहा करते हैं ‘तिल की ओट में पहाड़’ । एक तिल की ओट में पहाड़ न दिखे यह कैसे संभव हो सकता है? अगर चक्षु के गोलक में रहने वाले रत्न के सामने तिल लगा दिया जाये तो पहाड़ नहीं दिखेगा । अज्ञान से भी यही दशा हो रही है । यह मेरा, यह तेरा―इस तरह नाना बातों के जाल बनाता है । किंतु एक जो अपने से प्रयोजन है उसे स्मरण नहीं करता । अपनी-अपनी कषायों के अनुसार जीव परिणम रहे हैं । मेरा कौन सुधार करेगा, इसे भूल चुका । इसका कोई साथी नहीं है । फिर क्यों पर-पदार्थों की ओर आकर्षित होकर भूल रहा है, मेरे लिए संसार से चाहिए क्या? जिससे मेरा उपयोग मुझमें रमे यह जानकर उसी का आश्रय लेवे । फिर अन्य कोई मेरे बारे में कुछ भी धारणा बनावे तो मेरी क्या हानि है? अपने आपका बल करके आत्मा का आश्रय मिलेगा, कर्मों को झड़ना ही पड़ेगा, मैं कर्मों की निर्जरा करूंगा, मुक्ति के समीप पहुंचूंगा जिसका यह निश्चय हो गया है वह उस तरह ज्ञान के दृढ़ कार्य भी करेगा । जो चक्षुओं से प्रतीत हो रहा है वह मैं नहीं हूँ इन इंद्रियों का ज्ञान इन्हीं इंद्रियों को नहीं हो पाता । अपनीं ही आंख अपनी आंख को नहीं देख पाती, यही बात बाकी की इंद्रियों में है, अन्य को जानती रहेंगी । मामूली बातों में भी बहिर्मुखता का पाठ खेला जा रहा है । अत: बाहरी पदार्थों में बुद्धि शीघ्र दौड़ जाती है । इस समय अपन को सब ओर से मुख मोड़कर चित्त एकाग्र कर अपने पर दृष्टि जमाई जावे तो भान होगा―मैं क्या हूं?
263. ज्ञानी की ज्ञानदृष्टि की आकांक्षा―मैं हूँ जो परमात्मा है, इस प्रतीति से शांति आवेगी । जब तक परपदार्थों से रुचि है, लगन है तब तक भगवान का उपदेश है कि संसार से नहीं छूट सकोगे । आत्मभगवान का आलंबन मुक्ति का मार्ग है । इस तरह के भी मुनिराज हुए हैं जो तुषमात्र भिन्न मानकर अपने भेदज्ञान के आलंबन से केवलज्ञानी बन गये । यह अमूल्य निधि अपने आप मिल गई किंतु अपनी ओर झुकाव होना चाहिए । धन वैभव आदि से क्लेश ही मिलेगा । कदाचित् आयु पूर्ण होने पर देव हो गये तो वहाँ भी परपदार्थों में रुलना होगा । देवांगना मिली, अनेक भोगोपभोग सामग्री मिली तथा अपने से अधिक वैभव युक्त देवों को देखकर ईर्ष्या की अग्नि में जलता रहा, वहाँ से भी कुचकर जाना होगा । लेकिन एक निज ज्ञानस्वरूप को नहीं भूले । एक निज का आनंद रहा तो सर्वश्रेष्ठ है । इसको छोड़ करोड़ों की संपत्ति भी मिली तो उस वैभव से शांति तो आ नहीं सकती । किंतु निज स्वरूप पर दृष्टि रहे तो दरिद्र होते हुए भी श्रेष्ठ है । सब संसारी जीव शरीर से बंधे हुए हैं किंतु अनुभव शरीररूप नहीं होवे उसमें राग न रहे । ऐसा हे आत्मन् । भगवान सिद्ध के समान बड़ी प्रभुता वाला, बड़ा साम्राज्य वाला अपने को अन्य-अन्य रूप अनुभव कर लेने से बंधन में पड़ा है । भगवान का नाम नहीं छूटे । मरण समय में भी ‘जिन’ ऐसे दो अक्षरों का स्मरण रहे । भगवान की उपासना जिन के स्वरूप का और निज के स्वरूप का स्मरण रहे, यह ज्ञानी जीव चाहता है । देह जीव नहीं है, देह पौद्गलिक है । जिसके द्वारा यह रचा जाता है वह उसी रूप होता है । सोने या लोहे से बना पदार्थ उसी रूप होता, नाम प्रकृतियों से निर्मित यह देह उसी रूप जड़ होता । चांदी की तलवार को सोने रूप देखते हैं क्या? यह सब नाम प्रकृति से रचा गया है । यह सब वर्णों का समूह पुद्गलों का एक मंडन है । यह पुद्गल है सो पुद्गल ही रहेगा । शरीर रूप रस गंध वर्ण से युक्त है वह आत्मा नहीं है । आत्मा पुद्गल से नहीं रचा है । आत्मा आत्मा है । शरीर माने बदमाश । यह अनेक कल्पना-जालों को बिछा दुःखी होता है । मोही जीव अपने अधिष्ठित शरीर से भारी मोह करता है, किंतु निकट समय में छोड़कर जाना होगा और शरीर यहीं जला दिया जायेगा । आत्मा को शरीर से जुदा समझते रहें यही तो एक मित्र है ।
264. पर में इष्टत्व अनिष्टत्व का अभाव―दुनियावी मित्र तो ऐसे हैं कि जिसकी कषाय से मेल खा गया सो मित्र हो गये । एक लड़के का सिनेमा देखने का भाव हुआ, पड़ौसी के लड़के को भी साथ लेकर दोनों हाथ मिलाकर बातें करते हुए पहुंचते हैं, यहाँ समान कषाय भाव था तो मित्र हो गये, किसी की इच्छा के विपरीत चले, तो शत्रु ही होगा तो मित्रता यह है जिसकी कषाय से कषाय मिल जाये । धर्म में भी दूसरों की देखादेखी रहती है मैं भी उसके समान धर्म करूं―यहाँ भी कषाय समान मिलाई गई । मेरा तो कोई मित्र है नहीं, यहाँ तो परिणतियों ने मित्र शत्रु बना डाला । अपने से विपरीत प्रतीत होने या कल्पना में शत्रु बन गया । शिकार खेलने वाले जंगल में जावें और वहाँ साधु मिल जाये तो वहाँ शिकार न मिलने से साधु को बुरी दृष्टि से देखते और शत्रु मानते हैं । लेकिन वहाँ दुश्मन कोई नहीं है । मेरे भाव के विपरीत मिला तो उसे शत्रु मान लिया, यथार्थ में शत्रु है नहीं, कषाय के विकल्प ने मान लिया है । इसी तरह बंधु भी वास्तव में कोई नहीं । एक मनुष्य धनी आदमी के यहाँ पंगत में गया । वह पुराने, मैले फटे कपड़े पहने था । वहाँ उसे भोजन करने को भी किसी ने नहीं कहा । क्योंकि वहाँ तो अच्छे-अच्छे कपड़े पहने सूट, कोट, टोप, घड़ी आदि से सुसज्जित व्यक्ति भोजन कर रहे थे । यह देख वह घर वापिस चला गया तथा वह घर से बढ़िया पेंट, कमीज, टोप पहनकर आ गया । उसे देखकर बोले―आइये भोजन कीजिए, पत्तल परोसकर भोजन परोसा । तब वह व्यक्ति लड्डू उठाकर टोप से कहे―ले टोप खा ले, हे कमीज ले तू यह बर्फी खा ले, पेन्ट ले तू भी खा ले । यह देख दूसरे मनुष्य ने कहा, भाई यह क्या कर रहे हो? वह व्यक्ति कहता है आप लोगों ने जिसको आदर सत्कार से बुलाया उसे खिला रहा हूँ । आपने तो कपड़ों का आदर किया है । मुझे तो आपने नहीं पूछा था, मैं तो कल भी यहाँ से गुजरा था आप लोगों ने बात भी नहीं की । यहां भी भैया ऐसा हाल है । चैतन्य मात्र जीव की खबर कौन लेता है ? सब पूंछपांछ इन देहों की हो रही है । हाँ बात है कि जीव के रहते हुए देहों की हो रही सों वहाँ भी तो मनुष्य के होते हुये कपड़ों की पूछ हो रही थी । खाली कपड़ों को कौन ऐसा कहता? मैं अपने पर क्यों प्रभाव रहने दूं यह सब कर्मकृत ठाठ है । मैं अपने आपको न इसमें फंसाऊं यही भाव निश्चय से मित्र है । जिस जानकारी में चल रहा हूँ वह भी मेरा मित्र नहीं है, न मैं हूँ । मैं एक अनादि अनंत चेतना तत्त्व हूँ । अपने को उपयोग में लगावे तो सब झगड़े मिट जावेंगे । यदि संग न भी छोड़ सके तो वास्तविकता तो जानता रहे । वहां भी अपने को खेद के साथ कोई बोले तो विषाद होता है तो वह आगे भी बढ़ता है, मात्र शुष्क ज्ञान से कुछ नहीं होगा । अन्य मतावलंबियों ने कहा ईश्वर ने ऐसा किया है । अपने यहाँ कहते, चारित्रमोहनीय का फल है । घर में रहना, मंदिर में आना, कुटुंबियों से स्नेह करना, बोलना आदि आत्मा का गुण नहीं है । भीतर के परिणामों को तो स्वयं संभाल नहीं सकता दूसरों का बाहर में क्या हित करेगा?
265. जीवसमासों की पुद᳭गलमयता―जब जीव केवल चित् शक्तिमात्र है तो क्यों सिद्धांत व्यवस्थित हुआ कि एकेंद्रिय, दोइंद्रिय, तीनइंद्रिय, चारइंद्रिय, पंचेंद्रिय जीव बादर, सूक्ष्म, पर्याप्त अपर्याप्त ये सबके सब पुद्गलमय प्रकृति से रचे हुए हैं । नामकर्म की प्रकृतियों के भी ऐसे ही नाम है । एकेंद्रिय आदिक 5 जाति नामकर्म हैं । बादर सूक्ष्म नाम के नामकर्म हैं । पर्याप्त अपर्याप्त नामक नामकर्म है । इसका विपाककाल आये, जब जीव इससे निर्वृत्त रचा गया तो ये समस्त जीवसमास पुद्गलमय प्रकृतियों से रचे गए हैं । ये जीव कैसे कहे जा सकते हैं? जो यह ढांचा दिख रहा है पंचेंद्रिय जाति के रूप में, यद्यपि जीव का संबंध है तब इन कर्म प्रकृतियों के उदय में ऐसी रचना हुई । लेकिन जहाँ जीव का स्वरूप ही चैतन्यशक्तिमात्र निरखा गया । उसकी दृष्टि में तो यह सबका सब पुद्गलमय प्रकृतियों से रचा गया आना चाहिये । निर्णय के समय परस्पर का संबंध सहयोग निमित्त नैमित्तिक भाव सबका विवरण चला है, किंतु जहाँ परमहित की दृष्टि की बड़ी तैयारी बन रही हो तो वह ऐसे निर्णय के बाद तैयारी में आया है । अब इस समय चैतन्य शक्तिमात्र जीवस्वरूप को निरखकर सर्व उद्यमों से उस चित्स्वरूप में समाये रहने की धुन बनाये हुए है । उसकी दृष्टि में ये सब अजीव हैं । जिसे हम पहिले जीवरूप से पहिचानते आये हैं और उस प्रथम अवस्था में उपाय भी यही है कि हम जाने जायें कि यह एकेंद्रिय जीव है यह दोइंद्रिय जीव है, यह तीनइंद्रिय, चारइंद्रिय, पंचेंद्रिय आदि जीव हैं, यह हम समझ जायें, यह ठीक है, किंतु जीवमात्र विशुद्ध जीव अपने ही सत्त्व के कारण सहज जैसा है वैसा ही दृष्टि में ले करके जब देखते हैं तो ये सब मैं जीव नहीं हूँ ।
266. विशुद्ध अंतर्दृष्टि से अध्यात्मप्रवेश का उद्यम―यह ज्ञानी विशुद्ध अंतर्दृष्टि से अध्यात्मस्वरूप में प्रवेश करना चाह रहा है । निश्चय से कर्म और करण अभिन्न होते हैं । जो जिसके द्वारा किया गया वह वही है । स्वर्ण से बनता स्वर्णत्व । तो यह जीवस्थान बादर सूक्ष्म इंद्रिय जाति पर्याप्त अपर्याप्त यह पुद᳭गलमय नामकर्म की प्रकृतियों के द्वारा किया गया है । सो ये सब पुद᳭गल हैं, जीव नहीं । कैसा विशुद्ध उद्देश्य है? यदि ऐसी असाधारण तैयारी नहीं है आत्म स्वरूप में बसने की, व्यवहारी है, वहाँ यह बात कहना कि ये सब अजीव हैं तो उससे वे ऐसी परिणति करेंगे कि मारो, पीटो, कतरो छेदो, क्या हैं? अजीव हैं सब । इनका क्या बिगाड़? तो बड़ी सावधानी के साथ यह समझना है यहाँ कि किस आशय में ज्ञानी की कैसी दृष्टि बन रही है जहाँ कि जीव स्वरूप बताया जा रहा है । अध्यात्म में निर्विकल्परूप से ठहरने की धुन है और वहाँ जीवस्वरूप निरख रहा है वह है एक चैतन्यशक्तिमात्र । तब उससे अतिरिक्त भिन्न जो-जो कुछ हैं वे सब जीव नहीं हैं । तो वर्ण जीव के नहीं । तो सभी बातें लगा लीजिये, रस गंध आदिक, शरीर आकार संहनन आदिक ये सब पुद᳭गलमय नाम प्रकृति से रचे गए हैं सो पौद्गलिक हैं । आत्मा तो इन सबसे निराला विज्ञानघन है । जिसमें केवलज्ञान जानन जानन ही स्वरूप पाया जाता है । जीव तो वह है, इस प्रकार यह ज्ञानी विशुद्ध जीव स्वरूप की ओर आना चाह रहा है । उसके अतिरिक्त सबको अजीव कह कर उनसे हटकर आ रहा है ।
267. ज्ञानमात्र अनुभवन का प्रथम उपाय―हम आप जीवों के लिए स्वानुभव ही एक परम शरणभूत है । स्वानुभव का अर्थ है जैसा सहज यह मैं स्व हूँ स्वयं हूँ उस प्रकार से अपने को अनुभवना सो स्वानुभव है । हम आप उपयोग स्वरूप हैं । कहीं न कहीं उपयोग चलता है । कहीं न कहीं उपयोग रम रहा है । वहां यह विवेक करना है कि यह उपयोग कहाँ रमायें कि जिससे अशांति न हो । जब विवेकपूर्वक इसका निर्णय करने चलेंगे तो एक मूल कुंजी से यह निर्णय बन जायेगा कि मेरा उपयोग यदि किसी अनुपयोग का विचार करेगा अर्थात् जो ज्ञानस्वरूप नहीं है, मेरे से विपरीत है, उसका यदि मैं चिंतन करूंगा तो वहां मेल न बैठेगा । जाननेवाला हूँ मैं ज्ञानस्वरूप और जानने में लगा दिया इसको किसी उन अज्ञान पदार्थों में, अज्ञान भावों में तो वहां इस जानने वाले का मेल नहीं बैठा । विपरीत जानने लगा तो वहाँ टिकाव नहीं बन सकता और पद पर अनेक कल्पनायें उठती हैं, उससे अशांति रहती है । उद्यम यह करना है कि यह मैं उपयोग ज्ञानस्वरूप हूँ, सो उस ज्ञान स्वरूप निज के स्वरूप को जानने में लगें । यह बात कैसे बनेगी? इसका सीधा उपाय तो यही है कि ज्ञानमात्र आत्मतत्त्व का जो स्वरूप है उसको सीधा जानने लग जायें । केवल जानन एक प्रतिभास जो कुछ भी है उसको जानने में लग जायें तो ज्ञानमात्र अनुभवन का यह सीधा उपाय है ।
268. ज्ञानमात्र अनुभवन का निकटवर्ती द्वितीय उपाय―जो ज्ञानमात्र अनुभवन के सीधे उपाय को कठिन समझें उनके लिए एक सरल उपाय यह भी है कि इतना तो अपना परिचय बना लें कि मुझमें रूप, रस, गंध, स्पर्श नहीं है । भीतर रहने वाला जो यह मैं हूँ उस जाननहार चैतन्य का क्या स्वरूप है? एक प्रतिभास मात्र, जिसमें कोई तरंगें नहीं उठती, इष्ट अनिष्ट की कल्पनायें, रागादि के कोई विकार नहीं चलते, ऐसा मैं केवल प्रतिभासमात्र हूँ । वही ज्ञान का स्वरूप है । तो अब इस प्रतिभासमात्र ज्ञान के स्वरूप के जानने में लग जायें यह तो सीधा उपाय है ही, लेकिन इसे जो कठिन समझें उनके लिए एक उसके निकटवर्ती सरल उपाय यह है कि मैं अपने को चिंतन करने लगूँ कि मैं अमूर्त हूँ, मेरे में रूप, रस, गंध, स्पर्शादिक नहीं । अमूर्त अन्य पदार्थों में एक आकाश का कुछ अंदाजा रहता है क्योंकि यह पोल जो कुछ यहाँ समझ में आ रहा है उतना स्पष्ट और कोई द्रव्य समझ में नहीं आता । यद्यपि वस्तुत: अमूर्त आकाश भी इंद्रियगम्य नहीं है फिर भी अन्य अमूर्त पदार्थों में से आकाश के प्रति लोगों की ज्यादह समझ बन रही है न, आकाश में कहा हैं रूप, रस, गंध, स्पर्श? तो आकाश की भाँति रूपादिक से रहित, अमूर्त मैं आत्मा हूँ । यह अमूर्त है इसी कारण इसमें किसी का लेप नहीं, इसमें कोई भिड़ा नहीं, केवल यह अमूर्त है । ऐसा अमूर्त स्वरूप यदि लगन के साथ ध्यान में आये तो एक अन्य विकल्प नहीं रहे, ऐसी स्थिति में अमूर्त मात्र निरखने के द्वार से इस ज्ञानस्वरूप उपयोग को ज्ञानमात्र स्व के दर्शन करने का अवसर मिल जायेगा । और निकटवर्ती दूसरा उपाय यह है कि अपने को सच्चाई के साथ अमूर्त निर्लेप ध्यान के निकट लाइयेगा ।
269. ज्ञानमात्र अनुभवन का निकटवर्ती तृतीय उपाय―निज अमूर्तत्वदर्शन का उपाय यदि कठिन प्रतीत हो तो तीसरा उपाय यह हो सकेगा कि समझ लेना कि विकल्प करते-करते अब तक परेशान हो गए, थक गए, मिला जुला कुछ नहीं । ये बाह्य पुद्गल बाह्य ही हैं, इनका कोई अंश मेरे में आया नहीं, इन परपदार्थों से मेरा कुछ बना नहीं, केवल इनका विकल्प करके अपने को क्लेश में डाला । थे सब निराले भिन्न । इन पर मेरा कुछ वश नहीं । मैं इनके बीच रहकर विकल्प करके केवल आकुलता पाता हूँ । इतनी समझ बनने के बाद फिर भीतर में ऐसा संकल्प और उत्साह बनायें कि किसी भी परद्रव्य से कुछ नहीं सोचना है । पर पर ही है, भिन्न है, उसमें आत्महित नहीं है । मुझे किसी भी परतत्त्व का चिंतन नहीं करना है । निज को तो मैं जान नहीं रहा, न समीप जान रहा, पर ये समस्त परपदार्थ मेरे लिए अनर्थ के ही कारण बन रहे हैं, ऐसी मोटी समझ के बल पर ऐसा आग्रह करें कि मुझे किसी भी वस्तु का चिंतन नहीं करना । यद्यपि कुछ न कुछ चिंतन किये बिना रहा न जायेगा । कुछ न कुछ आयेगा ही, लेकिन ये विकल्प बढ़ाने वाले विकल्प हेतुभूत बाह्य अर्थ उपयोग में न रहे यह बात बन सकेगी । तो जब सब पर का चिंतन छोड़ दिया, बुद्धिपूर्वक कुछ भी विचार नहीं चल रहा तो ऐसी हालत में चूंकि यह उपयोग ज्ञानस्वरूप है, यह आत्मतत्त्व ज्ञानमय है सो उपयोग इस ज्ञानमय का आश्रय छोड़कर तो रह सकेगा नहीं । उस स्थिति में जब कि समस्त पर का चिंतन बंद कर दिया है, ज्ञानमात्र स्व की झलक वहाँ आयेगी । ज्ञानमात्र अपने को अनुभवने का एक यह भी तरीका है ।
270. ज्ञानमात्र अनुभवन का निकटवर्ती चतुर्थ उपाय―उक्त उपाय भी कठिन जंचे तो अब एक चौथे तरीके पर चलकर देखना । जो आत्मा समस्त उपाधियों से रहित है, समस्त अवगुणों से तथा विकल्पों से रहित है, जिसका चैतन्यस्वरूप पूर्ण विकसित हो गया है ऐसे सिद्ध भगवान के स्वरूप का ध्यान करने लगें । अंत: जो सिद्ध प्रभु का स्वरूप है आत्मा में, वही स्वरूप अरहंत का है । अरहंत के अंत:स्वरूप का ध्यान करने में भी वही फल है जो सिद्ध प्रभु के स्वरूप के ध्यान करने का फल है । हाँ थोड़ा अरहंत स्वरूप के विचार के समय बाह्य परिकर पर दृष्टि जायेगी तो सिद्ध स्मरण के समान उत्कृष्टता न रह सकेगी, इसलिए बहिरंग वैभव को ध्यान में न रखकर प्रभु के अंतरंग विकास को ध्यान में लीजिये । अहो ! ज्ञानघन हैं प्रभु । ज्ञान ही ज्ञान जहाँ वर्त रहा है, उसके बीच अज्ञान का रंच अवकाश नहीं है । कैसा अनंत आनंदमय प्रभु है, जिनका उपयोग ज्ञानस्वरूप में ही बना रहता है । त्रिकाल अनंतकाल उस स्वरूप में आकुलता का क्या काम है? जहाँ आकुलता नहीं वहाँ अनंत आनंद है । ऐसा अनंत आनंदमय, सिद्ध प्रभु का स्वरूप ध्यान में लाइये । ज्ञान और आनंद दो स्वरूप ऐसे हैं कि जिनके स्मरण के द्वार से हम अपने ज्ञानानंदस्वरूप तक पहुंच सकते हैं । तो जब हम सिद्धप्रभु के उस परिपूर्ण विकास का ध्यान करेंगे तो उस समय ऐसी लगन से ध्यान होने पर कि केवल सिद्धस्वरूप ही ध्यान में हो तो निज स्वरूप के साथ समता होने लगेगी । यह सहज होगी बात । उस समय जब अभेद उपासना बनने लगेगी तो वहाँ ज्ञानमात्र निज तत्त्व का दर्शन होगा । जिस किसी भी उपाय से हमें चाहिये कि हम अपने को ज्ञानमात्र अनुभवने लग जायें ।
271. वस्तु की स्वतंत्रता और परिपूर्णता के अवगम से अंतस्तत्त्व की उपलब्धि―अध्यात्म प्रयत्न सिवाय कोई यत्न ऐसा नहीं है कि हम अपने को शांत अनुभव कर सकें । इसी का साधक है आकिंचन्यभाव । मेरे स्वरूप के सिवाय जहाँ अन्य कुछ भी नहीं है यह बात निरखने का नाम है आकिंचन्यभाव । लोक में इन समस्त पदार्थों की सत्ता अब तक बन रही है, यह इसी बल पर बन रही है कि किसी भी एक वस्तु में दूसरी वस्तु का द्रव्य, क्षेत्र, काल, भाव, इनके परिणमन नहीं होते । कितना भी निमित्तनैमित्तिक संबंध हो, कहीं जंचता है कि प्रेरणारूप निमित्तनैमित्तिक संबंध है । उस दशा तक में तो कोई भी पदार्थ किसी दूसरे पदार्थ का प्रदेश, गुण और परिणमन ग्रहण नहीं कर पाता । मान लो दो पहलवानों की कुश्ती हो रही है । तो उसमें तो बड़ी प्रेरणा चल रही है । हाथ पकड़कर, कमर पकड़कर एक दूसरे को घुमा दे, कैसी ही हलन चलन क्रिया करा दे, इससे और बढ़कर प्रेरणा का क्या उदाहरण होगा? अथवा कुम्हार जब घड़ा बनाता है तो मिट्टी पर कैसा दबाव डालता है, जहाँ चाहे मरोड़ देता है, उस चाक पर रखी हुई मिट्टी में जिस-जिस प्रकार का हाथ का व्यापार करता उस-उस प्रकार का आकार बन जाता है । प्रेरणा का इससे और बड़ा क्या उदाहरण हो, पर उस प्रेरणा की दशा में भी कुम्हार के शरीर को यहाँ कुम्हार समझकर, वहाँ ही दृष्टि दें कि वह अपने हाथ में क्या कर रहा है? वह अपने हाथ में हाथ का ही व्यापार कर रहा है । उसके हाथ से मिट्टी अलग है, हाथ में मिट्टी नहीं गई, मिट्टी में हाथ नहीं गया । आप कहेंगे कि गीली मिट्टी में हाथ तो धंस जाता है, धंस जावे, तब भी मिट्टी के कण में हाथ का प्रवेश नहीं है । यों कुम्हार शरीर में कुम्हार की चेष्टा को निरखने पर यह समझ में आ जाता है कि ऐसी समझ वाली दशा में भी कुम्हार ने अपने आपमें परिणमन किया, और वहाँ उस संयोग में प्राप्त हुई मिट्टी ने ऐसे प्रेरक निमित्त का सन्निधान पाकर अपने में अपना आकार बनाया । तो वस्तु का स्वरूप सूक्ष्मदृष्टि से निरखने पर स्वतंत्र विदित होता है । जिसको ऐसे वस्तुस्वरूप का परिचय हुआ है उस ज्ञानी पुरुष को अपने को ज्ञानमात्र अनुभव करने के लिए क्या करना है? इन उपायों की चर्चा चल रही है । हम जिस किसी भी प्रकार समस्त पर से निराला रागादिक भावों से भी निराला केवल ज्ञानमात्र अपने को तक सकेंगे तो हम अपने को ज्ञानमात्र अनुभव कर सकेंगे ।
272. ज्ञानमात्र अनुभवन का अनुरोध―हमने बहुत अनुभव किये, अनेक प्रकार के अनुभवन किये, लेकिन यह तो देखो कि उन अनुभवनों से हमें शांति मिली अथवा नहीं । नहीं मिली । एक बार अपने को ज्ञानमात्र अनुभवने का यत्न तो करिये, ऐसा अनुभव होने पर शांति अवश्य मिलेगी, इसमें तो कोई संदेह नहीं रहा कि अपने को केवल ज्ञानस्वरूप अनुभवें तो वहाँ विकल्प और अशांति नहीं है । इन उपायों में ही यह वस्तुस्वरूप की स्वतंत्रता की बात चल रही है । निर्णय यद्यपि अनेक दिये हैं पर हमको इस समय एक ज्ञानमात्र स्वरूप के अनुभवन की धुन लगी है, हम विविध निर्णयों की ओर उपयोग न लगावें । एक सामान्य निर्णय से इतना ही समझकर कि मुझमें पर से कुछ यहाँ आता नहीं, मेरा पर में कुछ जाता नहीं, निमित्तनैमित्तिक संबंध यद्यपि बराबर है, इतने पर भी प्रत्येक पदार्थ के निज-निज स्वरूप को निरखकर पहिचानेंगे कि किसी भी पदार्थ का किसी अन्य पदार्थ के साथ तादात्म्य नहीं है, संबंध नहीं है, इसी कारण अब तक लोक में इन सब पदार्थों की बराबर सत्ता बनी हुई है । जब यहाँ अध्यात्महित के प्रकरण में यह बात चल रही है कि आत्मा एक विज्ञान घन है तो फिर ये सारी बातें, ये पर्याप्त जीव, अपर्याप्त जीव, सूक्ष्म जीव, बादर जीव, ये जो नाना प्रकार के जीव नजर आ रहे, यह क्या बात है? उसके उत्तर में यह गाथा आयी है ।
273. विशुद्धानंद के अनुभव से आत्माभिमुखता की परीक्षा―एकाकी आत्मा की ओर हम कितने झुक रहे हैं इसका चिह्न यही है, जितने-जितने आत्मतत्त्व में आते जायेंगे उतने-उतने बाहरी तत्त्वों से उपेक्षा करते जायेंगे । जिसमें चिंता नहीं उसका एक बार अनुभव हो पावे तथा यह अमृत का स्वाद यथाविधि बैठ जावे तब क्यों सदैव परपदार्थों के परिणमन की सोचा करूंगा या उनसे मेरा हित होता है इसे असत्य मानकर पुन: क्यों फंसूंगा एवं रुलूंगा ? भैया कागजी सीख पर ही तो कोई गुण आ नहीं जायेगा । अभी देखो हिंदुस्तान, पाकिस्तान बना । उस समय बेचारे पाकिस्तानी विदेशियों के सिखाये बोल रहे, पाकिस्तानियों को सीख सिखाने पर भी वह कब तक अपनी बात निभावेंगे । जब तक सिखाने वालों का पूरा कब्जा नहीं होता तब तक कुछ पूछ भी रहे हैं । उसी तरह हम सिखाये पूत बन रहे हैं । स्तुति, पूजन, भक्ति, दान, स्वाध्याय, सामायिक सब सिखाये पूत की बातें हैं । जो दूसरे करते आये उसे ही हम करते हैं । लेकिन हमारे अनुभव की लाभ की बात हो तो उसे क्यों नहीं समझेंगे? आत्मीय आनंद अनुभव में आ जावे तो वह भूलेगा नहीं, वह तो अपने अनुकूल ही कार्य करेगा । यह उद्यम करता जीवन में उस आनंद की झलक है जो सिद्ध परमात्मा को मिलता है । इस आनंद के लिए उसे सबसे चित्त हटाना होगा । वो आनंद पूजन में भी नहीं मिलेगा जो मर्म की चीज भीतर उपयोग में मिलेगी । इसलिए बाह्य पदार्थों का समागम रुचि में न बढ़ावें । सब कुछ किया और प्रवृत्ति विपरीत (उल्टी) ही रखी तो कैसे आत्मा का कार्य सिद्ध होगा? 24 घंटे में 15 मिनट भी तो ऐसी चेष्टा करें जो सांसारिक कार्यों से ऊब कर अपने मन की स्थिति को एकाग्र करें । ऊबे हुए तो सभी हैं किंतु ऊब चुकने से परपदार्थ को चित्त में नहीं लावें, उनसे कोई सुख नहीं है और न आज तक मिली है यह दृढ़ प्रतीति करें, भूखे विकल्पजालों से उनमें फंस रहा हूँ यह अनुभव पूर्णतया हो जावे तो उस ज्योति का अनुभव होगा जो ज्योति कभी नहीं जगी । यह बात बन जावे तो सब कुछ बन जावे, यही सबका सार । जीवन का मधुर स्वाद जो कभी नहीं मिला, तृष्णा अग्नि कभी शांत नहीं हुई । वह तृष्णा यहाँ आकर विराम (शांति) पावेगी । शम् ।