वर्णीजी-प्रवचन:समयसार - गाथा 68
From जैनकोष
मोहणकम्मस्सुदया दु वण्णिया जे इमे गुणट्ठाणा ।
कह ते हवंति जीवा जे णिच्चमचदेणा उत्ता ।।68।।
280. गुणस्थानों की अचेतनरूपता का कथन―जो ये -गुणस्थान मोहनीय कर्म के उदयस्वरूप हैं जिन्हें कि नित्य अचेतन कहा नया है वे जीव पैसे हो सकते हैं? जो मोहनीय कर्म के उदयस्वरूप हैं, मोहनीय कर्म के उदय से होने वाले हैं वह जीव नहीं हैं । इसमें राग द्वेष सब आ गये । तो वह जीव के नहीं है । वे कर्म के उदय के निमित्त से होते हैं । क्योंकि कर्म अचेतन हैं तब वह भी जीव के नहीं हैं । जानकारी उल्टी जगह लग रही हो तो उसे अचेतन कह देते हैं । चारित्रादि गुण तो अचेतक ही हैं । जो भाव चेतन को जानने में नहीं लगते वे सब भाव अचेतन हैं । सर्राफ का भाव शुद्ध सोना खरीदने का है, अगर वह 90 या 95 टंच वाले को शुद्ध सोना मान ले तब तो खूब दुकान चल चुकी । अगर 90 टंची को लेगा तो हिसाब से दाम देगा या दो आना मैलमिश्रित 14 आना शुद्ध भी लेवे तो उसी भाव के दाम देगा, क्योंकि उसकी रुचि शुद्ध सोना लेने की है । इसी तरह जिस ज्ञानी जीव को शुद्ध चेतना में रुचि है, वह देखता है कि राग द्वेष मोह अचेतन हैं, इसलिए यह मेरे द्वारा ग्राह्य नहीं है । इन्होंने आज तक मेरा काफी अहित किया । अब इन्हें अपने पास नहीं फटकने दूंगा । तेरहवां संयोग केवली गुणस्थान है, उसमें मात्र केवलज्ञान व शुद्धता की मात्र दृष्टि नहीं है तथा चौदहवाँ गुणस्थान भी मात्र केवली की दृष्टि से नहीं बना । अन्यथा सिद्धों को अयोगी गुणस्थान कह दो । शुद्ध तत्त्व में जो रम रहा है व साथ ही अघातिया कर्म का संयोग है, उसे 14 वाँ गुणस्थान कहा है, इसी तरह जो शुद्ध हो तो गयी किंतु योग व अघातिया कर्म का संबंध है वह 13 वां है । कर्म प्रकृति का विपाक होने से अचेतन माने गये थे सब । उदय साथ में चल रहे हैं । इसी से इन सबको अचेतन कहा है । अरहंतदेव की भक्ति जब करते हैं, उसमें इतना ही तो कहते हैं हे अरहंत भगवान ! आप समवशरण लक्ष्मी से शोभायमान हो, देवाधिदेव हो, संसारी जीवों को भवसमुद्र से निकालने के लिए जहाज के समान हो, आपका परमौदारिक शरीर है । ऐसा भी कहते कि आप नाभि राजा के पुत्र हो तथा भरत, बाहुबलि के पिता हो आदि । यह सब अचेतन का गुणगान है ।
281. गुणस्थानों की अचेतनरूपता का विवरण―मोहनीय कर्म के उदय से होने वाले जितने भी परिणाम हैं अथवा मोह कर्म के निमित्त से हुए जितने भी स्थान हैं वे सब भी अचेतन कहे जाते हैं । वे जीव नहीं हो सकते । जीव के साथ जो कर्म लगे हैं वे तो जीव हैं ही नहीं । जो शरीर लगा है वह भी जीव नहीं । जो रागादिक भाव हैं उनमें भी चैतन्य नहीं । वे भी जीव नहीं । अब यहाँ कहते हैं कि जितने भी गुणस्थानादिक अन्य स्थान हैं वे भी जीव नहीं है । मिथ्यात्व आदिक गुणस्थान पौद्गलिक मोह कर्म प्रकृति के विधानपूर्वक होने से नित्य अचेतन कहे गये हैं । यहाँ गुणस्थान आत्मविकास भी दिख रहा और रुकावट आत्मा की वह भी चल रही है । तो इस वर्णन में रुकावट पर दृष्टि देकर अजीवतत्त्व की बात समझना है । जो विकास है वह भी उस रुकावट के संबंध से यहाँ मुख्य कहा गया । जैसे कि जौ बोने से जौ पैदा होता है, गेहूं बोने से गेहूं पैदा होता है । उरस का वह कार्य है । तो पुद्गल कर्म का जो कुछ भी प्रभाव है वह प्रभाव भी अचेतन है । एक यह कुंजी है शुद्ध जीवस्वरूप से भिन्न अन्य तत्त्व को समझने की । जो पुद्गल उपादान वाले पदार्थ हैं वे प्रकट भिन्न हैं यह तो समझ में स्पष्ट है किंतु आत्मा में भी जो प्रभाव जो परिणमन पौद्गलिक कर्म के उदय के निमित्त से हुआ वह प्रभाव भी अचेतन है और उसमें युक्ति यह दी जा रही है कि यव पूर्वक यव ही होता है । इसी प्रकार पुद्गलकर्म के उदय पूर्वक जो भी बात होगी वह अचेतन होगी । इस प्रकार चौदह गुणस्थानों में कर्म का प्रभाव पड़ा हुआ है । अतएव वे सब अचेतन कहे गए हैं, और गुणस्थान में रहकर भी जो सम्यक्त्व सहित गुणस्थान हैं उनमें रहकर भी जो रागादिक के गुणस्थान हैं उनमें जिन ज्ञानी पुरुषों ने आत्मा का ध्यान किया, स्वरूप सोचा, भेदविज्ञान किया, ज्ञान में उपयोग बनाया, उन्होंने तो परख लिया कि जो चैतन्यस्वभाव से व्याप्त है सो तो आत्मा है और उरस चैतन्यस्वभाव में जो नहीं व्याप रहा, ऐसा जो कुछ भी तत्त्व है वह अचेतन है । इस तरह रागद्वेष मोह सभी इन परभावों में यह बात समझना चाहिये कि ये पुद्गलपूर्वक होते हैं, नित्य अचेतन हैं । इतना अंश निरखकर एक नियम से अचेतन की बात कही जा रही है । इससे यह सिद्ध है कि रागादिक भाव जीव नहीं हैं ।
282. जीवस्वरूप समझ लेने पर मोह का अनवकाश―तब फिर जीव कौन है? इस प्रकरण में जीवस्वरूप वह कहा जा रहा है कि जिसका ध्यान करने से अध्यात्मयोग बनता है । सचमुच ही ज्ञान में उपयोग का समा लेना बन सकता है । यह जीव स्वरूप का वर्णन किया जा रहा है । ज्ञान में ज्ञानस्वरूप ही रहे ऐसा उपयोग बनाने के लिए जो कुछ समझना चाहिए उस जीवत्व की बात कही जा रही है । तब फिर जीव कौन है? जीव वह है जो अनादि से हो, अपने स्वरूप से अचल हो, स्वसम्वेद्य हो । यह चैतन्यभाव अनादि है, स्वयंसिद्ध है, स्वतःसिद्ध है । चूँकि सत् है अतएव अनादिसिद्ध है । स्वभाव और स्वभाववान में अंतर नहीं अत: एक ही बात है । उसे न स्वभाव कह सकते, न स्वभाववान क्योंकि एक वस्तु को समझने के लिए जब भेदव्यवहार करते हैं तो पहिला भेद यहाँ से उठा―
स्वभाव और स्वभाववान । इससे आत्मा अनादिकाल से है । आत्मा में जो चैतन्यस्वभाव है वह भी अनादिकाल से है और अनंतकाल तक रहेगा । देखो―हम आप जीव अनादि से हैं और अनंतकाल तक रहेंगे । हम आपका वह स्वरूप है । जो अनादिकाल से है अनंत काल तक रहेगा । ऐसे अनादि अनंत चैतन्यस्वरूप का इस जगत् में कोई कुछ लगता है क्या ? बेटा, माता, पिता, मित्र, बंधु आदि ये एक दूसरे जीव के कुछ लगते हैं क्या ? ऐसी बात तो नहीं है । मेरा मैं हूं, मैं सत् हूं, चित् सत् हूं, अपने आपमें परिपूर्ण सत् हूं ऐसा जानकर स्वयं अनुभव कर लेंगे कि इसको मोह करने का अवकाश कहां ?
283. मोह की व्यर्थता का अवगम―हे आत्मन् ! क्यों व्यर्थ मोहभाव ला रहे, उससे तेरा कोई अर्थ कार्य नहीं होने का, कोई अपना काम नहीं निकलने का । मोह विकल्प करना ऐसे ही व्यर्थ है जैसे कि हम किसी भी दूसरों को देखें कि लोकव्यवहार में भी दूसरे कहलाते हैं उन पर मोह करें । जैसे वह व्यर्थ है, किन्हीं ही धुन होती है, किन्हीं से स्नेह होता है । दूसरे बिरादरी के बालक से ऐसा स्नेह जग जाता है कि जीवनभर उसे फिर अपना माने हुए रहता है । उसे पढ़ाया लिखाया, बड़ा किया, मेरा ही यह बालक है ऐसा माना । तो उस पालन पोषण करने वाले को अन्य लोग समझाते हैं कि भाई तुम क्यों इससे इतना मोह कर रहे ? व्यर्थ का मोह है । जैसे कोई पुरुष कुत्ते से बड़ा प्यार करते हैं । उसे चौबीसों घंटा साथ रखते, उसे अपने साथ ले जाते, उसके साथ-साथ खुद चलते जाते, मोटर में बैठाकर ले जाते, बड़ा प्यार उससे करते हैं तो इतनी बड़ी टहल करने वाले पुरुष के प्रति जैसे हम आप लोगों के चित्त में यह बात बनती है कि देखो यह कैसा व्यर्थ का मोह है, इससे इसे मिलेगा क्या ? न इस कुत्ते से इसकी संतान चलती है, न कुलपरंपरा चलती है, न कोई यह सलाह दे सके, न कोई विपत्ति में यह धीर बंधा सके । कुछ भी तो काम नहीं सरता है उस कुत्ते से, लेकिन मोह उससे कितना बड़ा है कि उसे साथ लिए फिरते हैं । तो उस कुत्ते के संबंध में जैसे उसका व्यर्थ मोह है यों समझ में आता है इसी तरह लोकव्यवहार में खुद के माने हुए बच्चे से भी मोह करने की बात ऐसी ही व्यर्थ है । इससे क्या इस आत्मा का संतान चलेगा ? आत्मा का संतान है चैतन्य, चित्स्वरूप । क्या उस चित्स्वरूप का कुछ बनता है ? कुछ काम आयेगा क्या ? बल्कि बहुत-बहुत इसकी बरबादी का कारण बनता है । तो व्यर्थ है ना । तो जैसे व्यर्थ अन्य का मोह दिखता है वैसे ही यहाँ माने हुए कुटुंबीजनों का मोह व्यर्थ का मोह है ।
284. आत्मस्वरूप की अचलितता―अपने स्वरूप को देखो, वह अनादि अनंत है, अचल है । जो मेरे में स्वरूप है वह स्वरूप कभी चलित होगा क्या ? हम उसको न जानें, उससे हम अपरिचित रहें और अपरिचित रहकर विपरीत विकल्प किया करें, यहाँ तक भी कर डालें कोई विकल्प कि मैं आत्मा ही नहीं हूं । आत्मा का कुछ भान भी न रखें । देह को ही आत्मा समझकर अहंकार में बना रहे, इतना भी कोई विपरीत भटका हुआ है फिर भी इस जीव का जो चैतन्यस्वरूप है वह क्या खिसक गया ? वह तो चलित नहीं होता । तो मैं वह हूं जो अचल हो । अपनी समझ पड़ जायेगी तो भला हो जायेगा । न समझ पड़ेगी तो संसार में रुलेंगे । किंतु स्वरूप तो सबका वही सदा रहता है, उस स्वरूप को हम समझना चाहें तो इंद्रियों से तो नहीं समझ सकते । आंखें गड़ाकर देखें तो क्या आत्मा का निज चैतन्यस्वरूप ध्यान में आयेगा ? किसी भी इंद्रिय से समझना चाहें तो वह समझा नहीं जा सकता । स्वसम्वेद्य है वह अर्थात् स्व ज्ञान से ही वह जाना जाता है । ज्ञान से ही आत्मा सम्वेद्य होता है । ऐसा जो चैतन्यमात्र है वह जीव है, इसकी जब दृष्टि बनती है तो बड़ी उत्कृष्टता से वह एकदम प्रकाशमान होता है, मैं वह हूं । ये रागादिक भाव, ये समस्त अन्य भाव ये मैं नहीं हूं ।
285. सहज स्वभाव की प्रतीति बिना विकारों को मूलत: नष्ट करने की अक्षमता―देखिये―जब तक इस सहज स्वभाव की प्रतीति नहीं होती कि यह मैं हूं तब तक यह विषय कषायों को मूलत: दूर करने में समर्थ नहीं हो सकता । जिसको इस लोकव्यवहार से न अपना सम्मान अनुभूत हो, न अपमान अनुभूत हो और न किसी परपदार्थ की परिणति से यह अपने में क्षोभ मचा सके ऐसी विशिष्टता उस आत्मा में जगती है, जिस आत्मा ने अपना स्वरूप सहज ज्ञानमात्र अंगीकार किया है, मैं तो यह हूं, मैं और कुछ हूं ही नहीं, इस मुझको लोग जानते ही नहीं । जो लोग क्रुद्ध हो रहे हैं, मुझे गालियां दे रहे हैं, कुछ विपरीत चल रहे हैं उन लोगों ने इस मुझ ज्ञानमात्र तत्त्व को जाना ही नहीं । वे मेरे को क्या कहेंगे ? मैं अनादि अनंत अचल हूं, स्व-सम्वेद्य हूं, इसे कोई जानता ही नहीं । तो अज्ञानी जन कुछ भी चेष्टा करें उस चेष्टा से मेरे को क्या होगा ? ज्ञानीजन भी चेष्टा करें तो उनकी चेष्टा से मेरे में क्या होता है ? मैं परिपूर्ण स्वयं सत् पदार्थ हूं । मैं स्वयं जिस रुचि में हूं उसके अनुसार बाह्य वृत्ति देखकर परिणति निरखकर मैं प्रभावित होता रहता हूं, पर हुआ अपने ही परिणमन से । यह मैं चैतन्यमात्र जीव हूं, इसमें रागादिक विकार नहीं है । जिस दृष्टि में यह बात कही जा रही है उस दृष्टि को लक्ष्य में लिए बिना, उसके अनुरूप अपनी बुद्धि किये बिना यह मर्म ज्ञात नहीं होता है । यों तो इस दृष्टि के अपरिचित जन शंकित रहेंगे । क्या कहा जा रहा है कि जीव में रागादिक नहीं होते । रागादिक अजीव हैं, ये पुद᳭गल परिणाम से उत्पन्न हुए हैं आदिक जो-जो भी कथन अभी निकले हैं, वे सब अटपट लगेंगे । जब दृष्टि और लक्ष्य सही बन जायेगा कि मैं इसे देखकर सोच रहा हूं और ऐसा जानकर मेरे को करने के लिए क्या काम रहता है ? जब यह बात ध्यान में जंचे तो यह बात सहज ठीक मालूम होने लगती है ।
286. जीव का निर्दोष स्वरूप―एक बात अत्यंत स्पष्ट है कि पदार्थ का स्वरूप वह कहा जाता है जिससे पदार्थ रचा हुआ है । पदार्थ का असाधारण स्वरूप वह हुआ करता है कि जो स्वरूप उस ही पदार्थ में रहे, अन्यथा जो स्वरूप जितने में न रहेगा वह उतने का स्वरूप कहलायेगा । जीव का स्वरूप क्या है ? कोई कहता है कि रागादिक जीव के स्वरूप हैं क्योंकि रागादिक से ही जीव का स्वरूप मिलता है । यह जीव है, यह बात समझ में बैठती है कि जब उसकी रागादिक चेष्टा समझ में आती है । देखिये ना―जो प्रेम करता है, द्वेष करता है, आकुलता, शांति, मौज आदिक मानता है वही तो जीव है । तो किन्हीं की दृष्टि में है कि ये रागादिक विकार जीव हैं । तो कोई पुरुष इससे आगे बढ़ते हैं तो यह ध्यान में उनके आता कि जीव का स्वरूप अमूर्तपना है । जो अमूर्त है सो जीव है, जिसमें रूप, रस, गंध, स्पर्श नहीं है । अन्यवादियों में भी यही बात मिलती है कि आत्मा में रूप, रस, गंध, स्पर्श नहीं है । तो जो अमूर्त है सो आत्मा । किन्हीं ने जीव का लक्षण अमूर्तपना कहा है, किंतु ये दोनों ही लक्षण जीव के सही नहीं हैं । रागादिक विकार जीव के स्वरूप स्थूलरूप से तो यों नहीं हैं कि रागादिक विकार न भी हों तब भी जीव कोई होता है । जो मुक्त हो गए हैं, केवल हो गए हैं, ऐसे सिद्ध परमात्मा के कहां राग है, पर जीवत्व तो है । जीवस्वरूप तो नहीं मिटा, और सूक्ष्मदृष्टि से देखो तो ये रागादिक जीव के स्वरूप नहीं हैं । जीव के प्राण नहीं हैं । जीव के सत्त्व के विकास नहीं हैं । स्वत: जो जीव में सत्त्व जहां पाया जाता है अथवा जो असाधारण चैतन्यस्वभाव है उसके वृत्ति नहीं है, इस कारण रागादिक विकार जीव नहीं है । तो जीव वह होगा जो अमूर्त हो, जिसमें रूप, रस, गंध, स्पर्श नहीं । कहते हैं कि अमूर्तपना भी जीव का लक्षण नहीं है क्योंकि अमूर्तपना धर्म, अधर्म, आकाश, काल द्रव्यों में भी पाया जाता है । जो अमूर्त हो सो जीव है ऐसा कहना तो युक्त नहीं, क्योंकि आकाश आदिक भी अमूर्त है, फिर जीव कहां ? जीव का स्वरूप स्वभाव अभी नहीं आया । तो अमूर्त कहने में तो अतिव्याप्ति दोष है, रागादिक कहने में अव्याप्ति दोष है । जीव का शुद्ध लक्षण है चैतन्यभाव ।
287. आत्महित की अभिलाषा होने पर सन्मार्ग पाने की सुगमता―कुछ आत्महित की बुद्धि जगे, अंत: कल्याण की प्रेरणा बने, इस संसार में भटककर मुझे क्या लेना है ? मैं क्या पा सकूंगा ? कुछ भी लाभ नहीं है । इस संसार से इस जन्ममरण से निवृत्त होने में ही मेरा भला है । ऐसी भीतर में बुद्धि जगे और इन सब अजीवों से परभावों से उपेक्षा होकर जीवत्व के प्रति रुचि जगे तो यह आत्मा स्वयं अनुभव कर लेता है कि यह मैं जीव हूं क्योंकि वह स्वरूप तो स्वयं उल्लसित होता है । जैसे किसी स्रोत में से पानी एकदम प्रकट होता है इसी प्रकार स्वयं में से यह ज्ञानस्वरूप चैतन्यस्वरूप स्वयं प्रकट होता है, उस ज्ञान के उपयोग में । जिसने शुद्ध संकल्पपूर्वक ऐसा अपना परिणमन किया है कि पर से अलग हटना और स्व में रुचि करना उसे स्वयं ही प्रकट हो जाता है । तब यह पता पड़ता है―ओह वह सारा व्यर्थ का नाच था । ऐसा दृष्टि में आकर जब ध्यान आता है―ओह जो दुष्कर्म किये वे मिथ्या थे । जैसे प्रतिक्रमण में पढ़ते हैं कि मेरे दुष्कृत मिथ्या होओ । तो वह केवल पढ़ने की चीज नहीं है और न यों विनती करने से दुष्कृत मिथ्या होते हैं किंतु जिसे शुद्ध अंतस्तत्त्व की दृष्टि में यह भान होता है वह सब व्यर्थ था, मेरे स्वरूप से बाह्य था, झूठ था, विपरीत था तो मेरा उपयोग अब ऐसा ही समझता रहे, इसी के मायने हैं कि वह दुष्कृत मिथ्या होवे । उन दुष्कृतों से उन स्वभावविरोधी परिणतियों से न्यारे रहकर मैं स्वयं के चैतन्यस्वरूप को पा लूं, इस प्रकार जो जीव जीव और अजीव की संधि पर ज्ञान की करोंत चलाता है, जैसे कि मिस्त्री लोग जानते हैं कि किसी काठ को चीरने में यह है संधि काठरूप, वह संधि कहीं बाहर से नहीं आयी, काठ में ही काठ के रूप में बन गयी । होता है ऐसा―आप बहुत से काठों में यह पायेंगे कि एक धारा ऐसी बनी जो बिना टूटी हुई इस ओर से चली और इस ओर से गयी । आत्मा में सूक्ष्मदृष्टि से विचारो तो चैतन्यभाव और विकारभाव । विकारभाव किसी बाह्य पदार्थ के परिणमन रूप नहीं हैं, वे स्वयं के परिणमन रूप हैं, चैतन्यभाव स्वयं का स्वभाव भाव है । अब यहाँ पर एक संधि निरखना है । वह संधि क्या है ? जहां चैतन्यरस है वह जीव है, जहां चैतन्यरस नहीं, चेतना भाव नहीं वह अजीव । रागादिक भावों में रज्यमानता तो रहती है । वह राग रहने की जो वृत्ति है, उस वृत्ति में ज्ञानभाव नहीं है । ज्ञानभाव वाले के बिना राग होता नहीं, तिस पर भी जो रागभाव है वह ज्ञानभाव नहीं है ऐसे बीच संधि में ज्ञान की करोंत चलायी जाये, और जब दो भाग हो जाते हैं तो वहाँ अपने को अपनाया जाये यह हूं मैं ज्ञानस्वरूप, चित्स्वरूप । यह अन्य मैं नहीं हूं ।
288. शुद्ध जीवस्वरूप के परख की प्रयोजकता―चैतन्यमात्र अपने आपके स्वरूप को जो मनुष्य परखता है उसकी दृष्टि में यह बात आती है और तब यह ज्ञायकस्वभाव चैतन्यभाव उसके उपयोग में बड़े वेग से शोभायमान होता है । इस प्रभुता को पाने के लिए हम आपका उद्यम यहाँ से ही चले―मैं ज्ञानमात्र हूं, तो ज्ञान ज्ञानभाव है जाननस्वरूप वही मैं हूं ज्ञानमात्र । इस पर दृढ़ प्रतीति हो । मैं अन्य नहीं । लोग यदि निंदा करते हैं, गाली देते हैं, विरुद्ध परिणमते हैं, इन सबके होते हुए यदि यहाँ विह्वल हो जाते हैं, क्षुब्ध हो जाते हैं तो समझना चाहिये कि ‘मैं ज्ञानमात्र हूं’ ― ऐसी दृढ़ प्रतीति का बल छोड़े हुए हैं तब इतना उपयोग भटक रहा है । मैं विशुद्ध ज्ञानमात्र हूं―ऐसी दृढ़ प्रतीति रहे तो फिर क्षोभ आने का क्या कारण ? हम आपमें इस प्रतीति की दृढ़ता बननी चाहिये । मैं क्या हूं ? ऐसा प्रश्न तो उठता ही है । लोग खुले रूप में पूछते भी हैं कि मैं क्या हूं ? उसका उत्तर मात्र इतना है कि मैं ज्ञानमात्र हूं, केवल ज्ञानस्वरूप हूं । जानन भाव में उपयोग बनाया तन्मात्र अपने को माना तो इस ज्ञानमात्र स्वरूप के परिचय से वे सब बातें सहज हो जाती हैं जो आत्मकल्याण के लिए जीव को करना चाहिये । जो चैतन्यभाव है सो मैं जीव हूं और इन भावों के अतिरिक्त रागादिक विकार शरीरादिक जो-जो कुछ भी पर हैं, परभाव हैं वे सब मैं जीव नहीं हूं । मैं जीव नहीं हूं, इसका अर्थ हुआ कि ये सब अजीव हैं । ये सब अजीव हैं इसका अर्थ है कि ये सब मैं जीव नहीं हूं । इस तरह अजीव से हटकर जीव में लगने का प्रयोजन जीव के शुद्ध स्वरूप के जानने का हुआ ।
289. शुद्ध आत्मस्वरूप की भक्ति―प्रभुभक्ति आत्मस्वभाव की उपासनापूर्वक होती है तो वहाँ मुख भाव है कि हे भगवान ! आप शुद्ध चैतन्यस्वरूप हो । जितना आदर आत्मस्वरूप में होगा उतनी ही भगवान की उपासना यथार्थरूप में करोगे । स्वयं अपने बारे में कितनी-कितनी बातें सोचते रहते हैं यह सब विकाररूप हैं । उनसे निज का कुछ भला नहीं होता है । दृष्टि शुद्ध चैतन्य पर आना चाहिये । पर का भान ही न होवे, इतना अपने को शुद्ध देखें, निर्विकार देखें कि मुझमें किसी का प्रवेश ही नहीं है । इतना शुद्ध इतना न्यारा अनुभव करें । बाजार में जिस तरह लिखा रहता है ʻयहां शुद्ध दूध मिलता है’ इसका मतलब यह न समझें कि यहाँ त्यागियों के लिये शुद्ध दूध नहाकर निकाला जाता है या साफ मंजे बर्तनों में कुलीन आदमियों द्वारा ही स्पर्श किया जाता है । सो बात नहीं है । भाव केवल इतना है कि इस दूध में पानी की मिलावट नहीं है और मक्खन भी नहीं निकाला गया है । जिसे मखनियां सपरेटा कहते हैं । इसी प्रकार शुद्ध आत्मा क्या ? जहां पर की मिलावट नहीं है और शुद्ध चैतन्य निकाला नहीं है । न यहाँ राग है, न द्वेष है और न मोह है, मैं यहाँ बंधन में क्यों पड़ा, अपने शुद्ध भावों में पर की मिलावट नहीं है । खुद का सार भी नहीं निकाला है । जो ज्ञान का संबंध है उस सार को भी नहीं निकाला है । मुझे परपदार्थ से सुख मिलेगा यह विश्वास नहीं है । मैं ज्ञानानंदकरि परिपूर्ण हूं । वह तो मेरा स्वभाव ही है । जैसे अग्नि की उष्णता, अग्नि में अन्यत्र से नहीं आती उसी तरह आत्मा में सुख भी अन्यत्र से नहीं आता है ।
290. औपाधिक सुखों की आशा के परिहार में समृद्धिलाभ―दूसरों से सुख की आशा मत रखो तब स्व में सुख रूप परिणमोगे ही । जैसे करोड़पति सेठ के गुजर जाने से लड़का नाबालिग होवे तो सरकार उसकी सब संपत्ति को कोर्ट कर लेती है । और प्रति माह उसके खर्च के लिए पांच सौ रुपया भेज देती है । तो वह समझता है सरकार मुझ पर बड़ी अनुकंपा कर रही है जो 500 रु. माहवार भेज देती है । लेकिन उसे यह मालूम नहीं कि हमारी करोड़ों की जायदाद सरकार अपने विभागों में लगाये हुए है, मैं उसके लाभ से वंचित हूं । यह सब नाबालिग होने से सोचता है । किंतु जब बालिग हो जाता है तो कहता है यह तो इतनी मेरी संपत्ति है और कोर्ट में प्रार्थनापत्र भेजकर वह अपनी जायदाद वापिस ले लेता है और उसका इच्छानुकूल उपयोग करता है । कर्मों ने नाबालिग देखकर मिथ्यादृष्टि होने से आनंद को कोर्ट कर लिया है । एवज में पुण्य के फलरूप में सुख मिलने लगा । कर्म सरकार ने सुख दिया तो बड़ा अच्छा मानते हैं । कहते हैं भाग्य जग गये―धन मिल गया, नौकरी मिल गई स्त्री बच्चों के संयोग पर ही मोही जीव खुश होने लगते हैं । यह नाबालिक इंद्रिय-सुखों के गुण गाता रहता है । जब बालिग हो जाये तो यह सम्यग्दृष्टि कर्म के विरुद्ध केस दायर करता है और कहता है जो तेरे उदय से मिला है वह मुझे नहीं चाहिए, उसे वापिस ले जाओ । अपनी पैरवी में जीत जाता है तब स्वात्मानंद का धनी बन जाता है । यही उपाय तो किये हैं ज्ञानियों ने, सो अरहंत सिद्ध बन गये हैं । उतना ही धन अपने पास है । फिर कर्मों से काटने में नाबालिग क्यों बन रहे हो ?
291. कर्मविपाक भावों की अचेतनता―यह प्रकरण चल रहा है कर्मों के उदय से होने वाले जो भाव हैं वे अचेतन हैं क्योंकि अचेतन कर्म के उदय से होते हैं । चेतन हितदृष्टि में एक ज्ञानोपयोग को माना है, यह ज्ञान अचेतन में फंसकर अचेत होता है । चेतन में रहकर सचेत (जाग्रत) रहता है । रागादि कर्मपूर्वक हैं । जो जिस पूर्वक हो वह वह ही हो जाता है । इसी प्रकार से पुद᳭गल के विपाक से पुद᳭गल ही होगा । कर्म भी एकांत दृष्टि से शुद्ध दिखता है । कर्मों ने संसारी जीवों को जकड़ रखा है यह व्यवहार है और वे जकड़ने से भी छूटना नहीं चाहते हैं । रागादि भाव जिस कर्म को निमित्त पाकर हुए हैं वह उसके हैं । ऐसे जीव को शुद्ध स्वभाव में देखने का एक यह भी उपाय है कि निमित्त की ओर से होने वाले को निमित्त का ही जानकर उससे अपने को पृथक् देखो । पौद᳭गलिक जो कर्म प्रकृतियां हैं वे अचेतन हैं, रागादिक का कारण हैं । गुणस्थानों को अचेतन कह दिया है । चेतनास्वरूप की दृष्टि से च्युत होकर जो भी भाव हैं उन सबको अचेतन कहा है । क्यों कहा है ? चेतनस्वरूप से जो भिन्न है उसे आत्मद्रव्य माने वह अचेतन हैं । इससे अचेतन राग ही नहीं हैं, द्वेष, मोह, कर्म, शरीर, वर्ग, वर्गणायें, स्पर्धक यह सब अचेतन हैं । आत्मा में होने वाले उदय के स्थान, मार्गणारूप से जो देखे जाते वे संयम के स्थान ये सब पुद᳭गलपूर्वक होते हैं इससे अचेतन हैं ।
292. सारभूत तत्त्वज्ञान―कोई भी विकार मेरे नहीं हैं, इन सबसे मैं भिन्न हूं । यह सब गंदगी है, विडंबना है ऐसा जानना बड़ा सारभूत तत्त्व ज्ञान है । यह मन में जम जाये कि रागादिक पुद᳭गलपूर्वक हैं इसलिए यह सब उसके नाटक हैं । मैं चेतनस्वरूप आत्मा हूं यह अनुभव हो जाये तो इन बातों से पिंड छूट जाये कि मेरी बात गिर गई, मेरी निंदा हो गई, मेरी पोजीशन गिर गई, हमारा अपमान एवं सम्मान हो गया । हमारी जानकारी जो चल रही है वह भी अचेतन है । स्वभाव के अतिरिक्त सब अचेतन हैं । स्वभाव की जो दृष्टि करे सो चेतना है । जीव कितनी जगह में भ्रमण कर रहा । जो-जो जानकारी अन्य विद्याओं में लग रही वह भी मेरी नहीं, तब क्या रहा ? अन्य न मेरी कोई वस्तु है, अन्य न मेरा तत्त्व है । धन वैभव कुटुंब मेरा नहीं, पुद᳭गल ही सर्वत्र नाचता है, यह दृष्टि कैसे आई? जब जीव को अत्यंत शुद्ध देखा । अन्य–अन्य जितनी बातें पैदा हुई वह सब पौद᳭गलिक है । अशुद्ध निश्चय से रागादिक रागादिमय आत्मा के हैं, शुद्ध निश्चय से आत्मा के नहीं हैं । शुद्ध जीव को शुद्ध ही निहारना । दर्पण के सामने लाल खिलौना रख लेने से दर्पण ही लाल प्रतिभासित होने लगता है । कहो वह प्रतिबिंब किसका है ? दर्पण का कहने से अन्य का नहीं रहा तो फिर दर्पण में सदा रहना चाहिये । दर्पण को शुद्ध ही देखें तो कहेंगे, वह छाया खिलौना की है । इसी तरह राग विकार आदि पुद᳭गल के ही हैं । रागादिक पर हैं जीव को पूर्ण शुद्ध ही देख रहे हैं यहाँ । जो अनादि है, अचल है, अनंत है, ज्ञायकस्वरूप है वह मैं हूं । पुद᳭गल और जीव मिलते हुए भी एक स्वभावरूप हो जाये सो बात नहीं है । यह स्वसंवेद्य है । जीव अपने द्वारा ही जानने योग्य है । स्पर्शन, रसना, घ्राण, चक्षु और कर्ण से कोशिश करें तो वहाँ व्यापार नहीं चलता है । वह स्वयं स्वभाव से जानता है । जीभ जीभ का स्वाद नहीं जानती । हाथ स्वयं हाथ की गर्मी को नहीं जानता है । जब बाहर भी यही व्यवस्था है तो बताओ आत्मा इंद्रियों के द्वारा जानने में नहीं आता, इसमें क्या संदेह है ? सब वृत्तियां समाप्त हो जावें तो कुछ भी न रहे तो आत्मस्वभाव समझ में आ जायेगा ।
293. रागचेष्टा का समाचार―जो वस्तु अच्छी लगी उसको मित्र मान लिया तथा जो अच्छी न लगी उसे शत्रु मान लिया तो प्रतीत होना चाहिए कि विषय कषाय हमारे शत्रु हैं, तुम्हें जो अच्छा लगे उसकी बलि दे दो । लेकिन हो रहा सब विपरीत है । जैसे कि कुम्हार कुम्हारिनी से जीते सो गधी के कान मरोड़े । कुम्हार था वह स्त्री से नहीं जीत पाया तो गधी बंधी थी पास में, सो उसको मार दिया । देखा जाता है बहुत-सी माताओं को गुस्सा आता है तो कारण तो कुछ और होता है किंतु बच्चों को पीट देती हैं । यथार्थ में राग को बलि करना चाहिये किंतु विषय कषायों को नहीं छोड़ सके सो पशुओं को बलि करने लग गये । विषय कषायों को मारे तो बलि है । जिससे आत्मस्वभाव समझ में आ जावे । महादेव दिगंबर जैन मुनि ही तो थे । 11 अंग 9 पूर्व के पाठी थे । उस समय उनका बड़ा प्रभाव था । सभी आकर तत्त्वोपदेश सुनते थे, आत्मज्ञान प्राप्त करते थे । जब उन्हें दशवां पूर्व सिद्ध होने को आया तो अनेक देवता आकर उनसे विनय करके बोले, आप जो कहें सो करें उनके चरणों में सभी कुछ समर्पण करने को तत्पर हो गये । बस, वहाँ वे स्व से च्युत हो गये तो इतने स्नेह में आ गये कि पर्वत राजा की पुत्री पार्वती से विवाह कर लिया । देवता लोग एवं देवियां उनकी सेवा में उपस्थित हुई थी, इससे राग से द्रवीभूत होकर राग में गये ।
294. सहज परमात्मतत्त्व की अंत:प्रकाशमानता―स्वभाव अचल है । सुवर्ण में कुछ भी पदार्थ मिला हो तो भी सुवर्ण अपने स्वभाव को नहीं छोड़ता । जमीन पर लोहे की कीलों के साथ अन्य कुछ भी पड़ा रहा तो चुंबक लोहे को ही ग्रहण करता है । चेतना का कहना है हम स्वभाव की तरफ से कभी नहीं बदलेंगे तुम भले बदल जाओ । चेतन के पास आओ तो इसका सदैव उपयोग करो व लाभ लो, ऐसा जो चेतन है वह अपने स्वरूप में प्रतिभासमान हो रहा है । जीव का काम ज्ञानमात्र है । जीव सदा अपने आपमें प्रकाशमान है । यह शरीर जीव नहीं है जो कि दर्पण में शरीर को देखकर फूले नहीं समाते, बार-बार देखते, शृंगार करते, क्रीम, पाउडर, लिपिस्टिक लगाते हैं, क्या विपरीत कार्य है । देह तो यह अचेतन है । एक बार एक राजा जीव समझ में नहीं आने से दु:खी थे, क्योंकि जीव उनकी आंखों से नहीं दिखता था । वह घोड़े पर सवार होकर पुरोहित के पास पहुंचे और बोले तुम हमें दो मिनट में जीव दिखाओ । पुरोहित ने कहा जो आज्ञा सरकार । किंतु एक शर्त है आपको हमारे सब कसूर माफ करना होंगे । हाँ, कर देंगे । तब पुरोहित ने हंटर राजा से लेकर राजा में ही 3-4 हंटर जमा दिये । तब राजा दु:खी होकर चिल्लाने लगा और ‘हे भगवन ! बड़ी वेदना है’ यह कह उठा । तब पुरोहित ने बताया जिसे दु:ख अनुभव हुआ वह जीव है तथा जिसे पुकारा है वह परमात्मा है । स्वभाव में एकाग्र होकर देखो तो वह स्वयं सबको ज्ञात हो जायेगा । स्वभाव में रमण करने वाले का नाम परमात्मा है, वह भी अपने में देखता है ।
295. आकांक्ष्य एक तत्त्व―यदि किसी से कुछ मांगना है तो वह चीज मांगों जो बार-बार न मांगना पड़े । अगर धन मांगा तो इज्जत चाहिए, कार्यों में विजय चाहिए और अनेक आवश्यकतायें बढ़ती जाती हैं। जिस चीज के प्राप्त होने पर पुन: न मांगना पड़े उसकी इच्छा तो सबको होगी । पहले तो यह देखो यह कैसे मिल जाती है एक निज की रुचि से ? एक ने देवता सिद्ध किया तो देवता ने कहा, बोल तुझे जो मांगना हो सो मांग ले । वह घर पहुंचा और पिता से कहा ‘मुझे देवता सिद्ध हो गया सो वरदान देने को कहा है’ इसलिये क्या मांगा जाये ? पिता ने धन मांगने को कहा । मां के पास पहुंचा तो बोली आंखें खुल जावे मेरी । इसके बाद स्त्री के पास पहुंचा तो बोली पुत्र मांग लेना । अब वह चिंता में पड़ गया क्या मांगा जाये ? अंतिम युक्ति सूझ निकाली, सुबुद्धि आ गई तो देवता से कहता है ‘हमारी मां पोते को सुवर्ण थाल में भोजन करते देखे । इससे उसके तीनों कार्य एक बात में सिद्ध हो गये । इसी तरह भगवान से एक बात मांग लो, सब आ जावेंगे । चैतन्यस्वभाव का दर्शन, आलंबन लो । सब चीजें आ जायेंगी । चैतन्य स्वभाव की दृष्टि बनाई तो पाप कर्म की निर्जरा होगी तथा जब तक भव है पुण्य कर्म आवेगा । अंत में मुक्ति होगी । जहां परिणमन पर के आलंबनरूप है वहाँ विकल्प बनेंगे । किंतु जहां कोई विकल्प नहीं है वहाँ पूर्ण स्वभाव की सिद्धि होती है । जहां विकल्प नहीं छूटे, वहाँ परपदार्थ होने से स्त्री, बच्चों की गहने आभूषणों की चिंता रहती है । लेकिन ठोस वस्तु देर से प्राप्त होती है, प्राप्त हो तो यह स्थाई रहती है । वह भी मेरा स्वभाव है विकल्प स्वयं अचेतन है क्योंकि विपाकपूर्वक होता है । मैं तो ज्ञानमात्र हूं सबसे विविक्त हूं । बच्चे आपस में घोड़े बनकर खेलने लगते हैं । उनकी चेष्टायें भी उसी तरह की होने लगती हैं । सिर से सिर भिड़ा कर लड़ने की भी कोशिश करते हैं । उनकी मान्यता उस समय घोड़ा जैसी हो जाती है । इसी तरह जीवों की प्रतीति होने लगे कि मैं तो ज्ञानमात्र हूं, कई बार मुंह से उच्चारण करे, जितना बने तब कहें―‘मैं ज्ञानमात्र हूं, सबसे न्यारा हूं, यह असली मंत्र है । इसको बार-बार अधिक कहने पर सुख ही मिलेगा । परपदार्थों से रुचि हटेगी । अपने को ज्ञानमात्र अनुभवने लगेगा ।
296. जीव का निर्दोष लक्षण―जीव का सही लक्षण क्या है, इसका वर्णन करते हैं । क्या जीव उसे कहते हैं जो वर्ण से सहित हो ? या जो वर्ण से रहित हो उसे कहते हैं ? क्या जो मूर्ति है उसे जीव कहते हैं ? या जो अमूर्तिक है उसे जीव कहते हैं या जो राग सहित हो, आदि बातें सामने रखकर उत्तर दो । इन सबमें ही जीव नहीं है, जो वर्णादिक से सहित है उनमें तीन काल में भी जीवत्व नहीं आ सकता । वर्णादिक से रहित जीव मानो तो इसमें अतिव्याप्ति दोष है । इसलिए यह लक्षण भी ठीक नहीं है । क्योंकि वर्णादिक से रहित धर्मद्रव्य, अधर्म द्रव्य, आकाश और काल द्रव्य भी पाये जाते हैं । मूर्तिक द्रव्य भी जीव नहीं है क्योंकि यहाँ असंभव दोष आता है । अमूर्तिक द्रव्य भी जीव नहीं है क्योंकि इसमें अतिव्याप्ति दोष आता है । धर्म, अधर्म, आकाश और काल द्रव्य भी अमूर्तिक हैं । जीव का लक्षण रागादिक कहो, सो यह इसलिए ठीक नहीं है कि कुछ जीवों में रागादिक हैं और कुछ में नहीं हैं । इसमें कोई जीव का लक्षण नहीं है, वहाँ अव्याप्ति दोष है । तब जीव का लक्षण क्या है ? चेतना जीव का लक्षण है । चैतन्य सब जीवों में है । जीव का स्वभाव ही चैतन्य है । इसमें अव्याप्ति, अतिव्याप्ति एवं असंभव दोष नहीं है । जीवों में प्रतीति बैठी रहती है कि मैं जैन, अजैन, सेठ, निर्धन, विद्वान, मूर्ख, त्यागी, ब्रह्मचारी हूं । चेतना मात्र हूं उसकी खबर नहीं है । मैं जैन हूं और चैतन्य की खबर नहीं है तो यह पर्यायबुद्धि है, मिथ्या बुद्धि है । जिसमें चेतना हो वह जीव है । जीव के लक्षण से ऐसा ज्ञानी जीव अनुभव करते हैं । अनुभव, चिंतवन, बोली, वाणी, रागद्वेष, ख्याल, विचार, मोह ये सब भी अजीव हैं । यह सब क्षणिक-क्षणिक चीजें बताई हैं । जीव नित्य है और विचार अनित्य है, ख्याल अनित्य है । फिर वह सब जीव कैसे हो जावेगा तथा जो ग्रंथों की जानकारी हो रही है, वह भी अजीव है । शुद्ध चैतन्यमात्र जीव है ।
297. मोह के अस्त होने पर संचेतन की संभवता―दूसरे का चैतन्य हमारे लिये जीव है या अजीव ? अजीव है । क्योंकि हमारा जीवत्व हममें है । सिद्धों का जीवत्व सिद्धों में है । सत्त्व और चैतन्य सबका भिन्न-भिन्न है । निज को निज कब माना जाता है, जब पर को पर माना जाता है । यह बात जब समझ में आती है तब मन में उल्लास होता है । छोटी-छोटी बातों में उल्लास होता है । इसी तरह अपने स्वरूप का परिज्ञान हो तथा सही रमण हो जाये तो उसका तो कहना ही क्या है ? अनादिकाल का जो मोह लग रहा है सो जीव अनेक नाच नचता है । जीव चेतना मात्र है―यह कब अनुभव होता है, मोह में तो होता नहीं । दतिया रियासत में एक घटना हुई । राजा हाथी पर बैठा कहीं जा रहा था । वहाँ एक कोल्ही शराब पिये हुए था तो कहता ओ रे रजुआ तू हाथी बेचेगा । राजा को यह बात खटकी कि इस साधारण आदमी की इतनी ताकत । राजा उसे खत्म करने को तैयार हो गया । तब मंत्री बोला, न्याय यहाँ न करके राज दरबार में करना । राज दरबार में वह मनुष्य बुलाया गया । कोल्ही डरता-डरता राजा के समीप आया । राजा बोले, क्यों तू मेरा हाथी खरीदेगा ? कोल्ही बोला आप कैसी उल्टी सीधी (बिना सैर पैर की) बात कर रहे हो ? फिर से राजा ने कहा ‘मेरा हाथी खरीदेगा’ । तब कोल्ही कहता है ‘राजा साहब आप नशा तो नहीं किये हैं’ । मंत्रीजी बोले, हाथी यह नहीं खरीद रहा था, इसका नशा खरीद रहा था । तब कहीं राजा संतुष्ट हुआ ।
298. अभिमान का कारण परसंपर्क―यह मनुष्य अभिमान नहीं कर रहा है, इसका पैसा अभिमान कर रहा है । हितोपदेश में एक कथा आती है । एक संन्यासी था । उनका सत्तू प्रतिदिन एक बड़ा मोटा चूहा खा जावे तो संन्यासी ने सत्तू को खूंटी पर टाँग दिया । वह कूद-कूदकर वहाँ से भी खा जावे । चूहा खूब मस्त हो चुका था । यह बात संन्यासी को विदित हुई । संन्यासी ने सोचा यह रहता कहां है, देखा भाला, जिस बिल में रहता था उसे खोदा वहाँ धन निकला, निकाल लिया । कुछ दिनों में वही चूहा निकला तो शरीर से काफी दुबला पतला हो चुका था । तब संन्यासी सोचता है कि इसका अर्थ निकल चुका है इसी कारण दुर्बल हो गया है । इसके अंग मात्र रह गये हैं । इसी तरह यह जीव नहीं नच रहा है, विषय कषायों में मदोन्मत्त होकर ही नृत्य कर रहा है । आश्चर्य है कि यह मोह क्रिया किस प्रकार से नचा रही है ? इसकी श्रेष्ठ औषधि भेदविज्ञान है, शुद्ध दृष्टि जहां है वहीं शुद्ध चैतन्य का अनुभव है । मोही के 24 घंटा यह अनुभव रहता है मैं मनुष्य हूं, मैं स्त्री हूं । इसके विपरीत सोचें कि मैं कहां इस तरह का हूं, शुद्ध चैतन्य मात्र आत्मा हूं । यही बार-बार अनुभव आ जावे । कहां मेरा मकान है, कहां मेरा परिग्रह है, कहां मेरे बंधु जन का, मित्रों का समागम लगा है ? मैं केवल एक हूं । ऐसा यह चैतन्य का स्वरूप निराला है । स्वरूप तो अचल है । यह अविवेक व पुद᳭गल नचता तो नचो । महान अविवेक के नाट᳭य में भी यह नहीं नच रहा है किंतु नाचते हुए जीव में महामोह का जीवन नच रहा है, विकार नच रहा है, उसी की यही महिमा है । निरपेक्ष स्वभावभर देखो तो यह बात दोनों में आ जावे―वर्णादिमान जो पुद᳭गल हैं वही नचते हैं । देह चलता है उसके विकार होते हैं, मैं तो एक शुद्ध जीव हूं । मैं कैसा अच्छा हूं इत्यादि विकल्प पुद᳭गल के विकार है ।
299. आत्मा की शुद्ध चैतन्यधातुरूपता―मेरा तो स्वरूप शुद्ध चैतन्य धातु है । एक संस्कृत क्रिया में धातु होती है । तथा दूसरी सोना, चाँदी, पीतल, तांबा आदि को धातु कहते हैं । सोना आदि के अनेक जेवरात रूपक बन जाते हैं । संस्कृत में धातुओं से अनेक शब्द बन जाते हैं । प्रत्यय विकार आदि धातु पर ही जमते हैं । उसी तरह जीव को पर्याय के स्रोत होने से चैतन्य धातु कहते हैं । हाँ मर्म की बात इतनी है कि स्रोत को देखे तो विकार न हो । अपने बारे में इतनी शुद्ध निर्मलता लावे तो कुछ भान होता है । जो अधिक पढ़ लेते हैं कहते हैं वे ― अभी तो हम कुछ नहीं जानते । तथा जो थोड़ा-सा ही पढ़े होते हैं वह अपने सामने किसी को कुछ समझते ही नहीं । तथा जहां आत्मकार्य में पहचान लिया जाता है वहाँ ज्ञानी सोचता है मेरी सारी जिंदगी अज्ञान में गई । पूजा, भक्ति, तीर्थ, यात्रा जो भी कार्य किया वह आत्मबोध बिना किये तो सब अज्ञान में किये । किंतु रूढ़ि पर चलने वाले अपने को बड़ा धर्मात्मा कहते हैं । ज्ञाता द्रष्टा रहने के अतिरिक्त जो भी बातें हैं वे सब उन्मत चेष्टायें हैं । जाननमात्र हूं―यह स्मरण कल्याणकारी है । रूड़की में शास्त्र प्रवचन करने पर 50 आदमी जैन आवें तो 100 अजैन आवें । कुछ दिन प्रवचन सुनती-सुनती एक पढ़ी लिखी अजैन महिला अवसर पाकर मंदिर में हमारे पास आई और बोली एक दु:ख मुझे ज्यादा बना रहता है कि यह कैसे अनुभव में आवे कि मैं स्त्री नहीं हूं । इससे उदास बनी रहती हूं । भैया ! जानते तो सभी लोग हैं आत्मा चैतन्यमात्र है । हमने उसे समझाया―तुम अपने लिये स्त्रीपने के एवं पुरुषपने से विकल्प से रहित शुद्ध चैतन्यपने की निराली ही रटन लगाओ तथा अभ्यास करो तो तुम्हें कोई दु:ख नहीं होगा । मूल बात―शरीर से ही अपने को भिन्न समझो । शरीर की वजह से भेदपना का नियम नहीं रहा और स्त्री और पुरुष का अनुभव करना कार्यकारी नहीं है । देखो स्त्री और पुरुष दोनों अपने लिए ‘मैं’ शब्द का प्रयोग करते हैं कोई स्त्री अपने को गुरु गुरुरानी की तरह मैं म्यानी नहीं कहती । तुम शब्द का भी दोनों का समान प्रयोग होता है । इसमें भी कोई तुम तुमानी नहीं कहता । मैं मैं और तुम तुम इसमें क्या वेद आया ? मैं में कहां लिंग है, कहां चिह्न है ? ज्ञान ही शरीर है, ढांचा है, ऐसा ज्ञान ही आत्मा का स्वरूप है । इस प्रकार ज्ञानरूपी करोंती से अज्ञान के टुकड़े-टुकड़े कर देना चाहिये । भेदविज्ञानरूपी छेनी ही कर्मभेद की सफलता का कारण है ।
300. बाह्यक्रिया करके भी अंत:क्रिया की श्रद्धा से अच्युति―‘गले पड़े बजाय सरे’ देहातों में स्वांग करते समय किसी के गले में ढोल डाल दिया जाये मगर वह बजावे नहीं तो बुद्धू समझा जाता है । किंतु बजाना न जानने पर भी ठोकने लग जाये तो आदमी खुश हो जाते हैं और मजाकपने का नाम होकर विनोद बन जाता है । इसी तरह गृहस्थी, दुकानदारी, नेतागिरी आदि गले पड़ी है तो उसे निरपेक्ष भाव से करता हुआ भी नहीं करने के समान है । क्योंकि ‘गले पड़े बजाय सरे’ । परमेष्ठी जैसा कार्य करना मेरा कर्तव्य है । जो परमेष्ठी देवों ने किया वह मेरा करने का कार्य है । ज्ञानरूपी छेनी के द्वारा जीव और अजीव के भेद हो गये तभी ज्ञाता बन गये । तब वह ज्योति प्रकट होती है कि सारे विश्व में व्याप्त होकर प्रकाशमान हो जाती है । हम कम ज्ञानी हैं कुछ भी स्फूर्ति नहीं है । यह सब पर्यायबुद्धि ने कर दिया है । यह जीव अपराध कर रहा है यह पर्यायबुद्धि ही का संस्कार है । चीज कुछ है, मोही मानता कुछ है । भेदविज्ञान के द्वारा आत्मा में अंतर्मुहूर्त भी ठहर जाये तो ऐसी ज्योति प्रकट हो कि सारे विश्व में फैल जावे, परपदार्थ की आसक्ति आत्मकल्याण नहीं होने देती । मैं कुछ कर लूं, कुछ करूंगा या करता था यह आशा संयम नहीं होने देती । संयम सुख का बीज है ।
301. समाधिभाव की शरण्यता―समाधिमरण सबका सार है । यदि मरण नहीं जैसा चाहे वह वैसा प्रयत्न कर लेवे, थोड़ा आरंभ संभला तो दु:ख ही हाथ लगेगा । जो परिग्रह से मनुष्यगति मिल सकती है, अधिक आरंभ परिग्रह नरक का कारण है, छल कपट तिर्यंच गति में भ्रमायेगा । सरल परिणाम होना देवगति का कारण है । उमास्वामी के सूत्र हित के लिये अमृत देने को समर्थ हैं । अपने स्वरूप की आराधना करो । कितने ही को मरते समय देख रहे हैं कि जो जितना भी धन कमाता है उसके साथ कुछ भी नहीं जाता । जिन्हें संयोग में बुद्धि रहती है उन्हें मरण में अनेक दु:ख रहता है । किंतु जो भेदविज्ञान पूर्ण जीवन बिताते हैं वे अच्छा सुख पाते हैं । यहाँ कुटुंबरूपी वृक्ष पर संसारी प्राणियों का समागम हुआ है । प्रात: होते ही अपना नीड़ छोड़कर चल देंगे । यही दशा हम सबकी होगी । फिर भी न चेतें तो इससे अधिक कौन अज्ञानी है ? जैसे सफर करते समय रास्ते में 2-4 मुसाफिर मिल जाते हैं तो मिल-जुलकर अपने सुख दु:ख की बात कर लेते हैं, उसी तरह यहाँ मुसाफिर मिल गये हैं, कुछ समय सुख के स्वप्न देखेंगे, फिर मुसाफिर अपने गंतव्य स्थान पर चले जावेंगे । यही दशा हमारी है । हम स्वयं मुसाफिर हैं । पूछने लगते हैं आपका भैया कितने वर्ष का हो गया ? तो वहाँ से उत्तर मिलता है 8 वर्ष का हो गया । कहना तो चाहिये 8 साल मर चुका या 8 साल बीत गए किंतु परिपाटी विपरीत चल रही है । इसी तरह अन्य में पूछने पर कहता 40 साल का हो गया । कहना यह चाहिए 40 साल बीत गए, मर गये, 20 वर्ष का जीवन और बचा अंदाजन । इन दृष्टियों से उम्र की बात किया करें, इसमें यथार्थता ज्ञान में रहेगी तब प्रतीति व शांति सच्ची होगी ।
302. पर्यायबुद्धि में सकल अहित―यह पर्याय वह दशा है जिसमें बचपन, यौवन एवं वृद्धावस्था संबंधी अनेक दु:ख हैं । इसमें क्रोध, विषय, इच्छा, द्वेष, मत्सर, ईर्ष्या आदि न जाने कितने-कितने विकार होते रहते हैं? फिरंगी मन इच्छा करते ही इनमें शीघ्र चला जाता है और मोही उनमें संलग्न हो जाते हैं । इनमें जो प्राणी आत्मदृष्टि की बुद्धि रखता है उसे मिथ्यादृष्टि समझना चाहिए । मिथ्यादृष्टि शब्द में मिथ धातु है अर्थात् संयोग होना । मिथ्या बुद्धि वाले को मिथ्यात्व कहा जाता है । पदार्थ अलग-अलग हैं, उनमें संयोगपना साबित करना तथा पर्याय में आत्मबुद्धि रखना यह मिथ्यात्व है । जो स्व में स्थित है वह स्वसमय है तथा जो पर में लगे हैं उन्हें अपना समझ रहे हैं वह परसमय हैं । आत्मा के स्वभाव को प्राप्त होवे सो स्वसमय और पर्याय को प्राप्त होने वाला परसमय है । आत्मा के समय को प्राप्त होना और उसी में रमण करने का अभ्यास करना, क्योंकि जगत के संपूर्ण पदार्थ आत्मा से अत्यंत भिन्न हैं । उसी स्वभाव की आराधना करो यही आत्मा का स्वकार्य है । जब आत्मा के स्वभाव में समर्थ हुए तब भी कभी-कभी भ्रमबुद्धि से पर में आसक्त हो जाता है तो उसे जब चेत आता है यकायक संभलकर सोचता है, मैं कहां अनर्थ में जा रहा हूं । दो आदमियों ने धोबी के यहाँ चादरें धुलने को डाली । उनमें से धोबी के घर एक व्यक्ति जाता है और चादर मांग लाता है, उसे यही ज्ञात है कि यही मेरी चादर है । इसलिए वह चादर लाकर पैर पसारकर चादर ओढ़कर सो जाता है । इतने में दूसरा व्यक्ति चादर लेने धोबी के घर जाता है तथा उसकी चादर नहीं मिलती है और पता चलता है पहला व्यक्ति ले गया है, तो वह दौड़ा-दौड़ा पहले व्यक्ति के पास आकर और चादर का खूंट पकड़कर खींचकर कहता है कि यह चादर मेरी है । अब दोनों कहते मेरी है । तब दूसरे आदमी ने अपने पहचान के निशान बताकर उसे समाधान कराया और चादर ले ली । इसी तरह प्रत्येक प्राणी सोचे यह मेरी पर्याय पर है, इसे क्यों भ्रमबुद्धि से अपनी मानूं ? दूसरे के द्वारा ज्ञान के सही निशान बताने पर पर्याय से ममत्व बुद्धि हटाकर स्वात्मबुद्धि पर दृष्टि लगाने की कोशिश करे तब इस संसाररूपी जाल से निकल सकता है अन्यथा भ्रमबुद्धि से सोता रहने से दूसरा आकर परेशान करेगा, वह शांति नहीं लेने देगा ।
303.सदुपदेश के लाभ का आभार―अनेक भव धारण किये सभी की गफलतें मैंने भोगी । अब जैनधर्मरूपी अमूल्य रत्न का उपदेश मिला है। इसे मैं क्यों न स्वयं का अंग बनाऊं ? अनुभव करें मैं नित्य हूं, अविनाशी हूं, चैतन्यमय हूं, सच्चे सुख का भोक्ता हूं । अपने स्वभाव में रुचि होवे और पर में नहीं जावे इसी के लिए स्वाध्याय है तत्त्वज्ञान है । पहले सुन लिया था कि कोई ब्रह्मा ही दुनिया में एक तत्त्व है तब अपने को बाहर करके बाहर में उपयोग लगाता था । अब जान लिया ज्ञानमात्र तत्त्व है, संपूर्ण समस्यायें हल हो गई । इसी तरह सब अन्य-अन्य हैं । जिसे अनेकांत दृष्टि प्राप्त हो गई, उसे जो परिग्रह भले लग रहे थे वह जहर के तुल्य प्रतीत होने लगे । पदार्थ के विपरीत चिंतवन से आकुलता आकुलता ही होती है । यह देह भी मेरी नहीं तो बेकार ममकार क्यों करूं ? मैं तो आत्मा मात्र हूं । बड़े-बड़े त्यागी कठिन से कठिन परीषह सहन कर लेते हैं, उन्हें उनसे कष्ट का अनुभव नहीं होता । उन्हें इतनी चिंता नहीं कि मैंने इतना धर्म नहीं कर पाया, इतना और कर लूं, यह भाव नहीं रहता है । उन्हें यह ज्ञात रहता है, मैं आत्मस्वभाव मात्र हूं । मैं 2-4 वर्ष और जी लूं तथा धर्म कर लूं यह भी दृष्टि नहीं रहती, रहती है केवल आत्मदृष्टि । मकान दूसरा बदलना है । देखो आत्मस्वभाव की दृष्टि न छूटे, अधिक जिंदा रहे तो भी क्या और मरण को भी प्राप्त हो गये तो क्या ? आत्मस्वभाव पर से दृष्टि नहीं हटे तो सर्वत्र अच्छा है तथा आत्मस्वभाव पर दृष्टि नहीं है तो अधिक जिंदा रहने से भी क्या और जल्दी मरने से भी क्या लाभ ? आत्मस्वभाव की दृष्टि से रहित होकर अनेक शरीररूपी कोठों में भी रहकर मृत के समान है । अनेक कमरों में से प्रदीप्त होता हुआ भी एक रत्न वही एक स्वरूप है । अनेक पदार्थों में अविचलित आत्मा द्रव्य है उसे एक ही प्रकार से देखो । इस चौकी को शास्त्र प्रयोजन से देखो, नीली, पीली, सफेद से क्या मतलब ? पुत्र अपने ढंग से पिता को देखता है, पिता अपने ढंग से पुत्र को देखता है । इसी तरह आत्मा तो एक ही है, पर्यायें अनेक धारण कर रहा है । कल्याणार्थी आत्मस्वभाव की दृष्टि रखता है । पर्यायों में मुख्यता न रखकर चैतन्यस्वभाव नजर में आवे ऐसी दृष्टि करो । अनेक स्थानों में गया यह जरूर किंतु आत्मा का एक अविचलित स्वभाव है, उसके अनुरूप चलना यही आत्मा का व्यवहार है । वह ज्ञाता द्रष्टा है प्रतीति में जिसके चैतन्यमात्र है । ज्ञेयाकार हो गया तब भी स्वरूप चेतना मात्र है । जो जैसा है वही बोध में आया, इसी को स्वीकार किया है । अगर आपका मन किसी काम में न लगे तथा केवल पूर्ण विश्राम से बैठ जावे तो आप उत्कृष्ट दानी हैं । जिस ज्ञानी जीव की आत्मस्वभाव में दृष्टि हो गई वह कार्य करते हुए न करने के समान है ।
304. निर्मोहता की श्रेष्ठता―मोक्षमार्ग में स्थित निर्मोही गृहस्थ श्रेष्ठ है । किंतु मोह सहित मुनि श्रेष्ठ नहीं है । तुलना करने से भी क्या लाभ है ? अपनी परिणति से ही तो लाभ होगा । ज्ञानी अपने कर्तव्यों को निभाता हुआ चलता है । साधुओं, पंडितों, मंदिरों, तीर्थयात्रा, व्यापार, गृहस्थों सभी का ध्यान रखता है, फिर भी अपने परिणामों के अनुकूल परिणमन कर रहा है । प्रतिकूल बात हो गई, कोई गाली गलोज बक गया, कुछ भी कर गया तो उसे कोई बात लगती नहीं है । कोई अन्य बातों से प्रयोजन नहीं है । अगर वह अपने को मनुष्य प्रतीत करे तो धन कमाने का मोह रखेगा, बोटें लेगा, कीर्ति बढ़ाने के कार्य करेगा आदि । पर ज्ञानी जीव इनसे व्यवहार नहीं करता । किसी साधु से कोई कहे हमें किताब चाहिए तो कहेगा । ‘लो यह है’ वह यह नहीं सोचेगा, यह मुझे भेंट में मिली, मेरा नाम पड़ा है, तुम्हें नहीं देता हूं । किताब देकर पुन: आत्मस्वभाव दृष्टि में लग जायेगा । साधुओं का परपदार्थ में लगाव मोह नहीं रहता । शरीर से नग्न होने का प्रयोजन ही यह है तुम सब बातों से नग्न हो जाओ । वह अन्य बातों से प्रेम नहीं करता । जिसे अपने आत्म स्वभाव की खबर हुई है वह अपने रागादि को भूल जाता है, पर से उदासीन हो जाता है । उदासीन=उत्+आसीन=उत्कृष्ट पद में, समाधि में रत होने वाला जिसमें निष्पक्षता, निर्मलता, विरक्तता है उस पद में स्थिर रहना । जो कहते हैं यह घर में उदासीन है, उन्हें यह न कहकर आत्मा में उदासीन है, घर से विरक्त है ऐसा कहना चाहिये अर्थात् आत्मा में उत्कृष्टपद से बैठा है यह उदासीन का अर्थ है । किंतु रूढ़ि अर्थ हो जाने से शब्द अन्य अर्थ में प्रचलित हो जाते हैं ।
305. प्रतिबोध से ही सुव्यवस्था―परद्रव्य को अपना-अपना कर दु:ख की संतति बढ़ाते जा रहे हैं लोग । जितने परपदार्थ पर दृष्टियां हैं उतनी ही व्याकुलतायें हैं । लेकिन जिसने समस्त परद्रव्यों से संगति हटा दी उसे आत्मतुष्टि ही प्रतीत होती है । जिस बच्चे को अपना बढ़िया खिलौना मिल जाये तो वह दूसरे के खिलौने को क्यों रोवेगा ? इसी तरह जिसकी निज में संगति हो गई उसने सब कुछ पा लिया । कभी-कभी एक दूसरे की बुराई करते समय कहा जाता है तुम मंदिर नहीं जाते, शास्त्र नहीं पढ़ते, पूजन नहीं करते । किंतु हमारे इस कहने से क्या लाभ निकलता है ? मंदिर, शास्त्र पूजन आदि उसके मन में नहीं समाये हैं, उसे मंदिर आदि से बढ़िया अन्य कार्य जंच रहे हैं तभी तो वह ऐसा कर रहा है । मंदिर वगैरह की बात उसे जंचे, गले उतरे, रूचि बढ़े तभी तो वह इच्छा करेगा । मेरे विचार में इन कार्यों में जबर्दस्ती न करके धर्म के मुख्य सिद्धांत समझाये जावे, उस संबंधी उपदेश दिया जावे, महापुरुषों के जीवन चारित्र को जो धर्म में लगने का कारण है बताया जावे तो हो सकता है वह अपनी भूल स्वीकार कर लेवे और रास्ते पर आ जावे । नहीं तो जबर्दस्ती करने का फल यह भी हो सकता है उसके मन में धर्मकार्यों में घृणा की भावना घर कर लेवे तथा उनसे सदैव को निवृत्ति पा लेवे । मैं एक ऐसे पुरुष को जानता हूं जिससे छात्रावस्था में कहा गया तुम्हें मंदिर जाना होगा । उस सुपरिन्टिडेन्ट की ताड़ना से वह नियम सा ही ले चुके कि कभी भी मंदिर नहीं जाऊंगा । जबर्दस्ती करके मंदिर पहुंचाने पर वह मंदिर न जाकर होटल आदि में चाय पीवेगा और आ जावेगा । इसलिए अच्छे उदाहरणों द्वारा समझाकर कार्य में प्रवृत्त करना श्रेयस्कर है । इससे रात्रिभोजन, अभक्ष्य भक्षण आदि न करने के नियम तक जीवन में निभा सकता है । अजैन लोग रात्रिभोजन न करने अभक्ष्यभक्षण न करने जैसे बड़े-बड़े नियम ले लेते हैं । तो क्या वह डंडा के डर से लेते हैं ? नहीं, उनके जीवन में यह भावना जागृत हो जाती है ‘मैं किस धरातल पर जा रहा हूं व क्या करना कर्तव्य है ?
306. आत्मविद्या का महत्त्व―जितने मंदिर हैं उतनी पाठशालायें होनी चाहिए । जो मंदिर बनावे उससे कह दिया जावे कि साथ में पाठशाला भी बनवाओ तो मंदिर बनाना अति श्रेष्ठ है । मुसलमानों में यह होता है जितनी उनकी मसजिदें हैं प्राय: उतने उनके स्कूल चलते हैं । जिस मुहल्ला में जितने बालक होवें वे उस पाठशाला में आकर पढ़ें, ज्ञानार्जन करें । जिसको अपने स्वभाव का बोध हो जाता है वह पर को छोड़ देता है और परम उदासीनता को धर लेता है । मोही किसी न किसी को सहारा मान रहे हैं, परद्रव्यों को अपनाने से । बच्चों को देखो कोई मां के संस्कार द्वारा धर्मकार्यों में प्रवृत्त हो जाता है, कोई आत्मकल्याण संबंधी कार्य करने की प्रकृति डाल लेता है । संगति का प्रभाव होता है । यदि कोई आत्मस्वभाव की संगति करे तो उससे क्या मिलेगा, जो मिलेगा वह वर्णनातीत है । स्व की संगति ही स्व-समय कहलाती है । स्वभाव बनने से ही लाभ है । चक्रवर्ती, नारायण, कामदेव आदि के श्रेष्ठपद मिल गये, यह कमाने से नहीं मिल गये, उन्होंने पूर्वभव में कर्म किया था उसका प्रताप रहा कि इच्छित भोग चरणों में आ पड़ते हैं । आत्मस्वभाव की भावना करे तो क्या मिलना दुर्लभ रहेगा ? न किंचिदपि दुर्लभं विद्यते ।
307. धर्ममय अंतस्तत्त्व की उपासना का संदेश―धर्म का फल तो निराकुलता, शांति व मुक्ति है । पुण्य का फल ऐहिक सुख है । पाप का फल दु:ख है । इनमें से ऐहिक सुख व दु:ख दोनों आकुलता से परिपूर्ण हैं । इनका निमित्तभूत पाप व पुण्यकर्म भी पौद᳭गलिक, अज्ञानमय परपदार्थ है । पुण्य, पाप कर्म का निमित्तभूत पुण्यभाव व पापभाव दोनों पराश्रयज भाव हैं । केवल धर्मभाव ही स्वाश्रयज है । स्व के पड़ौस में, समीप में रहने वाले कौन-कौन पर-भाव हैं, उनका इस अजीवाधिकार में संकेत करके उनका निषेध किया है । उन पर-भावों के आश्रय से धर्मभाव नहीं हो सकता । धर्मभाव के बिना आत्मा की सिद्धि, समृद्धि नहीं हो सकती है । अत: इन सब पर-भावों की दृष्टि त्याग करके एक अखंड, सनातन शाश्वत ध्रुव परमपारिणामिक भावमय ध्रुव चैतन्यस्वभावी स्व का अनुभव करो ।
।। शुद्धं चिदस्मि ।।