वर्णीजी-प्रवचन:समयसार - गाथा 67
From जैनकोष
पज्जतापज्जत्ता जे सुहुमा बादरा य जे चेव ।
देहस्स जीवसण्णा सुत्ते ववहारदो उत्तो ।।67।।
274. व्यवहृत देहसंबंध की उलझनों से आत्मवंचना―पर्याप्त, अपर्याप्त, सूक्ष्म, बादर जीव इस प्रकार देह की जीवसंज्ञा ग्रंथों में कही है वह सब व्यवहार से है ― ऐसा जिनेंद्र देव के शासन में कहा गया है । जो तुम्हें ये वर्णादिक दिख रहे हैं, वे जीव से न्यारे हैं । चेतना युक्त जीव है, वह तो शरीर से प्रकट भिन्न है किंतु अनादि से संबंध लगा होने से पर में आपा बुद्धि शीघ्र रुक जाती है । जब किसी व्यक्ति को सिर में दर्द या और कोई असाध्य रोग हो जाये तो अनेक इलाजों से तथा और सब भाई स्त्री पुत्रादि की सहानुभूति से भी अच्छा नहीं होता, तब यकायक विचार पैदा होता है “कोई भी पदार्थ किसी का सहायक नहीं । मेरी प्रत्येक जन्म संतति की भूल मुझे परेशान कर रही है ।” तब यह तथ्य भिदता है कि संसार असार है । आज तक अपने को आनंदस्वरूप अनुभव नहीं किया । मुझे यहाँ करने को क्या बाकी रह गया जिससे पुन: पुन: इन्हीं उलझनों में फंसता रहता हूँ । ये उलझनें मुझे निकालती तो हैं नहीं । सोचता यह है, इस कार्य को, इस कार्य को करके अब अंतिम सुख की सांस पाऊंगा । किंतु वह सुख की सांस तो दूर रही, पहले से ज्यादा जाल और तैयार हो जाते हैं, जहाँ यह धुन सवार होती है । अब किस जाल में पहले जाऊं किसमें पहले जाऊं, इसी की धुन में इस विनाशीक शरीर के नष्ट होने का साज-सामान ही मौजूद है । अब तो आत्मिक कल्याण से भी वंचित हो गये । इसी तरह प्रत्येक प्राणी का पदार्थ का परिणमन तो हो होता ही रहेगा । मैं या तुम नहीं थे तब भी दुनियां के कार्य बाद थे और आगे नहीं भी रहेंगे तो भी बाद रहेंगे । लेकिन हम यह सोचें मेरे द्वारा यह कार्य हो रहा है, या होगा सो भ्रम है । कार्य तो अपनी आत्मा का करना है जो कि ज्ञानमय है । पर में बुद्धि तो व्यवहार से है ।
275. एकेंद्रियादिक भवों में जीव के व्यवहार का कारण―जैसे घड़ा मिट्टी का होता है, घी का घड़ा नहीं होता । जैसे मिट्टी से बड़ा बनता है क्या उस प्रकार घी से घड़ा बनता है? नहीं बन सकता । जाड़े के दिनों में कोई आकार बना भी दे तो उसका अर्थ क्या? कोई उसमें अर्थ क्रिया हो सकती है क्या? तो जैसे मिट्टी के घड़े में घी रखा रहता है तो लोग उस घड़े का पर की प्रसिद्धि से व्यवहार किया करते हैं । घी का घड़ा उठा लावो, पानी का लोटा ले आवो । तो जैसे किसी संबंध के कारण परप्रसिद्धि से घी का घड़ा है ऐसा व्यवहार चलता है, इसी तरह बादर जीव, सूक्ष्मजीव, एकेंद्रिय, दोइंद्रिय, तीनइंद्रिय, चारइंद्रिय, पंचेंद्रिय, पर्याप्त अपर्याप्त ये सब हैं शरीर की संज्ञायें, पर आगम में जो जीव संज्ञा के रूप से बताया गया है उसमें थोड़ा-सा प्रयोजन है, थोड़ा-सा संबंध है तब परप्रसिद्धि से अर्थात् शरीर की प्रसिद्धि से जीव की प्रसिद्धि करायी जाती है । और उस समय तो खास करके जिसको जीव का स्वरूप समझाना है, जीव का स्वरूप जानता नहीं है तो उसको तो इस ही भाषा का सहारा लिया जायेगा कि देखो जो ये एकेंद्रिय आदिक जीव हैं ना उनमें वास्तव में जीव स्वरूप तो एक शुद्ध चैतन्य है । जीवस्वरूप के परमार्थ स्वरूप की बात पीछे कही जा सकेगी, पर पहिले व्यवहार वाली बात का प्रयोग करना पड़ेगा । जैसे जिस बच्चे को समझ नहीं है कि यह मिट्टी का घड़ा है, वह शुरू से ही सुनता आया घी का घड़ा तो उसे जब समझाने चलेंगे तो यहीं से प्रारंभ करेंगे कि देखो जी जो यह घी का घड़ा है सो वास्तव में घी का नहीं है, मिट्टी का है । इसमें घी भरा रहता है इस कारण कहने लगे । तो परमार्थ उपदेश देने से पहिले व्यवहार का प्रयोग करना पड़ता है । तो यह भी प्रयोजन रहा, उससे इन सब पर्यायों में जीवपने का व्यवहार है । देखिये लक्ष्य समझना है, हमारे इस कथन का लक्ष्य क्या है? मैं केवल शुद्ध चैतन्यस्वरूप जीव को जानूं, उसमें ही रहूं और उस ही में रमकर आत्मकल्याण करूं, ऐसी इच्छा रखने वाले पुरुषों को जीव का विशुद्ध स्वरूप जानना होगा । इसी लक्ष्य से यहाँ जीवस्वरूप बताया है कि जिसका सर्वस्वसार चैतन्य शक्ति से व्याप रहा है उतना ही मात्र मैं जीव हूँ । ऐसा जानने पर, यहाँ ही उपयोग टिकने पर उसे स्वानुभव होगा और स्वानुभव से ही इस जीव की रक्षा है । यही स्वानुभव सर्वसंकटों से उद्धार करने वाला है ।
276. परमार्थ के संबंध में उपचरित व्यवहार की रेखा―एक बटलोई में पानी भरा होने से उसे अग्नि पर चढ़ा देते हैं, तो बटलोई गर्म हुई, उसी के संबंध से पानी गरम हो जाता है । यहाँ क्या आग बटलोई में चली गई या पानी में? अज्ञानी यही समझेगा आग पहुँच गई या आग की पर्याय पहुंच गई? वहाँ तो केवल निमित्त पाकर बटलोई गर्म हुई और उसी अग्नि के निमित्त से पानी गर्म हो गया । कुकर में भोजन पकाते हैं । पानी नीचे रहता है, उसके निमित्त से ऊपर के सभी पात्र गर्म होकर भोजन तैयार हो जाता है । प्रत्येक पदार्थ निमित्त पाकर ऐसा ही करता है । लाइट जलने से बिजली का उजाला होता है । यहाँ उजाला क्या यह बिजली का है? नहीं । वहाँ बिजली का निमित्त पाकर अन्य स्कंध भी प्रकाशरूप हो गये । इस देह पर जो उजाला है वह देह का है, पुस्तक पर उजाला पुस्तक का है तथा अन्य पदार्थों पर का उजाला उन्हीं का है । केवल निमित्तनैमित्तिक संबंध है । उसी तरह जीव, जीव ही है । शरीर, शरीर ही है । कहते हैं घी का घड़ा लाओ । किंतु घड़ा मिट्टी का है । घी के निमित्त से ऐसा व्यवहार होता है ।
277. दोष की हठ का परिणाम―एक ग्राम प्रमुख था । वह पंचों में बैठा गप्पें मार रहा था । उससे किसी ने सवाल किया, 30 और 30 कितने होते हैं ? वह बोला 50 होते हैं । दूसरों से भी पूछा 60 बताये, फिर भी प्रमुख बोला नहीं 30+30=50 ही होते हैं । औरों से भी फैसला करा लो इस बात का, अगर 50 न ही होंगे तो मेरी 4 भैंसे लगती हैं, उसमें हर एक भैंस से 8 सेर, 10 सेर तक दूध निकलता, वह पंचों को दे देंगे । घर स्त्री के पास आया । तो स्त्री बोली ‘तुमने अच्छा किया जो चारों भैंस पंचों को देने को कह दिया ।’ प्रमुख कहता है ‘अच्छी पगली है, जब हम अपने मुंह से 50 ही कहेंगे तो कोई हमारी भैंसे कैसे ले लेगा, 60 हम मुंह से कहेंगे ही नहीं अन्यथा तो लठ रक्खा है ।‘ इसी तरह हम संसारी जीवों की दशा हो रही है । भगवान कुंदकुंदाचार्य, अमृतचंद्राचार्य, नेमिचंद्राचार्य आदि कहते हैं ‘शरीर जीव नहीं है, जीव चैतन्यमय है आदि’ तो कहते रहें, हमें तो दृष्टि में नहीं भिदता । कार्तिकेय आठ वर्ष की अवस्था में मुनि हो गये थे, भगवान कुंदकुंदाचार्य भी 10-11 वर्ष की अवस्था में मुनि हो गये थे तो यह बात सुनकर मोहियों को ऐसा लगता है कि इनका दिमाग फिर तो नहीं गया था । दानी लोग हजारों लाखों रुपये का दान करते हैं तो कंजूसों को सुन कर ही दुःख होता है । असल में जो खुद रंज में है उसे खुशदिल कोई नहीं दिखता है । अगर अपना दिल खुश होवे तो भगवान की मूर्ति देखकर कहते हैं, भगवान हंस रहे हैं । कभी-कभी मनुष्य कहते हैं भगवान का रूप बदलता रहता है, जो जैसे भावों से भगवान को देखता है उसको वैसे ही भगवान दिखते हैं। झूठ बोलने वालों को दुनिया झूठी ही मालूम पड़ती है । मायाचारी के लिए दुनिया ही मायावी मालूम पड़ती है । धर्मात्मा पुरुष सबको धर्मात्मा ही मानता है । वह प्रत्येक को दया दृष्टि से देखेगा । यह भी अपना उद्धार करें । यह बात उसके मन में समायी रहती है । इसके विपरीत पापी लोग सबको पापी मानते हैं । जिसकी जैसी वृत्ति है वह सर्व को वैसा ही देखता है । गुण देखने की आदत जब तक नहीं है तब तक उसकी दृष्टि में गुण दुर्गुण ही रहेंगे । दोषी न हो तो दोष देखने की आदत न रहे ।
278. भावानुसार आचरण―एक मनुष्य जंगल में जा रहा था । वहाँ पर उसे एक सिंह मिल गया, प्राण बचाने के लिए पास के ही एक पेड़ पर चढ़ने लगा । ऊपर गया तो देखता है वृक्ष पर रीछ बैठा है । रीछ कहता है ‘तुम घबड़ाओ मत, तुझे नहीं खाऊंगा, शरण में आये हुए की रक्षा ही करूंगा । सिंह नीचे खड़ा था । रीछ नींद में आकर सोने लगा । इस समय सिंह कहता है कि हे मनुष्य ! इस समय रीछ सो रहा है उसे तुम धक्का देकर गिरा दो । तुम्हें मालूम नहीं, जब हम चले जावेंगे तब क्या रीछ तुझे खाने से छोड़ देगा? तब मनुष्य सोचता है नीचे जाता हूँ तो सिंह है, ऊपर रीछ बैठा है जो मुझे खा जायेगा, सिंह का कहना ठीक है इसलिए यह सोच रीछ में धक्का दिया, जिससे वह गिर जावे । इतने में रीछ की नींद खुली । वह रीछ संभल जाता है । कुछ समय बाद मनुष्य को नींद आने लगती है तो सिंह कहता है ― ओ रीछ ! इस मनुष्य को सीधा मत समझो यह बड़ा धोखेबाज जानवर है । यह तुझे अभी हाल ढकेल रहा था । अब तू इसे धक्का देकर गिरा दे, इसे दोनों खावेंगे । उत्तर में रीछ कहता है―मनुष्य मुझे भले ही गिरा देता किंतु इस शरण में आये हुए को मैं नहीं गिराऊंगा । जिसके मन में जैसा भाव था वैसा ही देखता है । मनुष्य के मन में धोखा व संदेह था इसलिए उसने वैसा आचरण किया, किंतु रीछ के मन में नहीं था इसलिए उसकी रक्षा की । दोष देखने वाला स्वयं दोषी है । गुणी दूसरों को गुणयुक्त ही देखता है तथा हर्ष मनाता है । जैसी योग्यता होती है वैसी परिणति होती है । पर पर ही है और निजात्मा निज ही है । मैं भाव बनाने के सिवाय अन्य कर क्या सकता हूं ? इसलिए जो वस्तु जैसी है, उसके बारे में उसी तरह के भाव बनावें तो मनुष्यजन्म सफल है ।
279. धर्मपालन से ही मानव का महत्त्व―भोजन करना, नींद लेना, भय करना और मैथुन करना काम तो पशुओं में भी है, मनुष्य भी उन्ही के अधीन रहा तो उसने क्या किया? सिर्फ पूछ-सींग रहित पशु ही रहा । अगर कुछ ममत्व कम करके धर्म के प्रति रुचि नहीं जगती तो वह ममत्व घटाना क्या रहा? धर्म मिल जाये तो हम सनाथ हैं । नहीं तो आगे हमारी रक्षा कौन करेगा यह निर्मलता तब तक नहीं आ सकती, जब तक भेदविज्ञान की किरणें न फैल जावे । भेदविज्ञान के द्वारा ही बाहरी पदार्थों से मोह हट जावेगा । धर्म तो एक मिश्री की डली है, इसे किसी भी अवस्था में किसी ओर से खा लो हमेशा मिठास देगा । शादी होने पर युवक सुसराल वाला हो जाता है, तो दूसरे मनुष्य कहते हैं―भैया तुम्हारी तो चनों की खेती है । अर्थात् चना पैदा होते ही उसकी भाजी खाने योग्य हो जाती है । पत्ते खाते, डालें खाते हैं । बाद में बूट नये दाने व फिर चुगते हैं, होरा खाते हैं और बाद में काटने पर चने की दाल बनती, बेसन बनता, अनेक पकवान बनते हैं । यह सब पौष्टिक भी होता है उसी तरह ससुराल से हर जगह आमदनी आमदनी है । शादी में मिला, दुसरते (गौना या चालना) की विदा में मिलेगा, लड़की को धन मिलेगा बच्चा हुआ तो मिलना, पर्व त्यौहार आवे तो मिलना, बच्चे शादी लायक होंगे तो मामा सहायता देगा । हर तरह से लाभ है―उसी तरह धर्म तो ऐसी खेती है जिसमें सुख ही सुख है । धर्मी को मनुष्य गति मिली उसमें सुख, देवगति मिली तो सुख, भोगभूमि में जीव हुए तो सुख, चरमशरीरी हुए तो सुख, अंतिम लक्ष्य मोक्ष है ही । धनी, निर्धन सभी ज्ञान बिना दु:खी हैं । ज्ञान ठीक है तो आनंद ही आनंद है ।
बादर सूक्ष्म शरीर भी जीव नहीं हैं । राग द्वेष भी जीव नहीं । राग द्वेष से क्रोध, मान, माया, लोभ पैदा होते हैं जीव की विकृत पर्याय पुद्गल और जीव के मिलने से बनती है । तीनों जगह (बादर, सूक्ष्म शरीर, और राग द्वेष में) जीव नहीं है । उसके लिए 68 वीं गाथा है । जो ये गुणस्थान मोहनीय कर्म के उदयस्वरूप हैं जिन्हें कि नित्य अचेतन कहा गया वे जीवस्वरूप कैसे हो सकते हैं? ये गुणस्थान भी जीव के नहीं हैं ।