वर्णीजी-प्रवचन:समाधितंत्र - श्लोक 10
From जैनकोष
स्वदेहसदृशं दृष्ट्वा परदेहमचेतनम् ।परात्माधिष्ठितं मूढ: परत्वेनाध्यवस्यति।।10।।परदेह में पर आत्मा का भ्रम–जैसे अपना आत्मा जिसमें विराजमान है ऐसे देह को यह मोही जीव मानता है कि यह मैं आत्मा हूँ इस ही प्रकार दूसरे लोग भी उन अधिष्ठित पर देहों को देखकर ऐसा मानते हैं कि ये दूसरे हैं, पर को पर जानना अच्छा है किंतु ये तो परदेह को ही पर आत्मा देख रहे हैं, ऐसे मिथ्यात्व से छूटा नहीं है। अज्ञान बना हुआ है। दूसरे की देह में भी तो यों दिखता है कि यह देह भी परवस्तु है और इस देह में रहने वाला जो यह आत्मा है यह भी पर है तब तो उसका ज्ञान ठीक था किंतु जैसे स्वाधिष्ठित देह को माना है कि यह मैं हूँ इसी तरह दूसरे के देह में यह मानते हैं कि ये परजीव हैं। इस तरह बहिरात्मा को अपने आप में भी भ्रम है और अन्य जीवों के स्वरूप में भी भ्रम है।देह में आत्मत्व के भ्रम का कारण–भैया ! निज को निज पर को पर जान। कब यह हो सकता है ? जब वस्तु की मर्यादा का पता हो, द्रव्य, क्षेत्र, काल, भाव से पदार्थ किस रूप है, यह ज्ञान में हो तो यह निर्णय कर सकते हैं कि यह तो मैं हूँ और बाकी सब पर हैं। देह में आत्मा समझ लेने का भ्रम मान लेने में एक यह भी सहयोगी कारण है कि यह देह बहुत वर्षों तक विघटता नहीं है। ज्यों का त्यों बना रहता है। अनेक शरीरों के स्कंध आते हैं और अनेक जाते हैं। तो इस शरीर में अनेक परमाणु आए और अनेक परमाणु चले गए। यह तो तांता प्रति समय लगा रहता है लेकिन इस स्थिति में जो शरीर की स्थिरता रहती है उस स्थिरता के कारण यह भ्रम हो गया है कि यह मैं आत्मा हूँ।पुद्गल स्कंधों में परमार्थभूत पदार्थ–इस देह में यह देह पदार्थ नहीं है किंतु जिन एक-एक अणुओं से यह देह सिंचित हुआ है वे एक-एक परमाणु परमार्थभूत पदार्थ हैं। इस मोही जीव की पदार्थों पर दृष्टि नहीं जाती है, पर्याय पर दृष्टि जाती है। जहाँ ही यह निगाह डालता है वहाँ ही देखता तो है पर्याय को, मगर मान जाता है कि यह सर्वस्व द्रव्य है। क्या दिखता है-ये चेतन, अचेतन, भींत, किवाड़, कुर्सी, टेबल, कांकर पत्थर, सोना, चाँदी, तांबा ये सब अचेतन ही तो हैं। ये अचेतनद्रव्य नहीं है किंतु परमार्थभूत एक-एक परमाणु जो कि द्रव्य है उनका संबंध बनाकर एक समानजातीय द्रव्यपर्याय हो गया है। मोही जीव इसे पर्यायरूप से नहीं जान सकता। पर्याय को पर्याय जाने तो वह ज्ञान झूठा नहीं है किंतु वह पर्याय को आत्मारूप से जानता है। कोई झूठ को झूठे जाने तो वह स्पष्ट सही ज्ञान ही तो हुआ। झूठ को सच जाने तो वह भ्रम वाली बात हुई। पर झूठ को झूठ जान लेना मिथ्याज्ञान वाली बात नहीं है। द्रव्य, क्षेत्र, काल, भाव इनकी दृष्टि से परमाणु को देखो-एक-एक प्रत्येक परमाणु अपने गुणपर्याय का पिंडरूप है।स्वरूपचतुष्टय से परमाणु का एकत्व–द्रव्यदृष्टि गुणपर्ययवद्द्रव्यं को बतलाती है। परमाणु का स्वरूप उसका गुणपर्यायरूप पिंड है, उसका भी स्वतंत्र स्वरूप है। किसी अन्य पदार्थ से परमाणु का स्वरूप मिल नहीं जाता है, क्षेत्रदृष्टि से परमाणु एकप्रदेशी है। परमार्थ से पुद्गल अस्तिकाय नहीं है, क्योंकि वह एकप्रदेशी है। स्कंध की अपेक्षा पुद्गल को अस्तिकाय बताया है। काल की दृष्टि से जिस पर्यायरूप परिणम रहा है उस-उस पर्यायमय है और भावों की दृष्टि से परमाणु में जो स्वभाव है, शाश्वत गुण है, उनकी दृष्टि से उन ही मय है। ऐसा परमाणु अपने द्रव्य, क्षेत्र, काल, भावरूप है और यह मैं आत्मा अपने द्रव्य, क्षेत्र, काल, भावरूप हूँ।अज्ञानी व ज्ञानियों का निज व पर–‘निज को निज पर को पर जान।’ इसकी व्याख्या अज्ञानियों में भी है। अज्ञानी व्यामोही जीव अपने कुटुंब को मानते हैं कि ये निज हैं और अन्य सब जीवों को मानते हैं कि ये पर हैं और कहते भी हैं कि यह मेरे सगे चाचा हैं और यह हमारी रिश्तेदारी के चाचा हैं। अरे इस जीव का जीव के अतिरिक्त अन्य कुछ नहीं है। केवल व्यामोह से ऐसा कहा जाता है। ऐसी परख हो तो वहाँ ज्ञान में बाधा नहीं है, किंतु अज्ञानी की कल्पना में तो वास्तव में ऐसा ही है, यहाँ मेरा कुछ है ही, बस यही मिथ्याज्ञान हो जाता है। ज्ञानी जीव को अपने आप में भी उस चैतन्य चमत्कार मात्र आत्मतत्त्व की प्रतीति होती है। इस प्रकार की प्रतीति होती है।संकटों की नींव–जितने संसार में संकट हैं वे सब संकट अहंकार और ममकार की भींत पर टिके हुए हैं। ये दो भाव न हों तो संकट क्या रहा ? अहंकार-पर को मानना कि यह मैं हूँ और ममकार―पर में ऐसी बुद्धि करना कि ये मेरे हैं। बस ये दोनों ही भाव समस्त अनर्थों के मूल हैं। पर में अहंबुद्धि करना तो प्रकट मिथ्यात्व है और पर में ममबुद्धि करना भी मिथ्यात्व में हो सकता और चारित्र मोह में भी हो सकता किंतु व्यवहार चलाने को इस जीव ने अपने को नानारूप अनुभव कर डाला, पर एक स्वच्छ ज्ञानमात्र मैं हूँ, किसी पर के साथ मेरा कोई संबंध नहीं है ऐसी बुद्धि इस जीव ने अब तक नहीं बनायी और इसी का फल है कि यह संसार में अब तक रूलता चला आया है। यह बहिरात्मा की कहानी चल रही है। बाहरी पदार्थों में यह मैं हूँ―ऐसी अपनी आत्मीयता स्वीकार करे उसे बहिरात्मा कहते हैं। बहिरात्मा कहो, पर्यायबुद्धि कहो, मूढ़ मोही, पर्याय मुग्ध ये सब एकार्थवाचक हैं।
अनित्यभावना को मूल्य देने वाला परिचय–भैया ! अनित्य भावना में कोई जीव ऐसा ही ऐसा जानता रहे कि सब मरने वाले हैं, ‘राजा, राणा, छत्रपति, हाथिन के असवार। मरना सबको एक दिन अपनी-अपनी बार।।’ सब मरेंगे, ये मरेंगे, वे मरेंगे, मरना ही मरना दिखता रहे तो उसने अनित्यभावना का मर्म नहीं पाया। ज्ञानी को तो यों समझ में रहते है कि इस जीव में जो सहज स्वरूप है, चैतन्यभाव है वह तो नित्य है और इसकी जो बाह्य परिस्थिति है वह अनित्य है। मरण होता है पर्याय से आत्मा के अलग हो जाने से। जन्म होता है आत्मा का किसी पर्याय से संबंध हो जाने से। आत्मा मरता नहीं है किंतु जिस पर्याय में यह आत्मा बँधता है वह पर्याय मरता है। जीव मरता तो कभी है ही नहीं देह से इसका वियोग होता है व देह विघटता है। सो देह परमाणुवों का पिंड है। वह परमाणु भी कभी अपनी सत्ता को नष्ट नहीं कर सकता। तब फिर मरना दुनिया में कुछ भी बात नहीं है। हो गया वियोग पर द्रव्य सब ज्यों के त्यों हैं।जीवत्व के अपरिचय में मरणभय–भैया ! मरना तो उनके लिए ही सही लगता है जो वर्तमान में पाये हुए समागम में अतिशय करके ममता बुद्धि रखते हैं। मरण तो उनका है। जैसे किसी से कह दिया कि यहाँ क्यों बैठे, यहाँ बैठ जावो, तो उठकर बैठ गया। इसमें किसका बिगाड़ है ? ऐसे ही यह जीव इस पर्याय में क्यों बहुत दिन तक रहता है? यहाँ से चले, नवीन पर्याय में पहुँचे तो उसका क्या बिगाड़ है ? अज्ञानी को मरण का भय है, मरण का क्लेश है। जिसने बाह्य में अपना संबंध मान रखा है मरण तो उन्हीं के लिए है। आत्मा को आत्मारूप से पहिचानने पर मरण नाम में कुछ बिगाड़ नहीं हैं। सो मरण भी देखे, मरण भी बोले, पर साथ ही यह भी समझना चाहिए कि जीव में जो सहजस्वभाव है उसका कभी विनाश नहीं होता। यह अज्ञानी जीव तो नष्ट होने वाला अपने देह को मानता है कि यह मैं हूँ और पर के देह को मानता हे कि यह पर जीव है। इसे जीवत्व की दृष्टि अभी तक नहीं जगी है, इस कारण यह जीव बहिरात्मा है।बहिरात्मा जीव अपने शरीर को अपना आत्मा समझता है और पराये शरीर को पर आत्मा समझता है। इस तरह अपने आपके अस्तित्व में भी भ्रम किए है और अंतस्तत्व में भ्रम किए है। सो ऐसे निज और पर में मिथ्यारूप में मानने के कारण क्या परिणति बनती है ? इस विषय को अब इस श्लोक में कह रहे हैं।