वर्णीजी-प्रवचन:समाधितंत्र - श्लोक 11
From जैनकोष
स्वपराध्यवसायेन देहेष्वविदितात्मनाम् ।जायते विभ्रम: पुंसां पुत्रभार्यादिगोचर:।।11।।अज्ञानी के स्वपरनिर्णय में भूल–जिसने अपने आत्मस्वरूप को नहीं जाना है ऐसे पुरूष ने देह में ही सो यह मैं हू, ऐसा माना और देह में ही यह पर है, ऐसा माना। यह मोही जीव किसी को तो यह पर है ऐसा भी मानता है तो भी वहाँ भूल है। पर को यथार्थरूप से पर भी नहीं समझ पाता है। देह को ही तो निज आत्मा मानता है और देह को ही पर आत्मा मानता है। सो भूल होने के कारण इस जीव के पुत्र भार्या आदि संबंधियों में भी भ्रम हो जाता है। देहों में स्व और पर का आशय जब होता है तो फिर रिश्तेदारी की कल्पना होने लगती है कि यह मेरा पुत्र है, अमुक मेरी स्त्री है आदिक संबंधी इसके भ्रम चलने लगता है और जहाँ पर के संबंध का भ्रम चला कि वहाँ विडंबनाएँ बढ़ती चली जाती है।बोले सो विवूचे–भैया ! जो परपदार्थ में कुछ भी अनुराग करता वह जीव व्यवहार में फँस जाता है। कहां तो स्वतंत्र ज्ञानघन आनंदमय यह आत्मतत्त्व है जो कि कृतार्थ है, कुछ करने को इसे है ही नहीं। यह ज्ञान और आनंद करि संपन्न है। इसका स्वभाव ही ज्ञान और आनंद का है, लेकिन अपने ही स्वरूप का परिचय न होने से यह बाह्यवस्तुओं में उन्मुख होता है, उनमें राग करता है और इसी कारण इसका फँसाव बढ़ता जाता है अन्यथा बतावो लड़के हुए वहाँ तक तो मान लिया कि फँसाव की बात है। अब लड़कों के लड़के हुए तो जैसे बाप बनकर लड़कों के लिए पागल रहे वैसे ही लड़कों के लड़के हुए तो उनके पीछे भी पागल रहेगा। नाती पोते हो गए तो और भी फँसाव बढ़ गया। तो परपदार्थों में अनुराग करने से फँसाव बढ़ता ही जाता है, इसे कहते हैं बोले सो विवूचे।बोले की विवूचन पर एक दृष्टांत–एक राजा साधु के पास जंगल में पहुंचा। वह प्रणाम, दंडवत्, अर्चन करके बैठ गया। थोड़ी देर बाद साधु की समाधि टूटी। जब राजा को अपने सामने बैठा हुआ देखा तो साधु महाराज ने यह कह दिया कि बोलो राजन् क्या चाहते हो ? राजा के कोई पुत्र न था। सो राजा बोला–एक पुत्र मेरे हो जाय। साधु ने कहा अच्छा जावो एक पुत्र हो जायेगा। अब राजा चला आया। माह भर बाद साधु ने देखा कि इस समय कोई जीव मर रहा हो तो रानी के गर्भ में भेजूँ। पर देखा कि कोई नहीं मर रहा है। तो साधु ने सोचा कि मेरी बात कहीं झूठ न हो जाय इसलिए खुद मरो और रानी के पेट में चलो। तो साधु खुद मरा और रानी के गर्भ में आया। अब गर्भ के दुःख, मुँह न खोल सके, देख न सके, बोल न सके, सो गर्भ के कष्टों से पीड़ित होकर पेट के अंदर ही सोचता है कि जन्म ले लूंगा पर कभी बोलूँगा नहीं। साधु होकर भी मैंने बोल दिया था कि तेरा अभीष्ट सिद्ध हो जायेगा तो इतने दुःख उठाने के लिए रानी के पेट में आना पड़ा। तो अब मैं कभी न बोलूंगा। बोलने से विडंबना बढ़ जाती है।बोले की विवूचन पर एक उपदृष्टांत–साधु पैदा तो हो गया वहाँ पर बोले नहीं। गूंगा बन गया। अब राजा को बड़ा दुःख कि पुत्र किसी तरह से हुआ भी तो गूंगा हुआ। अब वह 8–10 वर्ष का हो गया तब तक भी न बोले, तो राजा ने घोषणा करा दी कि मेरे पुत्र को जो बोलना बतायेगा उसे बहुत ईनाम दूंगा। एक बार राजपुत्र बगीचे में घूम रहा था और उसमें एक चिड़ीमार जाल बिछाए चिड़िया पकड़ने छुपा हुआ बैठा था। जब चिड़िया न मिली तो अपनी जाल लपेटकर चलने लगा। इतने में ही एक चिड़िया एक डाली पर बोल गयी। चिड़ीमार ने लौटकर जाल बिछाकर उसे पकड़ लिया। यह बात देखकर राजपुत्र से न रहा गया और वही बोल पड़ा, जो बोले सो फँसे। उसका मतलब था कि यह चिड़िया न बोलती तो वह तो जाल लपेटकर जा ही रहा था, बोली सो फंसी। अब राजपुत्र के इतने शब्द सुनकर चिड़ीमार के हर्ष का ठिकाना न रहा। उसने सोचा―राजपुत्र बोलता है, ऐसा राजा को सुना दे तो बहुत सा इनाम मिलेगा। चिड़ीमार सीधा राजा के पास पहुंचा और बोला कि महाराज आपका पुत्र बोलता है। इतनी बात सुनकर राजा ने 5 गांव नाम लगा दिये। अब राजपुत्र महल में आया तो राजा कहता है कि बोलो बेटा। वह न बोला। अब तो राजा को चिड़ीमार पर बड़ा क्रोध आया कि चिड़ीमार भी हमसे दिल्लगी करते हैं। अच्छा मैं इसे फांसी दूंगा। बालेकी विवूचन पर अंतिम उपदृष्टांत―राजा ने उस चिड़ीमार को फांसी के तख्त पर चढ़वा दिया और राजा बोला कि तू जो चाहता हो खा पी ले, जिससे मिलना चाहता हो मिल ले। चिड़ीमार बोला-महाराज मुझे कुछ न चाहिए, सिर्फ दो चार मिनट को आप अपने पुत्र से मिला दो। मिला दिया। अब राजपुत्र से चिड़ीमार कहता है कि ऐ राजकुमार ! मुझे मरने का जरा रंज नहीं है। रंज इस बात का है कि दुनिया जानेगी कि चिड़ामार ने झूठ बोला, इसलिए फांसी दी गयी। इसलिए हे राजकुमार ! आप अधिक न बोलो तो उतने ही शब्द बोल दो जो शब्द बगीचे में बोले थे। वह राजपुत्र अब उतने ही शब्द क्या बोले, उसने तो भाषण दे डाला। पहिले मैं साधु था, वहाँ राजा से बोल गया, सो रानी के पेट में फंस गया। इसीलिए मैंने 8, 10 वर्ष की अवस्था तक नहीं बोला था, अब देखो चिड़िया डाली पर बोल पड़ी इसीलिए चिड़ीमार के जाल में फंस गयी। और देखो ये चिड़ीमार साहब भी राजा से बोल उठे सो वह भी फंस गये। व्यर्थ के श्रम से विराम लेकर एक अपूर्व कार्य का प्रयोग परीक्षण―यह संसार बिल्कुल अजायबघर है। किसी बात पर हमारा आपका अधिकार ही नहीं है। बिल्कुल व्यर्थ के ख्याल कर करके खुश होते रहते है। यह मेरा है, मेरा यह ठाठ है। तो इस भ्रम से ही तो सारी विडंबनाएँ हैं। इन सारी विडंबनावों का मूल है इस देह को आत्मा मानना। सब विडंबनावों की जड़ जो मूल भ्रम है वह मिट जाय तो सब विपदा दूर हो जायेगी। सुख पाने के लिए कोशिश बहुत करते हैं मनुष्यजन, बड़ा श्रम करते हैं, उसका सौवां हिस्सा भी ज्ञानभावना के लिए, वस्तुस्वरूप सीखने के लिए, विज्ञान ज्ञान बढ़ाने के लिए श्रम किया जाय तो इसको मार्ग मिलेगा, सुख मिलेगा। जैसे जब व्यापार करते हुए कई वर्षों से टोटा ही टोटा चलता है तो वह व्यापार भी बदल दिया जाता है और दूसरा व्यापार किया जाता है इस चाह से कि हमें लाभ मिले, तो ऐसे ही जहाँ पचासों काम किए जा रहे हों वहाँ जरा एक काम यह भी करके देख लो कि सबसे न्यारा देह से भी जुदा मात्र ज्ञायकस्वरूप मैं हूँ, ऐसी भावना करने का काम भी देख लो क्या फल होगा ?
भ्रमत्रय की विडंबना―इस बराक प्राणी को मूल भ्रम है अपने देह में यह मैं हूँ ऐसा विश्वास बनाने का। दूसरा भ्रम यह हुआ कि दिखने वाले जो ये शरीर हैं ये पर हैं यह भ्रम किया। तीसरा भ्रम यह आया कि उन पर-जीवों को अपने जीव के साथ जोड़ा। यहाँ तक अब उद्दंडता के तीन कार्यक्रम बताए गए हैं। यह जीव मोहवश अपने देह को यह मैं हूँ सो मानता और पर के देह को यह पर-आत्मा है ऐसा मानता है तथा उस पर का अपने साथ रिश्ता जोड़ना है। इस तरह इन तीन भ्रमों की बातों में फँसाने के कारण यह जीव अनेक विडंबनाएं भोग रहा है। अंतर्भावना की मूल आवश्यकता―भैया ! सुख के अर्थ भगवान की भक्ति भी करते हैं, स्तवन पूजन भी करते और बोलते जाते हैं, पर रटा हुआ है सो बोल जाते हैं, पर वहाँ दृष्टि अंतर में नहीं बन पाती है। ‘आतम के अहित विषयकषाय, इनमें मेरी परिणति न जाय।।’ यह खूब रटा हुआ है, फर्क नहीं आ सकता है। जैसे हम बोलते हैं, आप बोलते हैं, सब बोलते हैं, पर बोलते समय में भी अपनी गलती पर अफसोस हो, और यह गलती अब न बने ऐसी अंतर में भावना हो तो हमारा आपका स्तवन सार्थक है, अन्यथा तो सब एक ही बात है। मानों विषय-कषाय भोगने की विधि हो कि भगवान् की पूजा कर आएं और फिर विषयों को, परिग्रहों को आरंभों को खूब किया करें, ऐसा कुछ रूटीन सा बन गया है। किसी क्षण इस विविक्तता पर दृष्टि तो जानी चाहिए। यह मैं समस्त परपदार्थों से भिन्न केवल स्वरूपमात्र हूँ। पर-परिणति से निज में विपरिणमन का अभाव―भैया ! दुनिया के लोग कैसा ही कुछ परिणमन करें, ढोल बजाकर निंदाएं किया करें। जरा स्वरूप को तो देखो―मेरे प्रति हज़ारों लाखों जीवों का भी एक साथ बिगाड़ करने के भाव से यत्न हो, परिणति हो, किसी भी पर की परिणति से मेरा अपने आपमें कोई फर्क नहीं आता है। कोई किसी को रूलाता नहीं है। मुग्ध प्राणी स्वयं अपनी पीड़ा से रोया करते हैं, और वह पीड़ा भी है केवल कल्पना से उत्पन्न हुई। कोई सगा हितू हो और वह भी रोने लगे रिश्तेदार के दुःख में तो रिश्तेदार और तेज रोने लगता है। इतना होने पर भी दूसरा उसे रूलाता नहीं है किंतु आश्रयभूत बनकर अपनी कल्पना से अपने आपमें रूदन किया करता है। सुख और दुःख देने वाला इस लोक में कोई दूसरा नहीं है। मात्र मोह रागद्वेष से यह जीव अपने आप दुःखी होता है। पर तो आश्रय है जिसे बना लेवे। आंतरिक इच्छा के विलास के बहाने―गुरु जी सुनाते थे कि एक ललंजू भाई थे। उन्हें व्याख्यान या शास्त्र बोलना नहीं आता था। ऐसी भी स्थिति होती है कि ज्ञान तो अधिक जान जाय पर प्रयोग में, व्यवहार में बोलने में नहीं ला सकते। तो उसने क्या किया, मानो रामायण ली और जंगल में पहुंच गया। लोगों के बीच तो बोलने में झिझकता था, सो जंगल में ही पेड़ों को आदमी समझकर कि हमारे श्रोता तो ये हैं―तो पेड़ों को रामायण सुनाने लगा। अब जब सुनाते-सुनाते थक गया, रामायण बंद करने को चाहा तो देखा कि हवा रूकी है, पत्ते भी जरा नहीं सनक रहे है, सो उन वृक्षों से कहता है कि अब तुम चुप-चाप हो गये हो, मालूम पड़ता है कि तुम्हारे सुनने की अब इच्छा नहीं है। और यदि हवा तेज चले और रामायण बंद करने को हो तो क्या यह नहीं कहा जा सकता है कि तुम बड़ा मना करते हो, हाथ हिला-हिलाकर मना करते हो, अब तुम्हें सुनना नहीं है, मना कर लो, ऐसा कहकर भी तो पोथीपत्रा बंद करके जाया जा सकता है। ऐसी ही बात जीव को सुखी होने की बतायी है अथवा दुःखी होने को बतायी है। वह तो जैसा परिणमन करता हो, करेगा पर मिलेगा फल उसमें ही, कल्पना बनाकर सुखी हो लेगा अथवा दुःखी हो लेगा। स्वकीय योग्यतानुसार परिणमन―सब परिणतियां अपनी योग्यताओं के मुख्य कारण से चला करती हैं। तिल में तेल होता है तो कोल्हू से पेलकर तेल निकाल लिया जाता है और बालू में तेल नहीं होता है सो कितना ही पेला जाय उसमें तेल नहीं निकलेगा। जिसके दुःख का उपादान है वह कहीं चला जायेगा। जहाँ जायेगा वहाँ कोई कल्पना बनाकर दुःखी हो लेगा। अपना दुःख बनाने के लिए बाहर में कोई भी समर्थ नहीं है। कदाचित् अपने मन के अनुकूल बाहर में परिणति हो जाय तो भी कहीं अन्य पदार्थों की परिणति से सुख नहीं हुआ है। वहाँ भी अपने ज्ञान की कला से सुख होता है। किसी भी अन्य वस्तु के साथ अपना कोई तात्विक संबंध नहीं है। फिर भी यह अज्ञानी, पर्यायव्यामोही जिसे वस्तुस्वरूप का परम अभ्यास नहीं है कभी कुछ कह बैठता, कभी कुछ कह बैठता, पागलों की नाई रहता है। ऐसा अज्ञानी जीव अपने शरीर को मानता है कि यह मैं हूँ और पराये शरीर को मानता है कि यह पर है न उसने असली मायने में पर को जाना, न असली मायने में मैं को जाना, इन सब व्यवस्थाओं से पृथक ज्ञानानंदमात्र आत्मतत्त्व के दर्शन बिना यह जीव कहां-कहां डोल रहा है। शरीर शरीरों की निमित्तनैमित्तिकता―ये संबंध भी शरीर के शरीर साथ हैं। हां इतनी बात अवश्य है कि जिस शरीर में आत्मा ठहर रहा है उस शरीर का अन्य आत्माधिष्ठित शरीर के साथ संबंध है। इस शरीर के साथ याने जिस उदर से यह शरीर उत्पन्न हुआ है उस ही उदर से जो शरीर उत्पन्न हुआ वही भाई है, वही बहिन है, इस शरीर को जो कोई दूसरा शरीर रमाये वही पति है और वही पत्नी है। इस शरीर के कारणभूत पिता के शरीर के सहोदर चाचा बुआ आदिक है। ऐसा ही संबंध जोड़ते जावो तो जितने भी नाते रिश्तेदार हैं सबके रिश्ते इस शरीर के संबंध के कारण मिलेंगे। इस आत्मा को जानता कौन है, कोई जान जाय आत्मा को तो फिर रिश्तेदारी कैसे बतायेगा ? जो जान जायेगा जैसा कि यह शुद्ध चैतन्यमात्र आत्मतत्त्व है तो वह तो स्वयं सम्यग्ज्ञान के कारण इस ब्रह्मस्वरूप में घुल जायेगा। वह भेद ही नहीं मानेगा, फिर रिश्ता और संबंध कैसा ?
अंतर्भावना की विजय―वज्रभानु जैसा व्यामोही पुरूष जिसकी स्त्री को उस स्त्री का भाई लिवाने आया तो स्त्री के साथ ही चल दिया अपनी ससुराल के लिए। अब तीन थे। खुद, उसकी स्त्री और साला। जंगल में निकले और वहाँ एक मुनिराज को आनंदमग्न तपस्या करते हुए निरखा तो उसको देखते ही वज्रभानु का मोह गल गया―अहो यह विविक्त आत्मा कैसा आनंद विभोर है वह धर्म में लीन है और यह मोही मैं स्त्री के साथ-साथ जा रहा हूँ। इतने में उसके वैराग्य सवार हुआ, मोह टला, एकटकी लगाकर देखने लगा। साला दिल्लगी करता है कि क्या तुम मुनि बनना चाहते हो ? उसे उत्तर देने का मौका लग गया, मैं बनूंगा तो क्या तुम भी बनोगे ? वह जानता था कि यह मुनि नहीं बन सकते है सो कह दिया। हां लो वह वज्रभानु निर्ग्रंथ साधु बन गया। यह घटना देखकर साले का भी ज्ञान वैराग्य जगा। वह भी साधु हो गया। दोनों की इस ज्ञानलीला को निरखकर स्त्री का भी वैराग्य बढ़ा और वह आर्यिका हो गयी। अब इन दोनों को पता नहीं कि कहां हैं, वज्रभानु के घरवालों को न उस स्त्री के घरवालों को। तो ये सब रिश्तेदारी देह के और मोह के हैं, आत्मा के नहीं हैं। मैं देह से न्यारा चैतन्यस्वरूप मात्र एक आत्मतत्त्व हूँ ऐसी भावना ज्ञानी जीव के होती है। अज्ञानी तो ममत्व बढ़ाकर हाय-हाय करके परसंचय में ही अपना समय खो देता है, इसी संबंध में अब और आगे कहा जायेगा।
भ्रम और विभ्रम―इस अज्ञानी जीव ने अपने देह को अपना आत्मा माना और पर के देह को पर-आत्मा माना। यों देहों में आत्मत्व का अभ्यास होने के कारण इसे फिर देह के संबंधियों में अपना संबंध मानने का भ्रम हो गया। जो अपना शरीर रमाये उसे पति अथवा स्त्री माना जाने लगा। जो देह के उत्पन्न होने में निमित्त हुआ उसे माता-पिता माना जाने लगा। और अनेक संबंध इस देह में आत्मत्व के भ्रम से माने जाने लगे। इसी कारण पुत्र मित्र आदिक की रक्षा करते हैं, उनको प्रसन्न रखना चाहते हैं, कभी भी प्रतिकूल हो जाय तो उन पर विरोधभाव की दृष्टि रखते हैं, खेद मानते हैं। इसी प्रकार ये अनेक विडंबनाएं करने वाले हो जाते है। ऐसा इसे देह में आत्मत्व का भ्रम हुआ और पुत्र भार्या आदिक में एक विभ्रम पैदा हो गया। अब यह बताते हैं कि ऐसे विभ्रम से फिर आगे क्या परिस्थिति बनती है?