वर्णीजी-प्रवचन:समाधितंत्र - श्लोक 12
From जैनकोष
अविद्यासंज्ञितस्तस्मात्संस्कारो जायते दृढ:।येन लोकोऽंगमेव स्वं पुनरप्यभिमन्यते।।12।।
अज्ञान संस्कार―देह में आत्मत्व का भ्रम होने से और पुत्र स्त्री आदिक में आत्मीयता का भ्रम होने से अविद्या नामक संस्कार और दृढ़ हो जाता है। ज्यों-ज्यों शरीर में आत्मा मानने की वृत्ति जगती है त्यों त्यों यह अज्ञान का संस्कार और भी दृढ़ हो जाता है। देह ही मैं हूँ, इस प्रकार का उसका संकल्प बन जाता है। इस तरह फिर यह लोक, अज्ञानी जीव शरीर को ही आत्मा मानता है। देह को आत्मा मानने के भ्रम से अज्ञान बढ़ाना और अज्ञान संस्कार के कारण फिर भी यह देह को आत्मा मान लेना, यही चक्कर जीवों का चल रहा है। जिस देह में पहुंचा उसी में ही रम गया। उसे ही यह मैं सब कुछ हूँ ऐसा मानने लगा। इसी कारण इसे मौत से डर लगता है, रोग से भय रहता है और इस देह के साधनों के लिए, देह को रमाने वाली अन्य वस्तुवों के लिए चिंतातुर रहता है।
अज्ञान संस्कार का परिणाम―अब बहिरात्मा जीव की स्थितियाँ बतायी जा रही हैं। इस ग्रंथ का मुख्य प्रयोजन है रागद्वेष मोह को दूर करके अपने आत्मस्वभाव में स्थिर होना―ऐसी शिक्षा दी जा रही है। तो जब तक बहिरात्मापन की असारता नहीं मालूम होती तब तक यह हटे कैसे, इसीलिए बहिरात्मा का स्वरूप विवरण के साथ बताया जा रहा है। अविद्या कहो या अज्ञान कहो, एक ही अर्थ है। जहाँ अपने यथार्थ सहजस्वरूप का भान नहीं है और किसी अनात्मतत्त्व में आत्मतत्व की श्रद्धा है वहाँ यही अविद्या और अज्ञान का विस्तार चलता है। कैसा बहिर्मुख रहा यह कि इस जीव ने किसी क्षण भी इस आत्मा की ओर मुड़कर नहीं देखा, बाहर ही बाहर इसकी दृष्टि रही। इस तरह अज्ञान का ही संस्कार बढ़ता गया और इसके परिणाम में जन्म-मरण इसके बढ़ते चले गए।
देहबंधन से छूटने का उपाय―इस देह के बंधन से दूर होने का उपाय यही है कि अपने को देह से भिन्न माना जाय, भिन्न समझा जाय, इसके अतिरिक्त इसे और कुछ श्रम नहीं करना है। इस ही ज्ञान को दृढ़तर बनाना है। बंधन छूटा ही हुआ है। अथवा कुछ ही भवों में यह बिल्कुल छूट जायेगा। जितने भी क्लेश हैं इस जीव को वे सब देह में आत्मीयता के भ्रम से होते हैं। नहीं तो स्वरूप तो प्रभुवत् ज्ञानानंद स्वभावमात्र है, कोई कष्ट ही नहीं है इस जीव को। ये बड़े आनंद से है। कष्ट तो इसने स्वयं बना डाला है।
मोह की कुटेव―भैया ! जो आपके घर में बाल बच्चे जो कुछ जीव हैं ये ही जीव आपके घर में न होते किसी दूसरे के घर में होते तो उस दूसरे घर वाले उससे मोह करने लगते, आपको मोह न जगता। किसी जीव में मोहराग करने की कुछ रेखा खींची हुई नहीं है कि यह जीव मेरा ही तो है। जो आया सामने आड़ में उसी को ही अपना मानने लगे। वस्तुत: किसी भी जीव के साथ कोई संबंध नहीं है, मोहवश संबंध दृढ़ किया है, संबंध है कुछ नहीं। यह संबंध सदा रहे तब जानें। तो सदा तो बड़े बड़े पुरूष भी नहीं रह सके। राम, कृष्ण, पांडव, तीर्थंकर बड़े-बड़े महापुरूष कोई भी सदा नहीं रह सके। किन्हीं का परिवार किन्हीं की जोड़ी सदा बनी रहे ऐसा किसी के हुआ ही नहीं है।
मरण समय में पर की अभ्यर्थना सर्वथा व्यर्थ―मरते समय यह जीव इस शरीर से कितनी ही प्रार्थना करे कि ए शरीर ! तेरे पीछे मैंने न्याय अन्याय भी नहीं गिना, रात दिन बड़ी भक्ति से तेरी ही तेरी पूजा करता रहा, कैसा खिलाया पिलाया, भगवान् को भी थोड़ा सा द्रव्य दिखाकर पूजने का भाव बनाया पर हे शरीर ! तेरे को बड़े कीमती आहार खिला खिलाकर तेरी पूजा की, अब तू मेरे साथ चल हम मरकर जा रहे हैं, तेरी इतनी तो सेवा की, अब तो तू साथ निभा। तो शरीर का यह उत्तर मिलता है कि आत्मन् ! तुम मूढ़ हो रहे हो, यह मैं देह तो किसी के संग नहीं गया। बड़े-बड़े महापुरूषों के संग नहीं गया तो तुम्हारे संग जाऊँगा ही क्या ? जिस देह के खातिर अहंकार पोषकर बड़े-बड़े अन्याय, शुभ अशुभ विडंबनाएं कर डाली हैं वह देह भी इस जीव का कुछ नहीं है। ये साथ नहीं निभाता।
तृष्णावश जीवन का दुरूपयोग―कहां तो आनंदमय ज्ञानघन पवित्र आत्मतत्त्व और कहां चाम, खून, हड्डी, मांस, नाक, थूक के पिंड का यह शरीर। कुछ भी तो मेल नहीं बैठता है इस आत्मा में और शरीर में। किंतु लो मोही जीव इसे ऐसा फिट बैठाल रहा है कि कुछ भेद ही नहीं समझता। यह मनुष्य देह तो फिर भी बड़े विवेक और सावधानी बनाने में सहायक हो सकता है। इस जीव ने तो ऐसे-ऐसे बहुत शरीर पाये कीड़ा, मकोड़ा, जलचर, मच्छर, मगर अनेक प्रकार के देह पाये जिन देहों में न कुछ हित साधन बना सकता और न कुछ आनंद ही पा सकता है। अनेक योनियों में घूमते-घूमते यह मनुष्य देह बड़ी दुर्लभता से मिला है। क्या बताया जाय, जिसके पास जो चीज है उसकी वह कदर नहीं करता। जैसे किसी के पास लाख डेढ़ लाख का वैभव है तो उस वैभव की कदर नहीं करता क्योंकि तृष्णा लग गयी कि यह तो कुछ भी नहीं है। जब दस-पाँच लाख हो तब भला हो। मिली हुई चीज को मानो यों ही सुगम समझता है। ऐसे ही मनुष्यभव मिल गया तो इसे यों ही सुगम समझते है कि यह तो यों ही मिल गया है। कितना दुर्लभ है मनुष्य-जन्म ? इस ओर दृष्टि नहीं देता है।
मनुष्यभव की दुर्लभता―हलका जुवा जिसमें बैल जोते जाते हैं उस जुवे में चार छेद होते हैं, बैल की गर्दन के आसपास डंडा लगाने के दो दो छेद होते हैं और उनमें जो डंडा लगाया जाता है साफ सुथरा बढ़ई का बना हुआ उसको कहते हैं सैल। तो वह जुवा बिना सैल का समुद्र के एक किनारे पर डाला जाय और सैल समुद्र के दूसरे किनारे पर डाल दिये जायें और वह जुवा और सैल बहते-बहते किसी एक जगह आ जाएं और जुवा के छेद में सैल आ जाय तो आप सोच सकते हैं कि यह कितनी कठिन बात है ? जैसे यह कठिन बात है इसी तरह मनुष्यभव को प्राप्त कर लेना भी अत्यंत कठिन बात है। मिल गया है अपने को सो सुगम लगता है। इसे कषायों में, भोगों में, ममता में, अहंकार में ही गंवा देते है, पर ऐसे दुर्लभ मनुष्य देह का सदुपयोग करना यह बड़े विवेक का काम है।
साधारण विवेक―भैया ! ऐसा ज्ञान जिस गृहस्थ के या साधु के होता है वह संत पुरूष है कि मेरा आत्मा मेरे उपयोग के अधीन है। जब चाहे तब दर्शन करलें। जैसे घर की कोई चीज, घर के कोई लोग बड़े सस्ते और सुगम हैं ऐसे ही इस ज्ञानी संत को अपने आत्मा का मिलन बिल्कुल सुगम है और सस्ता है। कितनी ही बार जब चाहे इस आकाशवत् निर्लेप ज्ञायकस्वरूप शुद्ध आत्मतत्त्व का परिचय कर सकता है। यह मनुष्यभव यों ही मनमाने विचारों में, भोगों में खो देने के लिए नहीं है। स्वामी कार्तिकेय महाराज ने कहा है कि विधि ने इस मनुष्य देह को अपवित्र, घृणित इसलिए बनाया है कि यह जीव इस देह से जल्दी विरक्त हो जाय, पर विरक्त होना तो दूर रहा, इस मोही जीव को इस देह का घिनापना भी प्रतीत नहीं होता। शकल सूरत रूप निहारकर यह सार है, हितरूप है, सुखदायी है इस तरह की कल्पनाओं से उनकी ओर आसक्त रहते हैं।
असार देह के लाभ का प्रयोजन वैराग्य―देख लो मनुष्य देह में कहीं कुछ भी सार बात नहीं नजर आती है।ऊपर पसीना है, रोम है, चमड़ा है, और जरा नीचे चलो―खून है, मांस है, मज्जा है, हड्डी है और भीतर भी धातु उपधातुयें हैं, तो जैसे कहते हैं कि केले के पेड़ में सारभूत चीज कुछ नहीं है, पत्ते को छीलते जावो पूरी तरह से तब वहाँ पेड़ कुछ न मिलेगा वे ही पत्ते जो ऊपर निकले हैं वे नीचे तक संबंध रखे रहते है। केला में कोई सार नहीं मिलता, फिर भी इस मनुष्यदेह से स्थावर की देह अच्छी है, वनस्पतियों के देह अच्छे हैं। ये काठ, चाँदी, सोना आदि तो कुछ काम आते हैं, पवित्र हैं, ठोस हैं पर मनुष्यदेह में क्या तत्त्व रक्खा है, गंदगी गंदगी से भरा हुआ है, सो मानो ऐसा यह गंदा देह विरक्त होने के लिए मिला है। पर यह मनुष्य मोह में आकर विरक्त होने की बात तो दूर जाने दो कलावों सहित साहित्यिक ढंग से, वचनों की लीला से बड़े एक अनोखे ढंग से प्रेम और मोह बढ़ाता है।
पशुराग से बढ़ा चढ़ा मनुष्यराग―पशु पक्षी भी राग करते हैं, अपने बच्चों से अपनी गोष्ठी के पशुवों से करते, वे सीधा ही राग करते है, उनमें और कला कुछ नहीं है। बस खड़े हो गए, पीठ पर गर्दन धर दी, यों ही सीधा लट्ठमार उनका राग होता है। पर मनुष्य का राग देखो कैसा कलापूर्वक है, कैसा वचनालाप है, कैसा ढंग है ? इसका फल यह है कि यह मनुष्य ब्रह्मविद्या से दूर हो जाता है। ब्रह्म नाम है आत्मा के शुद्ध चैतन्य स्वरूप का। सहज अपने आपके सत्त्व के कारण जो आत्मा का स्वरूप है उसके परिचय से दूर हो रहा है। फल उसका यह है कि संसार में जन्म और मरण करता है।
ब्रह्मविद्या का अधिकारी―इस ब्रह्मविद्या की योग्यता भी उन पुरूषों में होती है जो दयालु होते है, न्यायशील होते है, धन वैभव को ही सर्वस्व नहीं समझते हैं, ऐसे ज्ञानीसंत पुरूषों को ही उस ब्रह्मविद्या जानने का अधिकार है। अज्ञानी व्यामोही क्या समझें उस ब्रह्मविद्या को। यह जीव तो इन भोगों को ही सर्वस्व जानता है। विषय भोग लिया, कषाय करली, जरा लड़ लिया, अपनी देह में अपनी सत्ता मानकर शान बगरा ली, पोजीशन रखली, नाम जाहिर हो गया तो समझ लेते हैं कि मैंने करने योग्य सब काम कर डाला। पर कहां किया ? अभी तो पूरी ही उलझन है। अभिमान किस बात पर करते हो ?
व्यर्थ का अहंकार―जैसे कोई सांड गांव के किनारे लगे हुए गोबर को, घूरे को सींग से उछालकर कुछ पीठ में और कुछ अगल-बगल फेंकता है, अपनी टाँगें पसारकर, पूँछ उठाकर कमर लंबी करके, ऊँचा मस्तक करके घमंड बगराता है कि मैंने बड़ा काम किया। किया क्या ? गोबर उछाला। यों ही यह व्यामोही जीव परपदार्थों का संचय करके बाहरी व्यवस्था बनाकर, संग की चतुराई बताकर परिवार का बड़ा भरणपोषण करके, मित्रों का लोगों का कुछ उपकार करके, सेवा करके गर्व से यों देखता है कि ओह मैंने बड़ा काम किया। करने योग्य कार्य सब कर डाला। पर किया क्या ? केवल कल्पनावों का कीचड़ उछाला। करने योग्य कार्य जो अंत: पुरूषार्थ है, ज्ञान स्वरस का ज्ञान द्वारा पानकर लेना, यह अभी कहां किया है ? करना कुछ और था करने लगे कुछ और।
स्वदया के मुख्य कर्तव्य से लापरवाही―भैया ! अपने आपकी दया करके करनी करना हो तो अपने जीवन का बहुत कुछ समय सत्संग और ज्ञान उपासना में व्यतीत करना चाहिए। बाहरी बातों से क्या पूरा पड़ेगा ? हां लाखों की संपदा हो गयी। अब क्या होगा और धन जुड़ेगा। करोड़पति हो गए। अब क्या होगा ? जो हो रहा है आंखों देखते या अखबारों में पढ़ते हो। चैन नहीं पड़ती। कितनी ही कहां-कहां की चिंताएं बढ़ गयीं। और हो गए करोड़पति तो क्या होगा ? क्या कभी बूढ़े न होंगे ? फिर क्या होगा ? तो बूढ़़े में जब और शिथिलता बढ़ती है तो वहाँ धन वैभव क्या मदद कर देगा ? क्या मरण न होगा ? फिर धन वैभव क्या करेगा ? ये सब बाहरी संग असार हैं। अज्ञानी जीव स्वदया के मुख्यकर्तव्यभूत और ज्ञानोपासना से दूर रहता है। इस लापरवाही से यह दुःखी रहता है। सहजस्वभाव परिचय के यत्न की प्रेरणा―मोही मोहियों का यहाँ मेला लगा हुआ है इसलिए असारता चित्त में नहीं बैठती। परिग्रह संचय में रहकर दुःखी होते रहते हैं, फिर भी अपने आपको यह विश्वास नहीं होता कि यह दुःख का सब साम्राज्य है। सुख चाहते हो तो जो कुछ व्यवहार में आता है वह तो ठीक है, उससे गुजरना चाहिए, निपटना चाहिए, उसमें रहना पड़ता है, उदयाधीन बात है किंतु बाहरी लगाव है तो भी यत्न इस सहजस्वभाव के परिज्ञान के होने चाहिए। ज्ञाता दृष्टा रहो, जाननहार मात्र रहो। जैसे गैर पुरूषों को कोई स्थिति बन जाय तो उससे क्षोभ नहीं मानते ऐसी ही मित्र और कुटुंबीजनों की कुछ स्थिति बन जाय तो भी ज्ञानी के अंतरंग में क्षोभ नहीं आता। आत्मज्ञान जागृति में संतोष―साधुजनों को तो जो उत्कृष्ट योगी हैं उन्हें तो जैसे दूसरों की देह की परिणति कुछ हो उससे क्षोभ नहीं आया करता, यों ही अपने देह की भी कुछ परिणति हो तो उससे भी क्षोभ नहीं आता। गजकुमार मुनिराज के सिर पर गजकुमार के श्वसुर ने मिट्टी की बाढ़ बाँधकर कोयला जलाया और धौंका किंतु गजकुमार उसके ऐसे ही ज्ञाता दृष्टा रहे जैसे बाहर में कोई अँगीठी जल रही हो। यह भी जलती है। मैं तो देह से न्यारा मात्र जाननस्वरूप हूँ, ऐसा अनुभव होता है तब जब देह और आत्मा में दृढ़तर भेदविज्ञान हो। अपनी शक्ति के माफिक यहाँ भी तो घर में रहते हुए यथासमय भेदविज्ञान जगा हुआ रहना चाहिए, नहीं तो शांति कहां ठहरेगी ? ज्ञान अपना सही रहेगा तो शांति संतोष रहेगा और ज्ञान ही दूषित हो गया तो शांति संतोष फिर किस द्वार से आयेंगे ? यह देह में आत्मत्व का जो भ्रम लगा है इस भ्रम के कारण अज्ञान नामक संस्कार इसका दृढ़ हुआ है और संसार के कारण आगे भी परभव में देह को आत्मा मानेगा और यह ही दु:खों की परंपरा इसकी चलती रहेगी।