वर्णीजी-प्रवचन:समाधितंत्र - श्लोक 37
From जैनकोष
अविद्याभ्याससंस्कारैरवशं क्षिप्यते मन:।
तदेव ज्ञानसंस्कारै: स्वतस्तत्त्वेऽवतिष्ठते।।37।।
मन के विक्षेप और अविक्षेप का साधन- पूर्व श्लोक में यह बताया गया था कि विक्षिप्त मन आत्मा की भ्रांति है, समस्त क्लेशों का मूल कारण है और अविक्षिप्त मन आत्मा का तत्त्व है। इस कथन के बाद यह जिज्ञासा होना स्वाभाविक है कि वह कौनसा उपाय है जिसके कारण मन विक्षेप को प्राप्त होता है और वे कौनसे कारण हैं जिनके कारण मन अविक्षिप्त रहता है। इस ही जिज्ञासा का समाधान इस श्लोक में दिया जा रहा है कि अविद्या के अभ्यास के संस्कारों के द्वारा यह मन विक्षिप्त हो जाता है और वह ही मन ज्ञान के संस्कार के द्वारा आत्मतत्त्व में अवस्थित हो जाता है।
जीव का भाव पर ही अधिकार- भैया ! यह जीव केवल भावना ही तो कर सकता है। यह अमूर्त आत्मा किसी पुद्गल को छू भी नहीं सकता, अन्य कुछ कार्य कर ही नहीं सकता, केवल भावना बनाता है। चाहे वह धन ही कमाने का प्रसंग हो, चाहे लड़ने का प्रसंग हो, चाहे धर्म का प्रसंग हो, चाहे कोईसा भी प्रसंग हो, सर्वत्र यह जीव केवल अपने भाव ही कर पाता है। यह भावों के अतिरिक्त और कुछ नहीं करता। जब यह भावना होगी और उस भावना के बार बार होने से जो संस्कार बनेगा उसके अनुसार ही प्रवृत्ति होती है।
पुन: पुन: चिंतन से भावना का निर्माण- एक कोई मनुष्य कहीं से बकरी लिए जा रहा था। चार ठगों ने देख लिया कि यह बडी सुंदर बकरी है। इसको तो उड़ा लेना चाहिए। तब क्या उपाय है? उपाय की भी सलाह कर ली और उस सलाह के अनुसार वे चारों ठग एक एक दो दो मील की दूरी के अंतर पर खड़े हो गए बड़ी जल्दी-जल्दी आगे जाकर। पहिला आदमी मिला तो वह कहता है―अरे भाई तुम बड़ा अच्छा कुत्ता लिए हो, यह कुत्ता बहुत ही बढ़िया है, सुनकर रह गया। आगे फिर एक मील बाद दूसरा आदमी बोलता है। यह कुत्ता तुम कहां से लाये? अब उसके मन में आया कि यह कुत्ता ही तो नहीं है। एक मील बाद फिर एक आदमी मिला, बोला―यह कुत्ता कहां लिए-लिए फिर रहे हो? अब उसके मन में आया कि यह कुत्ता ही होना चाहिए। अरे इतने आदमी मिलते हैं सभी झूठ तो नहीं बोलते हैं। अब चौथा आदमी मिला और कहा कि अरे यह कुत्ता कहां लटकाये जा रहे हो? तो उसने उसे कुत्ता जानकर वही छोड़ दिया। सोचा कि बड़ा धोखेबाज यह जानवर है। छोड़ कर चल दिया। वे तो चाहते ही थे। वे चारों ही उस बकरी को ले आये और अपने घर में बाँध लिया। अब बतलावो इतनी बड़ी बात की बकरी कुत्ता मालूम पड़े, ऐसी भी बात हो गयी। तो अपने में जैसी भावना बार-बार की जाती है वैसी ही प्रवृत्ति बन जाती है और कोई अज्ञानरूप भावना करे तो अज्ञानरूप प्रवृत्ति बन जाती है।
भावना के अनुसार प्रवर्तन- दो आदमियों का मुकदमा था, आपस का। एक गरीब था और एक सेठ था। तारीख पड़ी। तो उस गरीब आदमी ने सोचा कि अपने पास खर्चा नहीं है और न जायेंगे तो केश हमारे विपरीत जायेगा। सो उसने क्या होशयारी की कि झट तांगा स्टैंड पर साइकिल से पहुंचा, और चार-छ: आने तांगा वाले को देकर कहा कि देखो अमुक सेठ जी है ना, वे जितने भी पैसे दें उतने में स्टेशन तक उन्हें ले आना, और रास्ते में यह बात कहना कि सेठ जी तुम्हारा चेहरा तो कुछ गिर गया है, बुखार आता है क्या? यह पूछना, यही बात कुलियों से कह दिया और कुछ पैसे दे दिये। स्टेशन मास्टर को दो चार रुपये टिकाकर उससे भी कह दिया कि अमुक सेठ जी टिकट खरीदने आयेंगे तो उनसे कहना कि कहां जा रहे हो? तुम तो बीमार मालूम होते हो, तुम्हारा चेहरा बहुत गिर गया है। लो, उसका काम बन गया। अब सेठ साहब तांगा स्टैंड में पहुंचे तो तांगा वाला सेठ जी को बैठाकर स्टेशन को चल दिया। फिर रास्ते में तांगे वाले ने कहा कि सेठजी आज आपकी आंखें कुछ चढ़ी सी हैं, क्या बीमार रहते हो? यही बात स्टेशन पर कुलियों ने पूछी। फिर स्टेशन मास्टर ने भी वही बात कही। लो सेठ जी के तो बुखार आ गया। क्योंकि बार-बार अपने मन में वैसे भाव बनाये। शक हो गया। वे बीमार हो जाने से घर लौट आये। यहां तो वह आदमी ऐसा चाहता ही था। तो तैसी भावना का संस्कार हो जाता है उसके अनुरूप चेष्टाएं होती हैं।
अशुचि शरीर की शुचित्व की भावना से अविद्यासंस्कार- वे अविद्या के अभ्यास क्या हैं जिनकी बार-बार भावना करके संस्कारबल से यह मन विक्षिप्त हुआ दौड़ता है, क्या है? बहुत सी बातें हैं। अपन लोगों का यह शरीर महा अपवित्र है। यदि इसमें सार होता तो लोग इसे जला क्यों देते? इस शरीर में सर्वत्र अपवित्र पदार्थ ही हैं, पर वाह रे व्यामोही जीव, यह इस शरीर को ऐसा पवित्र जानता है कि सोने से भी ज्यादा पवित्र शुचि है। क्या कहना है? ओ दूसरा तो कमजोर और बीमारी के मारे पीला हो रहा है और यह मोही जीव आसक्त हो रहा है। यह शरीर महा अपवित्र है। इसका नमूना आजकल देख ही लो। शायद कोई पुरुष किसी से टस कर आज नहीं बैठा है। कम से कम एक-एक फिट दूर सभी लोग बैठे होंगे क्योंकि पसीने के मारे चिप्पा-चिप्पा से रहे हैं। अपना ही शरीर छुवा नहीं जाता है। ऐसे गंदे शरीर के भीतर अनेक मल भरे हुए हैं और आयुर्वेद का कहना है कि यदि पेट में 3-4 सेर मल हमेशा न रहे तो यह मनुष्य जिंदा नहीं रह सकता। आप शौच हो आये, शुद्ध हो आये तो आप जानते हैं कि पेट बिल्कुल साफ हो गया, किंतु पेट में अब भी तीन चार सेर मल भरा हुआ है। कहां है शुचिपना, किंतु इस शरीर के शुचिपने की भावना बनाये रहना, यह मैं हूं, बड़ा सुंदर हूं, बड़ा पवित्र हूं, ऐसी बारबार भावना करता है, यही है अविद्या का संस्कार।
अनित्य शरीर में नित्यता की भावना से अविद्यासंस्कार- और भी देखो शरीर प्रतिक्षण क्षीण होता है। इससे अनेक परमाणु निकलते हैं, अनेक आते हैं, यह नित्य नहीं है। यदि यह जीव शरीर नित्य होता तो आज इस दुनिया में जीव समाते कहां? मनुष्य कोई मरते नहीं तो समाते कहां? पृथ्वी पर रहने को भी स्थान न मिलता। मरने पर भी तो देश में यह मांग है कि संख्या ज्यादा हो रही है, इसे रोको अन्यथा विप्लव हो जायेगा, लूटमार हो जायेगी। यह शरीर अनित्य है, किंतु अपने आपमें सबको यह मालूम होता है कि मैं सदा रहूंगा। कल का तो भरोसा नहीं कि कल भी आयु रहेगी या नहीं। अंदाज की बात दूसरी है, पर बलपूर्वक कौन कह सकेगा कि हम कल भी टिकेंगे। यदि कह सकते हैं तो यह बलपूर्वक रोज कहेंगे, फिर इसका मरण ही नहीं है। इसीलिए आचार्यों का यह उपदेश है कि जब तक रोग से नहीं घिरे, जब तक शरीर में बल है तब तक हित के कार्य कर लो। निर्द्वंद्व निराकुल होकर आत्मज्ञान प्रकाश में अनुभव का रसपान कर लो। नियम से यह संसारचक्र कट जायेगा। बार-बार यह मनुष्यभव मिलने को नहीं है। संसार में कितने प्रकार के जीव हैं, कहां-कहां इस जीव का जन्म न हुआ हो? आज दुर्लभ नरभव पाया है और इसका सदुपयोग न किया तो क्या विश्वास कि कब हित कर सकेंगे? इस अनित्य शरीर को यह नित्य है, यह नित्य है―ऐसी भावना बनाए रहना इस ही का नाम अविद्या का संस्कार है।
भिन्न देहादिक पदार्थ में आत्मीयता की भावना से अविद्यासंस्कार- यह शरीर आत्मा से अत्यंत भिन्न है, किंतु मैं यह ही हूं, शरीर से अतिरिक्त अन्य कुछ सद्भूत पदार्थ हूं ऐसी उसकी भावना ही नहीं बनती। यह अविद्या का ही तो संस्कार है। यह मेरा है, यह मेरा पोता है, यह मेरा बच्चा है, इनके लिए ही मेरी जान है, औरों के लिए तो थोड़ी भी कृपा की गुन्जाइश नहीं है। यह क्या है? यह अविद्या का संस्कार है। यह ही तो कठिन वेदना है, अत्यंत मलिनता है। इस अविद्या संस्कारों के द्वारा अवश होकर यह विक्षिप्त होता हुआ यत्र तत्र दौड़ लगाता है, कहीं मन ही नहीं लगता। जितने एक्ष होते हैं, जितने लोभ होते हैं वे सब अविद्या के संस्कार से ही तो होते हैं। मायामय पदार्थ ही परमार्थ जंचना और इन वैभव संपदावों से इतना गहरा लगाव रखना कि इससे ही मेरा जीवन है, सत्त्व है और उसकी ही अत्यंत तृष्णा बनाना। तृष्णा के रंग में, लोभ के रंग में गहरे रंगे रहना यह सब क्या है? यह अविद्या का ही तो संस्कार है।
अविद्यासंस्कार से विपत्तियां- भैया ! अविद्या के संस्कार से लाभ लूटोगे? यह मन विक्षिप्त रहेगा, डांवाडोल रहेगा, अस्थिर रहेगा, फिर अपने आपमें बसे हुए परम शरण कारणपरमात्मतत्त्व का दर्शन कैसे कर सकेंगे? अविद्या के संस्कारों से यह मन अवश होकर विक्षिप्त हो जाता है। पागल का मन कहीं टिकता तो नहीं है, थोड़ी देर में कुछ बकता है, थोड़ी देर में कुछ बकता है। ऐसे ही अज्ञान की वासना जिसमें बसी हैं, सर्व परपदार्थों से भिन्न निज चित् स्वभाव का जिन्हें परिचय नहीं होता, वे पागलों की भांति कभी इसे बटोरा, कभी उसे अपना माना, कभी उस ही को दुश्मन सा मानने लगे। ओह ! जब छोटा बालक होता है तो एक बालक अपने छोटे भैया को कितना प्रेम करता है? कोई उसे डांट दे तो यह भैया बड़ा पक्ष लेता है। कदाचित् बड़ा होने पर अज्ञान के कारण किसी बात पर मनमुटाव हो गया तो फिर वही कहने लगता है कि मैं तो इसकी शक्ल भी नहीं देखना चाहता।
मायामयों की मायावशता- अरे भाई ! किसी को वश करने का जरासा तरीका है―प्रशंसा कर दे, मीठा बोल दे, वश हो जायगा। ये छोटे लड़के लोग अपने बाप से पैसा लूट कर तंग करके मांगते हैं। उन बच्चों के बुद्धि नहीं है। कोई बुद्धिमान् बच्चा हो तो एक जरासा ही तो मंत्र है। जरा बाप के आगे मीठा तुतला बोल दे, हाथ जोड़ दे और पैर छू ले, फिर तो चाहे बाप की मूंछ भी ले ले। किसी को वश करने का कौनसा बड़ा कठिन काम है? जरा कषाय दूर कर ले जिससे कि उपाय करते बन सके। और फिर किसे क्या वश करना है? जैसे चारों ओर से आने वाले मुसाफिर एक चौराहे पर थोड़ी देर को राम राम करने के लिए मिल गये। दो चार सेकेंड को ठहर भी गए तो आखिर बिछुड़ना तो पड़ता है, ऐसे ही चारों गतियों से कोई किसी गति से आया, कोई किसी गति से आया और इस घर के चौहट्टे में मिल गये तो थोड़ी देर की राम राम है, अंत में बिछोह होगा ही। फिर किस किससे अनुराग करें, किससे द्वेष करें? यह अविद्या का संस्कार इस जीव को प्रेरे डाल रहा है।
मोहियों की मोहमयी कल्पित व्यवस्था- यह मन उछला-उछला फिर रहा है, कहीं एक ठिकाने लग नहीं पाता, बावले की भांति, क्योंकि अपनी आत्मा अपनी दृष्टि में नहीं है, सो जैसे बावले का दिमाग सही नहीं है, वह नाना चेष्टाएं करता है। इस ही प्रकार जिसकी आत्मा अपने वश में नहीं है, वह आत्मा नाना चेष्टाएं करती है। ओह ! यह मेरा है, यह पराया है। फल क्या होता है? जैसे कोई पागल सड़क से पास गांव के निकट बैठा हो, सड़क के मोटर वाले, तांगे वाले गुजर रहे हों, वे प्यासे हों और मोटर तांगा खड़ा करके कुवे पर पानी पीने लगें। अब वह पागल मानता है कि यह मेरी मोटर है, यह मेरा तांगा है। वे तो पानी पीकर मोटर तांगों में बैठकर चल देंगे, अब वह पागल माथा धुनेगा, हाय ! मेरी मोटर चली गयी। यों ही ये संसार के दीवाने पागल उन्मत्त मोही प्राणी जिस चाहे चीज को जो निकट आयी हो, घर में हो उसे अपनी मान लेते हैं चूंकि सब मोही मोही हैं ना, तो इस मोह में मोह की व्यवस्था बना डाली कि यह मेरा घर है, इसे दूसरा कोई नहीं छीन सकता, यह हमारी जायदाद है, कोई दूसरा नहीं ले सकता। जीव सब मोही हैं इसलिए स्वरूप विरुद्ध व्यवस्था बना डाली गयी, पर यह व्यवस्था कहां तक काम देगी। आखिर सब छोड़कर ही जाना होगा।
मोहमद की चेष्टाएं- ये संसारी, मोही, उन्मत्त जो कुछ मिला है उसे यह मान लेते हैं कि यह मेरा है। अब वे परपदार्थ अपनी परिणति के अनुसार जितने दिन निकट रहते हैं रहेंगे, बाद में बिछुड़ जायेंगे। सो बिछुड़ते हुए में क्लेश मानते हैं। स्नेह करने का फल बुरा है क्योंकि जिस किसी से भी स्नेह करें, आखिर वे बिछुड़ेंगे तो जरूर। सदा निकट रहेंगे ही नहीं। तो जब बिछुड़ेगे तब असह्य क्लेश भोगना पड़ेगा। कैसे अज्ञान अंधेरे में पड़े हुए ये जगत् के जीव दु:खी हो रहे हैं? जैसे जंगल में आग लग गयी हो और मनुष्य किसी पेड़ पर चढ़ जाय और चारों ओर देखा करे ओह ! वह आग लगी, देखो वह कैसा हिरण मरा, देखो यह खरगोश कैसा मर गया, चारों ओर विपत्तियां देख रहा हैं, पर खुद को यह खबर नहीं है कि यह आग इस रूख को भी भस्म कर देगी। मेरा कहाँ पता रहेगा? जगत् में सर्वत्र विपत्तियां दिख रही हैं, ओह ! यह कैसा हो रहा है, दूसरों की विपत्तियों को देखकर प्रसन्न हो रहे हैं, पर यह पता नहीं कि हम स्वयं विपत्तियों के बीच घिरे पड़े हैं, कैसा क्षिप्त मन है कि पागलपन सवार है? यही मन जब ज्ञानसंस्कार से संस्कृत हो जाता है तो आत्मतत्त्व में ठहर जाता है।
मोहमद के अभाव में स्वरूप की अवस्थितता- एक बार दतिया का राजा सैर करने चला। हाथी पर सवार हुए जा रहा था। तो एक गांव के निकट कोई कोढ़ी शराब के नशे में पड़ा था। वह कोढ़ी बोलता है ओबे रजुवा ! यह हाथी बेचेगा। राजा को उसकी बात सुनकर बड़ा गुस्सा आया, सोचा कि मेरी ही प्रजा का आदमी और ओबे रजुवा बोलता है और हाथी खरीदेगा। जब क्रोध आ गया तो मंत्री कहता है, ‘‘राजन् क्रोध मत करो, 5-6 घन्टे बाद इसे दरबार में बुलायेंगे और वहां इसका निर्णय करेंगे।’’ उसका नाम पता पूछा जांच कर सब लिख लिया था। 5-6 घंटे के बाद उसे दरबार में बुलाया, उसका सारा नशा अब दूर हो चुका था। कोढ़ी सोचता है कि आज हम पर क्या आफत आयी है? अभी तक तो हमें राजदरबार में कभी नहीं बुलाया गया, सो वह डरते डरते राजदरबार में गया। राजा पूछता है― क्यों भाई ! मेरा हाथी खरीदोगे? उसे क्या पता था। वह कहता है महाराज आप कैसी बात कर रहे हैं। राजा ने कहा, नहीं नहीं मेरा हाथी खरीदोगे क्या? तो कोढ़ी कहता है― महाराज आप होश में बातें नहीं कह रहे हैं क्या? अरे ! हम गरीब आदमी आपका हाथी कैसे खरीद सकते हैं? तो मंत्री कहता है, ‘‘राजन् आपका हाथी यह नहीं खरीद रहा था, वह कोई दूसरा था। यह नहीं है। वह था नशा, जो आपका हाथी खरीद रहा था।’’ सो जब यह मोह का नशा चढ़ जाता है तो पागल बना फिरता है और जब मोहमद उतर जाता है तब मन ज्ञानसंस्कार के कारण आत्मतत्त्व में उपस्थित हो जाता है।
ज्ञानसंस्कार- वह ज्ञानसंस्कार क्या है? इसे संक्षेप में यों जानों कि कोई पहिले अपने आपमें बार-बार भावना करे कि मैं ज्ञानमात्र हूं, मैं केवल ज्ञान का ही काम कर सकता हूं, ज्ञान के सिवाय अन्य कुछ मैं कर नहीं सकता। यह आत्मा आकाशवत् निर्लेप अमूर्त ज्ञानमात्र है, यह तो किसी पुद्गल से छुवा भी नहीं जा सकता है। वर्तमान में यह शरीर से बंधा हुआ है, पर रस्सी की गांठ की तरह शरीर से नहीं बंधा हुआ है, क्योंकि मैं शरीर को छू भी नहीं सकता, किंतु निमित्तनैमित्तिक भाव के कारण स्वयं ऐसा बंधा हुआ हूं, मैं तो ज्ञानमात्र हूं, ऐसी पुन: पुन: भावना से ज्ञानसंस्कार हो जाता है।
भावबंधन की मुक्ति के लिये ज्ञानभावना की समर्थता- जैसे आपको अपने किसी पुत्र या स्त्री से अधिक प्रीति हो तो क्या आपका शरीर मेरा शरीर रस्सी की भांति बंध गया है? अरे ! आप अलग हैं, दूसरे आपसे अलग हैं, किंतु आप ही खुद अपनी भावनाएं बनाकर खुद ही मूढ़ होकर, मोही होकर अपने आपके भावों के बंधन से बंधे हुए हैं कि एक दिन भी स्वतंत्र होकर आप कहीं भी विचर नहीं कर सकते। यों ही जानिये कि इस शरीर के साथ आत्मा का एकक्षेत्रावगाहरूप बंधन तो है पर इस बंधन की मजबूती निमित्तनैमित्तिक भावों के कारण है, कुछ परस्पर के मेलजोल के कारण नहीं हैं। तब यह सब बंधन ज्ञानभावना से ही छूटेगा। इसके लिए अहर्निश सत्संग हो, स्वाध्याय हो और अपने आपमें मैं ज्ञानमात्र हूं, देह से भी न्यारा हूं, सर्व परपदार्थों से जुदा, यह मैं ज्ञानप्रकाशमात्र हूं, ऐसा अनुभव प्रकाश आ जायगा, फिर इस ज्ञानानुभव के प्रकाश के कारण कोई संकट न रहेगा। सो अपने मन को ज्ञानसंस्कार के द्वारा शुद्ध बनावें, यथार्थ प्रतीतिरूप कार्य करें तो आत्मतत्त्व में हम ठहर जायेंगे और सदा के लिए संकटों से मुक्त हो जायेंगे।
अविद्यासंस्कार और चित्तविक्षेप- अपवित्र देह में पवित्रता का ध्यान रखना, अनित्य शरीर में नित्यता की प्रतीति रखना, भिन्न वैभवादिक में आत्मीयता का आशय रखना ये सब अविद्या के संस्कार हैं। इन संस्कारों के कारण विवश होकर इस मन को विक्षिप्त होना पड़ता है। जब खुद को खुद के घर में नहीं रहने दिया तो फिर पर घर में इसे कहां स्थायित्व मिल सकता है? घर से तो यह भागा भागा फिरा करेगा। तो अविद्या के परिणामों में इस जीव की ऐसी आकुल दशा हो रही है। वह ही मन जब ज्ञानसंस्कार से संस्कृत हो जाता है तो फिर यह मन स्वत: ही अपने आप अपने आपमें स्थित हो जाता है। अविद्या का संताप और आनंद का प्रताप बताकर अब उसके फल में यह बता रहे हैं कि विक्षिप्त मन में क्या विपत्तियां आती हैं और अविक्षिप्त मन में विपत्तियों का कैसे विलय होता है?