वर्णीजी-प्रवचन:समाधितंत्र - श्लोक 38
From जैनकोष
अपमानादयस्तस्य विक्षेपो यस्य चेतस:।
नापमानादयस्तस्य न क्षेपो यस्य चेतस:।।38।।
मनुष्यों के मानकषाय की प्रमुखता की प्रकृति- जिस जीव के चित्त का विक्षेप है अर्थात् आत्मस्वरूप को आत्मस्वरूप न मानकर अन्य पदार्थों में अपना ज्ञान और आनंद ढूंढ़ते हैं अर्थात् पर को आत्मा और अनात्मा मानते हैं ऐसे ही सम्मान और अपमान के विकल्प होते हैं। गतियां चार होती हैं― नरकगति, तिर्यंचगति, मनुष्यगति और देवगति। नरकगति के जीवों में क्रोध कषाय की मुख्यता है और वे अपना मन शांत करने के लिए दूसरे नारकियों पर टूट पड़ते हैं। जैसे कि होली के अवसर पर अच्छे नये साफ धुले सफेद कपड़े पहिने हुए बाबूजी को देखकर हुड़दंगों की टोली टूट पड़ती है और हरा, लाल, नीला आदि रंगों को गुलालों को डालकर अपना मन खुश करते हैं इससे भी बड़ी बुरी दशा नारकों में है। आया कोई नारकी उसको देखते ही नारकी एकदम उस पर टूट पड़ते हैं। वहां क्रोध का भाव मुख्य रहता है। तिर्यंचगति में माया का भाव मुख्य रहता है, देवगति में लोभ का भाव मुख्य रहता है और मनुष्यगति में मान का भाव मुख्य रहता है।
वैभवलोभ की मानकषाय की पुष्टि की प्रयोजकता- भैया ! कुछ सुनने में ऐसा लगता होगा कि मनुष्यों में तो लोभ की मुख्यता मालूम होती है, किंतु मनुष्य लोभ भी मान रखने के लिए करते हैं। वे जानते हैं कि धन अधिक जुड़ जायेगा तो मेरी इज्जत बढ़ जायेगी। लोग यह समझेंगे कि यह बहुत बड़ा आदमी है। लोभी को यह ध्यान नहीं रहता कि शायद लोग मुझसे घृणा भी करेंगे कि यह इतना धनी होकर भी मक्खीचूस बना हुआ है, इसका पता उस लोभी को नहीं होता किंतु उसकी तो धुनि यह रहती है कि धन इकट्ठा हो जाय तो बहुत बढ़ जाने पर मेरा सम्मान बढ़ जायेगा। जो लोभ भी मनुष्य अपना मान रखने के लिए करते हैं। यहीं देख लो जरासी प्रतिकूल बात आने पर मन शान रखने के लिए कितना तड़फता है?
विक्षेप और अविक्षेप का परिणाम- जिसके चित्त में विक्षेप हो गया है अर्थात् जिसका मन फिंक गया है। क्षेप, विक्षेप, निक्षेप सबका अर्थ है फेंक देना, बाहर कर देना, दूर डाल देना। जिसने अपने मन को दूर डाल दिया, फेंक दिया, बाहर कर दिया, अपने आत्मा से विमुख कर दिया, उसको तो बाहर में सार नजर आयेगा; ऐसे धनी बनें, ऐसा महल बने, ऐसा आराम ठाठ हो, इस प्रकार के परिणाम होंगे। तब विक्षेप हो गया ना, बाह्यपदार्थों में ही यह मन चला गया। अब वह जरा-जरासी बात में मान और अपमान महसूस करने लगता है, किंतु जिसके चित्त का क्षेप नहीं हुआ है, बाहर नहीं फिंका है, अपने ही घर में रह रहा है, अपने स्वरूप के उन्मुख है, अपने ज्ञानानंदस्वभावी पर से न्यारा एकाकी आत्मतत्त्व की प्रतीति में है उसको अपमानादिक नहीं होते हैं।
ज्ञानी की गंभीरता- ज्ञानी ही गंभीर हो सकता है। सम्मान होने पर भी अपने आपका सम्मान न समझे और अपमान होने पर भी अपने आपका अपमान न समझे ऐसी गंभीरता ज्ञानी सत् पुरुष में ही हो सकती है। कैसा वह अद्भुत ज्ञानप्रकाश है जिस प्रकाश में सब कुछ ज्ञात होता है, किंतु किसी भी वस्तु में राग और द्वेष नहीं होता है, कितना महान् प्रकाश है वह? वह तो दुनिया से न्यारा एक महा सत्पुरुष है। कुछ कुछ तो दिखता भी है गृहस्थों में भी और साधुजनों में भी। कदाचित् 2 की कितनी भी बातें हो रही हों कि जिनको सुनकर अन्य लोग विह्वल हो सकें, किंतु वे विह्वल नहीं होते। जिसने अपने आपके स्वरूप का भान कर लिया उसके लिए ये सब बातें सुगम रहती हैं।
मानभंग का लाभ- क्यों जी, कोई यदि मेरा मान भंग कर दे तो क्या किया उसने? मान का नाश कर दिया। बड़ा अच्छा हुआ। बड़े-बड़े सत्पुरुष क्रोध, मान, माया, लोभ के नाश करने के लिए बड़ा उद्यम करते हैं। कोई हो तो लाड़ला ललन ऐसा कि मेरे मान का नाश कर दे। हम उसका बड़ा उपकार मानेंगे। फिर मुझे तीन ही कषाय दूर करने को रह जायेंगी। मेरा मान तो एक दयालु पुरुष ने भंग कर दिया ना। हाय, पर होता कहां है ऐसा? अच्छा, मान भंग कर दिया कि मान और बढ़ जाता है दूसरा कोई प्रतिकूल प्रवर्तन करे तो? मान कषाय तो और प्रबल हो जाता है। कहां अपमान और सम्मान के विकल्प उठते हैं, वे तो सब अज्ञान अंधकार में मोह की कल्पना में होने वाली बातें हैं।
सबसे बड़ी समस्या- इस मान अपमान रूप विपत्ति का कारण चित्त के विक्षेप को जानकर हम प्रयत्न यह करें कि मेरा चित्त मेरी शरण से अलग न हो। यह बात तो जानने की है, न केवल कहने की, न केवल सुनने की। इस उपाय से जो जितने अंश में अपने स्वरूप की निकटता पा लेता है वह कृतार्थ हो जाता है। मान लो आज जीवन की बड़ी समस्याएँ हैं। आय की व्यवस्था नहीं, मह्ंगाई बहुत बढ़ रही है, और-और भी परेशानियां हैं। तो कितनी भी परेशानियां हों, इससे भी कुछ ज्यादा परेशानी हो तो भी सर्वत्र परिस्थितियों में आत्मस्वरूप का स्मरण, ज्ञान यहां स्थगन करने के योग्य नहीं है। ये समस्याएँ कुछ बड़ी समस्यायें नहीं हैं जितनी कि जीवन में बड़ी कठिन समस्याएँ सामने आयी हैं। हालांकि जब देश समाज पब्लिक के बीच में रहते हैं तो ये समस्यायें बहुत ऊंची मालूम होती हैं, लेकिन ये समस्याएं इतनी बड़ी नहीं हैं कि जितनी बड़ी समस्याएं अपने आपसे विमुख होकर बाह्य की ओर दृष्टि लगाकर, मोह रागद्वेष का परिणाम बनाकर अपने परमात्मतत्त्व से दूर हुए जा रहे हैं, ये हैं जिनके फल में अनंत संसार भ्रमण करना पड़ेगा। यह समस्या हैं सबसे बड़ी।
अहितपूर्ण बड़ी समस्या में अन्य सर्वसमस्यावों की विलीनता- देखो भैया ! विपत्ति की समस्याएँ उससे बड़ी विपत्ति की समस्याएँ सामने आ जायें तो दूर हो जाती है। कोई छोटी विपदा है, इससे बड़ी विपदा सामने नजर आये तो छोटी विपदा दूर हो जाती है। उसको मन में स्थान नहीं दिया जाता है। तो जिसको तुमने बड़ी विपदा समझ रक्खी हो, जिससे रात दिन परेशान रहा करते हों, उससे बड़ी विपदा और है, उस पर दृष्टि दें तो यह विपदा भी दूर हो जाएगी अर्थात् उसे आप फिर बड़ी विपदा न मानेंगे। यहां कौनसी बड़ी समस्या है? यह अमूर्त आत्मा इस अशुचि शरीर में पड़ा है, यह क्या कम समस्या है? आकाशवत् अमूर्त-निर्लेप अमूर्त ज्ञानानंदमात्र परमात्मतत्त्व देह के बंधन में पड़ा है, कर्मों के बंधन में ग्रस्त है, जन्ममरण के चक्करों में लगा है, यह क्या छोटी समस्या है? अचानक ही काल आ गया, गुजर गए तो महंगाई आदिक की समस्यायें फिर सब खत्म हैं। जहां जन्म लिया, वहां की समस्या इसके सामने आ जायेंगी।
अपना मुख्य काम- इस अध्यात्म क्षेत्र में देखो तो सही कि कौनसे संकट, कौनसी बड़ी समस्या हमारे सामने है, जिसको दूर करने का और सुलझाने का काम मुख्य पड़ा हुआ है? कितना काम पड़ा हुआ है? संसार के सारे काम एकत्रित किए जायें, उनसे भी अधिक मुख्य काम यह पड़ा है कि अपने आपको अज्ञान, रागद्वेष, मोह और विकल्पजालों के संकट से छुटा लेना। इस संकट की मुक्ति में अणुमात्र भी परपदार्थों की अपेक्षा नहीं है। इतना धन हो, तब ही हम धर्म पाल सकते हैं―ऐसी अपेक्षा इस धर्मपालन में नहीं है, किंतु बाह्यवैभव में रंगे हों, तृष्णा बनी हो, कृपणता हो, कुछ खर्च करने का परिणाम न हो, संचय का भाव लगा हो तो ऐसी स्थिति में धर्मपालन नहीं होता। उसकी योग्यता चाहिये, इतना साहस चाहिए कि यह मान सकें कि मेरा मेरे आत्मतत्त्व के सिवाय अन्य कुछ भी नहीं है। यह सब तो धूल है। कैसे मस्त हुए जा रहे हैं―यह निर्णय नहीं आ सकता तो धर्मपालन का अधिकार न मिलेगा।
अनाकांक्षता और उदारता की आवश्यकता- यद्यपि धर्मपालन में एक पैसे की भी अपेक्षा नहीं है। धर्म पैसे से नहीं होता, पर पैसे के लगाव से अधर्म तो होता है ना। तो उस अधर्म को दूर करने का हमारा बहुत बड़ा काम है, वह है उदारवृत्ति, जिससे हम धर्म पालने के पात्र हो सकें। चित्त के विक्षेप को दूर करने का काम पड़ा है। फिर तो ज्ञानसंस्कार हुआ कि स्वत: ही आत्मतत्त्व में आत्मा का अवस्थान हो जाएगा। सारे क्लेश एक ममता के हैं, मायामयी दुनिया में मायामयी पोजीशन के रखने का क्लेश है। दूसरा कुछ क्लेश है ही नहीं। न होता आज इतना वैभव, साधारण होते तो क्या ऐसा हो नहीं सकता था? यहां जितना लोक में बड़प्पन बढ़ जाता है, उतना ही पोजीशन रखने की तृष्णा बढ़ जाती है। हुआ कहां धर्म? जैसे किसी महान् कार्य में धन का दान करके, तपस्या करके अथवा तन से पर की सेवा करके और कुछ यश का भाव रक्खा तो वहां संन्यास कहां हुआ? प्रभु का प्यारा वही हो सकता है जो कि अपने संबंध में इस मायामय जगत् में कुछ न चाहे और निश्छल शुद्धभावों से पर की प्रभुता पर मोहित हो जाये अर्थात् अनुरक्त हो जाये और अपने को कुछ न मानें और अपने को स्वतंत्र और सर्वस्व मानें। इस जगत् में कुछ चाहने वाले के हाथ कुछ भी तो नहीं लगता है।
कुछ की कांक्षा में कलंक- एक नाई ने सेठ जी की हजामत बनाई। सेठ बड़ा डरपोक था। जैसे ही हजामत करते हुए में छूरा ठोड़ी के पास पहुंचा कि सेठ डरा और नाई से कहा कि देखो बढ़िया बाल बनाना, हम तुम्हें कुछ देंगे। जब हजामत बन चुकी तो सेठजी एक चवन्नी देने लगे। नाई ने कहा कि हम तो कुछ लेंगे, आपने कुछ देने का वादा किया था। सेठजी रुपया देने लगे, मोहर देने लगे। नाई ने न लिया। बोला हम तो कुछ लेंगे। क्या आफत पड़ गयी―ऐसी चिंता करके सेठ थक गया। अब सेठ को कुछ प्यास लगी। सेठ ने नाई से आले में रखे हुए दूध का गिलास मंगाया ताकि प्यास बुझा लें, फिर कुछ दें। उसने जैसे ही गिलास उठाया, वैसे ही देखा कि इसमें कुछ पड़ा है। नाई बोल उठा कि सेठजी इसमें कुछ पड़ा है। सेठजी ने कहा कि क्या कुछ पड़ा है? बोला हां। अरे तो अपना कुछ तू उठा ले। तू कुछ की ही टेक में तो अड़ा था। उसने कुछ उठाया तो उसे क्या मिला? कोयला मिला। तो कुछ की अड़ करने में कोयला ही तो उस नाई के हाथ लगा। इसी प्रकार यह सच जानों कि इस आत्मतत्त्व के अतिरिक्त बाह्यपदार्थों में कुछ चाहा तो केवल पाप कलंक ही तो हाथ रहता है।
भावना में कृपणता क्यों?- भैया सब कुछ यहीं पड़ा रहता है, कुछ भी साथ न जाएगा। यह जीव केवल परिणाम ही तो करता है। इस परिणाम से ही इसे आत्मसंतोष मिल सकता है और परिणाम से ही इसे खेद प्राप्त होता है। कोई भी परपदार्थ इसमें हर्ष विषाद नहीं लाता, किंतु यह अपनी कल्पना से ही हर्ष विषाद उत्पन्न करता है। जैसे किसी पुरुष के आगे एक खल का व एक चिंतामणि (रत्न) का टुकड़ा रख दिया और उससे कहा कि तू इनमें से जो मांगना हो मांग, जो मांगेगा वही मिल जाएगा। और यदि वह मांगे खल का टुकड़ा तो उससे बढ़कर बेवकूफी और क्या होगी? यह बात तो जल्दी समझ में आ जाती है और ऐसी ही बात तो यहां है कि जीव को केवल भावों से ही आनंद उपभोग होता है और भावों से ही दु:ख उपयोग होता है तथा भावों से ही सुख उपभोग होता है। तो हे आत्मन् केवल भावना के ही प्रसाद से तुझे आनंद क्लेश भी मिल सकते हैं और अनंत आनंद भी मिल सकता है। अब बोल तुझे इनमें से क्या चाहिए और यह चाल चले क्लेश की ही तो इससे और अधिक व्यामोह क्या कहला सकता है?
परमशरण की निकटता- जब कोई बड़ा क्लेश होता है तो जैसे किसी मित्र को या रिश्तेदार को या कुटुंब के पुरुष को अपने आपका जिसे शरण मानता है उसके निकट पहुंचता है, उसको छूकर रहता है, उसकी गोद में सिर रख देता है तो संसार की महान् विपत्तियों में व्यापन्न इस जीव को बड़े क्लेश हैं। यह जहां जाता है वहीं क्लेश हैं। जिसे हर्ष का साधन कुटुंब समझा है उसके बीच रहता है, वहां के और ढंग के क्लेश हैं, सोसाइटी सभा में बैठते हैं तो यहां और ढंग के क्लेश हैं और जन्म-मरण के क्लेश का तो कुछ ठिकाना ही नहीं है। ऐसे इन अनंत क्लेशों से ग्रस्त इस प्राणी को शांति सत्पथ आनंदमार्ग दिखाने का कारण है तो वह है प्रभु का दर्शन और आत्मस्वरूप का दर्शन। तब ऐसा ही यहां क्यों न किया जाय कि हम अपने प्रभु के बहुत निकट पहुंचे। वह प्रभु अनंत ज्ञानी है, सर्वविभावों से दूर है, ज्ञानानंदस्वरूप मात्र है और इस ही प्रसंग में क्यों न अपने आत्मस्वरूप के निकट हम पहुंचे और बारबार इस ज्ञानस्वरूप का अनुभव किया करें?
अंतिम चिकित्सा का आदर- भैया ! शांति के लिए बहुत प्रकार के परिश्रम कर डाले। जरा एक परमविश्रामरूप आत्मव्यवस्था भी तो करके देख लें। जब कोई मरीज 10-12 डाक्टर से इलाज करा चुका है और तमाम पैसा बरबाद कर चुका है, फायदा भी कुछ नहीं हुआ। झक मारकर अपने ही छोटे से गांव में लौटकर आ गया और वहां कोई देहाती साधु अथवा कोई फक्कड़ फकीर यह कहे कि यह रोग तो मिटा देना मेरी चुटकी का खेल है, तो वह सोचता है कि आखिरी दाव क्यों न देख लिया जाय? देख लेता है और कहो उससे ही दु:ख दूर हो जाता है। बहुत दूर घूम आये पर बहुत सस्ता सुलभ घर का ही कोई, गांव का ही उस दु:ख को दूर कर देता है।
चरम शरण का आदर- यों ही यह आकुलता का मरीज जब पदार्थों के पास धूम आया मुझे शांति मिलेगी, अशांति मिटेगी, पंचेंद्रिय के विषयों से बहुत प्रार्थना भी की, बढ़े भी विषयों की ओर, चित्त भी विषय साधनों में बसाये रहा, यही तो उनकी पूजा है। बहुत-बहुत उनकी शरण गही, पर कहीं शांति न मिली। तो झक मारकर थोड़ा कुछ अपने घर में बैठता है―अंतर्ध्वनि होती है कि जरा एक दाव इसका भी तो देख लें, अपने आपके प्रभुस्वरूप से कुछ ज्ञान की नजर तो मिला लें, ज्ञानयोग स्वरूप स्मरण को कर लें, सब ओर से उपयोग को हटा दें, एक अनन्य शरण होकर, किसी परवस्तु का रंचमात्र भी आदर न रखकर स्वरूप में घुल मिलकर थोड़ा प्राकृतिक, सुगम, स्वाधीन आनंद तो प्राप्त कर लें। बहुत से काम तो कर डाले शांति के अर्थ, अब अंतिम दाव तो करके देख लें। समस्त विकल्पों को छोड़े, अपने आपके स्वरूप का स्पर्श करें, फिर शांति के योग से मुक्त हो जायें। तो घूम आया यह सब जगह, अंत में शरण मिली इसे अपने आपके ही अंदर। तो ऐसा ही काम क्यों न कर लिया जाय जिससे कि चित्त का विक्षेप मिट जाये।
स्वरूप यथार्थ ज्ञान में विक्षेप का अभाव- मान और अपमान क्या है? जो कोई पर-आत्मा जो कुछ चेष्टा करता है वह अपनी कषाय के अनुकूल चेष्टा करता है। हमारा कुछ नहीं करता है। धीरता हो, गंभीरता हो, ज्ञानप्रकाश हो तो मौज लेते हुए जरा निरखते जावो अपने आपको। इस जगत् की चेष्टा से अपने आपको विक्षिप्त मत करो, चित्त के अविक्षेप में अपमान आदिक हो जाते हैं इसलिए हर संभव प्रयत्नों से चित्त का विक्षेप मिटावो और अपने आपके स्वरूप की उपासना में रहो तो सारे संकट स्वयमेव ही दूर हो जायेंगे।