वर्णीजी-प्रवचन:समाधितंत्र - श्लोक 39
From जैनकोष
यदा मोहात्प्रजायेते रागद्वेषौ तपस्विन:।
तदैव भावयेत्स्वस्थमात्मानं शाम्यत: क्षणात् ।।39।।
रागद्वेष के शमन का यत्न- सर्व क्लेशों का मूल रागद्वेष परिणाम है। चित्त विक्षिप्त हो जाता है तो उसका भी कारण रागद्वेष परिणाम है। जन्म मरण के भार सहे जा रहे हैं, उसका भी कारण रागद्वेष परिणाम है। जिन्हें कल्याण की चाह हो, सुख की वान्छा हो, हित की वान्छा हो उनका यह एकमात्र कर्तव्य है कि रागद्वेष भाव दूर करें। ये रागद्वेष भाव कैसे दूर हो सकते हैं? इसके समाधान में यह श्लोक कहा जा रहा है। तपस्वी पुरुषों के जब कभी मोहवश राग और द्वेष उत्पन्न होता हो तो उनको अपने आपमें स्थित कारणपरमात्मतत्त्व की भावना करनी चाहिए। इस उपाय से क्षणमात्र में ये राग और द्वेषभाव शांत हो जाते हैं।
रागद्वेष में आकुलता- भैया ! जगत् में एक आत्मा के अतिरिक्त अन्य कोई परमाणुमात्र भी ऐसा पदार्थ, तत्त्व नहीं है जो इस मुझ जीव को वास्तविक आनंद का कारण होवे। मोह के मद में लौकिक सुख और आराम हर्ष भोगा जा रहा हो तो वहां भी आकुलता है और विपदा भोगी जा रही हो तो वहां भी आकुलता है। रागद्वेष यदि है तो उसके परिणाम में नियम से आकुलता ही है। कोई भी राग अनाकुलता या सत्य आनंद को उत्पन्न करने वाला नहीं होता है और द्वेष तो आनंद को उत्पन्न करने वाला है ही नहीं। जीव रागवश होकर आनंद की प्राप्ति करने के लिए राग करने का ही उपाय किया करते हैं, और द्वेषी पुरुष द्वेष से उत्पन्न हुई आकुलता को दूर करने के लिए द्वेष का ही उपाय किया करते हैं।
द्वेष की बेचैनी की एक घटना- कुछ वर्षों पहिले कहीं एक कोई एक घटना हो गयी कि पड़ोस के किसी स्त्री के लड़के से दूसरे पड़ोस के लड़के से झगड़ा हो गया और झगड़े में एक लड़के की मां ने दूसरे लड़के को पीट दिया, तो जिस लड़के को पीटा उसकी मां को इतना क्रोध आया कि खाना भी न सुहाये। उसका संकल्प हो गया कि मुझे तब चैन होगी जब उस लड़के को जान से खत्म कर दूंगी। उस बेचैनी में उसने तीन दिन तक भोजन भी नहीं किया। उससे खाया ही न जाये, इतना तीव्र क्रोध चढ़ आया कि वह अपनी धुन रक्खे थी। आखिर चौथे दिन उसे मौका मिला, कोई मिठाई का लोभ देकर उस लड़के को बुलाया और एकांत पाकर उसके प्राण ले लिए और वहीं अपने घर में ही कहीं गड्ढा खोदकर गाड़ दिया। वह लड़का एक बड़े आदमी का था। बड़ा ढुढ़उवा मचा। आखिर खुफिया पुलिस ने किसी प्रकार पता लगा लिया और उस हत्यारिन को गिरफ्तार किया। जब जज ने पूछा कि तूने इस लड़के को क्यों मार डाला? तो उसने जवाब दिया कि इसने बेकसूर मेरे लड़के को थप्पड़ मारा था और इसने ही अपनी मां से हमारे लड़के को पिटवाया था। ऐसी दशा देखकर मेरे मन में यह संकल्प हो गया कि इस लड़के को जान से खतम करना ही है और इस धुन में मैंने तीन दिन तक खाना नहीं खाया, भोजन के लिए हाथ ही न उठे, वही धुन बनी रहे जब लड़के को मार डाला तब चैन पड़ी। फिर उसे दंड मिला। क्या हुआ आगे पता नहीं, पर यहां देखो कि जब द्वेष की क्रूर वेदना उत्पन्न हो जाती है तो उस वेदना को शांत करने के लिए उसने द्वेष को ही बढ़ाया और द्वेष करके अपनी वेदना को शांत किया।
रागद्वेष के कर्षण में मंथन- राग और द्वेष इन दो रस्सियों के बीच मथानी की तरह यह जीव फिर रहा है। जैसे दही बिलाने की मथानी जो रस्सी में लिपटायी जाती है उस रस्सी के उन दोनों छोरों के आवागमन की रगड़ से मथनी का क्या हाल हो रहा है, इसी तरह यह जीव राग और द्वेष की दो डोरियों में फंसा हुआ, मायाचार में पड़ा हुआ इस जगत् में चक्र काट रहा है। कहीं भी तो चैन नहीं है। गरीब सोचते हैं कि धनी बड़े सुखी होंगे, पर धनियों का हाल धनी जानते हैं। धनी सोचते होंगे कि गरीब बड़े सुखी होंगे, उन्हें कोई चिंता नहीं, पर गरीबों की हालत गरीब ही जानते हैं। कुछ मिल जाय, कैसा ही समागम मिले, यदि ज्ञान नहीं है, विवेक नहीं है तो सुख और शांति हो ही नहीं सकती। सुख और शांति धन की देन नहीं है किंतु विवेक की देन है, ज्ञान की देन है।
रागद्वेष के शमन के उपाय की आवश्यकता- देखो रागद्वेष तपस्वीजनों को भी सता रहे हैं, साधुवों को, गुरुवों को भी सता रहे हैं। यदि रागद्वेष उन्हें न सताते होते तो ध्यान तपस्या, साधना की उन्हें क्या जरूरत थी? वे ध्यान, साधना इसलिए करते हैं कि जो रागद्वेष उन्हें सता रहे हैं, उन रागद्वेषों का विनाश करने के लिए उनका यह उद्यम है। यह ग्रंथ तपस्वीजनों को संबोधने की मुख्यता से रचा गया है। जो बड़े पुरुषों के लिए कोई प्रोग्राम बनता है उस प्रोग्राम से गरीब लोग भी लाभ उठा लेते हैं। तो साधु संतों के लिए बनाए गए इस ग्रंथ से गृहस्थजन भी लाभ उठा लिया करते हैं। यह तपस्वियों को संबोध करके बताया गया है कि जब किसी तपस्वी को मोह से राग और द्वेष उत्पन्न होता हो तो वह अपने आपमें स्थित शुद्ध आत्मतत्त्व की भावना करे। इस उपाय से रागद्वेष क्षणमात्र में शांत हो जायेंगे।
क्लेशमुक्ति का उपाय आकिन्चन्यवृत्ति- देखो भैया ! किसी बालक के हाथ में कोई खाने की बड़ी चीज हो तो अन्य बालक उसे छुड़ाने की कोशिश करते हैं। वह मुट्ठी में बांधे है तो उसे खींच-खींचकर छुड़ा लेने की कोशिश करते हैं। वह बालक दु:खी हो रहा है। इसी प्रसंग में उसके मन में जब यह आता है कि इस चीज को फेंक दें तो वह मुट्ठी खोलकर बाहर फेंक देता है; और चाहे बाहर फेंककर अपने ही पैरों से उसे मसल देता है; लो अब तो सारा झगड़ा खत्म। अब अन्य बालक किस बात पर उसे पीटें? यों ही बाह्यवस्तुवों पर हमारी दृष्टि रहती है, उन्हें अपनाते हैं तो सैकड़ों विपत्तियां आती हैं। धन वैभव का हम संचय रखते हैं तो लूटने वाले, घात लगाने वाले कुटुंबीजन, मित्रजन अथवा अन्य कोई व्यक्ति उसके हड़प कर जाने की कोशिश करते हैं और हम दु:खी होते रहते हैं। सभी प्रसंगों में जहां अपने आपके ज्ञानमात्रस्वरूप का चिंतन किया कि मैं तो ज्ञानमात्र हूं, यहां कुछ और लदा ही नहीं है, यह तो मैं निजस्वरूपमात्र हूं, यहां कहां विपत्तियां हैं, यह मैं तो ज्ञानानंदमात्र हूं―ऐसे इस मेरे स्वभाव के दर्शन में कुछ प्रवेश तो हो कि सारे संकट क्षण भर में ही तो समाप्त हो जायेंगे।
संकट समाप्ति के लिये आंतरिक सुगम उद्यम- भैया ! संकट थे ही कहां। कल्पना से ही संकट बना लिये थे और कल्पना से ही शांत हो गये। ज्ञानबल से तो अब संकट रहा ही कहां। हे तपस्वीजनों ! जब कभी मोह से राग और द्वेष उत्पन्न हो जायें अर्थात् बाह्यतत्त्वों की ओर दृष्टि देने के कारण और अपने आपकी स्मृति न रखने के कारण जब कोई रागद्वेष उत्पन्न हो तो जरासा ही तो काम है। अपने आपके भीतर बसे हुए इस आत्मतत्त्व को निरख लें तो सारे संकट समाप्त हो जायेंगे।
संकट समाप्ति के सुगम उपाय पर एक दृष्टांत- यमुना नदी के बीच चलने वाले कछुवों में से एक कछुवा थोड़ी देर को अपनी चोंच उठाकर चले तो इतने में पचासों पक्षी उसकी चोंच को पकड़ने का यत्न करते हैं। वह कदाचित् विह्वल हो जाये तो साथ ही का कोर्इ कछुवा मानों समझा देगा कि अरे मित्र ! तुम क्यों इतनी परेशानी सह रहे हो? जरासा ही तो काम है कि चार अंगुल पानी में भीतर आ जावो, फिर वे सारे पक्षी तुम्हारा क्या कर सकेंगे? इतना सा इलाज नहीं कर पाते और इतने संकट भोग रहे हो। समझ में आये और थोड़ा ही तो पानी में डुबकी लगा लें, अब वे सारे पक्षी क्या करेंगे?
संकटसमाप्ति का सुगम उपाय- ऐसे ही इस ज्ञान और आनंद के समुद्र में आनंद में सदा रहने वाले इस उपयोग का कभी अपने ज्ञानानंद स्वभाव में प्रवेश हो जाये, बाहर में उपयोग न जाये तो ये जो पचासों संकट छाये हुए हैं, अनेक परेशानियों से विक्षिप्त हुआ यह जीव दु:ख भोग रहा है, वे सब क्लेश क्षणभर में ही नष्ट हो जायेंगे। थोड़ा ही तो काम है कि जरा अपने ज्ञानस्वरूप के भीतर आ जायें और यह जो ज्ञानानंदस्वभाव पड़ा हुआ है, उसमें ही विहार किया जाए तो सारे संकट क्षणभर में ही तो समाप्त हो जायेंगे। अहो ! इस उपदेशामृत को सुनकर हमारा आत्मा आत्मउपयोग करे, इस उपाय से अपने अंतर में ही प्रवेश करके रहे तो क्षणभर में ही सारे संकट समाप्त हो जायेंगे।
यात्रा में पाथेय का महत्त्व- जैसे कोई मुसाफिर बंबई जाये, वह दो या डेढ़ दिन में पहुंचता है, तो साथ में खाने से भरा हुआ टिफनबाक्स ले जाये तब फिर उसे क्या डर है? जब कभी भूख लग जाये तो झठ खोल ले और खा ले एक दो पूड़ी। अपने ही पास तो उसका भोजन है। क्षुधा के दु:ख का मिटाने का साधन अपने हाथ में ही तो है। जब भूख लगी तब खा लिया, वहां काहे का कष्ट? यों ही अपने ही पास ज्ञानानंदस्वरूप से भरा हुआ अपना ही आहार अपने ही साथ है। हम यात्रा कर रहे हैं बहुत बड़ी, विकट। कहां से कहां जा रहे हैं? पहुंच रहे हैं, मरकर कहां से कहां जन्म लिया करते हैं। बड़ी यात्रा में हम जा रहे हैं तो साथ में यह ज्ञान का पाथेय हो, टिफनबाक्स यह हमारा अपने पास हो, फिर क्या डर? जब भी कभी बाह्यदृष्टि के कारण कषाय आये तो उस ही समय अपने आपके भीतर में आये और उस ज्ञानभोजन को खा लें, ज्ञानसुधारस का पान करके खूब प्रसन्न रहें। क्या परवाह है?
विवेकी जनों का साहस- विवेकी पुरुष में बड़ा साहस है। कुछ समागम मिला है तो उसका भी वह प्रबंध बनाता है, फिर भी कुछ से भी कुछ हो जाये तो उसके इतना साहस है कि हो गया तो हो जाने दो ना, कौनसा घाटा पड़ गया है? जैसे लोग कहते हैं कि मारवाड़ीजन अपनी गरीबी मिटाने के लिए घर छोड़कर कलकत्ता जैसे बड़े शहर में पहुंच जायें और वहां खूब व्यापार आदि का साधन हो, बड़े धनी हो जायें और बाद में वह धन कदाचित् खत्म हो जाये, गरीबी आ जाये, तो वहां उनके साहस होता है कि क्या हो गया? लोटा डोर ही लेकर घर से निकले थे और अब इतना ही रह गया तो कौनसा बिगाड़ हुआ? फिर देखा जायेगा। यों ही जानों कि यह आत्मा अकेला ही जन्म लेता है और अकेला ही मरण भी कर जायेगा। इसका सब कुछ छूट जायेगा। छूट जाये तो छूट जावो। यहां स्वरूप ही ऐसा है कि सर्वत्र अकेला ही जन्म करना और मरना होता है।
कौनसा यहां घाटा पड़ गया है? हे तपस्वीजनों ! जब कोई रागद्वेष उत्पन्न होने लगें तब जितना जल्दी हो सके अपने आपमें विराजमान् चैतन्यस्वरूपमात्र शाश्वत निज स्वभाव में प्रवेश करो। ये रागद्वेष क्षणभर में शांत हो जायेंगे।
वैरभाव के विनाश का उद्यम- किसी पुरुष से किसी घटना में कुछ विरोध हो गया हो, वैर हो गया हो और उस बैर भाव के कारण परेशानी भी चल रही हो तो उस परेशानी को मिटाने का सीधा उपाय यह है कि जिससे विरोध हुआ है, बैर हुआ है उससे मधुर वार्ता करके बैरभाव खत्म कर दें। उस बैरी के विनाश करने का यत्न न करे। जो बैर मान रक्खा है सो वह भी बैर भाव मिटा दे और तुम भी बैर भाव छोड़ दो, ऐसा परस्पर में वातावरण हो जाय तो अब कहां रहा बैर? कहां रहा विरोध? कहां रहा बैरी? कहां रहा विरोधी? ऐसे समीचीन उपाय को विवेकी पुरुष ही कर सकते हैं।
रागद्वेष का मूल अज्ञानभाव- भैया ! एक बात और देखो कि यह विपदा का कारण, स्रोत अज्ञानभाव है। जब समस्त परवस्तु अत्यंत पृथक् हैं तो उन वस्तुवों में राग किया जाना, यह क्यों हो गया? क्या जरूरत थी, कौनसा काम अटका था? यह आत्मा तो शाश्वत परिपूर्ण है, इसमें कोई अधूरापन नहीं है कि इसकी पूर्ति के लिये किसी परवस्तु की अपेक्षा की जाये। क्यों हो गया राग? अज्ञानभाव था, इसलिये हो गया। कोई राग की आवश्यकता न थी। सर्व पदार्थ हैं, सदा परिणमते रहते हैं, अपनी इस अवस्थाओं की पलटना किया करते हैं। मैं भी अपरिपूर्ण नहीं हूं। जगत् के अंदर समस्त पदार्थ अपरिपूर्ण नहीं हैं, फिर क्या आवश्यकता थी जो कि रागविकार बनाया जाये। अरे ! कुछ आवश्यकता देखने की अटकी है क्या? आवश्यकता देखकर रागद्वेष हुआ करते हैं क्या? वह तो अज्ञान का फल ही तो है। इस अज्ञान में स्थित रहकर ही तो रागद्वेष हुआ करते हैं।
आत्महित व अंत:शरण- जगत् के सर्व जीव न्यारे हैं― ऐसे ही आपके गृह में उत्पन्न हुये दो चार प्राणी भी उतने ही बराबर न्यारे हैं, लेकिन औरों में तो राग होता नहीं, घर के दो चार लोगों में राग हो जाता है। हो जाये राग, वह तो गृहस्थों की एक पद्धति है, पर अंतर में प्रतीति जो बन गयी है कि ये मेरे हैं, ये ही मेरे सर्वस्व हैं-- इस विरुद्ध प्रतीति ने ही इस चैतन्यप्रभु को बरबाद कर दिया है। किसकी शरण में जायें कि ये संकट मिट जायें? खूब देख लो। बाहर में कहीं कोई शरण नहीं मिलेगा कि जिससे संकट मिट सकें। यह खुद ही अपने आपकी शरण में आये और अपने को अकेला ज्ञानमात्र निरख सके तो इसके संकट दूर हो सकते हैं। यह पड़ा है काम पहिले करने के लिये। दुकान, मकान आदि की सारी व्यवस्थाएँ करनी पड़ रही हैं, पर ये काम करने के लिये नहीं हैं। करने के योग्य काम तो यह आत्महित का है।
आत्महित का परिणाम- आत्महित आत्मा के सहजस्वभाव की श्रद्धा में है और उसके ही अनुरूप अपनी व्यवस्था बनाने में है। इतना ही तो सारे संकट दूर करने का उपाय है। यह उपाय न किया जाये तो संकट तो आयेंगे ही। संसार के जन्ममरण का सिलसिला तो चलेगा ही। क्लेशों से बचना है तो एक ही कार्य करना है कि निज को निज पर को पर जान। जो आत्मस्वरूप है, आकाशवत् निर्लेप अमूर्त ज्ञानस्वभावमात्र, ज्ञानानंदभावस्वरूप है उसको जानों कि यह मैं हूं और इस भाव के अतिरिक्त अन्य जो कुछ परतत्त्व हैं उनको समझो कि ये पर हैं, मेरे स्वरूप नहीं हैं तो फिर शांति का मार्ग अवश्य मिलेगा। कुछ सरल बनो। जो मन में हो सो वचनों से कहा जाय, जो वचनों से कहे सो काय से करे, कोई पुरुष मेरे कारण धोखे में न आ जाय, इतनी सरलता हो तो उस सरल पुरुष को आकुलताएँ नहीं आ सकती।
लोकसुख का भी कारण सत्यवर्तना- यद्यपि आजकल लोग कहते हैं कि जो जितना चालाक होगा, चंट होगा, धोखा दे सकने वाला होगा वह उतना ही सुखी रहेगा, वैभव वाला बन जायेगा, सर्व समृद्धियां हो जायेंगी और जो सरल होगा उसे ये सब वैभव कहां से मिलेंगे? लेकिन वैभव भी मिलता है तो वह निष्कपटता से, सरलता से, सच्चाई से और ईमानदारी से। किसी पुरुष के बारे में पब्लिक यदि यह जान जाय कि यह तो झूठा है, बेईमान है, मायाचारी है तो उसका कौन ग्राहक बनेगा? चाहे मायाचार किया हो, अशुद्ध बरताव किया हो, लेकिन जब यह जाहिर हो कि मैं सत्य हूं और धोखा नहीं दे सकता हूं, ऐसी बात व्यक्त हो तो उसकी दुकान चल सकती है।
सरल स्वतत्त्व के आदर में कल्याण- भैया ! सरल बनो, सज्जन बनो, फिर कुछ परवाह न करो। बुद्ध होना और बात है, सरल होना और बात है। बुद्धू तो ठगाया जायेगा और सरल पुरुष कभी ठगाया न जायेगा और फिर जेब से कुछ पैसे निकल गये तो इसमें क्या ठग गये? यदि हम दूसरे को ठगें तो हम स्वयं ठग गये। हमारी संसार यात्रा और लंबी हो जायेगी और यदि किसी दूसरे ने मुझे ठगा है तो मैं कुछ भी नहीं ठगा गया। न्याय नीति से रहना ही मेरे सुख का कारण बनेगा। हे तपस्वी पुरुषों ! जब कभी मोहवश राग और द्वेष उत्पन्न हों तो थोड़ा ही तो इलाज है। अपने आपमें बसे हुए निज तत्त्व की भावना करो। बस सारे संकट क्षण मात्र में ही समाप्त हो जायेंगे।