वर्णीजी-प्रवचन:समाधितंत्र - श्लोक 48
From जैनकोष
युंजीत मनसाऽऽत्मानं वाक्कायाभ्यां वियोजयेत् ।
मनसा व्यवहारं तु त्यचेद्वाक्काययोजितम् ।।48।।
क्लेशशून्य आत्मतत्त्व में मन के संयोजन का संकेत- प्रथम तो अपने आत्मा को मन के साथ संयोजित करो अर्थात् चित्त और आत्मा का अभेदरूप से अध्यवसान करके अंत:प्रवेश करो या सीधा यों कहो कि मन को आत्मा में लगावो। इस जीव को रंच कहीं भी क्लेश नहीं है। कहां क्लेश है? यह तो ज्ञानमय है, आनंदस्वभावी है। जैसा सिद्ध प्रभु का आंतरिक ठाठ है वही ठाठ यहां भी अंतरंग में है। रंच भी क्लेश की बात नहीं है। सर्वपदार्थ अपने-अपने स्वरूप में सम्राट् हैं, बादशाह हैं। कोई किसी के अधीन नहीं। किसी का किसी अन्य से संबंध नहीं। कौन दु:खी है, क्या दु:ख है, एक को भी दु:ख नहीं है। अब स्वप्न की तरह दिखने वाली इस दुनिया में मैं कुछ होऊँ, मेरी पोजीशन यथावत् रहे, मैं यहां कुछ कहलाऊं, ऐसी जो दृष्टि बनती है, ऐसी दृष्टि से आसक्ति के पहाड़ आ गिरते हैं, यह अहितकारी दृष्टि बनती है शरीर को आत्मा समझने पर। ये क्लेश बाहर से नहीं आते हैं, किंतु यह जीव कल्पनाएं बनाकर स्वयं दु:खी हो रहा है।
संकटहारिणी मूल औषधि- भैया ! किसी भी प्रकार की घबड़ाहट हो, किसी भी प्रकार की चिंता हो, सबकी मूल औषधि एक है अपने आपका जैसा सबसे न्यारा ज्ञानमात्र स्वरूप है, वैसा समझने में लग जावो मैं सबसे न्यारा हूं, इस मुझ अमूर्त तत्त्व को कोई जानता ही नहीं है, यह किसी के द्वारा अलग से जानने योग्य ही नहीं है। यह तो सब स्वरूप में एकरस एकस्वरूप है। इसमें भेद नहीं है। मुझे कौन पहिचानता है? ज्ञानयोग ही एक अमृततत्त्व है, ज्ञान का ही एक सर्वत्र प्रताप है और कोई प्रताप प्रताप ही नहीं है। ज्ञान से ही यह प्राणी सुखी होता है, ज्ञान से ही यह लोक में पूजित होता है, ज्ञान से ही यह इस लोक और परलोक में सुखी होता है। ज्ञान ज्ञान के स्वरूप को जाने और ज्ञानमात्र ही मैं हूं- ऐसा अपने आपके बारे में अनुभव करे, वह है वास्तविक ज्ञान।
जो ज्ञान अपने को नानारूप माने- मैं अमुक लाल हूं, अमुक चंद हूं, अमुक प्रसाद हूं, अपने को नानारूप माने और जो देह है, उस देह में ही यह मैं हूं- ऐसा परिणाम बनाए तो वह कहीं भी जाये, सुखी नहीं रह सकता है, क्योंकि दु:ख का जिससे संबंध है, वह काम छोड़े, तब जाकर सुखी होगा।
निज के एकत्व के प्रत्यय की आवश्यकता- भैया ! सुखी होना है तो एक अपने उस एकत्वस्वरूप को देखो। समयसारग्रंथ में जब नमस्कार विधि करके संकल्प किया, मैं क्या करना चाहता हूं, तो बताया है कि मैं एकत्वविभक्त आत्मा को दिखाऊँगा। पूरे समयसार में उसके वर्णन का प्रयोजन है सबसे न्यारे ज्ञानमात्र अपने स्वरूप को समझाने का। तो समझ लो इस वास्तविक औषधि का जब चाहे प्रयोग करो, हिम्मत बनाओ। हिम्मत बनानी ही पड़ेगी, किसी भी तरह की हिम्मत बनाओ। मरण के समय सब कुछ छोड़कर जाना ही होगा। जब मरते समय सब कुछ छूटता हुआ देख रहे हैं, उस समय भी हिम्मत बनानी पड़ेगी। बनाते ही हैं। जब छोड़कर जा रहे हैं, लाचार हो जाते हैं, संग कुछ जाता नहीं है। हिम्मत बनाता है कि नहीं बनाता है मरने वाला? यदि कुछ हिम्मत जीती अवस्था में ही बना ली जाये कि मेरा कुछ नहीं है, मेरा तो मात्र यह निजस्वरूप है, ऐसी हिम्मत बना ली जाये तो जीवित अवस्था में भी कुछ शांति तो रहेगी।
शांति का कारण संबंधविच्छेद- अशांति का कारण तो परवस्तु में अपना संबंध मानना है। इसके अर्थ सर्वप्रथम उपाय करो कि मन को संयोजित करो। फिर इस ज्ञान द्वारा इस आत्मतत्त्व को जानते रहो और वचन तथा काय से इसको अलग करो। अपने साथ तीन तत्त्व मन, वचन और काय लगे हैं। इनसे निकट संबंध मन का है, फिर उसके बाद का संबंध वचन और काय का है। सर्वप्रथम वचन और काय से अपने को न्यारा जान लो और आत्मा को छोड़ों। वहां पर भेदज्ञान करो। वचन और काय को आत्मा न समझो और जो मन भावज्ञानरूप है, उस मन को आत्मा में जोड़ दो, आत्मा के स्वरूप के परिज्ञान में मन को लगा दो। पहिले यह काम करना है, फिर वचन तथा काय से किए हुए व्यवहार को मन से छोड़ देवो।
क्या करना है ज्ञानीपुरुष को? अंतरंग में रागादिक विभावों का त्याग करना है और आत्मा के गुणों का त्याग करना है। इस प्रयोजन के लिए क्या करना चाहिये? आत्मा को मानस ज्ञान के साथ तन्मय करना और फिर वचन और काय से किये गये सर्वकार्यों को छोड़कर आत्मचिंतन में तल्लीन होना।
ज्ञान की प्रवृत्ति में उदासीनता- ऐसा ज्ञानी पुरुष कभी प्रयोजनवश किसी बाह्यकाम में लगता है तो उदासीनभाव से, अरुचिपूर्वक किसी रोगी के दवा पीने की तरह किया करता है। कोई रईस आदमी रोगी हो जाए तो कितने आराम में उसे रक्खा जाता है? बहुत बढ़िया सुगंधित साफ सुथरे कमरे में बड़े आराम से रक्खा जाता है, दसों आदमी बड़े प्रेम से बोलते हैं, खूब खबर लेते हैं और उसकी कुछ आज्ञा भी मानते हैं- ऐसा रोगी पुरुष बड़े आराम से पड़ा हुआ है। वह औषधि भी करता है। समय पर औषधि न मिले तो उस औषधि के लिये क्षोभ भी करता है- क्यों नहीं समय पर दवा लाये? पर यह तो बताओ कि क्या उस रोगी के मन में यह बात है कि मैं ऐसे ही आराम से जीवन भर रहूं? यद्यपि उसके आराम में कोई बाधा आ जाए तो वह उस पर विवाद करता है, इतने पर भी उसके मन में यह नहीं है कि मेरे को ऐसा सजा कमरा, ऐसा सुंदर पलंग, ऐसी दवा जिंदगी भर मिलती रहे।
उसकी तो यह भावना है कि मैं कब दो मील दौड़ने लगूँ, परिश्रम करने लगूँ, यह मेरी दवा कब छूटे- ऐसी उसकी भावना रहती है। इस भावना के साथ साथ वह अरुचिपूर्वक उन सब कार्यों को करता है। यों ही ज्ञानी गृहस्थ जिसे यह निर्णीत हो चुका है कि मेरा कल्याण मेरे आत्मा के दर्शन में है- ऐसे निर्णय वाले ज्ञानी गृहस्थ को बाहर में कुछ करना पड़ता है, कमाने के, दुकान के, परिवार के, सेवा के और पोषण आदि के समस्त कार्यों में लगना पड़ता ही है, फिर भी वह कभी भी अपने लक्ष्य से च्युत नहीं होता है।
सहजकला- एक कोई हंस जंगल में फिरता हुआ सरोवर के निकट रहता हुआ बड़ी सुंदर चाल से चल रहा था। एक पुरुष को उस हंस की चाल बहुत पसंद आयी तो वह उस हंस को पकड़कर घर ले आया और उसे मोती चुगाने लगा और बड़ा मिष्ट उसके योग्य आहार देने लगा। खूब उसे सुख से रक्खा। फिर एक दिन वह पुरुष बोला कि हे हंसराज ! जैसी चाल तुम उस सरोवर के तीर पर चल रहे थे, वैसी चाल हमें फिर दिखा दो। हंस ने कहा कि वह चाल तो उसी जगह की थी। यहां तुम्हारे निकट बनावटी चाल करें तो वह बात नहीं आ सकती है।
जो आत्मा स्वतंत्र निजस्वरूप को देखकर अपने आपके आत्मवन में विहार और विलास करता है, रमण करता है और जो शाश्वत सहजआनंद प्राप्त करता है, वह अनुभवन किसी भी बनावट में, किसी भी संसर्ग में, किसी अन्य की शरण में आ नहीं सकता है। इस ज्ञानी संत गृहस्थ को अपनी आत्मभूमिका में अपने सहजस्वरूप के अवलोकन का आनंद जग गया है। अब उसे बाहर में किसी पदार्थ में अपना मन नहीं लगाना है।
दुर्विलास का परिहार- यह हितमय अपनी बात जिस गृहस्थ संत में हो जाये, उसका भला है। ये डेढ़ दिन के जीने वाले लोग कुछ भला कह दें, कुछ अच्छा कह दें, इनमें मैं कुछ जंच जाऊँ, यह जिसके दिमाग में भर गया है, उसको कहीं सारतत्त्व नजर नहीं आ सकता है। परमुखापेक्षी का जीवन बेकार है। यह मतवाला तो यहां का वहां पीटा जाता है, उसका समय बेकार जाता है।
सबका संकोच छोड़ो। किसी का मेरे को परिचय नहीं है। मैं स्वतंत्र अविनाशी ज्ञानमय तत्त्व हूं। यहां मेरा कौन है, मैं किसको प्रसन्न करने की चेष्टा करूँ, मैं किससे अपने बारे में कुछ भली बात सुनूँ, किससे अच्छा कहलाऊँ? यहां ऐसा कौन है, जो मेरी आंतरिक वेदना को सुन सके, मेरे क्लेशों को दूर कर सके? ऐसा तो यहां कोई भी नहीं है। मैं अपने आपमें साहस बनाऊँ और इस एकत्वविभक्त निजस्वरूप का आदर करूँ तो मैं ही मेरे का सहायक हो सकता हूं। इस आत्मा में सर्वप्रथम अपना मन लगा दो। इस आत्मा को अन्यत्र कहीं मत लगावो और फिर धीरे से इस वचन और शरीर के संबंध के कारण जो अहंकार होता है, अहंकार के उस विलास को भी छोड़ो।
कठिनता से अवशिष्ट जीवन का सदुपयोग- अपने जीवन में कौन पुरुष एक ही जीवन में दो चार बार मरण के सम्मुख न हुआ होगा? जिस किसी से भी पूछो कि आपकी 40-50-60 वर्ष की उमर है। इस उमर के दौरान में आपको कोई ऐसा रोग हुआ होगा, जिसमें तुम मरणासन्न थे? तो प्राय: हर एक व्यक्ति अपनी दो-दो, तीन-तीन घटनाएँ बता देगा। हां, मैं जब इतने वर्ष का था तो तालाब में डूबने से बच गया, आग में जलने से बच गया, हिंदू-मुस्लिम दंगे में फंस गया था अथवा इतना सख्त बीमार हुआ कि मरते बचा- ऐसी अनेक घटनाएँ सभी बता देंगे। कल्पना करो कि यदि उन घटनाओं के समय ही देहांत हो जाता तो यहां दिखने को कुछ मिलता, जिसको देखकर हम अपनी कषायों से स्वरूपभ्रष्ट हुए जा रहे हैं। अपने में ऐसी संतवृत्ति जगे कि न क्रोध हो, न मान हो, न माया हो, न ही लोभ हो- ऐसी कोशिश करें। जिन्हें अपने जीवन में शांत होने की भावना है उन्हें चाहिए कि इस कषाय भाव को दूर करें।
घटनावों का हितरूप घटन- भैया ! कषाय को दूर करने के लिए जो भी यत्न करना पड़े, श्रम करना पड़े, अपमान सहना पड़े उन सबका तुम उपकार मानो। किसी पुरुष ने यदि मेरा अपमान कर दिया तो क्या किया? मेरा मान मिटा दिया। अरे मान मिटा दिया तो बढ़िया किया कि घटिया? अच्छा ही तो किया, खराब कहां काम किया? किसी ने मेरा मान मिटा दिया तो उसमें मेरा बिगाड़ नहीं हुआ। सब अच्छा ही है। इतना साहस जगना चाहिए। कषाय बहुत बुरी बला है। कुछ थोड़ा पुण्य का उदय पाया है। सारे समागम मिले हैं। ये सारे समागम कषायों के बढ़ने के कारण बढ़ रहे हैं। ओह मैं ऐसा हूं, मैं ज्ञानी हूं, मैं धनी हूं और मेरे साथ अमुक ने यह बरताव किया। अरे उस दूसरे पुरुष ने हमारे साथ कुछ बरताव नहीं किया। उसने तो अपनी कषाय के अनुसार अपनी चेष्टा भर की है। हमें धैर्य रखना होगा और कषायों पर विजय करनी होगी। इस मन को आत्मज्ञान में विलीन कर देना होगा। अपने एकत्वस्वरूप के अनुभव का रसपान बनेगा तो हित है अन्यथा संसारी प्राणियों की भांति ही मरण करना शेष रहेगा।
अज्ञानी और ज्ञानी द्वारा दान उपादान का विधान- अज्ञानी जीव तो बाह्यपदार्थों में त्याग ग्रहण करते हैं, मैं घर छोड़ता हूं, मैं अमुक को छोड़ता हूं, मैं अमुक व्रत ग्रहण करता हूं, यों बाह्यपदार्थों में उसका त्याग और ग्रहण चलता है, किंतु अंतरात्मापुरुष के अपने अंतर में त्याग और ग्रहण चलता है। मेरे जो विकार भाव हैं, उनका तो त्याग चाहता है और जो सहज शक्ति है, स्वभाव है उसका ग्रहण चाहता है। यह आंतरिक ग्रहण और त्याग चलता है। स्वीकार करना सो ग्रहण है और निषेध करना सो त्याग है। ‘मैं ज्ञानमात्र आत्मतत्त्व हूं’ ऐसा स्वीकार कर लेने का नाम अंतर में अपने आपका ग्रहण कहलाता है। मैं रागादिक विकार रूप नहीं हूं। विकारों का निषेध करना, सो अपने आपमें त्याग करना कहलाता है। यह अंतरात्मा इस प्रकार के अंतरंग में त्याग और अंतरंग में ग्रहण किस विधि से करे, इस जिज्ञासा के समाधान में यह प्रसंग आया है।
ज्ञानवृत्ति में प्रकृत क्रम- इस श्लोक में सारभूत क्रम और वृत्ति यह कही गयी है कि हे कल्याणार्थी मुमुक्षु पुरुषों ! सर्वप्रथम तो तुम वचन और शरीर से अपने को भिन्न जानो। जैसे कि अज्ञान अवस्था में यह जीव शरीर से और वचन से अभेदरूप अपने को मानता है, अथवा शरीर में और वचन में निज आत्मतत्त्व का निर्णय करता है। सो सर्वप्रथम तो यह करना होगा कि शरीर से और वचन से अपने आपको पृथक् करो। यह शरीर आहारवर्गणा का पिंड है, अचेतन है। यह मैं आत्मा आकाशवत् निर्लेप ज्ञानमात्र आत्मतत्त्व हूं। मैं शरीर नहीं हूं। इस ही प्रकार ये वचन, भाषा वर्गणा जाति के पुद्गल स्कंधों का परिणमन है। ये अचेतन हैं, मैं आत्मतत्त्व चेतन हूं। शरीर की अपेक्षा वचन सूक्ष्म चीज है और वचन की अपेक्षा मन सूक्ष्म चीज है।
अदृश्यवचन से अदृश्य आत्मा का भेदीकरण- सर्वप्रथम तो अज्ञानीजनों को शरीर से भी न्यारा अपने आपकी समझ आनी कठिन हैं। कदाचित् कहने सुनने से लोकरूढ़ि से अथवा कुछ विचार भी बने तो शरीर से अपने को भिन्न मानने की चर्चा कर लेते हैं। इन वचनों से भी मैं भिन्न हूं, इस प्रकार विनिश्चय होना कठिन है। शरीर तो आंखों भी दिखता है, सो शरीर का तो स्पष्ट निर्णय है कि यह है। अब अपने आपके आत्मा का ठीक-ठीक परिचय पाने की आवश्यकता है। अपने अंतर का परिचय मिला कि इस दृश्यमान् स्थूल शरीर से अपने आपको समझ लेना सुगम हो जायेगा। परंतु वचन तो आंखों भी नहीं दिखते और आत्मा तो अदृश्य है ही। ये दोनों अदृश्य तत्त्व हैं, इनमें भेदविज्ञान करें।
बात का व्यामोह- देखो तो भैया ! जो बात बोल दी जाती है उस बात का अज्ञानीजनों को बड़ा पक्ष रहता है। मेरी बात गिर गयी, इसका अंतरंग में बड़ा क्लेश मानते हैं। शरीर की अपेक्षा वचनों में इस जीव का मोह अधिक पड़ा हुआ है। बात के पीछे शरीर का कष्ट सहना तो मंजूर है पर अपनी बात को नम्र करना मंजूर नहीं है। अरे जरा सोचो तो सही कि यह संसार गर्व करने लायक नहीं है। किस चीज पर गर्व करते हो? गर्व करने से हानियां ही हानियां हैं, सार कुछ नहीं है। किस पर गर्व करते हो, मेरी शान रह गयी। क्या शान नहीं गयी? जानने वाले दूसरे लोग सब समझते हैं कि यह घमंडी है, शान बगराना चाहता है, मूर्ख है, ऐसा समझते हैं जगत् के लोग। कोई मुँह पर नहीं कह सकते किसी कारण से कि अभी लड़ाई बन जायेगी, पर जानते सब हैं। किसको शान दिखाना चाहते हो?
व्यर्थ का गर्व- एक पुरुष था, तो अपनी स्त्री से वीरता की बड़ी शान मारा करे। मानो महाभारत के समय की घटना थी। सो जब एक महायुद्ध छिड़ा तो स्त्री ने कहा कि यह तो राष्ट्र की सेवा है, आप भी युद्ध में शामिल होइये, आप तो बड़ी वीरता बताते हैं। सो जबरदस्ती शान में आकर कुछ शामिल तो हुआ और दिन भर लड़कर युद्ध में से एक आध टांग लेकर चला आया। अब वह स्त्री को दिखाता है लाई हुई टांग और कहता है कि देखो हम कैसे वीर हैं, हमने युद्ध में वीरता की है, देखो यह टांग लेकर आये हैं। तो स्त्री कहती है कि अरे टांग लेकर आये हो, सर लेकर क्यों नहीं आये? तो पुरूष कहता है कि यदि सर होता तो टांग ही कैसे लाते? कहां गर्व करना? गर्व करने लायक यहां कुछ भी नहीं है। जो वर्तमान में लोग दिख रहे हैं उनसे मानो तुम्हारे अधिक धन है मानो गांव में अधिक प्रतिष्ठा है तो उस धन को क्या चबाओगे? इस प्रतिष्ठा का क्या करोगे और यह लौकिक ज्ञान जो कि गर्व करने का कारण बन गया है उस ज्ञान का भी क्या करोगे? अंतर में तो शांति ही है। कोई भी तत्त्व संसार में ऐसा नहीं है जिस पर गर्व किया जाय।
निराकार बात का विकट पक्ष- अहो यहां तो बात के पीछे भी भयंकर व्यामोह है। कोई अपनी गलती है और एक बार भी अपनी गलती स्वीकार कर ले तो यह बड़े साहस की बात है। गल्तियों पर गलतियां करता जाय और उन्हें गलती न माने, यदि समझ में भी आ जायें कि यह गल्ती है तो भी मुख से नहीं कहेंगे कि हां मुझसे यह गल्ती हुई है। कोई बड़ा झगड़ा हो जाय और उसमें पंच लोग यह दबाव डालें कि तुम कह दो जरासा कि भाई माफ करो। और ऐसी ही कठिन घटना बन गयी हो कि ऐसा कहे बिना पिंड नहीं छूट सकता तो वह यों कहेगा कि भाई मुझसे दोष बन गया हो तो क्षमा करें। वह यह न कहेगा कि मुझसे दोष बन गया है तो क्षमा करो। अब भी उसके कहने में यह बात टपक रही है कि दोष तो मुझसे नहीं बना है पर ये लोग दबाव डालते हैं कि ऐसा कह दो, इसलिए कहने जा रहे हैं, यह बात टपक रही है।
गलत जानकर भी गलत बात का हट- एक कोई देहाती मुखिया था, पटेल समझ लो, जाट समझ लो। तो एक घटना में पंचों ने यों कहा कि तीस और बीस कितने होते हैं? तो बोला कि तीस और तीस पचास होते है। लोग बोले कि 50 नहीं होते हैं, 60 होते हैं। हुज्जमहुज्जा हो गया। वह कहता है कि अगर तीस और तीस मिलकर 50 न हों तो हमारी 5-6 भैंसे हैं, वे तुम ले लेना। अब सब लोग बड़े खुश हुए कि अब तो अपनी बिरादरी के बच्चों को खूब दूध मिलेगा। ये बातें उसकी स्त्री ने सुन लीं और वह उदास हो गई। अब वह पुरुष घर पहुंचा, घर पहुंचकर स्त्री से पूछता है कि तू उदास क्यों है? वह स्त्री कहती है कि तुमने तो ऐसा कर डाला कि जिंदगी भर घर के बच्चे भूखों मरेंगे, इसी से हम उदास हैं। वह पुरुष बोला कि तो क्या गया? स्त्री बोली कि तुमने पंचों से बोल दिया है कि तीस और तीस मिलकर 50 होते हैं, अगर 50 न होते हों तो हमारी सभी भैंसे खोल लेना। तब वह पुरुष कहता है कि तू तो पागल है। अगर हम अपने मुख से कह दें कि तीस और तीस मिलकर 60 होते है, तभी तो कोई भैंसों को छू सकेगा। तू क्यों डरती है?
बात के पक्ष के त्याग में मार्गदर्शन- यों ही यह जगत् अपनी बात के पीछे मर रहा है, बात न गिर जाये। हां, चाहे दूसरे के लाठी, डंडे, मुक्के सहने पड़ें, पर बात हमारी न गिरे। अरे, बड़प्पन तो इस बात में है कि कोई अपनी मामूली गलती भी हो तो उसे स्वीकार कर लेने में संकोच न हो, शर्म न हो, यह भी तो कषाय का त्याग है। हम चाहें कि हम बड़े हो जायें, हमारा विकास बने, महत्त्व बढ़े और जिन उपायों से बना जाता है बड़ा, वह उपाय न किया जाये तो कैसे काम बनेगा? अरे, जान बूझकर अपनी नाक कटा लो याने यह अभिमान मिटा दो, बात की शान मिटा दो। नाक कटाने का मतलब इस नाक के कटने से नहीं है, जो मुंह पर लगी है। नाक मायने मान। अरे, दूसरे जीव मुझसे सम्मान पायें, मेरा अपमान हो और दूसरे खुश हो जायें। अरे, हो जायें खुश, प्रभु ही तो हैं वे दूसरे। यह तो अच्छा ही है। कितने हिम्मत और साहस की बात है तथा अंतरंग में कितने बड़े गौरव की बात है? ममत्त्व अंतर में ही तो यह महान् कार्य कैसे किया जा सकता है?
मोहियों का वचनव्यामोह- इस जीव को शरीर की अपेक्षा वचन से ज्यादा व्यामोह है। झगड़ा और किस चीज का है? लाखों का धन है, सब ठाठ बाट आराम हैं। पर कहां सुख है? उपादान तो अयोग्य है, अज्ञान अवस्था का है। सो कोई न कोई बात चल उठेगी और उसमें दु:खी होने लगेगा। घर के लोगों ने मुझे यों कह दिया कि हमारा पद बड़ा है, हम बूढ़े हैं, हमारे बेटे की ही तो बहू है, हमारा स्टेंडर ऊंचा है, सास इस तरह से कहती है, और बहू कहती है कि हम तो मैट्रिक पास हैं, हम ऐसी कला जानती हैं, हमारी बडी इज्जत है, हम बड़ी रूपवती हैं, घर के लोग भी मेरे आगे पूँछ दबाकर रहते हैं, मुझमें तो बड़ी कला है, वहां उसे अभिमान चल रहा है। जब दोनों जगह अभिमान है तो क्या पद-पद पर कलह न होगी। यह वचन का व्यामोह बड़ा व्यामोह है। इन वचनों से अपने को न्यारा समझो।
त्रिमुंड से अपना पृथक्करण- मैं तो वह हूं, जो सब कुछ जानकर भी सबसे न्यारा अमिट अखंड बना रहता है। मैं तो वह हूं- ऐसा निश्चय करके वचनों से भी अपने को न्यारा करने का कर्तव्य है। कितनी बातें हुई? प्रथम तो शरीर से अपने को न्यारा कहा। दूसरी बात यह है कि वचनों से भी अपने को न्यारा अनुभव करो। अब तीसरी बात यह है कि वचन और काय के कारण जो लोकव्यवहार बन गया है, उस व्यवहार से अपने को न्यारा करो, मित्रता हो गयी और व्यवहार बना है, उन व्यवहारों से अपने को न्यारा करो। सबमें मिलाजुला सर्व के समान अपने आपको मानों, फिर वचन व्यवहार का मोह नहीं रहे। यों ही मन वचन काय से जो व्यवहार बन गया है, उस व्यवहार से भी अपने को न्यारा करो- ये तीन बातें होती हैं।
त्रिमुंड से छूटने पर कर्तव्य- भैया ! अब क्या करें कि जो मन है, द्रव्यमन की बात न मानों। द्रव्यमन तो काम में शामिल है। जहां काय से अपने को न्यारा अनुभव करने की बात कही जाये, वहां तो यह स्वयं ही सिद्ध है कि द्रव्यमन से भी न्यारा अपने को समझो। द्रव्यमन की बात नहीं कह रहे हैं, किंतु भावमन की, चित्विज्ञान की बात कह रहे हैं। उस विज्ञान से चित् को, मन को आत्मा से जोड़ो। सुनते हुये बहुत अटपटासा लग रहा होगा कि मोक्षमार्ग के प्रकरण को भेदविज्ञान की प्रक्रिया में मन और आत्मा को एक जोड़ना बताया गया है।
अब यहां चौथा काम कहा जा रहा है कि ऐसा मानस, जो मानस आत्मज्ञान के यत्न का हो, उस मानसज्ञान और आत्मा को अभेदरूप कर डालो। ऐसा निश्चय करो कि यह प्रयोग; वचन और काय से अत्यंत दूर होने के प्रयोजन से बताया गया है। वचन और काय से अपने को न्यारा करके और वचनव्यवहार से भी अपने को पृथक् करके उस मानसज्ञान में अपने तत्त्व को एक करें।
योगसमाधि में अंतिम पन्चम कर्तव्य- इसके पश्चात् 5वीं बात यह है कि सूक्ष्म दृष्टि करके उस मानसज्ञान को भी अपने आपसे न्यारा निरखें। अनादि अनंत अहेतुक अशरण चित्स्वभावमात्र हूं। यों सर्वविकल्पों से मन की वृत्तियों से भी अपने को न्यारा अनुभव करें। यों भेदविज्ञान की परंपरा से आत्मतत्त्व में आत्मस्वरूप की झलक होती है- ऐसा कभी तो अपने सहजस्वरूप का दर्शन हो जाये, फिर तो यह परंपरा पुष्ट होने का अवकाश पा लेती है। यों सर्व से विविक्त चित्प्रतिभासमात्र अपने आपको अनुभव करें, यह संसार के संकटों से बचने का उपाय है।
अंतस्तत्त्व की साधना करने वाला ज्ञानी पुरुष यदि बाह्यपरिस्थितिवश गृहस्थदशा में है और वहां नाना काम करने पड़ते हैं, फिर भी जैसे रोगी पुरुष कड़वी दवा पीता है और इतना ही नहीं, कड़वी दवा के पीने का उद्यम बनाता है, लेकिन उसके अंदर में यह बात पड़ी हुई है कि मुझे यह दवा न पीनी पड़े तो अच्छा है। दवा न पीनी पड़े- ऐसी स्थिति के लिये वह दवा पीता है। इस कारण औषधि सेवता हुआ भी वह औषधि का सेवक नहीं है। यों ही ज्ञानी पुरुष इस जाल से छूट जायें, इस वेदना से मुक्त हो जायें- ऐसी भावना करके एक असक्त अवस्था में कदाचित् कभी विषयों में प्रवृत्त भी होता है तो विषयों से छूटने के भाव को रखता हुआ रहता है, इस कारण वह अकर्ता होता है। बोलता हुआ भी नहीं बोलता है, जाता हुआ भी नहीं जाता है।
क्रिया होने पर भी अकर्तृत्त्व- कभी देखा होगा कि जिस मां को लड़के से उपेक्षा है, वह मां आगे चली जाती है और वह छोटे पैरों वाला नन्हासा बच्चा कच्ची दौड़ लगाता हुआ और रोता हुआ चला जाता है। वह बच्चा रोता हुआ चला जा रहा है। उसे कहां शरण है, किसके घर जाये? वह चलता तो रहता है, किंतु उसके अंतरंग की बात देखो तो वह अन्य किसी ओर ही भावना से चल रहा है। उसे चलना पड रहा है। इसी प्रकार बाह्यव्यवस्था हो और कार्य वहां करना पड़े तो ज्ञानी पुरुष का वहां मन नहीं रहता है, इसी कारण वह बोलता हुआ भी नहीं बोलता। उसका मन किसी अन्य जगह है।
भैया, स्व का पुष्ट ज्ञान होने के कारण उपयोग बोलने में भी नहीं होता तो भी प्रसंगवश उसके बोलने की धारा वाणीरूप से चलती रहती है। चले किंतु उपयोग उसमें राजी नहीं है। यों यह अंतरात्मा पुरुष ज्ञानबल के प्रयोग से बाह्यविषयों से निवृत्त होता है और निजआत्मतत्त्व में प्रवृत्त होता है। यों इस जीव से पहिले शरीर को भिन्न मानें, वचनों से भिन्न मानें। काय और वचन से जो कुछ व्यवहार बनता है, उससे भिन्न जानें और अंतर में मन से अपने आत्मा को जोड़ लें। मन से भी आत्मतत्त्व को भिन्न अनुभवें। यह है उपाय ज्ञानी पुरुष को उन्नतिमार्ग में लगाने का।
आत्मशिक्षण- यह आत्मवेदी ज्ञानी पुरुष की बात कही जा रही है। जो ज्ञानीसंत इस आत्मज्ञान में पुष्ट हैं, उनको तो यह भी नहीं करना है। अंतरंग का त्याग और अंतरंग का ग्रहण तो स्थिरज्ञाता निष्पक्ष केवल मात्र रह जाता है। यों बाह्यतत्त्वों से निवृत्त होकर निजआत्मतत्त्व में लगना बताया गया है और यहां यह भी शिक्षा दी गयी है कि प्रयोजनवश यदि किन्हीं बाह्यकार्यों में लगना पड़े तो अनासक्त होकर अपने आत्मकल्याण की धुन रखते हुये बाह्यप्रवृत्ति कर लो, किंतु अनुभव करो, काय से, वचन से, व्यवहार से और मानसिक विकल्पों से भी न्यारे ज्ञानमात्र निजआत्मतत्त्व का।