वर्णीजी-प्रवचन:सहजपरमात्मतत्त्व - गाथा 4
From जैनकोष
ज्योति: परं स्वरमकतृं न भोक्तृ गुप्तं, ज्ञानिस्ववेद्यममलं स्वरसाप्तसत्त्वम् ।
चिन्मात्रधामनियतं सततप्रकाशं, शुद्धं चिदस्मि सहजं परमात्मतत्त्वम् ꠰।4꠰꠰
आत्मा की परमज्योतिस्वरूपता―यह मैं सहज परमात्मतत्त्व परमज्योतिस्वरूप हूँ । मेरा स्वरूप सिवाय ज्योति के और क्या कहा जा सकता है? ज्योति से मतलब पौद्गलिक दीपकों की ज्योति से नहीं है । यह है एक प्रतिभास, जानन देखन प्रकाश । यह मैं आत्मा ज्ञानदर्शनप्रकाशस्वरूप हूँ । जान तो रहा ही हूँ । सभी लोग जान रहे हैं । अब इसमें जानने के अतिरिक्त और पाया क्या जाता है? यदि और कुछ कहना आवश्यक है तो एक आनंद को भी बताया जा सकता है । इस आत्मा में जानना और आनंद ये दो धर्म पाये जा रहे हैं । इसी कारण कुछ अद्वैतवादियों ने तो ब्रह्म का स्वरूप ज्ञान बताया है, किन्हीं ने आनंद बताया है । वह ब्रह्म जो ज्ञानानंदस्वरूप है, वह हमआप से कहीं अलग नहीं है । जैसे कभी आपके ही विषय की बात कही जा रही हो और आपको ही विदित न हो कि यह मेरी ही बात कही जा रही है तो आप दूसरे की बात है ऐसी दृष्टि रखकर उसे सुनेंगे और सुनकर असल में अपने हित में क्या करना चाहिए था, वह न करके और ही बात ठान लेंगे । इसी प्रकार यह ब्रह्मस्वरूप की बात है तो खुद की, पर जब कुछ संतों ने सुनायी इस ब्रह्मस्वरूप की चर्चा, तो सुनने वालों ने इस ढंग से सुना कि कोई एक नित्य व्यापक ब्रह्म है, उसके संबंध में ये ऋषिजन कुछ कह रहे हैं । तो उस बात को सुनकर जो लाभ उठाया जा सकता था वह नहीं उठाया जा सका कुछ विरुद्ध ही काम कर बैठे, सो अपना बिगाड़ ही किया ।
सहजपरमात्मतत्त्व के दर्शन की विधि और उसमें प्रारंभिक यत्न―वह ब्रह्मस्वरूप हम आप सब स्वयं हैं । उसके देखने का ढंग हो तो उसका परिचय हो जायेगा । जैसे दूध में घी रखा है पर वह यों आंखों से देखने पर न दिखेगा । हां, दूध से घी निकालने का जो ढंग है उस ढंग को यदि कोई जानता हो, उस ढंग का प्रयोग करता हो तो उसे वह घी उस दूध में मिल जाता है । इसी प्रकार हम आप सब आत्माओं में यह सहजपरमात्मतत्त्व है, यह ब्रह्मस्वरूप है, किंतु उसके समझने का ढंग और उसको प्रकट करने का ढंग हुआ करता है, उस विधि को कोई अपनाये नहीं और निरखना चाहे कि मुझमें सहजपरमात्मतत्त्व क्या है, तो उसे नजर न आयेगा । उस सहजपरमात्मतत्त्व के दर्शन का उपाय यह है कि प्रथम तो जगत के समागमों को भिन्न असार अहित अकिंचित्कर अपने लिए यह कुछ काम न आ सकने वाला है ऐसी श्रद्धा करें तब तो जो अनादि से इसकी पर में आसक्ति हो रही है, पर में झुक रहा है तो यह झुकाव तो मिटेगा, अन्यथा आप बतलाओ-अनादिकाल से अब तक अनंत भव पा चुके, उन भवों में न जाने कितनी दुर्दशायें हुई? उन भवों में बड़े-बड़े राज्यपद भी पाये, बड़े-बड़े देवों की समृद्धि भी पायी, फिर भी हैरानी ही हैरानी उनमें रही या नहीं? और वही हैरानी अब भी है ।
वर्तमान जीवन में भी शांतियत्न की असफलता―इस ही जीवन में लोगों ने सोच रखा था पहिले कि इतना वैभव पा लेने पर, घर की ऐसी हालत बना लेने पर फिर हमें कुछ भी विकल्प न रहेंगे । हम तो स्वाध्याय, सत्संगति, गुरूपासना आदिक धार्मिक कार्यों में ही अपना समय बितायेंगे, पर प्राय: सभी के ये मंसूबे ज्यों के त्यों धरे रह जाते हैं । बल्कि देखो―जिस समय यह विचार बनाया था कि इतनी घर, दूकान आदिक की स्थिति बना देने पर फिर हमें कुछ नहीं करना है उस समय आज की अपेक्षा कुछ अधिक शांत थे, आज तो और भी विशेष उल्झनों में पड़ गए, व्यग्रताओं में बढ़ गए । तो ऐसी आकुलतायें अनादि से अब तक ये जीव भोगते चले आये हैं । और हँसी की बात यह है कि जिस पदार्थ के संबंध में हम शान चाह रहे हैं, अपनी इज्जत समझ रहे हैं, हित और सुख समझ रहे हैं, वे सब पदार्थ अत्यंत भिन्न हैं, रंच भी संबंध नहीं है उन सब पदार्थों से इस आत्मा का । वे विघट जायेंगे, चले जायेंगे, ठाठ जहाँ का तहाँ रह जायेगा, जहाँ जाना होगा जायेगा, पर लगाव रखे बिना, आसक्ति रखे बिना, विकल्प किए बिना ये जीव रह नहीं पाते । मोहवश ये प्राणी व्यर्थ दुःखी हो रहे हैं । तो इसका मतलब यह है कि इन प्राणियों को अभी अपने आपमें रुचि नहीं प्रगटी कि मैं प्रभुवत् सहज चैतन्यस्वभावरूप हूँ, अन्य मैं कुछ नहीं हूँ मुझे ऐसा ही रहना हैं, केवल चिन्मात्र रहने में ही, ज्ञातादृष्टा रहने में ही मेरा सर्व कल्याण है, और यही वास्तविकता है हम को अपने आपके स्वरूप की ओर रहना चाहिए ऐसी रुचि प्रकट नहीं हुई है । इसी कारण हम आपका यह भ्रमणजाल लगा हुआ है । यह भ्रमणजाल मेरा कैसे मिटे और मैं अपने आनंदधाम शुद्ध चित्स्वरूप में कैसे मग्न होऊं, इसका उपाय क्या है? उस उपाय से चलने पर ही हम इस सहजपरमात्मतत्त्व से मिल सकेंगे । इसके लिए प्रथम उपाय यह करना है कि जिन बाह्य पदार्थों में हमारा संपर्क लगा है उन बाह्य पदार्थों की असलियत पहिले समझें । यह बात समझ जाना सुगम है और लोग समझते भी हैं कि किसी का कोई नहीं है ।
कुलपरंपरा चलाने का मूढ़तापूर्ण ख्याल―यहाँ अभी जितने लोग बैठे हैं वे अपने चार पांच पीढ़ी के दादा बाबा आदि का नाम भी न जानते होंगे? आजकल कौन उनकी सुध लेता है? कुछ दिन पहिले के लोग तो अपनी 5-7 पीढ़ी के दादा बाबा आदि के नाम कुछ याद भी रखते थे अब इसका वातावरण ही नहीं है । आजकल लोग तो विषयों की आसक्ति और अपने-अपने मतलब की बात याद रखते हैं, पर अपने पुराण पुरुषों की याद नहीं रखते । तो जो तीन चार पीढ़ी पहिले के लोग थे वे ये मंसूबे नहीं बाँध रहे थे क्या कि हम यह घर, यह धन वैभव ठीक-ठीक बनाये रहें ताकि जो हमारे बच्चे, उनकी जो संतान होगी सुख से रहेगी व उसकी परंपरा चलेगी । पर क्या है परंपरा? क्या है उनको? तो ऐसे ही जो लोग आज भविष्य के बारे में विकल्प रख रहे हैं―बच्चों की संतान होगी, नाम चलेगा तो क्या संतान? क्या नाम? क्या वैभव? ये सब भिन्न हैं असार हैं, और इन्हीं विकल्पों के कारण, इस ही फँसाव के कारण कर्म बंध हो रहे हैं और संसार भ्रमणजाल बराबर लंबासा बना जा रहा है ।
निरुद्देश्य जीवन से पूरा पड़ने की असंभवता―कितनी बड़ी भारी विपत्तियां हम अपने आपकी असावधानी से अपने आप पर लाद लेते हैं, इस ओर दृष्टि नहीं है, न आत्महित की ओर रुचि है । तो इस तरह की जिंदगी बिता करके आप क्या करेंगे? क्या पूरा पाड़ेंगे? कुछ तो प्रोग्राम बताओ । पर विषयों में लग-लगकर, लड़ के बच्चों की सेवायें करके उनकी गालियाँ भी सह-सहकर, उनसे प्रेम बनाबनाकर, उनके द्वारा आपत्तियां पाकर भी, उनकी ओर आकर्षण रखकर आप कौन-सा प्रोग्राम बना रहे हैं, कुछ थोड़ा बताओ तो सही, सोचो तो सही किसी बात का कुछ प्रोग्राम तो होता है । नीचे से सीढ़ियों पर चढ़ते हैं तो चित्त में बात तो यह है कि ऊपर बैठना है? कोई न कोई उद्देश्य तो होता है प्रवृत्ति का । तो इस वैभव से, इन परियोजनों में, इन इज्जत पोजीशन आदिकों में जो इतना आकर्षित हो रहे हो तो उसका उद्देश्य क्या है सो तो बताओ । यदि कोई उद्देश्य नहीं बनाया है, निरुद्देश्य होकर ये सारी प्रवृत्तियां की जा रही हैं तो इसका फल क्या होगा सो तो विचार करो । जैसे कोई नाविक लक्ष्यविहीन होकर समुद्र में नौका को खेता जाये, या नाव में बैठे हुए सभी लोग शराब पीकर नाव में बैठ गये हैं, उनका कोई सही लक्ष्य नहीं बन पाया है कि हमें किस किनारे किस जगह पहुँचना है तो उनका क्या हाल होगा सो तौ विचारों वे तो यत्र-तत्र भटकते ही फिरेंगे, ठीक इसी तरह से यहाँ जो भी व्यापार काम-काज की प्रवृत्तियां की जा रही हैं वे क्यों की जा रहीं हैं, उनके करने का कुछ उद्देश्य नहीं बनाया है तो आखिर उसका परिणाम क्या होगा? लक्ष्यविहीन नाविक की भाँति यत्र-तत्र भटकना होगा । हम आप सब लोगों की अभी तो उस पागल नाविक की भाँति इस संसार-सागर में नैया चक्कर में ही है, अभी कोई अपना सही लक्ष्य नहीं बना पाये । बात भी यही है कि इन संसार के काम-काजों में उद्देश्य एक हो ही नहीं सकता । कोई भी उद्देश्य बनाइये कि हमें यह एक बनना है । अपने जीवन में तो वह बात आ ही न सकेगी, क्योंकि ऐसा कुछ एक है भी नहीं । और कल्पना में मान लिया जाये तो ऐसा अनुभव करने के बाद फिर जो-जो भी विचार उठते हैं, वे सब खतम हो जाते हैं और दसों बातें सामने आ जाती हैं और उस मानी हुई एक बात के निकट पहुंचते ही उस एक को तो भूल जाते हैं और अनेक पर विचार उत्पन्न होते हैं ।
पारमार्थिक उद्देश्य की ही एकरूपता―इन सांसारिक संपर्कों में रहकर एक कोई उद्देश्य ही नहीं बनाया जा सकता, किंतु पारमार्थिक उद्देश्य जरूर एक होता है । कोई सोच ले कि हम को तो समस्त परपदार्थों से, परभावों से निराला विशुद्ध स्वयं सहज जो में हूँ बस इतना ही मात्र रहना है । अब बतलावो इस एक उद्देश्य का विरोधी और कौन है? सोच लो, उद्देश्य कर लो ꠰ यथाशक्ति उस पर चलेंगे, सफल हो पायेंगे, हो लेंगे, असफल हो पायेंगे, हो लेंगे, किंतु ज्ञानी का उद्देश्य वह पूरा का पूरा एक ही तरह का रहेगा, तो जब एक ही प्रकार का उद्देश्य रहे तब तो हम उसको प्राप्त कर भी सकेंगे, किंतु जहाँ उद्देश्य ही कुछ नहीं बन पाता तो संसार के आकर्षण और जो-जो विकल्पजाल हैं, इनसे आत्मा की क्या सिद्धि होगी? यह हमारा एक उद्देश्य हो कि मैं सहज जैसा जो कुछ हूँ वही का वही मात्र रहूं । कैसा शुद्ध हूँ मैं, उसके लिए सहजपरमात्मतत्त्व की भक्ति की बात कही जा रही है । किसी लकड़ी का उसका अपने आपका जैसा रंग है उस ही रंग की तरह की अन्य कोई चीज कागज अथवा कपड़ा चढ़ा दिया जाये अथवा कोई रंग उस पर पोत दिया जाये तो क्या वह लकड़ी अपने उस रंग को बदल देगी ? अरे वह तो जैसी थी वैसी ही रहेगी । तो ऐसा ही यह मैं जो कुछ भी हूँ, हूँ ना, उसी में मुझे संतोष है और जो हूँ उसमें संतोष न करूँ तो मेरा उठता क्या है? यहाँ और कुछ तो बन न जायेगा, बल्कि बिगाड़ है ।
आत्मसंतोष न करने पर होने वाले बिगाड़ का कारण और विवरण―यह जीव उपयोगस्वरूप है, यह उपयोग से जानता देखता समझता रहता है तो यह अपने को नाना रूप कल्पनायें करता है, अपने स्वरूप के विरुद्ध अपने को मान करके हैरान ही होगा, दुःखी ही होगा, क्योंकि विरुद्ध विभावों का टिकाव तो होगा नहीं और उसे अपनाने में मानने में यह डट जायेगा तो खेद ही पायगा और खेद की ही बात क्या कहें, उसके फल में इस जीव का इतना बिगाड़ हो रहा है कि भला बतलावो कोई चींटी बनी, कोई पेड़ बना, कोई सूकर, गधा आदि बना तो यह इस सहजपरमात्मतत्त्व की कोई बात है क्या? कितनी दुःखमयी दयनीय दशा में इसकी स्थिति हो रही है? यही सब कारण हैं कि इस जीव ने भिन्न बाह्य पदार्थों में तो मोह बसाया है और उसके कारण ही अपना बड़प्पन समझकर अपनी सारी सुध खो दी है तो इस अपराध में जो भी दंड मिलना चाहिये बस उस दंड का नमूना है यह संसार, यह जीवलोक । और यहाँ असलियत क्या है? सो यह सब कुछ दिख ही रहा है।
सांसारिक संकटों के मेटने के उद्देश्य और यत्न की आवश्यकता―सांसारिक इन सब संकटों को हमें दूर करना है, यह बात चित्त में नहीं आती । कोई बाहरी बात आ गई हो, कुछ थोड़ा विरोध हो गया हो, संतान कुछ खिलाफ हो रही हो या अनेक प्रकार के धन वैभव संबंधी विघ्न आ रहे हों तो उनसे लोग समझते हैं कि हम पर बड़ा संकट है और खुद पर जो यह संसार अनर्थ गुजर रहा है, उसका संकट नहीं समझ पा रहे, बस इतनी ही भूल से, इस ही अंतर से यह सारा अंतर पड़ रहा है कि भव-भव में जन्मे मरे और दुःखी हुए तिस पर भी इस दुःख के कारण को दुःख न समझ सके । तो इन्हीं सब संकटों के मेटने के उपायों में प्रभु का यह उपदेश है कि अपने उस सहजपरमात्मतत्त्व को लखो । उसके श्रद्धान से, उसके ज्ञान से, उस ही रूप आचरण से तुम इस देहबंधन से, कर्मबंधन से, जन्ममरण से सर्व विकल्पजालों से सदा के लिए छूट सकोगे ꠰ इस उपाय में लगने के लिये वस्तुस्वरूप को यथार्थ जानकारी चाहिये और उसमें भी स्पष्ट अंतस्तत्त्व की जानकारी चाहिये । एतदर्थ वीतराग सर्वज्ञदेव की दिव्यध्वनि की परंपरा से चले आ रहे नयप्रमाणसंगत शास्त्रों का खूब मनन कीजिये ।
परमज्योतिस्वरूप सहजपरमात्मतत्त्व―सद्बोध के बल से एक ही झांकी में समस्त पर और परभावों को पार करके अंत: निर्विकल्प अखंड शुद्ध चित्स्वरूप को अनुभव में लेने वाले ज्ञानी पुरुष इस शुद्ध चित᳭स्वरूप को किस-किस रूप में पहिचानते हैं, उस कथन में यह बात कही गई थी कि यह शुद्ध चित्स्वरूप सहज परमात्मतत्त्व परमज्योतिस्वरूप है । ज्योतिस्वरूप है अर्थात् जानन देखन प्रकाशरूप है । उस जानन-देखन प्रकाश के साथ परम विशेषण लगाने से यह तात्पर्य निकला कि वह एक ध्रुव उत्कष्ट ज्योतिरूप है । जब हम अपने आपको इस प्रकार सामान्य ज्ञान दर्शन प्रकाश रूप से अनुभव करें, तो कितने ही विकल्प, कितनी ही यत्र-तत्र की चिंतायें सब समाप्त हो जाती हैं । इस जीव ने अब तक विशेष में बढ़कर नानारूप अपने को अनुभव किया, किंतु एक सहज साधारण सामान्य ध्रुव परमज्योतिस्वरूप अपने को न लखा । जब उस परमज्योतिस्वरूप की चर्चा करते हुए भी उसकी बात कुछ सुनते हुए भी एक निर्भारता का अनुभव करने लगते हैं और जब उपयोग इस निर्विकल्प ज्योतिस्वरूप में अभिन्न हो जायेगा तो उस समय का आनंद बस उस ही का नाम प्रभु है ।
परम स्वरस्वरूप सहजपरमात्मतत्त्व―यह सहजपरमात्मतत्त्व स्वर है । स्वर कहते हैं स्वयं राजते इति स्वर जो स्वयं अपने आप शोभायमान हो । सर्व पदार्थों में श्रेष्ठ द्रव्य ज्ञानमय पदार्थ है और इस ज्ञानमय पदार्थ आत्मा में भी सर्वश्रेष्ठ ध्रुव सहज चैतन्यस्वभाव है वह स्वयं राज रहा है । पदार्थों के स्वरूप सभी के स्वयं में शोभायमान होते हैं, किंतु जो व्यवस्थापक द्रव्य है, सर्व विश्व का ज्ञान करनेवाला पदार्थ है और विशुद्ध ज्ञानवृत्ति के कारण सर्वोत्कृष्ट है उसके संबंध में यह स्वयं राजमान है, यह कहना विशेष शोभा देता है । स्वर शब्दों में भी बोला जाता है और इस ब्रह्म को भी स्वर कहा जाता है । तभी इस स्वर का ही नाम ब्रह्मस्वर रख दिया है । जब सिद्ध पूजा में स्थापना पढ़ते हैं, तो उस सिद्ध यंत्र को हम ब्रह्मस्वर से आवेष्टित कहकर पुकारते हैं, यह ब्रह्मस्वर से आवेष्टित है । जैसे कि ब्रह्म स्वयं राजमान है, इसी प्रकार अ आ इ ई आदिक शब्द भी स्वयं राजमान हैं । इन स्वरों के बोलने में अन्य शब्दों के संयोग की अपेक्षा नहीं करनी पड़ती । जैसे कि व्यज्जन के बोलने में अन्य शब्द के संयोग की अपेक्षा हुआ करती है । केवल खालिस कोई भी वचन बोला नहीं जा सकता । विशुद्ध क् ख् आदिक व्यंजनों का उच्चारण नहीं बन सकता जब तक कि उसके साथ किसी स्वर का संयोग न हो अर्थात् स्वर का संबंध न हो । व्यंजन भी चाहे चार छह कर दिये जायें, किंतु जब तक स्वर का संबंध न हो, तब तक वे स्वयं उच्चारण में नहीं आया करते । 5-6 संयुक्त व्यंजनों के भी उच्चारण का कारण एक स्वर शब्द बन जाता है । तो जैसे स्वर शब्द स्वयं राजमान है, इसी प्रकार यह सहज परमात्मतत्त्व स्वयं राजमान है । स्वर नाम वस्तुत: इस सहज परमात्मतत्त्व का है, इसकी भाँति स्वयं राजमान है वे शब्द, अत: उन्हें स्वर कहा गया है । ऐसा यह सहजपरमात्मतत्त्व अपने आपमें स्वयं राजमान है ।
निर्भेष स्वरस्वरूप सहजपरमात्मतत्त्व―यह सहजपरमात्मतत्त्व अनादि से है, अनंतकाल तक है । जैसे एक बालक नाटक में 10-20 भेष बनाकर रंगमंच पर आता है, पर उन भेषों के बिना बालक का जो एक साधारणरूप है, कोई एक कुर्ता पायजामा पहिने हुए जैसा कि रोज फिरा करता था ऐसा साधारण रूप लेकर वह बालक मंच पर कभी नहीं आया, जब आया मंच―पर तो सज-धजकर आया । इसी कारण बहुत से लोग उस सजे-धजे बालक को अनेक बार निरखकर भी यह नहीं पहिचान पाते कि यह तो अमुक बालक है । यों ही निरखिये कि अपने आपके अंत: विराजमान यह सहज परमात्मतत्त्व अब तक है, अनेक योनियों में व्यक्त रह-रह कर इस संसारभूमिका के मंच पर आता रहा है । इसी कारण जान नहीं पाया इस सहजपरमात्मतत्त्व को कि इसकी सहज मुद्रा कैसी है? स्वयं अपने आप जैसा यह राजमान है, प्रकाशमान है, वैसा नहीं समझ पाया । जब कभी वह बालक आवश्यकतानुसार उस ही भेष में आये, जब कि जरूरत यह समझी गयी कि उस ही साधारण मुद्रा से कोई भेद बताया जायेगा तो उसे देखकर लोग झट पहिचान जाते कि यह अमुक बालक है । इसी तरह यह सहज परमात्मतत्त्व अपने में सुगम सहज सिद्ध पर्याय में जब आता है, वीतराग परिणति में जब आता है, तब उसका सहज अनुभव होता है कि यह है वह सहजपरमात्मतत्त्व । और जैसे पारखी उस बालक को किसी भी भेष में आये, एक बार समझ लेने वाले सभी लोग इस बालक का परिज्ञान कर लेते हैं, इसी प्रकार बाह्य विकल्पों को शांत करके निज में परमविश्राम पाकर एक बार भी अनुभव कर लेने वाला ज्ञानी पुरुष सभी प्रकार के भेषों में भी वर्तमान इस चेतन में सहजपरमात्मतत्त्व की निरख कर लेते हैं और तब वे यह समझते हैं कि यह सहजपरमात्मतत्त्व स्वयं राजमान है ।
अकर्ता सहजपरमात्मतत्त्व―यह शुद्ध चेतन अनादि अनंत चित्स्वभाव अकर्ता है, स्वभावदृष्टि में निरखा गया यह सहजपरमात्मतत्त्व जब परिणाम से रहित अनुभव में आ रहा है, तब उसमें कर्तापन की बात लादना कैसे युक्त हो सकती है? फिर भी जब हम इस चैतन्य पदार्थ को विशेष रूप में समझना चाहते हैं, जब हम उसमें कर्तापन की बात देखते हैं तो निश्चय को देखने पर यह अपने का अपने द्वारा अपने लिए अपने में कर्ता है, किंतु इससे अंतरंग अभेद दृष्टि बनने पर इतना भी भेद नहीं रहता कि यह कुछ करता है, यह अपना परिणमन भी करता है, इसका कोई परिणाम भी है क्या? यह तो केवल एक शुद्ध चैतन्यस्वरूप मात्र विदित होता है । परिणमन बिना न रहेगा द्रव्य । परिणमन होता रहे, पर जिस दृष्टि में जिस तत्त्व को निरखा जा रहा है उस दृष्टि में तो वही एक तत्त्व है । तो यहाँ शुद्ध सहज दृष्टि से देखा जा रहा है कि वह सहजपरमात्मतत्त्व मैं क्या हूं? वह अकर्ता है । जैसे किसी पुरुष में अनेक रूप हैं―सेठ भी है, पंडित भी है, नेता भी है, मार्गदर्शक भी है, अनेक प्रकार की विशेषतायें होने पर भी भिन्न-भिन्न लोग उसे नाना रूपों में निरखते हैं, पर माता की दृष्टि में तो उसमें कोई एक ही विलक्षणरूप निरंतर दिखता है, जिस रूप को अन्य, लोग नहीं परख सकते हैं, ऐसे ही यद्यपि यह चैतन्य पदार्थ कर्ता भी है, भोक्ता भी है, कर्मबद्ध भी है, देह में भी है, अबद्ध भी है, अकर्ता है, अभोक्ता है, अनेक प्रकार की बातें इसमें दृष्टिगत होती हैं, लेकिन शुद्ध अंतस्तत्व का रुचिया ज्ञानी पुरुष उन सबमें न अटक कर केवल इसे शुद्ध चैतन्यरूप में ही निरखना चाहता है । वह निरखना क्या है? अभेदज्ञान सागर में अवगाहन है । यही एक परम स्नान है । ज्ञान में शोर-बोर हो गया जिसे कहते हैं, पानी में डूब गया, मग्न हो गया जिसे कहते हैं, इसी तरह से यह ज्ञान में मग्न हो गया, उस एक शुद्ध चित्स्वरूप के निरखने के काल में । ऐसा यह सहजपरमात्मतत्त्व अकर्ता है ।
अभोक्ता सहजपरमात्मतत्त्व―यह सहज परमात्मस्वरूप भोक्ता भी नहीं है, भोगने वाला, अनुभवने वाला नहीं है । इस सामान्यविशेषात्मक चैतन्य पदार्थ में अनादि अनंत रहने वाला, स्वभाव सामान्य को दृष्टि में लेने वाले इस ज्ञानी को यह अंतस्तत्व भोगने वाला कैसे दिख सकता है? भोगने वाले की बात तो इस दायरे के फाटक से बाहर की है, यह सामान्य चित्स्वरूप भोक्ता नहीं है । थोड़ी दूर चलकर देखो, इस ही की बात देखो तो कर्मफल का भी भोक्ता है, रागद्वेष सुख दुःख आदिक का भोक्ता है और अपने आपमें जो विचार परिणाम होते उनका भी भोक्ता है । बहुत ही अधिक गहरे चलो तो यह ज्ञानपरिणमन का भोक्ता है । लेकिन अभेदस्वभाव की दृष्टि इतनी गंभीर दृष्टि है कि वहाँ ऐसे जानन परिणमनों का भी भोक्ता है, यह कहने में संकोच होता है । यह भोक्ता नहीं है । जिस दृष्टि में रहकर जो बात कही जाती है उसे उसी दृष्टि में रख करके सुनने से इसका मर्म विदित होता है । आत्मा इतना ही मात्र नहीं है । जैसे कि यहाँ शुद्ध तत्त्व का वर्णन चल रहा है वह परिणमनशील है, उत्पादव्ययध्रौव्यात्मक है, किंतु जिस एक तत्त्व का निरूपण चल रहा है, उस तक यह जीव कभी पहुंचा नहीं, एक बात । दूसरी बात यह है कि इस एकत्व का आलंबन लेने पर पर्यायों में स्वयं सहज शुद्ध परिणतियां चलने लगती हैं और यह शुद्ध आनंद का भोगने वाला बन जाता है, इस कारण इस शुद्ध तत्त्व का वर्णन बहुत आवश्यक था और इसका निरखन बहुत आवश्यक है, पर कोई इतनी ही मात्र चीज है, ऐसा निर्णय करके स्वच्छंद बन जाये तो उसे के लिए यह एकांत हो जाता है । इसी तत्त्व को अद्वैतवादियों ने नित्य कूटस्थ अपरिणामी कहा है । ऐसा यह भोक्तापन से रहित शुद्ध चैतन्यस्वरूप सहज परमात्मतत्त्व मैं हूँ ।
गुप्त सहजपरमात्मतत्त्व―यह मैं प्रभु गुप्त हूँ । मैं जब कुछ ढंग से गुप्त होकर गुप्त में चलता हूँ, तो इस गुप्त का अनुभव कर पाता हूँ । इन इंद्रियों का विकल्प तोड़कर, इनके व्यापारों से अलग होकर मन के द्वारा भी इस तत्त्व के संबंध में बहुत-बहुत चिंतन करने के बाद इस मन का भी व्यापार बंद करके एक अपनी दुनिया को सूनी बनाकर अर्थात् इस व्यक्त दुनिया से इन ख्याल विचार धारावों से शून्य होकर जब मैं अंतर्दर्शन करता हूँ तो इस गुप्त तत्त्व के दर्शन होते हैं और दर्शन तो कर लिए जाते हैं, पर इस गुप्त तत्त्व का हम रहस्य दूसरे को समझाना चाहें तो समझा नहीं सकते । तब यह प्रश्न हो सकता है कि फिर ये शास्त्र क्यों रचे गए? समझाने का प्रयास क्यों किया गया? अरे स्वयं इस गुप्त को समझ सकने वाले के लिये ये शास्त्र हैं । जो इस गुप्त रहस्य के अनुभव से विहीन हैं उनके लिये ये सब शास्त्र क्या करेंगे? हां परंपरा तो ला देंगे, किंतु यह तत्काल अनुभव और तत्काल दर्शन की बात कही जा रही है । जिसने घड़े को समझा हैं―घड़ा शब्द कहकर उसे ही तो घड़े की प्रतीति और परिणति के लिए कहना सफल हो सकेगा । जो जानता ही नहीं वह तो मेढ़े के समान आंखें निकालकर निरखता ही रहेगा । तब ऐसे गुप्त अंतस्तत्व को गुप्त विधि से गुप्त ही रहकर मैं निरख सकता हूँ । शरणसार हितरूप तत्त्व इसका यह ही है । उसके आलंबन से ही अपने को हित मिल सकता है । भला जिस गुप्त तत्त्व का आलंबन लेने से धर्म होता है, कल्याण होता है, संकटों से मुक्ति होती है, अपना पूरा बड़प्पन बनता है, उसे तो गुप्त ही रखने से ठीक बनता है, लेकिन लोग जब धर्म का रूप दिखाते हैं, अपना धर्मात्मापन प्रकट करते हैं या विकल्प से लोगों में अथवा विकल्पों से अपने आपमें धर्मात्मा सिद्ध करके संतोष चाहते हैं । आप अंतर समझ लीजिये कि धर्मपालन की विधि क्या है और की क्या जा रही है? यह सहज परमात्मतत्त्व गुप्त है ।
सुरक्षित सहज परमात्मतत्त्व―गुप्त का अर्थ सुरक्षित भी है । गुप्त का असली अर्थ सुरक्षित है, छिपा हुआ नहीं । गुपू धातु से गुप्त बना है, जिसका अर्थ रक्षण है, पर रक्षण की विधि ही यह है कि छुपा दिया जाये तो चीज रक्षित रह सकती है । किसी चीज को सुरक्षित रखना हो तो तिजोरी में धरकर किवाड़ लगाया, ताला बंद किया, लो चीज सुरक्षित हो गई, ऐसा हम संतोष और विश्वास करते हैं । तो सुरक्षित होने का ढंग जो है वह छुपा हुआ समझने के कारण लोगों ने गुप्त शब्द का अर्थ ही छुपा हुआ कर डाला, किंतु गुप्त का अर्थ छुपा हुआ नहीं है, सुरक्षित है । तो हस सहजपरमात्मतत्त्व को अभी छुपा हुआ गुप्त का अर्थ करके निरख रहे थे, अब जरा यह सहजपरमात्मतत्त्व सुरक्षित है यह अर्थ ध्यान में रखकर भी निरखिये । स्वत: सहजसिद्ध सत्त्व के कारण जो सत᳭ है उस सत् का कोई निवारण कर सकता है क्या ? उसमें कोई चोट पहुँचा सकता है क्या? तो मैं स्वयं सहज स्वतःसिद्ध जिस रूप में हूँ वही तो मैं परमात्मतत्त्व हूँ । उसका कोई निवारण नहीं कर सकता । वह सदा प्रकाशमान है । देखने वाले उसे देख सकते हैं । अज्ञानियों को वह अव्यक्त है और ज्ञानियों को सदा व्यक्त है, ऐसा गुप्त शुद्ध चैतन्यरूप मैं सहजपरमात्मतत्त्व हूं ।
आनंदधाम सहजपरमात्मतत्त्व का परिचय होने पर विषयों की नीरसता का दृढ़ परिचय―जीव का परमशरणभूत निज परमात्मतत्त्व इंद्रिय से जाना नहीं जाता । मानसिक विकल्पों से भी अनुभव में नहीं आ सकता । ज्ञानी, जीवों के द्वारा अपने आपमें विश्रांत हुए उपयोग से ही संवेदन में आया करता है । जगत के प्राणी सर्व परपदार्थों के निकट जा जाकर सर्व परभावों की छाया में रह रहकर शरण की आशा रखकर अब तक अनंत काल बिता चुके हैं । न तो किसी परद्रव्य की शरण गहने से हित हुआ और न अपने ही घट में उत्पन्न हुए परभावों की छाया में रहकर इसने हित पाया । हित का साधन, हित का स्रोत जो यह सहजपरमात्मतत्त्व है, सहज चित्स्वरूप है, उसकी झांकी नहीं पायी और यहीं मान रहा अपना सब कुछ अब तक । सो जगह-जगह उपयोग को हिलाया, रमाया, उल्झाया लेकिन स्थिरता न हो सकी । यह सहजपरमात्मतत्त्व अर्थात् मेरे अपने ही सत्त्व के कारण मेरे में अनादि अनंत सद्भूत यह ज्ञान स्वभाव है । इसका अनुभव जगने पर ऐसा अद्वितीय विलक्षण विशुद्धआनंद प्रकट होता है कि उस आनंद का रस आने पर ही ये विषय वास्तविक मायने में नीरस विदित होंगे । लोग थोड़ी भावुकता में आकर थोड़ी धर्मज्ञान की बात सुनकर भी विषयों से दूर रहने का प्रयत्न करते हैं, यह भी उनका काम सराहनीय है, किंतु जब विषय सचमुच नीरस जंचने लगे, अहित जंचने लगे तब विषयों के परिहार का काम इसका ठीक निभ सकता है और जो विषय परिहार का उद्देश्य है उसको यह प्राप्त कर सकता है । यह बात भली प्रकार स्वभावोपलब्धि होने पर संभव है इस सहजपरमात्मतत्त्व की दृष्टि के लिये यद्यपि प्रथम कुछ वैराग्य चाहिये । विषयों में आसक्त पुरुष को सहजपरमात्मतत्त्व की दृष्टि नहीं मिल सकती, इसलिए कुछ तो चाहिये वैराग्य । चाहिये कुछ ज्ञान । पर थोड़े भी ज्ञान और वैराग्य की साधना से सहजपरमात्मतत्त्व की दृष्टि में सहयोग मिलता है और जब अपने आपमें अंत: प्रकाशमान सनातन शुद्ध इस सहज चित्प्रकाश का अनुभव जगता है, उपयोग स्वीकार कर लेता है―यह मैं हूँ, उपयोग में और स्वभाव में फिर भेद नहीं रहता है, ऐसे अनुभव के बाद ही ज्ञानी को ये विषय जो नीरस लगते हैं वह एक बड़े ढंग से और दृढ़ता से उठा हुआ उनका कदम है ।
सहजपरमात्मतत्त्व की ज्ञानियों के स्वसंवेद्यता―यह सहज परमात्मतत्त्व ज्ञानी के स्वसम्वेद्य है । यह आत्मा ज्ञानसमुद्र है । कितना बड़ा समुद्र है? बहुत बड़ा ज्ञानसमुद्र है । जो समुद्र जितना विशाल होता है, स्थिर होने पर उसकी स्थिरता, गंभीरता एक विलक्षण हुआ करती है और जब विशाल समुद्र क्षुब्ध होता है, उसमें लहरें उठती हैं तो वे लहरें इतनी ऊँची होती है कि पुरुषों की ऊँचाई के बराबर होती हैं । और जब वह समुद्र शांत होता है तो उसमें इतनी गंभीरता होती है कि उसमें हाथ हिलाने पर भी कुछ क्षुब्धता नहीं आती है । यह आत्मा इतना विशाल ज्ञानसमुद्र है, यह जब अपने में विश्राम पाता है तो विश्रांत अवस्था में इसकी गंभीरता अलौकिक होती है । और जब इस कर्म वायु से प्रेरित होता है तो कर्मोदय का निमित्त पाकर जब यह क्षुब्ध होता है तो इसके क्षोभ का भी कुछ ठिकाना है क्या? पुद्गल पदार्थ यदि बिगड़े और क्षुब्ध हो तो उसमें कुछ थोड़ी हरकत हो सकती है, लेकिन यह आत्मपदार्थ क्षुब्ध होवे, बिगड़े तो उसकी हरकत की कोई होड़ ही नहीं लगा सकता । निगोद बन जाये, हाथी बन जाये, देव मनुष्य बन जाये, किसी प्रकार की अवगाहना बन जाये, कैसा ही इसका विचित्र परिणमन हो, ऐसा क्षोभ तो पुद्गल में नहीं नजर आता । वहाँ भी तो जरा-सा बिगाड़ अथवा एक ढंग का करीब-करीब बिगाड़ दिखता है, किंतु इसके क्षोभ का कितना विभिन्न परिणाम है? तो जब क्षुब्ध हो रहा हो यह आत्मा, उस समय सहज परमात्मतत्त्व का दर्शन नहीं हो पाता । जब इसके ये सब झंझट शांत हो रहे हों और शांत प्रकृति से गुप्त ही गुप्त अपने आपकी ओर उपयोग झुक रहा हो तो वहां, इस सहजपरमात्मतत्त्व का दर्शन होता है, अनुभव होता है । तो जो ज्ञानी जनों के द्वारा स्वसम्वेद्य है । ऐसा यह मैं शुद्ध चित्स्वरूप सहजपरमात्मतत्त्व हूँ ।
सहजपरमात्मतत्त्व की निष्कलरूपता―यह मैं सहजपरमात्मतत्त्व अकल हूँ, कलरहित हूँ । कल मायने शरीर । शरीर जड़ मूर्तिक है, इससे मैं अत्यंत निराला हूँ । मेरे स्वरूप में न कल है, न कल-कल है अर्थात् न एक शरीर है, न बहुत शरीर हैं । शरीररहित एक चैतन्यमात्र मैं हूँ । शरीर का आवरण, शरीर की अटक, शरीर के झंझट ये सब इस जीव के साथ व्यर्थ लगे हैं । इस जीव को तो अपने सहजपरमात्मतत्त्व का मिलन करना चाहिए । सुगमतया जिस पदार्थ में अटक हुआ करती है जीवों को वह है शरीर । बाह्यपदार्थों की बरबादी और विनाश के प्रति तो कुछ धीरता रख लेंगे, संतोष कर लेते हे―चलो ये 10 हजार रुपये गए तो गए एक मकान यदि गिर गया तो क्या हुआ, हो जायेगा ठीक, न ठीक होगा न सही, लेकिन अपने शरीर पर कोई आक्रमण हो, कोई चोट हो तो वहाँ धीरता नहीं आ सकती । तो शरीर के प्रति जीवों को अत्यंत अधिक आसक्ति है । इसके मुकाबले में कह सकते हैं कि अन्य बातों में इस जीव को आसक्ति नहीं है ।
यश इज्जत की चाह में भी देहासक्ति की मौलिकता―जो नेता लोग अथवा सुभट लोग इस शरीर को कुछ नहीं गिनते, भूखा हो, दुर्बल हो, रात-दिन थका रहे तो रहे लेकिन कीर्ति, इज्जत, यश के पीछे वे दौड़ते रहते हैं, रातदिन बड़ा श्रम किया करते हैं । तो कोई यह प्रश्न कर सकता है कि देखो―इनको शरीर से भी प्यारी यशकीर्ति हुई । लेकिन उनके दिल से पूछो कि वे यश और कीर्ति किसकी चाहते हैं? क्या चैतन्यमात्र आत्मा की? अरे उसकी तो उन्हें सुध ही नहीं है । कीर्ति चाहकर वे चाहते क्या हैं ? जैसे जगह-जगह फोटो लगे, जगह-जगह नाम हो, तो उसमें क्या चाहा? किसकी इज्जत चाहा? इस शरीर की । क्या वह अनादि अनंत चित्स्वरूप भी चाहा गया है कि इस चित्स्वरूप को प्रभावना हो, इसका यश हो, इसका बड़प्पन हो? यदि ऐसा चाहा जाये तब तो अच्छा है । वे ज्ञानी की श्रेणी में आ गए । लेकिन होता कहाँ ऐसा? तो जो लोग शरीर की परवाह न रखकर भी यश इज्जत आदिक के पीछे अपने प्राण गंवा देते हैं तो भी वे शरीर की आसक्ति से ही शरीर का विनाश कर रहे हैं । यों जीव को सबसे अधिक अटक शरीर में होती है ।
शरीर से विविक्त अंतस्तत्त्व के जानने की आत्महित के लिये अत्यावश्यकता―शांतिमार्ग में बढ़ना है तो पहिले यही भेद कीजिए कि यह शरीर मैं नहीं हूँ । शरीर से अपने आपको विविक्त बनाये बिना हम आगे धर्म में बढ़ नहीं सकते, मोक्षपथ में नहीं लग सकते । शरीर के निज प्रदेशों में मैं में की आवाज नहीं निकलती, किंतु अमूर्त प्रकाशमात्र कोई तत्त्व है जिसमें मैं मैं का प्रत्यय हुआ करता है । जीव अहंप्रत्ययवेद्य है । जिसके लिए मैं मैं कहते रहते हो वही तो मैं हूँ । वह आत्मा हूँ । जैसे पूछा जाये कि इसका क्या नाम है? तो कहेंगे―बैंच । और इसका नाम क्या है? तो कहेंगे―पुस्तक । और तुम्हारा नाम क्या है ?....हमारा नाम पूछ रहे हो आप? तो सुनो―हमारा नाम है “मैं” । सबके अंदर जो अनुभूति हो रही है और जो प्राकृतिक नाम है, नाम कहते हैं उसे जिसके बल पर व्यवहार चले । तो देखो ना व्यवहार मैं के बल पर चल रहा है । अब बात अटकी हो, किसी में कुछ बात रखनी हो तो वहाँ “मैं” कहा जाता है, मैं ऐसा करूंगा, मैं वैसा करूंगा आदि । तो में शब्द के द्वारा जो वाच्य है उसका यथार्थस्वरूप चित में आ जाये और मैं किसको मैं मैं कहा करता हूँ उस मैं का, उस चैतन्यस्वरूप का भान हो जाये तो फिर शांतिमार्ग अति सुगम हो जाता है । यह मैं सहजपरमात्मतत्त्व निष्कल हूँ । शरीर को कल्पनायें पकड़ती है । और, कुछ क्षण को कल्पनायें न जगायें, शरीर में इंद्रिय का भी संकेत न बनाये, शरीर को जैसे आंखों से देखते हैं, तो जिसे देखा उसका निशाना किया ना ? तो इंद्रिय का निशाना शरीर को भी न बना, इस तरह इंद्रिय को दमन करके रखें और मन से कल्पनाओं का बंधन न जोड़े शरीर से इस तरह निर्बद्ध अपने उपयोग से मन को रखें तो उस स्थिति में जितना यह आत्मतत्त्व है उतना भान में रहता है और इसके अतिरिक्त जो कुछ है बाहरी शरीर, वह भान में नहीं रहता ।
सहज परमात्मतत्त्व का सहजतत्त्व―इस सहज परमात्मतत्त्व में इस चैतन्य पदार्थ में निज सत्त्व है । यही इसमें अस्तित्व है, इसमें बल है । बल यह है कि जो अपने आपमें बराबर डटा हुआ है ऐसा अमूर्त निर्भार ज्ञानमात्रभाव स्वरूप यह अपने में अनादि अनंत डटा रहता, इसमें कोई बाधा चोट नहीं आ सकी अब तक । तो यह इसका क्या कम बल है? बल का काम ही यह हैकि अपने आपमें डटा रहे । जो अपने आपमें डटा रहता है उसके बल का प्रकाश भी बाह्य व्यापार से समझा जाता है । जो स्वयं-स्वयं में नहीं डट सक रहा उसका अन्य पदार्थपर बलप्रयोग क्या होगा? ऐसे ही बलवान पुरुष भी तो जिसका शरीर अपने में डटा हुआ है, कसा हुआ है, स्थिर है, बुड्ढ़ों की नांई अस्थिर पैर नहीं पड़ते, गिरने का संदेह नहीं रहता, अपने आपमें लोह पुतलों की तरह दृढ स्थिति रहती है ऐसे बलिष्ट पुरुष हो तो बाहर में कुछ से कुछ कर लेते हैं । तो बलिष्ठता का प्रयोग वस्तुत: खुद में होता है । खुद में वे भली प्रकार से डटे हैं, जो बलिष्ठ हैं, सहजपरमात्मतत्त्व का ऐसा सहज सत्त्व है ।
सहजपरमात्मतत्त्व की स्वरसाप्तसत्त्वता―इस सहजपरमात्मतत्त्व का इस चैतन्य पदार्थ में जो सत्त्व पाया, बल पाया, अस्तित्व पाया है, वह कैसे पाया? किसी दूसरे ने दिया है क्या ? दूसरे से उधार माँगकर लाया गया है क्या? किसी अन्य की कृपा से प्राप्त हुआ है क्या? स्वरसत: वह स्वभावत: अपने आपमें ही तन्मयरूप से रहने वाले निज रस से प्राप्त होता है । आत्मा का अस्तित्त्व और आत्मा का बल ये स्वरसत: प्राप्त हैं । तो यह मैं सहजपरमात्मतत्त्व ऐसा अलौकिक हूँ कि जिसने स्वरसत: ही अपने आपमें अपना सत्त्व प्राप्त किया है । कितना सुगम है इस सहज चैतन्यस्वरूप का दर्शन करना । इसकी विधि में जो गुजरते हैं उनको विदित हो जाता है कितना सुगम है, भला अपनी आंखों के सामने निकट, अति दूर भी नहीं कोई चीज रखी है । तो उसको देख लेना कितना सुगम है? पलक खोली और देख लिया । यों ही समझिये कि इस उपयोग चक्षु से, इस ज्ञानचक्षु से यह सहजपरमात्मतत्त्व का निरख लेना कितना सुगम है? कुछ भो कठिनाई नहीं पड़ती, पर निरखने बालों के लिए कठिनाई नहीं है । जो विषय कषायों में अनुरक्त हैं, व्यस्त हैं, उस ही से जिसने अपना जीवन बनाया है, जिसकी श्रद्धा में यह बसा है कि मैं इसी लिए तो मनुष्य हूँ । लड़कों को खूब ऊँचा धनी, ज्ञानी, विद्वान सुखी बना दूँ, ये लड़के बहू वगैरह सब सुख से रहा करें, इसी लिए ही तो मेरा जीवन है, और मेरी जिंदगी का अर्थ ही क्या है, ऐसी जिसकी वृत्ति संकुचित है उसको सहजपरमात्मतत्त्व के दर्शन होंगे कहाँ? वह तो बहुत-बहुत भ्रम गया । मोही जीब जिन जीवों में विश्वास बनाये हुए हैं कि ये मेरे हैं इनके लिए ही मेरे प्राण हैं, इनके लिए ही मेरा शरीर है, और मेरे हैं कौन? यह मेरी स्त्री है, ये मेरे पुत्र हैं, इनके लिए ही तो मेरा सब कुछ है, उनके लिए ही जो मरते हैं उनको सहजपरमात्मतत्त्व के दर्शन धरे कहाँ हैं? उन्हें तो अभी संसार में बहुत भटकना है । जिन्हें विभिन्न अनेक शरीरों में अभी जन्म लेना है उनको यहाँ क्या है?
आत्महित के लिये कुछ गंभीर चिंतन की सम्मति―भैया । कुछ सोचिये―इस ममता से, इस आशक्ति से, इस मोह से आत्मा का पूरा नहीं पड़ने का, ये विषयभूत पदार्थ सब भिन्न हैं, छूट जायेंगे । इनसे आत्मा का कुछ भी तो कल्याण नहीं है । निरखना होगा परमशरणभूत निज सहज स्वभाव को । इसके ही आलंबन से उद्धार होगा । आत्मउद्धार का अन्य कोई उपाय नहीं है, हो ही नहीं सकता । जो बात जिस विधि से होती है वह बात उस विधि से ही होगी अन्य उसकी विधि नहीं है । आत्मा का उद्धार होना, शांति में जुड़ना, निराकुल होना, यह एक निज सहजपरमात्मतत्त्व के आलंबन, अनुभवन से ही हो सकता है, अन्य कोई इसकी विधि नहीं है । बाह्य क्रियायें विषयकषायों की विपदा से बचने के लिए की जाती हैं । ये बाह्य क्रियायें उस ढाल का काम करती हैं मगर संकट छेदन करने के लिए ये क्रियायें शस्त्र का काम नहीं कर सकतीं । शस्त्र का काम तो, छेदन करने वाली तो यह सहज अंतस्तत्त्व की दृष्टि है । इसको तो समझ रखा है फाल्तू घर में अगर मन न लगा तो चलो थोड़ा शास्त्र में ही बैठ ले, पर यह भाव ज्ञानरुचि का भाव नहीं है यह तो तफरी का भाव है । चाहे बिजली तड़की, वर्षा हो, हर संकटों में ज्ञानलाभ की बात न हटना चाहिए, क्योंकि पूरा तो मेरा इस ज्ञानलाभ से ही पड़ेगा । इस दृष्टि के साथ जिसको ज्ञानवृत्ति का यत्न चलता है उसका हृदय है उद्देश्य वाला । रुचि बनाओ इस सहजपरमात्मतत्त्व के अनुभवन की, अन्यथा भ्रमजाल ही रहेगा और संसारभ्रमण ही रहेगा ।
बाह्य साधन से बाह्य में परमात्मतत्त्व के मिलन की अशक्यता―सुबुद्धि का अम्युदय होनेपर स्वयं ही शांत भाव से अपने आपकी ओर आने वाला वह उपयोग सहजपरमात्मतत्त्व के दर्शन कर रहा है, यह सहजपरमात्मतत्त्व चिन्मात्र धाम है । कोई पूछे कि इस सहजपरमात्मतत्त्व का घर कहां है, किस जगह बसता है? तो उत्तर है कि चैतन्यमात्र स्वरूप ही इसका धाम है । यह परिणति एक परमात्मतत्त्व को ढूंढ़ने के लिए व्याकुल होती हुई खोज करती है सब जगह कि वह परमात्मा कहां है? कहीं मिल जाये तो उसका दर्शन करके, उसकी कृपा पाकर समस्त क्लेशों से दूर हों । उस परमात्मतत्त्व को ढूंढने चलो कहां मिलेगा? बाहर में तीर्थ, मंदिर, क्षेत्र, सभी जगह ढूंढने गए, पर मिलने वाले को तो इन स्थानों में, इन पिंडों में नहीं मिला । ये ढूंढने वाले को ठिकाने की बुद्धि लाने के साधन हैं । ये परमात्मतत्त्व के घर नहीं है परमात्मतत्त्व का घर कौन है, उस घर का पता पाने के लिए हमारी बुद्धि कुछ व्यवस्थित बन जाये, उस व्यवस्था के साधन हैं ये तीर्थ मंदिर आदिक । हमारी बुद्धि ऐसी व्यवस्थित बने कि जिसके प्रसाद से हमें परमात्मतत्त्व के दर्शन हो सकें । कहाँ है वह परमात्मतत्त्व? बाहर खोजा, बाहर खोजने का साधन हैं ये इंद्रिय और मन । बाहरी साधनों के द्वारा बहिर्भूत होकर बाहर ही बाहर परमात्मा को ढूंढा तो वह मिल न सका । तो अब क्या करना है? अंत: साधन के द्वारा अंदर ही अंदर इस अंत: परमात्मतत्त्व को खोजना है । वह इस विधि से, इस प्रयोग से मिल सकता है ।
प्रभुमिलन के बाधक―इस प्रभु के मिलन में बाधक हैं विषय, कषाय और प्रभु के मिलन में ही बाधक नहीं हैं ये विषय, कषाय, । अपितु समस्त संकटों के जुटने में भी ये ही कारण हैं विषय, कषाय । इस जगत में दो ही तो बातें हैं―पुण्य का उदय हो या पाप का उदय हो । पाप के उदय में ऐसे साधन जुटते हैं कि जिन साधनों से हम कष्ट अनुभव करते हैं और पुण्य के उदय में ऐसे साधन जुटते हैं कि जिन साधनों में हम सुख अनुभव करते हैं, किंतु जरा धीरतापूर्वक विचार करो, इस पुण्य के उदय में मिले हुए साधन भी हमारे लिए क्षोभ और क्लेश के कारण बनते हैं । थोड़ी देर को मान लीजिए कि पुण्य के उदय में आज की कुछ वैभव मिल गया तो उससे आप अपनी इज्जत समझते हैं, शान समझते हैं । प्रथम तो इज्जत कुछ चीज नहीं है । लोक में क्या इज्जत? ये लोग जिनमें इज्जत की कल्पना करते हैं ये मेरे प्रभु हैं क्या ? मेरे रक्षक हैं क्या? या ये मुझे अच्छा समझलें तो इतने मात्र से क्या मेरा उद्धार है? क्या संबंध है? इज्जत क्या चीज है? कुछ भी नहीं । लोगों की स्वार्थवश जो चेष्टायें हैं उनमें एक यह भी चेष्टा है कि किसी का नाम या गुण गा दे । इसके अतिरिक्त और क्या है । धन वैभव की कथा भी ऐसी है । धन वैभव खूब जोड़ते जावें, पर उसका अंतिम परिणाम क्या है? अरे उसे भी छोड़कर जाना पड़ेगा । यह संतोष करना भी व्यर्थ है कि भले ही छोड़कर चले जायें पर हमारे लड़कों के काम तो आयेगा । अरे मरकर चले गए, फिर तुम्हारे लड़के क्या? तुम को वर्तमान में शांति मिले वह तो तुम्हारी बात है । आज के वर्तमान में यह कल्पना है, पर अगले भव के वर्तमान में वहाँ तो यह कल्पना न रहेगी कि ये मेरे लड़के हैं खूब अच्छी तरह रहते हैं तो क्या है?
पुण्योदय में वास्तविक उन्नति का अचिंतन―पुण्य के उदय में जो कुछ मिला है उसकी श्रेष्ठता तो देखिये―श्रेष्ठता है कहां उसके रक्षण में, उसके अर्जन में उसकी उल्झन में जो निरंतर विकल्प किए जाने पड़ रहे हैं वे सब क्या हैं? अपने इस परमात्मप्रभु पर अन्याय है । रहना है अंत में अकेला ही और यह सही मायने में कैसा अकेला है इसके जाने बिना ये सब संसार के कष्ट हैं । तो मान भी लो कल्पना में कि मौज है, लेकिन यह मौन कितने दिन के लिए? प्रथम तो आप एक दिन के लिए भी निश्चितरूप से नहीं कह सकते और भ्रम करके कहोगे भी तो कह दीजिए 50-60 वर्षों के लिए तो इस भव के 50-60 वर्ष और इस भव के बाद जो रहना है अनंतकाल तक उस अनंतकाल के सामने ये 50-60 वर्ष कुछ गिनती भी रखते हैं क्या? कुछ भी तो गिनती नहीं है, लेकिन महत्त्व तो इस जीबन के 50-60 वर्षों का दे रहे हैं और उस अनंतकाल का कुछ भी महत्त्व नहीं आंक रहे । तो यह कोई विवेक की बात है क्या? जब कभी जीव के विषयकषायों का शमन होता है तब फिर उसे अपने आपकी कुछ सुध होती है और फिर उसे उस परमात्मतत्त्व के दर्शन होते हैं ।
सहजपरमात्मतत्त्व के मिलन में अज्ञानियों की उपेक्षा व ज्ञानियों की रुचि―जैसे अंगूर की बेल में अंगूर लगे हुए हों तो कोई लोमड़ी अगर तोड़कर खाने के लिए उछलती है और बहुत-बहुत उछलने पर भी जब अंगूर नहीं पाती है तो यह कहकर चल देती है कि अरे ये तो खट᳭टे अंगूर हैं, इनका क्या करना ? इसी प्रकार ये जीव प्रभु के नाम की कुछ तारीफ सुनकर प्रभु से मिलने के लिए चलते हैं । स्वाध्याय, पूजा, पाठ आदिक के कुछ उपाय भी करते हैं पर उन्हें उस प्रभु के दर्शन नही हो पाते । अरे, था तो प्रभु अति निकट खुद ही में वह प्रभु समाया हुआ था, पर वह प्रभु इन हाथ पैर की क्रियाओं से नहीं मिलता? वह तो ज्ञानदृष्टि की क्रिया से मिलता है । न मिल सका यह प्रभु, तो लोग यह कहकर चल देते कि अरे कहां है प्रभु? यह तो पुराने दिमाग के लोगों की धुन है कि प्रभु है, ईश्वर है । किंतु शांत धीर ज्ञानीपुरुष इस प्रभु का साक्षात् मिलन कर रहे हैं और उससे उन्हें जो तृप्ति प्राप्त होती है उसके समान लोक में कोई चीज उपमा देने योग्य नहीं । इसी कारण इस आनंद का स्वरूप बताया नहीं जा सकता । लोक के समस्त सुख वैषयिक है, औपाधिक हैं, उनसे जीव का कल्याण नहीं है, शांति नहीं है । शांति मिलेगी तो परमात्मप्रभु के मिलन से ही मिलेगी अन्य से नहीं । बाहरी लोगों को दिखता है कि इन्हें तो कुछ भी नहीं मिल रहा, न इनके पास घर है न धन है, न कोई है न कोई पूछता है । कुछ भी नहीं है । अरे उनके पास कुछ है क्यों नहीं, उन्हें परमात्मप्रभु के अनुभव का जो आनंद चल रहा है उसकी उपमा तो जगत में कुछ है ही नहीं ।
सहजपरमात्मतत्त्व का चिन्मात्र धाम―अलौकिक आनंदधाम परमात्मा मिलेगा कहां? उसका उत्तर है यह चिन्मात्र धाम । चैतन्यमात्र उसका धाम है । चलो वहाँ....कैसे चलें....उपयोग द्वारा चल सकेंगे । ज्ञानद्वारा चल सकेंगे । संस्कृत में ऐसी दो प्रकार की धातु हैं जिनका अर्थ है जाना और जानना । और इन दोनों में कुछ सदृशता मालूम होती है । इतना तो सभी लोग कहते हैं कि बुद्धि कहां गयी । मेरा उपयोग वहाँ चला गया । तो उस चलने का अर्थ है कि उपयोग से उस चीज को जाना । तो चलना, जाना भी उपयोग द्वारा हो सकेगा । पर वह जाना विलक्षण जाना है । चलिये, उपयोग द्वारा परमात्मप्रभु के घर चलें और वहाँ परमात्मप्रभु से मिलन करें ।....चलो....चलने का क्या ढंग है ?....ढंग यह है कि बाह्य समागमों को असार जानकर उनकी ओर दृष्टि न रखें । क्योंकि इस उपयोग का चलना दृष्टि द्वारा होता है । यदि दृष्टि विषयकषायों में, लौकिक सुखों में लगी है तो उनकी ओर जाना रहेगा । जैसे एक मुसाफिर एक ही समय में दो रास्तों में दो दिशाओं में नहीं चल सकता । इसी प्रकार यह उपयोग, यह ज्ञान उस ही समय विषयकषायों की ओर चले और उस ही समय परमात्मप्रभु से मिलने चले, ऐसा न हो सकेगा । अत: पहिली शर्त है कि पीठ पीछे मुख करके मत चलो । कषायों की ओर मत चलो उनसे पीठ फेर लो उनकी असारता समझ लो और चलो फिर आवो स्वसम्मुख ꠰
सहजपरमात्मतत्त्व के धाम में पहुंचने का उत्साहन―अपने आपमें निरखिये इसका केवल चैतन्यमात्र स्वरूप है । मैं किस रूप हूं? केवल चैतन्यमात्र । रूप, रस, गंध, स्पर्श ये कुछ नहीं हैं । इसी कारण यह इंद्रिय से ग्रहण में नहीं आता । यह तो आकाशवत् निर्लेप, किंतु चैतन्य गुणकरि अधिक, सर्वपदार्थों में उत्कृष्ट आत्मतत्त्व है । इसका चैतन्यमात्र स्वरूप है । वह आत्मा कहाँ रह रहा है? क्या मुजफ्फरनगर में क्या उत्तर प्रांत में? क्या इस मंदिर में? क्या इस शरीर में? अरे यहाँ कहीं नहीं रह रहा आत्मा । आत्मा तो निश्चयत: अपने स्वरूप में रह रहा है, अन्यत्र नहीं । जहाँ रह रहा वहाँ चलें तो रहने वाले से मिलन हो सकता है? जहाँ यह रहता ही नहीं वहाँं खोजते हैं तो कैसे प्रभुमिलन होगा? यह प्रभु, यह आत्मा चैतन्यमात्र स्वरूप में बस रहा है । यह चैतन्य तेज अद᳭भुत है? विषयकषायों से दिमाग गंदा कुछ भी हो तो इस धाम के दर्शन न हो पायेंगे । हिम्मत करनी होगी कि विषयकषायों के भाव, इच्छा, मोह ये सब एक ही बार में शांत कर दें । तत्काल तो उदय में न आयें, ऐसी तैयारी करके परमात्मप्रभु से मिलने चलना है । उसका धाम हे चैतन्यमात्र, ज्ञानदर्शनात्मक प्रतिभासमात्र केवल जाननस्वरूप, जिसके देखने पर फिर और कुछ विदित न हो । ऐसी लगन के साथ, ऐसी तैयारी के साथ जो चिन्मात्र धाम में पहुँचता है उसको सहजपरमात्मतत्त्व के दर्शन होते हैं ।
सहजपरमात्मतत्त्व के मिलने के लिये सर्वस्व न्यौछावर का उत्साह―इस सहजपरमात्मतत्त्व के ज्ञान के पाये बिना समझिये कि हम गरीब ही हैं ꠰ और इस तत्त्वज्ञान का अनुभव कर लेने पर हम स्वयं समझ जायेंगे कि अब हम कृतार्थ हो गए, हमको सर्व अर्थों की सिद्धि हो गई । अब मेरे में कोई संकट नहीं रहा । इस ओर यत्न करना है, धन वैभव आदिक पाकर उनके सुख में मस्त रहने की प्रकृति न बनायें । वह धोखा है खुद के लिए । भला इस 50-60 वर्ष के जीवन के लिये क्या मौज मानना? इसके बाद में भी तो अनंतकाल पड़ा हुआ है । उसके लिए तो कुछ सोचने की गुंजाइश भी न रही । तो अपने ही हृदय से पूछो कि हम उचित वृत्ति कर रहे हैं अथवा नहीं? भव-भव में अनेक बार आज की पाई हुई संपदा से करोड़ों गुनी संपदा पा ली । भला किसी को आपने एक लाख का कर्ज दिया हो और वह कर्जा देने वाला हो जाये अति निर्धन तो पंचलोग यह फैसला कर दै कि भाई कुल 100 रु0 लेकर इसे लिख दो कि अब इससे हमें कुछ लेना बाकी नहीं रहा । तो क्या आप उन 100 रु0 को स्वीकार करेंगे? आप तो उन्हें भी लेना स्वीकार न करेंगे और यह लिख देंगे कि इसका सब कर्जा चुकता हो गया । तो अब सोच लीजिए उसके दिन की बात । जहाँ 99 हजार 900रु0 गए तहां 100 रु0 का क्या करना? सोचिये―जबकि आज के वैभव से करोड़ों गुनी संपदा भी न रही, यों ही चली गई तो अब थोड़ी रही संपदा का क्या करना? जिंदगी है, गृहस्थी में जीना है, आवश्यकता है, तो पूर्ति होती ही जा रही है । उसकी वृद्धि में, उसकी तृष्णा में जो उपयोग बनाया जा रहा है बजाय उसके अपने विशुद्ध चिन्मात्र धाम सहजप्रभु से मिलन की तृष्णा बढ़ाओ । यह आकांक्षा कीजिए यह बाहरी वैभव तो क्षणिक है और यह सहजपरमात्मतत्त्व ध्रुव है, स्थायी है । इसके मिलन में कोई धोखा नहीं है, बाह्य के मेल में धोखा ही धोखा है । यह मैं सहजपरमात्मतत्त्व चिन्मात्रधाम हूँ । चैतन्यमात्र ही जिसका धाम है स्थान है, ऐसा यह मैं सहजपरमात्मतत्त्व हूँ ।
सहजपरमात्मतत्त्व की नियतरूपता―यह मैं परमात्मतत्त्व नियत हूँ । कभी कुछ हो, कभी कुछ हो, ऐसा स्वरूप इस अंतस्तत्व का नहीं है । कभी कुछ हो कभी कुछ हो यह तो विभावपरिणमनों का स्वरूप है । यह मैं चैतन्य तेज चैतन्य धातु जिससे कि पर्यायें निकलती रहती हैं, यह मैं नियत हूँ । जैसे स्रोतस्थान से जल निकलता है । जल निकलकर तो बाहर पड़ेगा, किंतु वह स्थान वहीं है, नियत है । जिस स्रोत से, जिस स्वभाव से परिणतियां उत्पन्न होती रहती है वह स्रोत, वह स्वभाव, वह स्थायी द्रव्य नियत है । सदा वही का वही है । देखो―प्रभु बदला नहीं करते । कभी कोई रूप धरकर प्रभु बन गए, कभी कोई रूप धरकर प्रभु बन गए, यों प्रभुता में बदल नहीं है । ये प्रभु अवतार लेते हैं भेष बदल-बदलकर यह बात कहना ठीक नहीं है । प्रभु में बदल नहीं है । प्रभु तो सतत अनादि अनंत एक स्वरूप नियत है, विशुद्ध चैतन्य तेजस्वरूप है ।
सहजपरमात्मतत्त्व की सततप्रकाशरूपता―इस सहजपरमात्मतत्त्व का निरंतर प्रकाश रहता है । यह सततप्रकाश है । इसका प्रकाश दीपक की ज्योति की भांति तो नहीं है, जो बताया जा सके और जिसमें आपत्ति दी जा सके कि वह सतत कहां रहा? वह तो एक चैतन्य ज्योति है, वह सतत रहती है । जिसके आधार पर हम बहुत से विचार बनाते रहते हैं वह आधार तो एक ही है और वह नित्य अंत: प्रकाशमान है, ज्ञानियों को वह प्रकाश व्यक्त है और अज्ञानियों को अव्यक्त है । जाननेवाला ज्ञान है और ज्ञान का स्वरूप जानना है तो उसमें असुगमता क्या रही? कितना सीधा सरल सुगम काम है कि जाननहार ज्ञान के स्वरूप को ही जानने लगे । तो इसमें कुछ लाया जाना तो कुछ नहीं है, एक स्वयं का स्वयं में सहज काम पड़ा है, इस विधि से कोई जाने तो वह समझ सकता है कि यह सहजपरमात्मतत्त्व सतत प्रकाशमान है नित्य अंतःप्रकाशमान है, अनादि अनंत है । ऐसा जो विशुद्ध चैतन्यस्वरूप है तन्मात्र यह मैं सहजपरमात्मतत्त्व हूँ, ऐसा जब अनुभव में आता है तो उसके समस्त क्लेश बंधन दूर हो जाते हैं ।