वर्णीजी-प्रवचन:सहजपरमात्मतत्त्व - गाथा 5
From जैनकोष
अद्वैतबह्मसमयेश्वरविष्णुवाच्यं, चित्पारिणामिकपरात्मरजल्पमेयम् ।
यददृष्टिसंश्रमणजामलवृत्तितानं शुद्धं चिदस्मि सहजं परमात्मतत्त्वम् ꠰꠰5꠰।
सहज परमात्मतत्त्व के अनेक विशेषणों में अद्वैत का दिग्दर्शन―मैं शुद्ध चित्स्वरूप परमात्मतत्त्व हूँ जो कि अद्वैत ब्रह्म, परमात्मा, ईश्वर, विष्णु आदि शब्दों के द्वारा कहा जाता है और चित् पारिणामिक परात्पर इन वचनों के द्वारा ज्ञान में आता है तथा जिसकी दृष्टि का आश्रय करने से निर्मल पर्यायों की संतति बन बैठती है, ऐसा मैं शुद्ध चैतन्यस्वरूप सहज परमात्मतत्त्व हूँ । शुद्ध के मायने हैं समस्त परपदार्थों से और परभावों से रहित केवल अपनी सत्ता के कारण अपने स्वरूपमात्र । वह सहज परमात्मतत्त्व अद्वैत है । किसी भी वस्तु को निरखकर उस वस्तु की बात कही जाती है तो ऐसे अविकार स्वरूपमात्र चित्स्वरूप को निरखने की स्थिति कब होती है जब द्रष्टा की शुद्ध दृष्टि होती है । भेद से परे विकल्पों से अलग केवल एक निश्चयदृष्टि के साथ जब इस सहजपरमात्मतत्त्व को निरखा जाता है तब यह दृष्टिगत होता है, ऐसी स्थिति में दृष्टिगत होने वाले इस सहजपरमात्मतत्त्व को क्या नाना कहा जायेगा? क्या भिन्न-भिन्न जगह रहने वाला निरखा जायेगा? क्या अनेक देहों में रहने वाला देखा जाएगा? नहीं । वह तो अद्वैत ज्ञात होगा । वहाँ दूसरी बात का विकल्प नहीं है । सहजपरमात्मतत्त्व के स्वरूप सामान्य की दृष्टि जब होती है किसी ज्ञाता को और उस दृष्टि में कुछ सर्वपरविविक्त अंतस्तत्व ज्ञान में आता है, अनुभव में आता है तब इस परमार्थतत्त्व का प्रतिपादन करते समय उसे अद्वैत शब्द से ही कहा जा सकेगा, वह तो वह ही है ।
अद्वैतता की आधारभूत दृष्टि―अनादि अनंत अहेतुक सहजपरमात्मतत्त्व का बहुत कुछ वर्णन करने के बाद भी ये शब्द आखिर बोलने ही पड़ेंगे कि उसका हम क्या वर्णन करें, वह तो वही एक है ꠰ इस शब्द को सुनकर अन्य दार्शनिक उस परमार्थस्वरूप के बारे में यह एकांत निर्णय कर बैठेंगे कि यह उनकी बात है कि बस जगत में वही एक है और तो सब मिथ्या है, मायाजाल है, कुछ भी चीज नहीं है, पर वास्तविकता यह है कि प्रत्येक पदार्थों में जो द्रव्यरूप है वह ध्रुव है । अनेक अवस्थाओं के चलते रहने पर भी जिसकी स्थिरता है, ऐसा जो परमार्थस्वरूप है वह तो एकस्वरूप नियत है, किंतु एक कोई पदार्थ पूरा उतना ही हुआ करता है । जो नियत है, एक है अपरिणामी है, शाश्वत है, एक स्वरूप है । क्या केवल इतनी ही मात्र कोई वस्तु हो सकती है? यह संभव नहीं है । वस्तु द्रव्यपर्यायात्मक होती है, केवल सामान्य ही सामान्यरूप कुछ वस्तु नहीं है, यह वस्तु का स्वभाव है, वस्तुसामान्य विशेषात्मक है, फिर भी हम कल्याणार्थी पुरुष उस सामान्य, विशेषतत्त्वात्मक पदार्थ में क्या निरखा करें जिसकी निरख से हम आपका कल्याण हो सके, निर्विकल्पता आ सके । ऐसा कौनसा आलंब्य तत्त्व है? विचार करनेपर निर्णय होता है कि हम किसी विशेष का, भेद का आलंबन करें, उपयोग रखें तो उसमें हमारे उपयोग की स्थिरता नहीं बन सकती है, क्योंकि आश्रयभूत तत्त्व भी विनाशीक है और उसके न रहने से फिर यह उपयोग किसका आश्रय करे? जिस-जिस पर्याय का आश्रय करेगा उस आश्रय में यह उपयोग स्थिर न रह सकेगा, मग्न न हो सकेगा । तब जो एक सामान्यस्वरूप है, शुद्ध चैतन्यभाव है, शाश्वत ध्रुव अंतःप्रकाशमान है, उसका स्वरूप समझने में उपयोग लगाया जाये तो इसकी स्थिरता बन सकेगी और मग्नता हो सकेगी । इस सामान्यस्वरूप चिद्रूपभाव के उद्योग में निर्विकल्पता बन सकेगी, इस कारण इस चित्स्वरूप के आलंबन करने का उपदेश किया गया है ।
समानता व व्यक्तित्व में विविक्त अद्वैत की दृष्टि―यह अद्वैत है, इसमें दो बातें नहीं हैं, भेद नहीं हैं, अथवा ऐसे-ऐसे दुनिया में अनेक होवें चित्स्वरूप, सो नहीं है । यद्यपि आत्मद्रव्य अनंतानंत हैं, पर उनके स्वरूपमात्र पर दृष्टि दी जाये तो स्वरूप अनेक नहीं हैं, स्वरूप एक है । सब जीवों का स्वरूप समान है, ऐसी बुद्धि के बनाकर उसे नहीं देखने को कह रहे क्योंकि सब जीवों का स्वरूप समान है, इस तरह उसको देखने के लिए कहा जाये तो प्रथम उसकी निगाह में व्यक्ति तो आ ही गए । अब उस स्वरूप का माहात्म्य निजस्वरूप दृष्टि में न आ सकेगा । केवल स्वरूप का क्या अस्तित्व है? स्वरूप क्या है ? केवल स्वरूपमात्र दृष्टि में रहे तो उस स्वरूप की महिमा विदित होगी । ऐसी स्थिति में उसे एक कहना भी विकल्प की बात होगी । वह स्वरूप न तो अनेक है, न एक है । वह तो वही है । इस कारण इसे एक न कहकर अद्वैत शब्द से कहना कुछ विशेष मायने रखता है । यह शुद्ध चित्स्वरूप सहजपरमात्मतत्त्व अद्वैत है ।
अद्वैत चित्स्वरूप की आदेयता का कारण―अद्वैतवाद के जितने भी ग्रंथ है उनमें जो अद्वैत तत्त्व का अनुराग बताया है, अद्वैत की सिद्धि में सर्व स्वबुद्धि लगा दी गई है वह इस ही अद्वैत निज कारणसमयसार की भक्ति में लगायी होगी और इसी से शुरूवात हुई होगी, किंतु व्यक्तित्वविविक्त दृष्टि पर कायम रह सकने से फिर वह कुछ व्यक्ति रूप मान लिया गया, तो कोई एक ब्रह्म है, कोई एक तत्त्व है ऐसा एक व्यक्तिरूप में, पिंडरूप में लिया कि सर्वत्रव्यापक है, सदा काल है, ज्यों का त्यों है, एक रूप रहता है, ऐसा है कोई एक । एक के कहने से ही व्यक्ति आ जाया करती है स्वरूप में और एक अनेक में फर्क है । केले का स्वरूप जब आप समझेंगे तब आपको न एक केला दिखेगा न अनेक । जो स्वाद लिया है उस स्वाद आदिक के रूप से जब केले का स्वरूप समझेंगे तब न एक है, न अनेक है । जहाँ दो चार केले कहा, वहाँ भी व्यक्ति पकड़ा गया अर्थात् वे दो चार केले जो हैं वे ग्रहण में आये, ज्ञान में आये और कदाचित् एक केला कहा तो भी व्यक्ति आया । तो व्यक्ति को देखने को बात यहाँ नहीं चल रही है, किंतु स्वरूप को देखने की बात चल रही है । वह स्वरूप न तो एक है, न अनेक के हैं । किंतु वह तो वही है, अथवा अद्वैत है । जो अद्वैत शब्द के द्वारा वाच्य है ऐसा शुद्ध चित्स्वरूप सहज परमात्मतत्त्व हूँ । जैसे कहावत में कहा करते कि तुम्हें आम खाने से काम कि गुठली गिनने से काम? ऐसे ही यहाँ निरखिये कि आपको स्वरूप के अनुभव से काम या एक अनेक के निर्णय से काम? स्वरूप के अनुभव से प्रयोजन है, एक और अनेक के निर्णय से प्रयोजन नहीं है । तो उस स्वरूप प्रतिभास के समय यह मैं अंतस्तत्त्व, कारणमपरमात्मतत्त्व, समयसार चैतन्यस्वरूप जो हूँ सो ही हूँ । एक अथवा अनेक के विकल्प से रहित हूँ । इस कारण वह तो बही है, अद्वैतमात्र है ।
सहजपरमात्मतत्त्व की ब्रह्मशब्दवाच्यता―यह सहजपरमात्मतत्त्व ब्रह्म शब्द के द्वारा भी कहा गया है । यह चैतन्यस्वरूप ब्रह्म है । ब्रह्मस्वरूप का व्युत्पत्यर्थ है । जो अपने गुणों से बढ़ा हुआ रहे उसका नाम ब्रह्म है । जैसे स्प्रिंग वाले जो किवाड़ होते हैं, उनको जब तक पकड़े रहें, तब तक तो खुले रहेंगे और छोड़ दें तो झट लग जायेंगे । तो उस स्प्रिंग का स्वभाव फैलने का ही है । जब आपने उस किवाड़ को नहीं पकड़ा तो वह निरर्गल निर्विघ्न फैला हुआ स्प्रिंग है और जब उस किवाड़ को खोला, खींचा तो स्प्रिंग का स्वभाव तो फैले हुए का ही है । चाहे वह इस समय दब गया है, लेकिन अपने गुणों से वह फैला हुआ ही स्वभाव रखता है । एक स्वभाव की कर्मठता के संबंध में, अपनी समर्थता के संबंध में दृष्टांत दिया है । यों ही यह चैतन्य ब्रह्म अपने गुणों से बढ़ा हुआ है, बढ़ा हुआ रहने का स्वभाव रखता है ꠰ इस कारण इसे ब्रह्म कहते हैं । बढ़ा हुआ है तो कहाँ तक बढ़ा हुआ है देश की अपेक्षा? उसमें भी कुछ सीमा नहीं डाल सकते हैं, क्योंकि सीमा डालने पर व्यक्ति नजर आयेगा, स्वरूप दृष्टि से ओझल हो जायेगा । हम अपने आपके आत्मा के स्वरूप के संबंध में इस तरह सोचें कि मेरा आत्मा तो 5-5।। फिट का लंबा और 1-1।। फिट का चौड़ा, ऐसा-ऐसा फैला हुआ यह आत्मा है, तो ऐसा देखने में आपको आत्मस्वरूप का, चैतन्यस्वरूप का अनुभव हुआ क्या? कुछ नहीं हुआ, क्योंकि आपने उस आत्मा को व्यक्तित्व के नाते निरखा है ।
आत्मोद्धार की साधनभूत दृष्टि―व्यक्तित्व पर दृष्टि करना निर्विकल्प साधना के लिए विघ्न है और व्यक्तित्व को मिटा देना, उपयोग से हटा देना, यदि सामान्य रूप रह जाये तो यह उन्नति के लिए बड़ी महत्त्वपूर्ण दृष्टि है । जब कि दुनिया इससे उल्टी चल रही है । दुनिया में व्यक्तित्व की बात कहें, व्यक्ति की महिमा बतायें―साहब इनका क्या कहना, इनका व्यक्तित्व तो बहुत ऊंचा है, इसकी तो तारीफ मानी जाती है और किसी के बारे में कहा कि इनका व्यक्तित्व कुछ नहीं है, यों ही साधारण लोग हैं, तो उसमें उनकी तोहीनी मानी जाती है, लेकिन अध्यात्ममार्ग में जितनी दृष्टि में सामान्य बसेगा उतना आत्मा का उद्धार है, निर्विकल्पसमाधि के सम्मुख है और जितना इसकी निगाह में व्यक्तित्व रहेगा उतना ही इस आत्मा का पतन है । यह मोहजाल क्यों बढ़ गया ꠰ जिनमें मोह रखते हैं, उनके परखने में व्यक्ति समाया है या शक्ति सामान्य? व्यक्ति समाया हुआ है तभी मोह होता है । तो मोह से इस जीव का अनर्थ हो रहा ना तो इस अनर्थ को रोकने का उपाय क्या है? व्यक्ति का आश्रय छोड़ दिया जाये । साधारणस्वरूप, सामान्यस्वरूप जब उपयोग में होता है, तब इसका कल्याण है ।
अद्वैत चित्स्वरूप की अलौकिक व्यापकता―यह शुद्ध सहज चित्स्वरूप सहजपरमात्मतत्त्व ब्रह्म शब्द के द्वारा वाच्य है । जब हम इस ब्रह्म को देश―की अपेक्षासे, क्षेत्र की अपेक्षा से सीमा न कर सके, तो इसका अर्थ यह लगाया गया कि यह ब्रह्म सर्वव्यापक हैं । जिसकी सीमा नहीं पड़ी है उसका अर्थ है सर्वव्यापक । और सर्वव्यापक कहने में दृष्टि यह बना ली गई कि जितनी बड़ी दुनिया है, उसके रग-रग में, प्रदेश-प्रदेश में फैला हुआ है । लेकिन यह ब्रह्म लोकव्यापक नहीं, किंतु उपयोगव्यापक है । उस उपयोग में कोई जगह ऐसी नहीं बची, कोई अंश ऐसा नहीं बचा, जो ब्रह्म के अनुभव बिना हो और वहाँ किसी दूसरे तत्त्व को स्थान मिला हो । इस प्रकार तो ब्रह्म व्यापक है उस ज्ञाता के अनुभव में, पर क्षेत्र की अपेक्षा से व्यापकता की बात संगत नहीं बैठती । ऐसा यह मैं अपने गुणों से बढ़ रहे स्वभाव की सतत रखने वाला सहज चित्स्वरूप परमात्मतत्त्व हूँ ।
सहजपरमात्मतत्त्व की समय शब्दवाच्यता―यह मैं सहजपरमात्मतत्त्व समय शब्द के द्वारा भी कहा गया हुँ, जिस समय के लिए समयसार शब्दप्रसिद्ध है । यह समय का अर्थ काल का अंश न लेना, किंतु समय का अर्थ है सम् अय? ये दो शब्द हैं सम और अय । सम् का अर्थ, है एक रूप से स्वरूप एकत्वगत ही है, सो सम् के मायने हैं सही सम्यक्रूप । सम्यक् मायने एकत्वरूप । सम् का अर्थ है―एकत्वरूप और अय् का अर्थ है―गच्छति, चलना, परिणमना । समय नाम है उसका जो अपने गुणपर्यायों को जावे, पावे ऐसा कहने में तो सभी पदार्थ आ गए, क्योंकि सभी पदार्थ अपने गुणा पर्यायों में रहते हैं और एक रूप में तन्मयरूप से रहते हैं । जिस पदार्थ में जब जो पर्याय है वह उस समय उसमें तन्मय रहता है । और अपनी शक्ति से तन्मय तो सदा रहा करता है । यों सभी पदार्थ समय हैं, तब यह अर्थ करके पहिले इस आत्मा को पदार्थ तो स्वीकार कर लें । अब दूसरा अर्थ चलिए―सम् अयते, युगपत् गच्छति जानाति इति समय: । अय् धातु का अर्थ जाने और जानने दोनों से है । जो अपने में एक रूप से जाना करे उसे समय कहते हैं । अब इस अर्थ से तो समय का अर्थ यह आत्मा आया ꠰ इस आत्मा में जो एक स्वस्वरूप है, शाश्वत रूप है, वही सहजपरमात्मतत्त्व है । कारण प्रभु है, उसे समय शब्द से कहते हैं । समयसार शब्द से भी कहते हैं । उन सब समयों में, सब आत्माओं में जो सारभूत स्वरूप है उसका नाम है समयसार ।
कल्याण की निर्भरता का आघार आलंब्य तत्त्व―यहां इस स्तवन में उपदेश यह चल रहा है कि हम किसका सहारा लें, किस पर निगाह डालें, किसको दृष्टि में ले कि हमारा कल्याण हो, आनंद हो, संकट टले, हमारा सर्वस्व मंगल हो? ऐसा कौन सा तत्त्व है जिसका हम आश्रय करें? ऐसा तत्त्व आपको बाहर
न मिलेगा । बाहर जो-जो भी हैं उनका आश्रय करने से व्याकुलता ही रहेगी । वह तत्त्व अपने आपमें मिलेगा और अपने आपका आश्रय करना बहुत संयमसाध्य है । जब हम अपने उपयोग को बहुत संयत बनायें, यत्र तत्र के सारे विकल्पों से हटकर अपने को अपने से उपयुक्त करें तभी हम इस समयसार के दर्शन कर सकते हैं । तो यह आलंब्य तत्त्व जिसको हम निगाह में रखे रहें तो नियम से कर्म कटेंगे, संकट टलेंगे । वह है कारणप्रभु । जिस रूम में मैं स्वयं हूँ । अत: सब ओर से दृष्टि हटाकर अपने इस सहजकारणपरमात्मतत्त्व पर दृष्टि दें, यहीं तृप्त रहें, यहाँ ही तृप्त रहकर अपने को कृतार्थ समझें, ऐसा एक निर्णय बना लेना चाहिए ।
सहजपरमात्मतत्त्व की ईश्वरस्वरूपता―अपने आपमें अनादि अनंत अहेतुक नित्य अंत: प्रकाशमान स्वत:सिद्ध यह सहजपरमात्मतत्त्व मैं ईश्वर शब्द के द्वारा वाच्य हूँ, अर्थात् यह सहज परमात्मतत्त्व ईश्वर हैं । ईश्वर कहते हैं उसे जो अपने कार्य के लिये स्वतंत्र हो । जैसे कि लोक में बड़ा और ईश्वर वह कहलाता है कि जिसके कार्य के लिये पराधीनता न हो, अपना कार्य अपने ही द्वारा अपने ही स्वातंत्र्य से कर लिया जाने की जिसमें सामर्थ्य है वह बड़ा कहलाता है । तो सर्वोत्कृष्ट महान् वह है जो अपने कार्य में स्वतंत्र समर्थ हो । तब वस्तुस्वरूप पर दृष्टि देकर तथा परमात्मा के स्वरूप पर दृष्टि देकर निहारें कि परमात्मा का जो भी काम हो रहा है वह स्वतंत्रतया हो रहा है । परमात्मा करता क्या है? निरंतर जानना और आनंद भोगना, ये दो ही काम हैं, दो ही परिणमन हैं प्रभु के । उनका सहज स्वत: ही ऐसा परिणमन है कि वे सर्व विश्व को जानते रहते हैं और अलौकिक अनुपम आनंद भोगते रहते हैं तो जानना और आनंद भोगना―इन दो कामों के लिए परमात्मा को किसी पर की अपेक्षा पड़ती है क्या? जैसे यहाँ संसारी प्राणियों को जानने में भी किसी पर की अपेक्षा रहती है और आनंद पाने में भी किसी पर की अपेक्षा रहती है । यद्यपि जो ज्ञान और आनंद पाया जा रहा है उसका उपादान यह प्राणी, यह जीव स्वयं है तिस पर भी कुछ परिस्थितियां ऐसी हैकि जिनके कारण कर्म क्षयोपशम इंद्रिय, प्रकाश, उपदेश आदिक की अपेक्षा रहती है तब ज्ञान होता है और इंद्रिय का सामर्थ्य, इंद्रिय के विषय कर्म के अनुकूल उदय ये सब अपेक्षित रहते हैं तब यहाँ प्राणी आनंद का सुख भोग पाते हैं, किंतु परमात्मप्रभु का जो ज्ञान है और जो आनंद है वह तो निरपेक्ष हैं । केवलज्ञान के द्वारा समस्त विश्व जानने में आये, इसके बीच किसी पर की अपेक्षा रहती है क्या ? न वहाँ कर्म की अपेक्षा है, न वहाँ मन, वचन, काय के व्यापार की अपेक्षा है, न प्रकाश आदिक की, स्वत: ही पूर्ण विकसित ज्ञान है, इस प्रकार प्रभु जो आनंद पाते हैं उस आनंद के लाभ में भी किसी पर की अपेक्षा नहीं पड़ता है । वह आनंदित होता है, स्वयं होता है, तब जानने में भी आप षट् कारक लगायें तो प्रभु जानता है, स्वयं को जानता है और स्वयं कैसा है, उनका उस समय जो सर्व विश्व जैसा है तिस आकार ज्ञेयाकार परिणमन रहा आत्मा, उस ज्ञेयाकार सर्वविश्वाकार―परिणत आत्मा को जान रहा है वह और अपने ही द्वारा जानता है, अपने लिये जानता है, अपने में जानता है और अपने से ही जानता है । स्वयं की ही पूर्व पर्याय से यह उत्तर पर्याय, इस तरह संतान चलती रहती है । यही बात आनंद की है । वह आनंदित होता है, किसको आनंदित करता है? स्वयं को आनंदित करता है, स्वयं के दारा स्वयं के लिए स्वयं से आनंदित होता रहता है । इस ज्ञान और आनंदरूप परिणमन के लिए प्रभु को किसी अन्य की अपेक्षा नहीं पड़ी । अतएव प्रभु ईश्वर है? ईश्वर वह कहलाता है कि जो अपने ऐश्वर्य को भोगने में स्वतंत्र हो और उसके भोगने में किसी पर की अपेक्षा न रखनी पड़ती हो । यों यह सहजपरमात्मतत्त्व ईश्वर है ।
सहजपरमात्मतत्त्व की विष्णुरूपता―सहजपरमात्मतत्त्व विष्णु शब्द द्वारा भी वाच्य है । विष्णु का अर्थ है―व्याप्नोति इति विष्णु: । जो सर्वत्र व्यापकर रहे वह विश्व है । विष्णु शब्द का अर्थ है व्यापक । यह सहजपरमात्मतत्त्व यह भगवान परमात्मा सर्वव्यापक है । सर्वव्यापक के मायने सर्वसत᳭व्यापक । यह व्यापना ज्ञान द्वारा हो रहा है, प्रदेश द्वारा नहीं हो रहा । प्रदेश द्वारा सर्वसत᳭ में व्यापकपना नहीं हो सकता । कभी यह जीव केवली समुद्धात में, लोकपूरण समुद्धात अवस्था में आकर सारे लोक को भी व्याप ले, तिस पर भी वह सर्वसत् की व्याप नहीं सकता । क्योंकि अभी आकाश सत् और पड़ा हुआ है जिसे अलोक कहते हैं । केवली समुद्धात में, लोकपूरण दशा में आत्मा से बाहर आत्मा के प्रदेश नहीं जा सकते, तो यह जो व्यापकपना है वह प्रदेश की अपेक्षा नहीं दिखता है, किंतु ज्ञान की अपेक्षा से दिखता है । यद्यपि ज्ञानगुण, ज्ञान का परिणमन निज आत्मप्रदेशों में ही रहता है, आत्मप्रदेशों से बाहर नहीं जाता, किंतु उस ज्ञान का विषय क्या है? इसके विवरण में चलिये । देखो ज्ञान का स्वभाव ही इस प्रकार है कि जिसे हम “जाना” इस शब्द से भी व्यवहार करते हैं । यह जाता है, कहां तक जाता है यह ज्ञान ? समस्त लोक तक और अलोक तक भी जाता है । तो ज्ञान के द्वारा लोकालोक में व्यापक है प्रभु, इसलिये यह विष्णु कहलाता है । विष्णु शब्द द्वारा भी यह सहज परमात्मतत्त्व वाच्य है ।
सहजपरमात्मतत्त्व की, चित्स्वरूप की अंतर्भावना से ज्ञेयता―यह सहजपरमात्मतत्त्व ज्ञान में कैसे आया, किस प्रकार यह अनुमेय बना, मेय बना, प्रमेय बना, इसके संबंध में जब केवल चित् का ही ध्यान होता है केवल चित्स्वरूप प्रतिभासमात्र स्वयं अपने आप यह चेतन क्या है पर के संबंध बिना, पर के संपर्क से होने वाले विभावों के बिना, स्वयं यह अपने आप कैसा है, इस तरह की जानकारी में यह सहजपरमात्मतत्त्व जाना जाता है । जब कोई पदार्थ सत् है तो वह तो अकेला सत᳭ है । वह तो स्वयं निज में, केवल में जो सत् है उस ही में सत् है । अन्य में तो सत᳭ हो ही नहीं सकता । अन्य का तो संबंध है, पर संबंध तो सत् की चीज नहीं हुई तो अपने आप आत्मा में स्वयं जो सत्त्व है उस सत्त्व की दृष्टि से निरखने पर जो समझा गया चित्स्वरूप है उस चित्स्वरूप के ज्ञान के द्वारा इस सहजपरमात्मतत्त्व का मर्म ज्ञेय होता है तो यह चित् इस प्रकार की जो अंतर्ध्वनि है, चिन्मात्र हूँ, चैतन्यमात्र हूँ, इस अंतर्जल्प के द्वारा इस अंतर्भावना के द्वारा यह सहज भगवान दृष्ट होता है ।
व्यर्थ का विकल्प और विडंबना का भोग―हम आप जगत के जीव बिल्कुल व्यर्थ ही दुःखी होते हैं, व्यर्थ ही विकल्पक होते हैं, जिसके फल में विडंबना सचमुच हो रही है । क्या विडंबना हो रही है, गतियों में जाना, इंद्रियों में जन्म लेना, अनेक प्रकार के शरीरों में बंधना, ये सारी विडंबनायें हो रही हैं ना? उसका कारण क्या है, वह बिल्कुल व्यर्थ का कारण है, अर्थात् कुछ मतलब नहीं, किसी भी परतत्त्व से कोई वास्ता नहीं, कोई परतत्त्व रहा अथवा न रहा, यहाँ रहे, कहीं जावे, नष्ट हो, भला बने, पर तो पर ही है । उस पर के परिणमन से पर में ही तो कुछ होगा । उससे मेरा कुछ संबंध नहीं । साथ ही यह भी समझिये कि जिसके लिए मैं कुछ बनना चाहता हूँ, जिसको कुछ अपनी कला दिखाना चाहता हूँ, जिसकी दृष्टि में मैं कुछ महान बनना चाहता हूँ, लोग मुझे कहें कि यह बड़ा धनिक है, बड़ा समझदार है, वे लोग मुझे जानते भी नहीं । तब यह हुआ ना कि जैसे कोई निर्लज्ज महिमान, जिसे कोई पूछता नहीं है, वह यह कहे कि मान न मान मैं तेरा महिमान । इसी तरह जगत के जीव, कोई मुझे नहीं समझते हैं, नहीं जानते हैं । जान ही नहीं सकते, मान ही नहीं सकते । क्या संबंध पड़ा है, कोई किसी का क्या उत्तरदायी है? या कोई किसी के शरीर का स्वामी है क्या ? रिश्तेदार है क्या ? यहाँ के ये सारे संबंध स्वार्थ के कारण बन रहे हैं, अब वह स्वार्थ चाहे धार्मिकरूप से हो, चाहे लौकिक रूप से हो, किंतु जितने भी संबंध हैं वे सर्व संबंध एक अपनी भावना के कारण बन रहे हैं । वस्तुत: संबंध किसी का किसी के साथ नहीं है ।
अपनी विडंबनाओं से छुटकारे का उपाय―देखिये बाह्य के कुछ भी परिणमने से कुछ मेरा बिगाड़ तो नहीं? बाह्य में कुछ भी बिगड़ उससे क्या और बाह्य में कुछ भी बने उससे कुछ भी मेरा सुधार तो नहीं, मेरा सुधार बिगाड़ तो मेरी ज्ञानदृष्टि के आधार पर है, मेरी ज्ञानदृष्टि अशुद्ध हो तो मेरा बिगाड़ है मेरी ज्ञानदृष्टि पवित्र हो तो मेरा सुधार है । कोई दूसरे लोग कुछ भी उत्तरदायी तो नहीं हैं मेरे । तब व्यर्थ का हुआ ना सारा संकल्प विकल्प, और परेशानी सचमुच कर ली । विकल्प हुए मिथ्या और परेशान हो रहा यह स्पष्ट, उन सब विडंबनाओं को दूर करने के लिये अंतःस्वरूप पर ध्यान देना चाहिये कि मैं तो परिपूर्ण हूँ और कृतार्थ हूँ । स्वतःसिद्ध हूँ । मेरे में तो कुछ भी अधूरापन नहीं, विपत्ति नहीं, आकुलता नहीं । स्वरूप को देखो तो वह पवित्र ही है, उत्कृष्ट ही है । तो जब इन सर्व विकल्पों से परे होकर अंत: अपने चित्स्वरूप पर दृष्टि होती है तब इस जीव को सम्यक्त्वलाभ है, शांतिलाभ है और यह इस संसाररूप कूप से उद्धार को प्राप्त हो जायेगा । यह सहजपरमात्मतत्त्व, जिसका आश्रय लेने से हमारा उद्धार होता है वह चित्स्वरूप की दृष्टि द्वारा यह ज्ञान में आता है ।
सहजपरमात्मतत्त्व की विशुद्ध पारिणामिकरूपता―यह सहजपरमात्मतत्त्व पारिणामिक है । पारिणामिक का प्रसिद्ध अर्थ तो यह है कि ध्रुव है, जिसमें परिवर्तन नहीं, परिणमन नहीं । जो समस्त पर्यायों का आधारभूत है, नियत एकस्वरूप है । यह अर्थ पारिणामिक शब्द से कैसे निकला? तो यद्यपि पारिणामिक शब्द का सीधा अर्थ नहीं है यह, पर निष्कर्षरूप अर्थ है । पारिणाम शब्द का व्युत्पतित: अर्थ है, जिसका परिणाम प्रयोजन हो, परिणमन जिसका प्रयोजन हो उठे पारिणामिक कहते हैं । इन द्रव्यों से कोई पूछता हो, हे द्रव्य ! तुम किस लिए सत᳭ हो, याने तुम्हारी चर्या, तुम्हारा प्रयोजन, तुम्हारा काम क्या है? तो उनकी ओर से उत्तर मिल सकेगा कि मेरा काम परिणमन है और दूसरी बात से मुझे मतलब नहीं है । हूँ तो, मुझे परिणमना है, क्योंकि परिणमन के बिना मैं नहीं रह सकता हूँ । एक मेरा प्रयोजन परिणमन है । सब वस्तुवों की यही बात है । जीव, पुद्गल, धर्म, अधर्म, आकाश, काल, इन छह जातियों में विभक्त इन समस्त पदार्थों का प्रयोजन मात्र यही है कि परिणमते रहें । किंतु सब द्रव्यों में समर्थ विशिष्ट प्रभु यह आत्मद्रव्य है, इसमें उपयोग है, इसमें जानने की कला है । तो यह संसारी प्राणी अपनी इस विशेषता का दुरुपयोग कर रहा है ꠰ ये पुद्गल आदिक भी तो पदार्थ हैं । ये हैं, किस लिए हैं? ये परिणमते रहें, इनमें नई अवस्थायें बने, पुरानी अवस्थायें विलीन हों । बस इतना ही इनका काम है, इतनी ही इनकी चर्या है । इसके अतिरिक्त इस पुद्गल का कोई प्रयोजन है क्या ? इसी प्रकार सब जीव द्रव्यों का यही मात्र प्रयोजन है । वे हैं, और परिणमते रहें । अब जिस पदार्थ में जो असाधारण गुण हैं वह अपने में असाधारण अंगरूप से परिणमता है । यह तो वस्तु की बात है, पर प्रयोजन क्या है पदार्थ में? वे पदार्थ यहाँ क्यों रह रहे? ये पदार्थ यहाँ क्यों पड़े हैं? इस लिए कि परिणमते रहें । इनका और कोई प्रयोजन नहीं । इसी प्रकार जीव का भी और कोई प्रयोजन नहीं । लेकिन उपयोगमयी है यह जीव, जाननहार है यह । इसे मिली है यह एक अनुपम विशेषता, जो किसी द्रव्य में नहीं पायी जा सकती है, यह ज्ञानी है, जीव है, चेतन है, इसे मिली है एक अद᳭भुत सामर्थ्य, सो इसने अपनी अद्भुत सामर्थ्य का दुरुपयोग किया है । तर्क वितर्क विकल्प विचार करता है । सोचता रहता है । यों यह पदार्थ जीवद्रव्य अपने को दुर्गतियों की ओर लिए जा रहा है, लेकिन असली प्रयोजन इसका समझ जायें कि जगत में मेरे अस्तित्व का प्रयोजन इतना ही है कि परिणमता रहूं और कुछ नहीं । किसी पर से मेरा संबंध नहीं, समस्त परपदार्थों से मैं निराला हूं, ऐसा अपने आपको पारिणामिक भाव रूप में निरखा तो यह अपने आपके सत्य स्वरूप को जान सकता है ।
आधार तत्त्व―जीव के पारिणामिक भाव तीन प्रकार के कहे गए हैं―जीवत्व, भव्यत्व, अभव्यत्व । इनमें भव्यत्व और अभव्यत्व तो एक ही प्रकार का है पर जीवत्व के दो प्रकाश हैं―शुद्ध जीवत्व, अशुद्ध जीवत्व । केवल एक चैतन्य रसकरि रहा करे, यह तो है शुद्ध जीवत्व और 5 इंद्रिय, तीन बल, आयु और श्वासोच्छवास इन 10 प्राणोंकरि सहित हो होकर जिया करे यह है अशुद्ध जीवत्व । इन चार प्रकार के परिपूर्ण भावों में से भव्यत्व अभव्यत्व तो है पर्याय योग्यता रूपभाव और प्राणोंकरि जीवत्व अशुद्ध है । शुद्ध है मैं एक चैतन्य रसकरि निरंतर रहूं, ऐसा जीवत्वभाव है । ऐसा यह सहजपरमात्मतत्त्व विशुद्ध पारिणामिक भाव है । इस चैतन्य पारिणामिकभाव से सर्व पर्यायें निकल रही हैं । जो क्रोधादिक कषायों के भाव होते हैं वे औदयिक भाव हैं, उनका स्रोत यह चित᳭भूमिका है । कर्मों के क्षयोपशम से होने वाले क्षायोपशमिक ज्ञान आदिक भी इसी पारिणामिक तत्त्व से निकल रहे हैं । कर्मों के क्षय से होने वाला परिणाम और उपशम से होनेवाला परिणाम, सभी प्रकार की ये सब पर्यायें एक इस ध्रुव चित्स्वरूप से ही हुआ करते हैं । तो जो इन सबका स्रोत है, जिनका कि परिणाम ही प्रयोजन है, ऐसा पारिणामिक भावस्वरूप मैं सहज परमात्मतत्त्व हूँ ।
आत्मोद्धरण की हितमय चिंतना―यह सहजपरमात्मतत्त्व परात्पर है । लोक में जितने उत्कृष्ट पदार्थ हैं उन सबसे उत्कृष्ट है, उत्कृष्ट से उत्कृष्ट है । अपने सहज आत्मतत्त्व की सुध न लेकर असार भिन्न बाह्य पदार्थों में ही रमकर उनकी ही धुन से यह अमूल्य नरजीवन व्यर्थ खोया जा रहा है, तिस पर भी मोह का ऐसा उदय है कि थोड़ा भी पछतावा नहीं होता कि कितनी आयु व्यतीत कर डाली? अब निकट काल ही है जिसके बाद यह भव छूट जायेगा । पश्चात् मैं कुछ रहूंगा ना । सद᳭भूत हूँ, इसलिए अवश्य रहूंगा । कोई भी सत् समूल नष्ट नहीं हुआ करता । युक्ति ही बताओ कोई भी सत् चाहे जीव हो, अथवा अजीव हो समूल नष्ट हो सकता हो तो सिद्ध कीजिए । जो वह कर्म जायेगा? किस ही रूप परिणमे―किंतु उसका विनाश कैसे संभव है? मैं हूँ । मेरा विनाश न होगा । मैं किस रूप रहूंगा, इस मनुष्यत्व को छोड़ने के बाद? तो यह लोक, यह सारा जहान दृष्टांत ही तो है । जैसे जीव यहाँ नजर आते हैं तो जीव की ही तो दशा है उस रूप हम आप बन सकेंगे । तो 50-60 वर्ष के आराम के लिए इतनी चिंता में करना और अनंत भविष्य के लिये अपना कुछ न सोचना योग्य बात नहीं । आज जो कुछ समागम पाया है उन्हीं को सर्वस्व समझकर उन्हीं की धुन बनाना कोई भली बात नहीं है । आज जो घर में दो चार जीव रह रहे हैं उन्हीं को अपना समझकर उनके ही लिए अपना तन, मन, वचन सर्वस्व अर्पित कर रहे हैं । लोग तो स्वयं कह भी डालते हैं कि हमारे तो प्राण तक भी इन परिजनों के लिए हैं । मेरे जीवन का आधार तो ये मेरे परिजन ही हैं । इस प्रकार इस थोड़े से जीवन के समागम को सर्वस्व मान लिया है, और इस जीव के बाद अनंतकाल तक मुझे कहां-कहां रहना पड़ेगा, मुझे कैसे रहना चाहिए, उसके लिए कुछ प्रोग्राम भी नहीं सोचा जाता । कुछ मन में बात भी उसकी नहीं आती । तो अब बतलावो कि जैनशासन पाने का लाभ क्या हुआ? और मनुष्यभव पाने का भी लाभ क्या हुआ? खाना पीना भोग विषय ये सब तो पशु पक्षी बनकर भी किए जाते हैं, किये जा रहे हैं तो इस नरभव का और जैनधर्म का प्राप्त होने का क्या लाभ उठाया? यह एक बहुत बड़ी समस्या की चिंतना की बात कही जा रही है, अगर हृदय में घर कर जाये तो इसका चिंतन करना, न घर करे तो इसके लिए संसार पड़ा ही है । अनादि से है । आगे भी है । तो इस बात पर विशेष दृष्टि देना है कि मेरा भविष्य उज्ज्वल हो, शांत हो । और यह बात अपने इस सहजपरमात्मतत्त्व के निर्णय पर, दर्शन पर ही आधारित है ।
सुख दुःख होने की ज्ञानपद्धति पर निर्भरता―आत्मा का सुख, दुःख, आनंद सब कुछ ज्ञानपद्धति पर निर्भर है, किसी बाह्य पदार्थ पर निर्भर नहीं है । जब ज्ञान बाह्य पदार्थ में उपयुक्त होकर रागभाव की सहायता से उनमें इष्टपने की कल्पना करता है और उस इष्ट परपदार्थ की उपलब्धि रहती है तो उससमय ऐसा ज्ञान बनने से कि मुझको इष्ट मिला है, सब कुछ मिला है, सुखदायी चीज मिली है, अब क्या करना मैं कृतार्थ हूँ मुझ जैसा और कौन है इस तरह की अनेक ज्ञान परिणतियां होने के कारण सुख का अनुभव होता है तो उस सुख की उत्पत्ति बाह्य कारण से नहीं हुई, किंतु बाह्य विषय मात्र रहा । अर्थात् उस बाह्य परपदार्थ के संबंध में इस प्रकार का हमने ज्ञान बनाया कि उस ज्ञान से हमको सुख का अनुभव हुआ, बाह्य पदार्थ से सुख का अनुभव नहीं हुआ । इसी प्रकार अब हम बाह्य पदार्थों में इस तरह की ज्ञानवृत्ति बनाते हैं कि यह बड़ा अनिष्ट है, मेरा विरोधी है, मेरे लिए दुःखकारी है, यह सामने आ गया, उसके प्रति मेरे कुछ रोष बनता, कुभाव जगता है तो उस द्वेषभाव के सहयोग से जब ज्ञान में यह कल्पना बना ली, और चिंता के निर्माण करने का भाव बना लिया तब उस कल्पना से और उस भाव से दुःख होता है, दूसरे पदार्थ से हम दुःखी नहीं होते । इसी प्रकार जो इष्ट पदार्थ न रहा उसके संबंध में जो मेरा ज्ञान चल रहा, हाय वह न रहा, अब मेरा कुछ शरण न रहा, मुझे सुख कौन दिखायेगा, इस तरह की जब ज्ञानवृत्तियां चलती हैं तो उन ज्ञान तरंगों की उस पद्धति के आधार पर दुःख निर्भर है । इसी तरह जो अनिष्ट जंचता था, विरोधी अहितकारी विदित होता था तब उसका वियोग होने पर, चले जाने पर जो ज्ञान का यह भाव बनाया कि अब मैं निर्विघ्न हो गया, स्वतंत्र हो गया, अब मेरे में कोई विघ्न डालने वाला न रहा तो इस प्रकार को ज्ञानवृत्तियाँ होने से हमको सुख होने लगा । तभी तो देखिये कोई आपके अन्य देश में रहने वाली दूकान से तार आया और तार थोडीसी असावधानी से पड़ा गया उल्टा, मानो तार तो आया कि 10 हजार का लाभ (Imcrease) हुआ और पढ़ लिया (Discrease) इतनी हानि हुई । तो लो ज्ञान में हानि वाला समाचार आने से उस ज्ञान के कारण हम दुःखी हो गए । और इसी प्रकार हो हानि का समाचार और पढ़ने में आ गया लाभ का समाचार तो लाभ का समाचार ज्ञान में आने पर हममें सुख परिणति हो जाती है । ऐसी सब बातों को परखकर आप निर्णय करें कि जितने हमको लौकिक सुख भी होते हैं वे हमारे ज्ञान की पद्धति से होते हैं, बाह्यवस्तु नहीं होते । यह हुई लौकिक सुख दुःख की कहानी ।
आनंदमय होने की ज्ञानपद्धति पर निर्भरता―लौकिक सुख दुःख से परे होता है आत्मीय आनंद । जिस आनंद के स्वरूप को बताने के लिए कोई शब्द नहीं हैं किस तरह बताया जाये? हम आप लोग स्वयं ज्ञानस्वरूप हैं, बुद्धिमान हैं, विवेकी हैं, विरक्ति भी यथायोग्य है, अपने आपमें ही अपना बल लगाकर अपने में ही समझेंगे तो उस समझ के संबंध में मेरे ये कुछ शब्द निमित्त भी पड़ जायेंगे, पर शब्दों में यह सामर्थ्य नहीं है कि आपको आनंद के स्वरूपकार प्रतिपादन कर सके । वह आत्मीय आनंद ऐसा अद्भुत अनुपम आनंद है कि जिसके समक्ष सारा तीन लोक का वैभव का ढेर भी बेकार है । वह आनंदपरम निराकुलतारूप है और अपने आपमें अद्भुत आल्हाद स्वरूप है वह भी ज्ञान की पद्धति से ही प्रकट होता है । जब किसी परवस्तु में इष्ट अनिष्ट की कल्पना नहीं रहती, ज्ञान किसी परपदार्थ में नहीं अटकता, सर्व विकल्पों से निर्वृत्त होकर एक विशुद्ध चैतन्यस्वरूप का, ज्ञानज्योति का ही अनुभव रहता है उस समय विवश होकर इस अनुपम आनंद को अनुभव में आना ही पड़ेगा । तब देखिये कि वह विशुद्ध आनंद भी ज्ञानपद्धति पर आधारित है । यों हमारा सारा भविष्य ही ज्ञानपद्वति पर आधारित है । भविष्य क्या? सुख पाइये, दुःख पाइये या आनंद लीजिये, इनके सिवाय और भविष्य नाम किसका? तो हमारा सारा भविष्य हमारी ज्ञानपद्धति पर निर्भर है ।
परमहितरूप आधेय तत्त्व की जिज्ञासा―यह ज्ञान किसका आश्रय ले कि दु:ख से भेंट हों, किसका आश्रय ले कि सुख की प्राप्ति हो, और किसका आश्रय ले कि आत्मीय विशुद्ध सहज आनंद का लाभ हो? उस आश्रेय को ढूँढा जा रहा है । तो देखो―आश्रेय का पता हो गया होगा । ये सारे बाह्य पदार्थ दुःख के आश्रयभूत हैं और जिन्हें हम सुख का आश्रयभूत मानते हैं वे भी वास्तव में दुःख के ही आश्रयभूत हैं । लौकिक सुखों में सुख की क्या कल्पना करना? ये साक्षात् दु:खरूप हैं । परिवार बहुत बढ़ गया तो उनमें से बहुत से लोग आपके सामने मरेंगे तब आप दुःखी न होंगे क्या? जब उनमें सुख की कल्पना कर ली है तो वियोग के समय दुःख न होगा क्या? अथवा आपके सामने उन परिजनों में से कोई न मरे, आप ही मर गये तो उस समय उनमें इष्ट बुद्धि होने से क्या संक्लेश आप न करेंगे? तो जितने भी सुख के आश्रयभूत समागम हैं वे भी दुःख के ही कारण हैं । जैसे विष हुआ करते हैं मधुर, इंद्रायण फल मधुर हुआ करते हैं । खाते समय तो मीठे लगते हैं, पर उनका परिणाम बहुत खराब है, इसी प्रकार ये सुख के साधन स्त्री अच्छी, पुत्र अच्छे, धन दौलत भी ठीक, रिश्तेदार अच्छे मिले, स्वसुराल अच्छी मिली, तो इन बातों को सोच सोचकर सुख की कल्पनायें करते, किंतु ये ही के, ये ही सब लोग बिछुड़कर प्रतिकूल होकर बहुत बड़े दुःख की ठोकर लगने के कारण बनेंगे । कभी बने, पर यह निर्णय है कि यदि बाह्य पदार्थों के आश्रय से सुख की कल्पना कर रखी हो तो नियम से कठिन से कठिन दुःख होगा । तब फिर लोक में कौनसा पदार्थ ऐसा है जो सुख का आश्रयभूत हो? तो यह परपदार्थों का आश्रय करना यह दुःख का ही हेतु है । सुख भी दुःख है । इसमें आत्मा का हित नही है । तब फिर चलिए अब उस तत्त्व को ढूंढने के लिये कि जिसका आश्रय करने से आत्मीय अविनाशी निर्विघ्न अव्याघात आनंद प्राप्त हो ।
शुद्ध सहज आनंद की स्थिति का वातावरण―पहिले आप यह ध्यान में लाइये कि जिस किसी भी स्थिति में ऐसा निर्मल विशुद्ध अव्याघात सहज आनंद प्राप्त होता है तो वह स्थिति हुआ कैसी करती है ? क्या उस स्थिति में रागद्वेष की तरंग उठती होगी? यदि यह तरंग होती तो ऐसे अनुपम आनंद की स्थिति ही कैसे मिलती? वहाँ राग द्वेष की तरंग नहीं है? तब क्या कुछ जानने की इच्छा रहा करती होगी―मैं इसे जानूं । जानने की इच्छा भी नहीं रहा करती, क्योंकि जानने की इच्छा उत्पन्न होती तो हस अनुपम आनंद से भेंट ही कैसे होती? एक अंतर्मुहूर्त समय ऐसा होता है केवल कि जहाँ जानने की भी इच्छा नहीं है और वीतराग आनंद भी है, किंतु केवलज्ञान नहीं है, अल्पज्ञता है, ऐसी स्थिति बारहवें गुणस्थान की है कि जहाँ वीतरागता पूर्ण है, जानने की इच्छा नहीं है और अल्पज्ञ अवस्था है, उसके बाद तो तुरंत ही केवलज्ञान उत्पन्न होता है । तो आप यह ध्यान में लाये कि जहाँ ऐसी अनुपम आनंद की स्थिति होती है वहाँ वीतरागता और सर्वज्ञता होती है । पूर्ण विकास, अनंतआनंद की संज्ञा उस केवलज्ञान के साथ ही हुई है । वह अनंत परम सहजआनंद आत्मा के समस्त गुणों के परिपूर्ण असीम विकास के साथ लगा हुआ है । तब निष्कर्ष यह निकला कि उस परम सहज निर्मल आनंद की स्थिति निर्मल ज्ञान में हुआ करती है । तब यह प्रतीक्षा कीजिये कि मेरी वह निर्मल परिणति प्रकट हो, जिस परिणति में रागद्वेषादिक मलिन भावों का लवलेश भी नहीं रहता । ऐसी परम स्थिति किसका आश्रय करने से मिलती है? बतलाओ―जिसकी दृष्टि का आश्रय करने से निर्मल पर्याय की संतान वह उठती है, वह तत्त्व क्या है? वह तत्त्व है सहजपरमात्मतत्त्व शुद्ध चैतन्यस्वरूप ।
सहजपरमात्मतत्त्व की शुद्धि का भाव―शुद्ध चैतन्यस्वरूप सुनने के साथ यह दृष्टि न लायें कि जो अरहंत सिद्ध भगवान का निर्मल शुद्ध चैतन्यस्वरूप है उसकी दृष्टि का आश्रय करने की बात कही जा रही है । देखिये अनुपम अव्याबाध आत्मीय आनंद के लाभ के प्रसंग में उपाय की बात चल रही है ना, सो यद्यपि अनेक अंशों में अरहंत सिद्ध के विशुद्ध स्वरूप की भक्ति करना लाभदायक है, किंतु साक्षात् इस विशुद्ध आनंद के अनुभवन में उस शुद्ध कार्यप्रभु के स्वरूप का चिंतन भी बाधा दे रहा है तो इस प्रसंग में उस शुद्ध स्वरूप की दृष्टि का आश्रय करने की बात नहीं कही जा रही, किंतु शुद्ध चित्स्वरूप जो अपने सत्य के कारण केवल अपने आपमें रहता है, पर के संबंध से रहित, परसंबंध के प्रमाद से हुए प्रभाओं से रहित, पर से अत्यंत निर्लेप केवल अपने आपके स्वरूप के ही कारण स्वतःसिद्ध जो कुछ चित᳭भाव है उस स्वरूप की दृष्टि की बात कही जा रही है । जो शुद्ध अरहंत सिद्ध प्रभु हैं उनका हम पर बड़ा उपकार है । वस्तुत: उनका उपकार नहीं, किंतु उनके संबंध में जो हमने ज्ञान बनाया, ध्यान बनाया, हमारी इस परिणति का हम पर उपकार है, पर उपकृत हुए व्यक्ति बहुमान उसको दिया करते हैं जिसका आश्रय करने से हमारा उपकार हुआ है । इतने पर भी अरहंत सिद्ध भगवान की भक्ति का उद्देश्य केवल भक्ति करते रहना नहीं है, किंतु अपने आपकी उस विशुद्ध चित्᳭शक्ति का अनुभव करना है ।
स्वभाव के अनुरूप पर्याय के माध्यम से स्वभाव के परिज्ञान की सुगमता―भैया ! अपने आपमें जो शुद्ध चित्स्वरूप है जैसा कि प्रभु में है और उसके अनुरूप उनकी पर्याय भी हो गयी है, उस पर्याय के होने से वहाँ उस स्वभाव के परिज्ञान की सुगमता होती है । जैसे जल का स्वभाव ठंडा है । खूब खौलते हुए पानी के बारे में भी आप से पूछा जायेगा कि बताओ इस जल का स्वभाव कैसा हे? तो आप कहेंगे कि ठंडा है, पर गर्म जल में ठंडे स्पर्श का परिज्ञान करना जरा कठिन होता है । और, कोई अत्यंत ठंडा पानी है, उसके प्रति पूछा जायेगा कि इस जल का स्वभाव कैसा है? तो उत्तर मिलेगा कि ठंडा है । तो उस ठंडी पर्याय में वर्तमान जल में जल का स्वभाव ठंडा है, यह परिज्ञान करने में कठिनाई नहीं आती, क्योंकि पर्याय स्वभाव के अनुरूप है । गर्म पानी में पर्याय स्वभाव के विपरीत है । तो इस ही कारण कि जहाँ स्वभाव के अनुरूप पर्याय मिलती है, वहाँ स्वभाव के परिज्ञान की सुगमता होती है । हम एकदम सीधे अरहंत सिद्ध परमात्मा के स्वरूप का ध्यान करने का उपदेश सुनते हैं और प्रयत्न करते हैं, यों कि उस शुद्ध स्वरूप को जान कर हमें स्वभाव की सुगमता से जानकारी हो जायेगी, तो उस शुद्ध स्वरूप की जानकारी करके अपने आपमें उस शुद्ध स्वरूप की जानकारी का प्रयत्न होता है । वहाँ जो इस शुद्ध चित्स्वरूप को जाना है, उसकी दृष्टि बनायी है, उसका आश्रय करने से इसके निर्मल पर्याय की संतति वह उठती है ।
दृष्टि द्वारा आश्रय―हम किसी भी परपदार्थ का आश्रय कर सकते हैं, तो दृष्टि द्वारा कर सकते हैं । जैसे हाथ से बैंच का आश्रय ले लिया । ये अजीव-अजीव हैं दोनों, मूर्तिक-मूर्तिक हैं दोनों । इनका इस तरह का संबंध रूप आश्रय हो गया, लेकिन जो अमूर्त ज्ञानस्वरूप उपयोग है, आत्मा है, वह परपदार्थों का कैसे यों संपर्करूप में आश्रय लगा? कुछ संबंध नहीं हो सकता, टिकाव नहीं हो सकता । तो वहाँ आश्रय केवल दृष्टि द्वारा हो सकता है । जिस ओर हमने दृष्टि की, आश्रय उसका कहा जायेगा । अब यह खोज लिया ना कि इस लोक में वह पावन कारणभूत तत्त्व कौन-सा है, जिसका आश्रय लेने से हमारी निर्मल परिणतियों की संतति चल उठती है और उसमें परमसहज अव्याबाध आनंद का लाभ लिया जा सकता है?
सहजपरमात्मतत्त्व के आश्रय बिना सर्वत्र रोतेपन की अनुभूति―कौन है वह तत्त्व, उसकी खोज के लिए निर्मल पर्याय का उद्देश्य रखकर तो नहीं, किंतु सुख प्राप्ति हो, इस उद्देश्य को लेकर अज्ञानी जीवों ने बाहर-बाहर अपना आश्रेय तत्त्व खोजा, पर अनंतकाल व्यतीत हो गया । अनंतभव व्यतीत हो गए अब तक, पर आज वर्तमान की स्थिति देखो तो आनंद से रीती हुई स्थिति है । और अब भी किसी परपदार्थ पर दृष्टि देकर आशा रखी जा रही है कि सुख मिलेगा । पर यह रहा अब तक रीता का ही रीता । ऐसे एक मानवजीवन में इस मनुष्य ने बालक अवस्था में बालकोचित कल्पनायें की, मैं इस समय रीता हूँ, मुझ कुछ अधिकार नहीं, देखो मेरे माता पिता कैसे समर्थ हैं ? ये हम पर हुकुम चलाते हें, हमें 10-5 पैसे भी मांगने पर बड़ी-बड़ी मुश्किल से मिलते हैं । अगर इनकी कृपा हो गयी तो दे दिया, न कृपा हुई तो न दिया । जब चाहे हमें डाट देते हैं । हम तो कुछ नहीं हैं, रीते हैं, ये तो खूब भरे-पूरे हैं, समर्थ हैं, हम भी कभी इनकी ही तरह भरे-पूरे हो जायेंगे तो हमें फिर कुछ काम न रहेगा । अभी तो हमारे न कुछ कब्जा है, न कोई अधिकार है, न स्वतंत्र हैं, जब ये माता पिता कपड़े बनवा देंगे तब ही हम पहिन पायेंगे, ये माता पिता तो जब चाहें अपने लिए जो चाहें चीज खरीद लेते हैं, ये तो पूरे समर्थ हैं, भरे-भरे हैं, मैं तो बिल्कुल रीता हूँ । बालक लोग यों समझते हैं । जब वे बालक कुछ बड़े होते हैं, विवाह हो गया, ये भी किसी के बाप बन गए, उस समय भी अपने को रीता अनुभव करते हैं । तब और प्रकार की कल्पनाएँ बन जाती हैं । वे सोचते हैं कि हम तो अभी बिल्कुल रीते हैं, हमारे पास इतना वैभव हो जाये, इतनी संतान हो जाये, अब हमारा घर शोर से गूंज उठे, और वैभव भी खूब घर में भर जाये, तब हम भरे-पूरे कहलाये । अभी तो हम रीते ही हैं । जब उस स्थिति में पहुँचते हैं । तो वहाँ भी अपने को रीता का रीता ही पाते हैं । यहाँ तक कि मरते समय तक वे अपने को रीता का रीता ही समझते हैं । तो जीवनभर इतनी खटपटे कीं, बड़ा श्रम किया, रात-दिन बेचैन रहे, अपना तन, मन, धन वचन सब कुछ लगा डाला, फिर भी सारी जिंदगी अपने को रीता का रीता ही पाते रहें, और मरते समय तो अपने को अत्यंत रीता ही अनुभव किया, तो क्यों यह मनुष्य रीता रहा यों कि इसने आश्रय किया परपदार्थों का । यदि यह अपने सहजपरमात्मतत्त्व का आश्रय लेता तो तुरंत ही भरा-पूरा और आनंदरूप अपने की अनुभवता ꠰ तो जिसकी दृष्टि का आश्रय लेने से निर्मल पर्याय का प्रवाह चल उठता हो, वह हूँ मैं शुद्ध चैतन्यस्वरूप सहजपरमात्मतत्त्व ।