वर्णीजी-प्रवचन:सहजपरमात्मतत्त्व - गाथा 9
From जैनकोष
सहजपरमात्मतत्त्व स्वस्मिन्ननुभवति निर्विकल्पं य: ।
सहजानंदसुबंद्यं स्वभावमनु पर्ययं याति ꠰꠰9꠰।
सहज परमात्मतत्त्व का अनुशीलन―सहज परमात्मतत्त्वाष्टक स्तोत्र के 8 छंदों में सहजपरमात्मतत्त्व क्या है, उसका थोड़ा निर्देश करते हुए यह ही हूँ मैं, इस प्रकार की भावना भरी गई है । अब इस स्तोत्र के अंत में यह बतलाते हैं कि इस प्रकार की भावना करने का फल क्या होता है? बुद्धिमान मनुष्य प्रयोजन के बिना किसी भी कार्य में उद्यम नहीं करते । मोहियों को जो अति कठिन लग रहा है ऐसा जो निज अंत: प्रकाशमान अज्ञानियों को अव्यक्त सहजपरमात्मतत्त्व के अनुभव करने का परिणाम क्या निकलता है कि मोही जीव तो घबड़ा सकते हैं कि इसमें अगर लग गए और दिमाग बदल गया तो ये घर के बच्चे वगैरह सब लोग छूट जायेंगे । मोही जन अपने जीते जो घर द्वार परिग्रह आदि कुछ भी नहीं छोड़ना चाहते । मरकर छूटेगा, इस पर उनका कोई वश नहीं चलता । इस पर तो उसका वश नहीं चलता पर इतनी धीरता उनमें नहीं हो पाती कि मैं अपने ज्ञान में और अनुभव में इन सब परिग्रहों से निराला केवल अपना स्वरूप तो तक सकूं । तो अनेक पुरुष घबड़ा सकते हैं कि आखिर इसका फल क्या होगा? तुरंत का खोटा फल वे यह समझते हैं कि हमारा समय बरबाद होगा । कुछ समझ भी नहीं बनती है । तो जिनके तत्त्व को सुननें का भी उत्साह नहीं है उनमें प्रवृत्ति कैसे बनेगी? और बने तो न जाने कहां भ्रमण होगा? कहां भटकेंगे ये घर के बच्चे, ये सब छूट जायेंगे, तो ऐसा सोचने वाले, व्यक्ति इस अमृतपान के पात्र नहीं हैं । किन्हीं विरले पुरुषों में ऐसी पात्रता आती है कि जानूं तो सही वह सहजपरमात्मतत्त्व कि वह क्या होता है और उसके अनुभव का फल क्या होता है? देखिये―जब तक अपने को इस तैयारी में न लाया जायेगा कि मुझे जगत के अन्य पदार्थों से कुछ प्रयोजन नहीं है, क्योंकि इनमें रहकर हमने कुछ नहीं पाया, बल्कि खोया ही है सब कुछ । जब प्रत्येक वस्तु स्वतंत्र है, अपने स्वरूप में ही है तो इस मानवजीवन में इन परवस्तुओं के संचय करने से आपके आत्मा में कोई वृद्धि हो जायेगी क्या? अरे परवस्तुओं के पीछे हैरान होने से तो पाप का बंध होगा, दुर्गति का पात्र होना पड़ेगा । जिनके पास कुछ बुद्धि है उनका प्रवेश इस धर्म में अर्थात् आत्मा के धर्म में, आत्मा के स्वरूप में होता है ।
सहजपरमात्वतत्त्व के ध्यान से कल्याणलाभ और विकल्पविपदाओं का विलय―सहजपरमात्मतत्त्व के संबंध में पुन: थोड़ा दृष्टिपात करें तो क्या-क्या बातें हमने उसके बारे में पायीं? एक तो यह कि उस धाम में उस तेज में लीन होकर अनेक आत्माओं ने मुक्ति प्राप्त की और अनेक आत्मा मुक्तिप्राप्त कर रहे हैं । यह सहजपरमात्मतत्त्व एक शुद्धस्वरूप है जिसका कि अवलोकन स्वभावदृष्टि द्वारा हो पाता है और स्वभाव प्रत्येक पदार्थ में एक स्वरूप है, वह कभी द्वितीय प्रकार का नहीं बनता उनमें परिणमन नहीं होता । सहजपरमात्मतत्त्व चूंकि आत्मा के उस भाव का नाम है जिस भाव में निरपेक्ष अस्तित्व देखा जा रहा है । किसी पर के संबंध से, किसी पर के आश्रय से जिसमें कोई बात नहीं देखी जा रही है अतएव वह तत्त्व सदा मलरहित है, पर्यायदृष्टि से निरखने पर मल जमा है जमा होने पर भी अंतरंग में वह सदा निर्मल है । यह सहजपरमात्मतत्त्व ही तो हमारे समस्त परिणमनों का मूलकारण बन रहा है । कोई है ना एक स्वभाव, जिसमें कि ये सब विकास विकारपरिणमन चल रहे हैं । यों समझिये कि हमारी सृष्टियों का मूल आधार यह सहजपरमात्मतत्त्व है । इसकी उपासना में ऐसी खासियत है कि उसके विकल्प विपदायें नियम से विलय को प्राप्त होंगे । कारण यह है कि विपदायें हम आप पर कुछ नहीं हैं पर मोह करने के ऊधम में तो दंड मिलेगा ही । जब मैं स्वतंत्र एक हूँ, केवल हूँ, अन्य से कुछ संबंध ही नहीं है तो ऐसा उपयोग बना ले कि सबसे निराला यह मैं शुद्ध चैतन्य प्रकाश हूँ । फिर कोई विपदा हो तो बताओ इस सहजपरमात्मतत्त्व की भावना में कोई विपदा नहीं आती ।
परविविक्त पूर्ण सहजपरमात्मतत्त्व―यह सहजपरमात्मतत्त्व समस्त परद्रव्यों से निराला है त्रिकाल, देह में इतना विकट यह फंसा है लेकिन वर्तमान में भी देह से संबंध नहीं । देह भिन्न है, बंधन होकर भी भिन्न है । जैसे रस्सी से गाय बंधी हो, बंधी होने पर भी रस्सी से गाय बिल्कुल भिन्न है, इसी तरह देह और कर्म का बंधन होनेपर भी यह आत्मा इनसे भिन्न है । इतना ही नहीं कर्मविपाकवश होने वाले राग द्वेषादिक विभावों से भी यह आत्मा सदा भिन्न है । यह मैं आत्मा सदा पूर्ण हूँ अधूरा नहीं हूँ । कहीं ऐसा नहीं है कि देखो अभी इस आत्मा का अधूरा निर्माण हुआ है, अभी इसका पूरा निर्माण नहीं हो पाया । जो भी पदार्थ सत᳭ है वह सदा परिपूर्ण होता है । और यह मैं आत्मा पूरा हूँ । इस आत्मा में जब भी जो परिणतियां बनती हैं वे उस समय पूरी ही पूरी रहती हैं । चाहे राग बने, चाहे द्वेष बने, चाहे शांति बने, जो भी परिणति जब आत्मा में बनेगी वह पूर्ण बनेगी, ऐसा नहीं है कि अभी यह पर्याय आधी बन पायी है, अभी कुछ और बननी है । तो यह आत्मा स्वभाव से भी पूरा है और इसमें प्रतिसमय जो पर्याय प्रकट होती है वह पूरी-पूरी प्रकट होती है । वह पूरी पर्याय अगले समय में रहती नहीं, तो उस पूर्ण का विनाश होकर उनका विलय होकर भी यह आत्मा पूरा का ही पूरा रहता है और अनंत पूर्ण इसमें से निकल गए और अनंत पूर्ण इसमें आये हैं और यों ही अनंत पूर्ण इसमें से निकल जायेंगे, आते जायेंगे, और यह पूरा का ही पूरा रहता है ।
सनातन अखंड निर्विकल्प सहजपरमात्मतत्त्व―यह आत्मा सहजपरमात्मस्वरूप सनातन है ꠰ यह किसी दिन से आया हो, ऐसी बात नहीं है । इसका कभी विलय भी नहीं होता, सदा अखंड है । जैसे पुद᳭गल स्कंधों के खंड हो जाते हैं । यह बेंच है इसके टुकड़े-टुकड़े हो जायेंगे, इस तरह से इस सहजपरमात्मतत्त्व की भावना से लाभ क्या होता है, इस विषय का अंत में वर्णन कर रहे हैं । जिस सहजपरमात्मतत्त्व का निरूपण किया जा रहा है उसका निरूपण यों कठिन लग रहा कि निरूपण के साधन हैं हमारे पास प्रमाण, नय और निक्षेप, पर इन साधनों के द्वारा हम जो कुछ भी समझ पाते हैं वह खंड-खंड रूप समझ पाते हैं, विकल्पों के रूप से समझ पाते हैं, निर्विकल्प अनुभव द्वारा गम्य सहजपरमात्मतत्त्व को इन साधनों से नहीं पाया जा सकता । यह तो एक अपने अनुभव की बात है । इसे अगर बहुत जल्दी सीधे ही कुछ उपायों से दर्शन करते हैं तो एक ज्योतिस्वरूप या ज्ञानज्योति प्रकाशमात्र हूँ । ममता की तरंग न आना चाहिए तब ज्योतिस्वरूप की भावना करते हुए में, आप उससे अनुभव में पहुँच जायेंगे । जब तक अपने को अकर्ता न मान लिया जायेगा तब तक इस ज्योतिस्वरूप की भावना नहीं बनती । मैं ऐसा करता हूँ, ऐसा कर दूंगा इस प्रकार अहंकार के भाव में रहकर, कर्तृत्व के भाव में रहकर हम इस शुद्ध निराकुल सहजपरमात्मतत्त्व का अनुभव करना चाहें तो असंभव बात है ।
ज्योतिस्वरूप सहजपरमात्मतत्त्व―इस सहजपरमात्मतत्त्व का घर ही एक चैतन्यमात्र है ना, और उस घर में जाने का उपाय भी चैतन्यमात्र है और उस घर में जाकर विश्राम करने का भी ढंग चैतन्यमात्र है । इस घर में पहुँचने का रास्ता भी चैतन्यमात्र है, और पहुंचने वाला भी यह चैतन्यमात्र होकर पहुंच पाता है तो हमारे कल्याण के बीच अन्य वस्तु और अन्य भाव कितना विघ्नरूप हैं सो अंदाज कर लीजिए । यह तो निरंतर अपने प्रकाशस्वरूप है, किंतु इच्छा अंधकाररूप है, ज्ञानप्रकाशरूप है । इच्छा अंधकार को लपेटे हुए हम उस प्रकाश को जानना चाहें तो कैसे जान सकेंगे । जैसे लोक व्यवहार में अंधेरे और प्रकाश में विरोध है, जहाँ अंधेरा है वहाँ प्रकाश नहीं और जहाँ प्रकाश है वहाँ अंधेरा नहीं । इसी तरह इस इच्छा और ज्ञानानुभव में विरोध है । जहाँ इच्छा अंधकार है वहाँ कहाँ ज्ञानप्रकाश आ सकता है और जहाँ ज्ञानप्रकाश वर्त रहा है वहाँ इच्छा अंधेरा कहाँ ठहर सकता है? तो सतत प्रकाशस्वरूप निज सहजपरमात्मतत्त्व को पाने के लिए हमें प्रकाशमयी वृत्ति से ही चलना होगा । इच्छा रखकर चलने से उसकी प्राप्ति न होगी ।
विशेषणों से सहजपरमात्मतत्त्व का परिचय और उपलंभ―इस सहजपरमात्मतत्त्व को लोगों ने अद्वैत, ब्रह्म, ईश्वर, विष्णु, समय, चित्, पारिणामिक, परात्पर आदिक अनेक विशेषणों से ध्यान किया है । ये सब विशेषण बताये तो जाते हैं पर विशेषणों का प्रयोजन विशेष्य का परिचय कराना मात्र है, इसके आगे विशेषणों का प्रयोजन नहीं रहता । जैसे किसीने कहा कि वह पीली पुस्तक लावो, तो यह है वह पीली पुस्तक जिसको लाने के लिए कहा, इतना तक तो उस पीले विशेषण को समझने का गुण है, पर इतना समझ चुकने के बाद फिर पीली पर कौन निगाह रखता है? पुस्तक ली और उठा लाये, ऐसे ही आत्मा के जितने विशेषण हैं उनका आत्मा का परिचय कराने तक ही गुण हैं । आत्मा का परिचय पाने के बाद फिर उन विशेषण का क्या गुण? बल्कि विघ्न हैं । विघ्न यों हैं कि उन विशेषणों पर दृष्टि रखने से तो विकल्प होते हैं । तो इन विशेषणों से यह सहजपरमात्मतत्त्व वाच्य है, इस सहजपरमात्मतत्त्व का दर्शन अनुभव आश्रय करने से इस ही के अनुरूप पर्याय प्रकट हुआ करती है । यह फल यहाँ बताया जा रहा है ।
स्वविकासभूमिरूप सहजपरमात्मतत्त्व―भले ही ये नाना रूप विदित हो रहें हों सहजपरमात्मतत्त्व के व्यक्तरूप, पर इसका जो अंत: स्वरूप है वह निर्विकल्प है, अखंड है, नानारूपता इस भगवान में नही विदित होती है । यह भगवान आत्मदेव तो वह धाम है जहाँ पर अनंत ज्ञान, दर्शन, सुख, शक्ति, वीर्य आदिक अनेक उत्तम विलास विकास हुआ करते हैं । यहाँ और कुछ बड़ी बात नहीं कहीं जा रही, मैं अपने आप बिना किसी दूसरे के संबंध के जैसा हूँ ऐसा समझ लेना सिर्फ इतनी बात कही जा रही है और कुछ न जानना चाहें तो कुछ अटक ज्यादह नहीं, मैं अकेला अपने आप कैसा हूँ, उस ही की यह चर्चा हैं । और अपनी ही बात अपने को कठिन विदित हो यह, तो समझिये कि रुचि वही हैं अथवा वहीं मोह का ऊधम इस दिल पर निरंतर सवार रहता है इस कारण सही ज्ञान करने में दिक्कत होती है, लेकिन दिक्कत का क्या काम? जब इतने बड़े-बड़े ज्ञान बनते चले जा रहे हैं कि जिसमें बड़ी-बड़ी समस्यायें हल करते, बड़ी वकालत बताते, बड़ी योजनायें बना लेते, बड़े व्यापार कर लेते, यों अनेक तरह के जिस ज्ञान से काम किये जा रहे हैं उस ज्ञान में क्या इतनी सामर्थ्य नहीं है कि अपने आपकी ही बात अपने आपकी ही समझ में आ जाये, पर रुचि न हो तो जरा भी समझ में नहीं आ सकती । रुचि जगाने के लिये यहनिर्णय तो कम से कम रखें कि आज जो भी समागम प्राप्त हैं वे सब मिट जाने वाले हैं, उनके पीछे हैरान होकर कुछ भी पूरा न पड़ेगा इतनी भी बात अगर चित्त में न बैठे तो इतनी पात्रता आ ही नहीं सकती ।
निरावरण निरंजन सहजपरमात्मतत्त्व―यह सहजपरमात्मतत्त्व सदा निरावरण हैं पर वह अंतः निरावरण है । जैसे―कहा जाये कि यहाँ जितने मनुष्य बैठे हैं वे सब नंगे हैं, तो यह बात ठीक है कि नहीं? कोई धोती पहिने है, कोई पैन्ट, कोई अन्य कुछ, पर ये तो बाह्य आवरण हैं । इन बाह्य आवरणों के कारण वह नग्नता दिखती नहीं है, पर स्वरूप में देखो तो सभी लोग निरंतर नग्न हैं । यों ही अपने आत्मा के स्वरूप में देखो―यह निरंतर निरावरण है । यह स्वभावदृष्टि की बात कही जा रही है । जिस दृष्टि की बात है, उस दृष्टि में ही उसकी परख होती है । और उसी दृष्टि में यह निरंजन है । तब मिलता क्या है? बस एकमात्र चित्त्व जिसमें गुण पर्याय का भेद नहीं है । ऐसा दृष्टि में परखा गया यह सहजपरमात्मतत्त्व मैं हूँ । योगीजन इसी का निरंतर जंगल में ध्यान करते रहते हैं । कभी बोलते हैं, तो इस ही को बोलते हैं, अन्य कुछ नहीं । मरते समय भी इसी सहजपरमात्मतत्त्व पर उनकी आस्था रहती है । इसके दर्शन से इस प्रभु को संकटों से मुक्ति का उपाय प्राप्त होता है ।
सहजपरमात्मतत्त्व के अनुभव का फल―इस सहजपरमात्मतत्त्व का जो निर्विकल्प होकर अपने आपमें अनुभव करता है, परमविश्राम से जो अपने पूर्ण नग्न स्वरूप को निरखता है, जिसमें देह कर्मादिक का आवरण नहीं, रागादिक विकारों का आवरण नहीं, ऐसे उस नग्नस्वरूप को जो निरखता है, वह पुरुष ऐसी अवस्था को प्राप्त होता है, जो ठीक स्वभाव के पूर्ण अनुरूप हो । वह पर्याय सहज आनंद के द्वारा अभेदरूप से ही वंदनीय है । हम उस विशुद्ध परमात्मतत्त्व की कैसे पूर्ण रूप से विनय कर लें? कैसे उसका हम उत्कृष्ट वंदन कर लें । उसका साधन है सहज आनंद का परिणमन । उस आनंद वृत्ति के द्वारा ही यह सहजपरमात्मतत्त्व वास्तविक मायने में वंदित हुआ करता है । ऐसे सहज आनंद के द्वारा सुवंद्य सहजपरम परमात्मतत्त्व का जो निर्विकल्प होकर अपने में अनुभव करता है, वह स्वभाव के अनुरूप पूर्ण विशुद्ध पर्याय को प्राप्त होता है अर्थात् सदा काल के लिये समस्त संकटो से छूटकर अनंत आनंद का भोक्ता होता है ।
स्व में ही सहजपरमात्मतत्त्व के यथार्थ अनुभवन की शक्यता―इस सहजपरमात्मतत्त्व का अनुभव स्व में ही करना होता है । कोई पुरुष किसी अन्य आत्मा का आश्रय करके भी सहजपरमात्मतत्त्व का अनुभव करे, तो वहाँ जब तक अन्य आत्मा के आश्रयत्व जैसा ज्ञान रहेगा तब तक सहजपरमात्मतत्त्व का दर्शन नहीं होता । और कदाचित् अन्य आत्मा में सहजपरमात्मतत्त्व की निरख करते-करते अन्य व्यक्ति का संबंध ज्ञान में न रहकर केवल सहजपरमात्मतत्त्व का अनुभव रहे । यों अन्य व्यक्ति आश्रय न रहने के कारण वह सहजपरमात्मतत्त्व का अनुभव स्व के आश्रय में आ जाता है और वह स्व में ही अनुभूत होता है । कोई समर्थ पुरुष सीधे ही पहिले स्व के आश्रय में सहजपरमात्मतत्त्व का दर्शन करते हैं । यह अनुभवन निर्विकल्परूप से हुआ करता है । यदि भेद, आश्रय, विशेषता आदि का कुछ भी विकल्प उठ रहा हो तो उस स्थिति में सहजपरमात्मतत्त्व का अनुभव नहीं हो सकता । अत: सहजपरमात्मतत्त्व को निर्विकल्प भाव से अपने आपमें अनुभवने की बात कही है कि जो पुरुष अपने में सहजपरमात्मतत्त्व को निर्विकल्प अनुभवता है, वह स्वभावानुरूप विकास को प्राप्त होता है ।
सहजपरमात्मतत्त्व की एवं सहजपरमात्मतत्त्वानुरूप शुद्ध दशा की सहजानंदसुवंद्यता―सहजपरमात्मतत्त्व ही मूलत: आत्मोद्धार का कारण है ꠰ इस कारण यह परम वंदनीय है, किंतु इसकी वास्तविक वंदना किसी क्रिया से नहीं की जाती । इसकी वंदना भाव से होती है और वह भाव भी उस प्रकार की भाव परिणतिरूप हो सहजपरमात्मतत्त्व की अभेद भाववंदना परमार्थत: सहज आनंदभाव परिणमन से होती है । जो पुरुष अपने आपमें अपने सहज स्वरूप को निर्विकल्प अनुभवता है, तब उसके सहज आनंद जगता है । उस सहज आनंद के परिणमन में सहजपरमात्मतत्त्व एकरस होकर अनुभूत होता है । इस ही अभेद सहज आनंदभावपरिणमन से ही परमार्थतया सहजपरमात्मतत्त्व की जो अभेद उपासना है, उसी को परमार्थवंदन कहते हैं । यह सहजपरमात्मतत्त्व सहज आनंद से परमार्थतया वंदनीय है, ऐसे सहजानंदसुवंद्य सहजपरमात्मतत्त्व को जो अपने में निर्विकल्प अनुभवता है, वह सहजानंतचतुष्टयात्मक स्वभाव के अनुरूप विकास को, जो अनंत ज्ञान अनंतदर्शन, अनंत आनंद अनंत शक्ति स्वरूप है, प्राप्त करता है । यह व्यक्त अनंत चतुष्टयात्मक कार्य परमात्मतत्त्व भी सहज आनंद के परिणमन से वंदनीय हैं । निष्कर्ष यह हुआ कि जो आत्मा अपने आपमें सहजानंदसुवंद्य सहजपरमात्मतत्त्व को निर्विकल्प अनुभवता है, वह आत्मस्वभाव के अनुरूप सहजानंदसुवंद्य शुद्ध पर्याय को प्राप्त करता है ।