वर्णीजी-प्रवचन:सहजपरमात्मतत्त्व - गाथा 8
From जैनकोष
ध्यायंति योगकुशला निगदंति यद्धि, यद᳭ध्यानमुत्तमतया गदित: समाधि: ।
यद्दर्शनात्प्रभवति प्रभुमोक्षमार्ग: शुद्धं चिदस्मि सहजं परमात्मतत्त्वम् ।।8।।
योगिमुद्रा में सहजपरमात्मतत्त्व का संकेत―मैं वास्तविक क्या है इसको समझने के लिए अपने आपमें ही विश्राम करके अनुभव द्वारा समझा जाता है और फिर इसे कहीं बाहर में भी परखना हो तो इस प्रकार की परिणति में जो महापुरुष चल रहे हैं उनके व्यवहार से, उनकी मुद्रा आदिक से हम कुछ परख सकते हैं, अच्छा तो ऐसी ही परख करने के लिए चलो । जो पुरुष समस्त जगतके पदार्थों से उपेक्षा करके अपने आपके इस सहज परमात्मतत्त्व के ही अनुरागी हुए हैं उनको अब लौकिक वैभव से क्या प्रयोजन रहेगा तो जिन्होंने इस लौकिकवैभव का त्याग किया, इस परिग्रह से जिन्होंने अपने आपको अलग कर लिया हो ऐसे ही पुरुषों में मिल सकेगा वह सहजपरमात्मतत्त्व का दिग्दर्शन जिस रूप में है वह सहज । तो अब दुनिया के लोगों में दृष्टि न रखकर अलौकिक पुरुषों के पास चलो । चलिये, पहुँचे जंगल में, एकांत बन में ध्यान में रहने वाले योगी के दर्शन हुए, दर्शन करते ही लगता है ऐसा कि यह कुछ गहरे ध्यान में हैं तब ही तो इन्हें बाहर का कुछ भान नहीं, कितने पशु पक्षी, मनुष्य यत्र-तत्र विचर रहे, पर ये उन्हें पलक उठाकर देखते भी नहीं । ये अपने आपमें कुछ गहरा चिंतन कर रहे हैं । उनकी इस शांतमुद्रा को निरखते ही अनुमान बन गया कि ये निहार रहे हैं अपने आपमें इस कारणभूत तत्त्व को, जिसका आश्रय करने से संसार के संकट समाप्त हो जाते हैं । ये पुरुष योगकुशल हैं, अपनी योगसाधना में बड़े निपुण हैं ।
योगाभ्यास का प्रारंभ―योगीजन अपना योगकौशल्य पाने के लिए प्रारंभ ही बहुत अभ्यास में रहा करते हैं तत्त्व की बात दृष्टि में आयी है अथवा नहीं, धुन उनकी यह बनी थी कि मुझे कुछ इस संसार से विलक्षण अलौकिक बात के दर्शन करना । इन सांसारिक समागमों में तो मुझे कुछ नहीं प्रतिभास हुआ, न हो सकेगा, यों कि अब तक के ही ये समस्त प्रमाण इसको साबित करते हैं कि यहाँ अब कुछ पा न सकेंगे । तो इससे तो आशा रही नहीं । अब अलौकिक तत्त्व के दर्शन कर लें । योगियों की संगति में रहकर योगाभ्यास करना, आसन दृढ़ करके बैठना, किसी एक बिंदु पर दृष्टि जमाकर स्थिर रखना और उस बिंदु को अपनी दृष्टि के द्वार से पीकर अंदर ही निरखते रहना आदिक अभ्यासों से अपने योग की कुशलता बढ़ायी है । इसके सदृश यदि इस तरह के दर्शन लिए जाये, समय में आकर प्रभु के बिल्कुल समक्ष बैठकर प्रभुवत् दृढ़ आसन जमाकर शरीर को जरा भी बिना हिलाये डुलाये, वचनों से कुछ भी बोले बिना एक दृष्टि प्रतिबिंब को निहारा जाये, बहुत देर तक निहारकर जब मानो ये आंख थक गई हों तब प्रभुमूर्ति तो छोड़ें मत, अपने आपके भाव में इन पलकों से प्रभु को पकड़कर उस मूर्ति को अपने मानसिक भावों में पकड़कर और वहाँ से उस मूर्ति को उठाकर पलकों द्वारा (हाथ द्वारा नहीं) उठाकर ले आये और सामने के द्वार से इस नेत्रद्वार से समस्त समक्षद्वार से अपने अंदर ले आइये । अभी आप ले आये हैं, तो आपका मुख तो है मान लो पश्चिम में तो अभी प्रभु का मुख है पूर्व में तो अब उस प्रभुमूर्ति को धीरे से नेत्रों में इन भावों में ही निरखकर प्रभु का मुख बदल दिया जाये, जैसा स्वयं पश्चिम को मुख किए बैठे हैं तो सही स्थिति में उस प्रभुमूर्ति को भी अपने अंदर पश्चिम को ही मुख करके जितने शरीर में तू है उतनी ही जगह में उस मूर्ति को बैठाल ले और इस भाव से तृप्त रहे, इन आंखों को पूरा विश्राम दे (क्योंकि आंखें जिनको देख रही थीं न को यहाँ ही अपने में सर्वांग में बैठाल लिया है) और खूब उपासना करें । खूब अभेदरूप से अनुभव करें अब जिसे तू निरख रहा था उसे अपने में ही समा लिया है निरख लिया । जब ऐसा करते हुए थक जाये तो अब बड़े विनयपूर्वक धीरे से उन्हीं नेत्र पलकों से प्रभु का मुख पलटकर पूर्ण विमुख करके इन्हीं नेत्र पलकों को धीरे ले जाकर जहाँ से उठाया था उसी सिंहासन पर उपस्थित कर दें, आंखें खोलते ही सिंहासन पर वह प्रभुमूर्ति दिखी । इस तरह से, बड़े वेग से वहाँ विराजमान कर इसका अभ्यास करें । इस अभ्यास में चित्त की स्थिरता और उस प्रभुस्वरूप में ही अपने उपयोग का निवास ये सब ऐसा सहयोग प्रदान करेंगे कि आपके ध्यान में विशुद्धि बढ़ेगी ।
योगाभ्यास की धुन―योग के अभ्यासी इन योगियों को, चाहे पहिले यह तत्त्व पाया हो अथवा न पाया हो, किंतु उसकी ओर समझ हुई और उसको परख लेने की एक तीव्र भावना हुई तो बाह्य के असार पदार्थों को त्यागकर वह इसके लिए ही आग्रह करके रह गया । इस ही में अब अपनी धुन बनाये हुए है । कभी प्राणायाम का अभ्यास करता है, श्वासोच्छवास को एक पूरक श्वास से लेकर अपने में कुंभकरूप से स्थिर कर देता है और देखो उसका अपने आपके शरीर पर भी वश चला या नहीं? इतना निकट रहने वाला शरीर जिसका कि मैं एक स्वामी बन रहा हूं? इस पर ही मेरा वश नहीं चल रहा है, न चलेगा, फिरभी जितना इससे निमित्तनैमित्तिक संबंध है उस संबंध से कुछ भी तो उस पद्धति में शरीर में किया जा सकता तो वह अपने में श्वास के ही द्वारा ये सब क्रियायें कर रहा है । श्वास को हृदय में रोका, उसे उठाकर पैरों तक ले जायें, यह सब हो जाये कल्पना से, पर कल्पना में भी इतनी सामर्थ्य है कि बाहर में भी उसके अनुकूल निमित्तनैमित्तिक भावों से ही सही परिणति बन जाती है ।
साधकों की साधना का केंद्र―जो बड़े साधक पुरुष होते हैं उनकी यह इच्छा हुई कि यह मोटर जा रही है, इसका पहिया हमें तोड़ देना चाहिए । तो वह साधक वहाँ से उठकर कहीं बाहर नहीं जाता है, कहीं कुछ क्रिया नहीं करता है । एक अपने आपमें ही वह कुछ कल्पनायें करता है और उधर वह मोटर का चका टूट जाता है । अथवा विष उतारने वाला मंत्रवादी कहीं बाहर में कुछ क्रिया नहीं कर रहा, वह तो अपने आपमें ही कुछ कल्पनायें बनाता है, पर अपने आपमें पर को ऐसा आश्रय बना रखा हैं कि दूर ही दूर रहकर उस मूर्छित पड़े हुए व्यक्ति का विष उतर जाता है । तो मंत्रवादी दूर से ही मंत्र पड़ता जाता है और उस मूर्छित पड़े हुए व्यक्ति का विष उतरता जाता है तो वहाँ मंत्रवादी की सारी बात उसकी उसमें है और बाहर में जिस पदार्थ में जो क्रिया हुई वह उस पदार्थ में है पर ऐसा निमित्तनैमित्तिक संबंध है कि बाहर में वह कार्य हो जाता है । तो योगसाधना में भी जहाँ कल्पनाओं से, मानसिक भवों से जैसा जो कुछ स्थिरता में लाया जाये । उस स्थिरता का तत्काल इतना तो प्रभाव पड़ता है कि उनका चित्त, उनका शरीर उनके वश हो जाता है । चित्त और शरीर वश में हो तब आगे ही मंजिल पार करना आसान हो जाता है । जिस पुरुष का चित्त और देह इंद्रिय वश में नहीं हैं वह धर्म के मार्ग में आगे अपना कदम न रख सकेगा ।
योगकुशलों के आनंद का दिग्दर्शन―ऐसे योगाभ्यास में कुशल पुरुष देखो जंगल में बैठे अकेले क्या कर रहे हैं? ये दुःखी भी नजर नहीं आते । इनके मुख पर ऐसी प्रसन्नता की मुस्कान दिख रही है कि जैसी मुस्कान हमने किसी के चेहरे पर नहीं देखी । लोग जब खुश होते हैं, तो उनका मुंह बहुत बड़ा फैल जाता है, इनको मंद मुस्कान, इनकी स्वाभाविक मुस्कान हमने अन्य में नहीं देखी । ये पाये हुए विशुद्ध आनंद को बड़ी सावधानी से धीरे-धीरे अनुभव करते रहते हैं । उसके प्रताप से उनके चेहरे पर इतनी मंद मुस्कान नजर आ रही है । ये योग किसका ध्यान कर रहे हैं? जिसका ध्यान कर रहे हैं, वह ही तो मैं शुद्धचिद्रूप सहजपरमात्मतत्त्व हूँ । जंगल में ऐसे-ऐसे बड़े राजा महाराजा जो कि विरक्त होकर रह रहे हैं, उन्होंने ध्यान किसका लगाया है? जो साधन थे, जो राजपाट थे, अनेक नौकर जिनकी हजूरी में रहा करते थे, 32 हजार मुकुट बद्ध राजा भी जिनको नमस्कार करते थे, ऐसे बहुत बड़े साम्राज्य के भोक्ता जंगल में कैसे रह सकेंगे? यदि उससे कम आनंद होता तो वे जंगले में न ठहरते, आ जाते घर । लोग तो खुशियाँ मनाते । आखिर जगत मोही ही तो है । घर के लोग, सेवक लोग, कोई इस आलोचना में न रहते कि देखो इस घर से अलग होकर ये साधु हो गए थे । अब जंगल छोड़कर घर आ गए । लोग तो खुशी मनाते । पर ऐसा होता नहीं । किसी कथा में, किसी पुराण में ऐसा बांचने को मिला नहीं । बड़े-बड़े महापुरुष महाराजा चक्रवर्ती जब सब कुछ त्यागकर जंगल में गए तो मालूम होता है कि उनको इन 6 खंड के वैभव से भी और विलक्षण उत्कृष्ट विभूति प्राप्त हुई है, जिसमें वे आनंदमग्न रहा करते हैं और उनको जंगल में जरा भी ऊब नहीं आती है । और अधिकाधिक इस बात के लिए लालायित रहते हैं कि मुझको अत्यंत एकांत ही प्राप्त रहे । कहां नेह रहे, क्या करना, किससे बोलना? इस बात से वे अत्यंत आलसी हो गए ।
ध्याता पुरुषों के ध्यानाश्रय के ध्यान का स्वयं पर प्रभाव―तो वे योगकुशल पुरुष वन में क्या ध्यान कर रहे हैं? इस बात पर जब थोड़ी बहुत दृष्टि देते हैं, तो चूंकि ऐसा समझने वाला, दिखने वाला यह खुद चेतन है ना, तो जब जोर देते हैं, बाहर में भी किसी ज्ञान की समझ के लिए तो वह जोर बाहर नहीं रहता, अपने ही अंदर आ पड़ता है । यह ज्ञान की महिमा की खूबी है । जैसे किसी पुरुष को किसी श्लोक का अर्थ ठीक समझ में नहीं आ रहा है, तो वह उस श्लोक पर जोर देता है, उस पुस्तक पर जोर देता है और उसके बाद फिर वह अपने मस्तक पर जोर देता है । कभी हाथ से मस्तक को भी मसलता, कभी आँखें मसलता । इन जोर के बीच उसका जोर इस पर नहीं रहता, उसका फिर अपने आपमें जोर आता है और उस अपने आपमें आये हुए जोर के कारण ज्ञानप्रकाश पाता है, उसकी समस्या सुलझा लेता है और प्रसन्न होता है । तो यों ही समझिये कि यदि कोई हिताभिलाषी पुरुष उन योगियों की बात सुनने समझने में जोर देते हैं, तो उनका वह जोर अपने आपमें करता हुआ बन जाता है । तब इस द्रष्टा को स्पष्ट समझ में आ जाता है कि ये जंगल में रहने वाले योगकुशल साधु महाराज क्या ध्यान कर रहे है? ओह ! यही तो मैं हूँ । जिसका ध्यान ये योगी कर रहै हैं । वह सहजपरमात्मतत्त्व ही तो मैं हूँ ।
मरण से पहिले परिग्रह के लगाव का त्याग कर देने के परिणाम में कल्याणलाभ―भैया ! सबका विकल्प त्यागा, सारे झंझट मिटे । मरने पर भी छूटेगा न सब । तो इस जीवन में अगर छूटा हुआ-सा मान लें और उनसे एकदम अपना उपयोग हटा लें तो कुछ पा भी लेंगे । और ऐसा नहीं करते, तो जिंदगी भर श्रम भी करेंगे, नुक्सान भी उठावेंगे, पाप बंध करके दुर्गति में जायेंगे । यों सारी हानि ही हानि है । जब कुछ ही दिन बाद जिसका कि कुछ निश्चय भी नहीं है, यह स्थिति आने को है कि सब कुछ छूट जाना है । अपने पड़ौस में, अपने घर में सभी जगह देख लो, बहुत से लोगों के शहीद दिवस भी मनाये जाते हैं । अच्छा अब अपने हित के लिए आप भी शहीद दिवस और अशहीद दिवस भी मनाइये । जो धर्म के खातिर आत्मकल्याण के लिए सब कुछ त्यागकर, बड़े-बड़े उपसर्ग सहकर मरण को प्राप्त हुए, निर्वाण को प्राप्त हुए उन शहीदों का स्मरण कर लीजिये । उससे भी लाभ मिलेगा और जो शहीद नहीं हुए, घर में ही रहकर उसी मोह ममता में मरे हैं, उनका भी ध्यान कर लीजिये । उनका ध्यान भी आपकी धर्मसाधना में कारण बनेगा । यदि साधु संतों का स्मरण आपके धर्मध्यान में सहयोगी बन रहा है, तो उन मोहियों का मरण भी उसका ध्यान भी आपकी धर्मसाधना में कारण बनेगा । कर लीजिए, उन पड़ोसियों का ध्यान कर लीजिए घर के लोगों का ध्यान, जिन्होंने, अपने जीवन भर केवल मोहममता किया, उस मोहममता के बीच में ही किसी कठिन परिश्रम के कारण बीमार हो गए और मरण को प्राप्त हो गए, उनका भी ध्यान कर लीजिए । कहाँ गए वे, क्या उन्होंने पाया? अब क्या है, उनका यहाँ? तो जब ऐसी स्थिति हम आपकी आनी है कि ये सब कुछ छोड़कर जाना होगा, सब छूट जायेगा । छूट गये, तो फिर कौन किसका लड़का, कौन किसका पिता, कौन किसका क्या? एक थोड़े से जीवन समागम में अटपट नाना ममता के विचार बनाकर किया क्या जा रहा है? ये व्यर्थ दिन खोये जा रहे हैं । ये विवेकरहित दिन व्यतीत किये जा रहे हैं । इससे पार न पायेंगे । अब तो अपना चित्त बदल लीजिये ।
सहजपरमात्मतत्त्व के दर्शन की पात्रता―लोग कहते हैं कि जो धन की कमाई न्याय से करते हैं अन्याय नहीं करते, चोरी नहीं करते, झूठ नहीं बोलते, यथाशक्ति अपना न्याय बनाये हुए हैं व्यापार में, रोजिगार में, वे बड़े बेवकूफ हैं । जमाना तो कहता है कि चोरी करो, ब्लेक करो, ग्राहकों को धोखा दो, मिलावट करो, बस लाभ ही लाभ है, और इन्हें देखो―व्यय की धुन में कैसे पड़े हुए हैं? ऐसी आलोचना करने वालों को यह पता नहीं है कि उनका जीवन इतना स्वच्छ है कि वे आगे सहजपरमात्मतत्त्व के दर्शन का लाभ ले सकते हैं । हां, यदि उन्हें केवल एक लोक प्रशंसा के लिए या सरकारी कुछ झंझटों से बचने के लिए उतनी हिम्मत नहीं, सामर्थ्य नहीं है, सो अपने को रोक रखा है, धर्म का उद्देश्य नहीं है, इस सहजपरमात्म प्रभु के दर्शन को, आत्मानुभव का, आनंद पाने का उद्देश्य नहीं है तो थोड़ासा उन्हें बेवकूफ कहा भी जा सकता कि न यहाँ के रहे, न अपने आत्मा के रहे, लेकिन उनका यह बड़ा पवित्र काम है जो चाहे थोड़ी गरीबी सह ले, मगर अन्याय से न चलें । उनमें वह पात्रता है कि अपने आपके अंतःप्रकाशमान इस सहजपरमात्मतत्त्व का दर्शन कर सकते हैं और ऐसा अलौकिक वैभव पा सकते हैं कि जिसके सामने तीन लोक का वैभव भी क्या चीज है, जीर्ण तृणवत् है । देखो ना, छह खंड की विभूति को त्यागकर ये योगिराज इस निर्जन वन में किसका ध्यान कर रहे हैं और प्रसन्न रहते हैं । इतनी प्रसन्नता पा रहे हैं कि जो प्रसन्नता राजपाट वैभव के बीच रहकर भी न प्राप्त की थी । तो ये योगकुशल पुरुष जिस अलौकिक तत्त्व का ध्यान कर रहे हैं उस अलौकिक तत्त्वरूप मैं हूँ, उनको निरखकर अपने आपकी सुध कर रहे ये ज्ञानी कि में शुद्ध चिन्मात्र सहजपरमात्मतत्त्व हूँ । इस सहजस्वभाव का निरंतर चिंतन रहे, इसकी ओर दृष्टि रहे तो इसे में आत्मा का पोषण हो रहा है और आत्मगुणों का वृंहण हो रहा है । तो ये योगकुशल जिस तत्त्व का ध्यान कर रहे हैं वही तो मैं हूँ । यों अपने आपमें शुद्धचित्प्रकाशमात्र स्वरूप अपने आपको निरखना, यह कल्याण का अमोघ उपाय है ।
योगियों के मनोगुप्ति की प्रमुख साधना―लौकिक बड़े-बड़े वैभवों को छोड़कर, समस्त परिग्रहों को त्यागकर निर्जन वन में रहने वाले योगीश्वर अधिकतर मनोगुप्ति, वचनगुप्ति और कायगुप्ति पूर्वक अपना समय व्यतीत करते हैं किसे सोचा जाये जगत में कौन सा पदार्थ मेरा हितकारी है । कुछ भी तो नहीं है ऐसा रंचमात्र भी तो संबंध नहीं है । अपने-अपने स्वरूप चतुष्टय से ही प्रत्येक पदार्थ अपना अस्तित्व रखते हैं तो संबंध क्या? वे अन्य जीव भी मेरे से भिन्न हैं जो जीवों में भी परमार्थ जीव हैं और परमार्थ जीव से व्यवहार ही क्या बनता है, रहे मायामय जीव सो वे मायामय हैं, खुद दु:खी हैं, खुद जन्ममरण के फेर में पड़े हैं और मित्र भी हैं, वे मेरा कुछ करने में क्या समर्थ हैं वे स्वयं अशरण और दयनीय हैं । उनको भी विचारकर मैं क्या करूं, वे यदि अपने आपमें अंत: प्रकाशमान सहजपरमात्मतत्त्व का दर्शन करें तो उनकी यह बात उनके लिए उनमें बनेगी उसने भी मेरा कुछ नहीं है तब किसका चिंतन किया जाये कौन पदार्थ ऐसा है जो मेरे लिए शरण हो, सार हो, हितरूप हो, जिसको दिल में बसायें । देख लिया सब कुछ । बड़े साम्राज्य में रहकर परख तो लिया । जैसे ईंधन से अग्नि तृप्त नहीं होती, जितना ही ईंधन अग्नि में डालते जाये उतना ही आग भरी पूरी बनेगी और फिर रीती होकर फिर मांग करेगी इसी प्रकार धन वैभव भोग विषय इनके समागम से, संविधान से इस उपयोग की कभी तृप्ति न होगी । इसकी तृष्णा में वासना की तृप्ति न होगी देख लिया सब साम्राज्यों में रहकर, सब असार हैं किसका चिंतन करे ऐसे विवेक के कारण वे योगीजन मनोगुप्ति में ठहरते हैं । कभी मन में विचार आया, इतनी देर गुप्ति में न ठहरते बने तो विचार मनोगुप्ति बनाई जा सकने की पात्रता के बनेंगे ।
वचनगुप्ति का प्रमुख विधान―जगत में किससे बोलूं, जिससे बोलकर समझूं कि अब मैं कृतार्थ हो गया । कोई भी जीव ऐसा नहीं कि जिससे व्यवहार रखकर मैं कृतार्थ हो सकूं, किससे बोलूं । मोह में जो चीज सुंदर जंचा करती है, चीज स्वयं सुंदर कुछ नहीं है जब आप किसी ज्ञान के मूड में हों उस समय उस चीज को निरखें तो यह बात भली प्रकार समझ में आयेगी कि वस्तु कोई सुंदर नहीं है मोह के उदय में जीव को अन्य चीजें सुंदर जंचती हैं, किसी भी जीव का उदाहरण ले लो आप स्वयं देख लें कितनी तरह के जीव हैं पशुवों में गधा, सूकर, ऊंट, घोड़ा, हाथी आदिक, ये सब आपको इस तरह से सुंदर जँचते हैं क्या जिस तरह से आपके घर के स्त्री पुत्रादिक आपको सुंदर जंच रहे हैं, नहीं उतने सुंदर जँचते, अरे वे भी जीव ही तो हैं अच्छा, अब देखो ऐसे भले सुंदर लगने वाले हम आप लोग अन्य जीवों की अपेक्षा कैसी अच्छी चमड़ी, रोम कम होना, कैसी अच्छी नाक, कैसे अच्छे कान, कैसे सुंदर सारे अंग, कैसा सुंदर बोल सकते हैं, कैसी सुंदर चाल से चलते हैं, कितनी सुंदर कलायें सीख लेते हैं, पर क्या उन गधा, सूकर, कुत्ता आदिक पशुवों को हम आप उतने सुंदर जंच रहे हैं जितने सुंदर उन्हें उनके ही जंचते हैं, नहीं जंचते, तो यहाँ सुंदर है कौन, हितकारी है कौन? बोलकर क्या करना बोलने से फंसना ही तो बनता है सभी जगह प्रयोग करके देख लो । परिजनों में इतना घनिष्ट प्रेम किस वजह से होता कि बोलने को बहुत समय मिलता, आजादी मिलती, दिल भर के बोलते, लो उन स्त्री पुत्रादिक से बंध गए और इन जीव पदार्थों से तो दुहरी मार मिलती है । हम अपनी भी स्नेह करके इनसे बोलते हैं और ये भी उसकी एवज में स्नेह भरी वाणी बोलते हैं तो उनकी ओर से भी जो चेष्टा है वह हमारे कूटने पिटने में और निमित्त बन गयी । हम इन अचेतन पदार्थों को सुंदर मानकर उनमें फंस रहे, पर उनकी ओर से ऐसी कुछ भी चेष्टा नहीं हो रही जो हमारे फंसने में कारण बने । इन पर जीवों के प्रति, परपदार्थों के प्रति जो हमारी वचनादिक की चेष्टायें हो रही हैं, उनके प्रति जो हम मोहपरिणाम बना रहे हैं उन मोह परिणामों से हम उनमें फंस रहे हैं । तो यह? किससे बोले, बोलने में सार क्या निकलेगा? यहाँ बोलने के योग्य कुछ भी तो नहीं है, और बात भी क्या बोलें, बात में भी क्या दम है इन सब बातों का विवेक करके ये योगीजन वचनगुप्ति में रत हो गए ।
वचनगुप्ति से अवकाश मिलने पर योगियों का सहजपरमात्मतत्त्व की चर्चा में उद्यम―योगी वचनगुप्ति में हो तो गए रत, पर ऐसी लीनता अधिक समय तक नहीं ठहरती । तब जंगल में रहने वाले साधुवों में यह बात और दिख रही है कि एक साधु किसी समय दूसरों के पास बैठा है, बहुत धीरे-धीरे बात कर रहा है क्या बोल रहा है? जो पुरुष सहजपरमात्मतत्त्व का दर्शन करके ज्ञानी हुआ है, जिसे अब जगत के समस्त वैभव जीर्ण तृण के समान जंच चुके हैं, ऐसा योगी बहुत धीरे-धीरे बड़ी शांति से बात कर रहा है, और उस बात करने की मुद्रा में कैसा अद्भुत वात्सल्य टपक रहा है? और वह योगी बात भी क्या कर रहा है? जिसको जो बात लगी हो, वह वही बोलेगा, और जिसमें बोला जाये वे भी ऐसे ही हैं । महाराज, जो खुद को लगी है बात वही दूसरे को लगी हो तौ कैसा वात्सल्य बढ़ाकर घुल मिलकर बातें होती हैं । उन साधुवों को अपने सहजपरमात्मतत्त्व की धुन लगी है । जगत में कुछ भी सार दृष्टिगत नहीं है, उनको केवल एक अपना सहजस्वरूप, यह ही मात्र दृष्टिगत है और प्रयोग करके अनुभव भी किया है कि आनंद केवल इस सहजपरमात्मतत्त्व के दर्शन में है । इसके ज्ञान में है, इसके लगाव में है, अन्यत्र नहीं है । ऐसी लगन जिस योगी को लगी है वह दूसरों से क्या बोल रहा है । बोलने को दूसरी बात उस योगी के पास है ही यहीं । वह योगी तो इस ही सहज ज्ञानस्वरूप की बात किया करता है । चाहे किन्हीं वाक्यों में कहो बात यही कही जाती है और दूसरी बात कहने का उस योगी का प्रयोजन ही नहीं है ।
परमात्मतत्त्व के रहस्य की वार्ता―कोई योगी कह रहा है, धीरे से―देखो हम तुम्हें परमात्मा बनने का रहस्य बतावेंगे....हां हां बताओ । उसही के लिये तो सब कुछ छोड़कर यहाँ आये हैं । देखो―अपने स्वरूप पर दृष्टि देकर विचारो कि मैं अकिंचन हूँ, इस आत्मा में और कुछ नहीं लगा है तो अब ऐसा ही खूब सोचो कि मैं अकिंचन हूँ । देखो―अब जरा भी किसी भी पदार्थ में यहाँ कुछ मेरा है, ऐसा रंचमात्र भी लगाव न रखना । जब सब कुछ छोड़ दिया, तो जरा-सा भी लगाव क्यों रखा जाये? अपने को समझना है कि मैं अकिंचन हूं, केवल ज्ञानमात्र हूँ । इस प्रकार दृढ़ भक्ति करके, उपासना करके अब इसी ही आग्रह में डट तो जाना और निश्चल होकर, निष्क्रिय होकर इस ही तथ्य पर अड़ तो जाना, स्वयं ही अपने में समायी हुई अनंत समृद्धि विकसित हो जायेगी । वह समृद्धि भी क्या है? वह समृद्धि है, ज्ञानमात्र का परिपूर्ण विलास । उससे यह भी बात नहीं आती कि हम किसी बड़ी समृद्धि के लाभ से कि अकिंचन हूँ, अकिंचन हूँ ऐसा मानने को कहा जा रहा है? नहीं, नहीं, बाह्य में लाभ की कोई बात नहीं है । वह समृद्धि ऐसी भिन्न नही है, अन्य नहीं है, किंतु जो हम ज्ञानमात्र हैं, सो ज्ञानमात्र ही सही रूप में रह जाये, यह समृद्धि है और इस ही में अतुल ज्ञान विकास है । तो मैं अकिंचन हूँ अकिंचन हूँ―इस प्रकार की दृढ़ उपासना में ठहर जावे । देखो तीन लोक का अधिपति वह हो जाता है, जो अकिंचनोऽहं की उपासना में दृढ़तापूर्वक ठहरता है । जो त्रिलोकज्ञाता हो गया, पूर्ण शुद्ध ज्ञानमात्र रह गया वह त्रिलोकाधिपति कहलाता है । अब अंत: विचार करिये, अपने में निरखिये―मैं इस अकिंचनोऽहं की भावना के प्रसाद से शुद्ध हो जाऊँगा । जो था सो स्पष्ट हो गया, इसमें अधिपति की बात कुछ नहीं है अपनी ओर से । पर मैं ऐसा कृतार्थ हो गया, उस स्थिति में समझिये ऐसा परम विशुद्ध हो गया, केवल (Pure) मात्र सहज निज ही निज में रह गया कि जिसकी पवित्रता, उत्कृष्टता ऐसी है कि विवेकी लोग फिर इस स्थिति वाले को तीन लोक का अधिपति मानते हैं । होगा क्या? जो स्वयं है, ज्ञानमात्र है, बस यह ज्ञानमात्र स्पष्ट रूप से रह जायेगा । इस ही में कल्याण है, यह ही अपनी अंतिम मंजिल है । इससे बाद फिर कुछ नहीं करना होता है । ऐसी स्थिति मिलती है “अकिंचनोऽहं” इस भावना के प्रसाद से, ऐसी वात्सल्य भरी वार्तायें करके वह योगी क्षण-क्षण में, इस ही सहजपरमात्मतत्त्व का स्पर्श करता जाता है । केवल मात्र रह जाना, इतना ही है लोकोत्तम कार्य । तो केवल मात्र वह तत्त्व क्या? यह सहजपरमात्मतत्त्व ।
तत्त्वचर्चा के प्रसंग में योगियों की स्वच्छ मुद्रा―कभी-कभी यह योगी एक से बातें न करके 10-20-50 योगियों के बीच भी कुछ बोलता है, पर उस योगी की निगाह मुख्यता से उन दूसरे लोगों पर नहीं है । उसकी दृष्टि तो अपने आपकी ओर लगी है । मैं इनसे बोलूं, ये लोग मुझे समझ जाये कि मैं कितना समझता हूँ, कितना जानता हूँ, मैं इन सब योगियों में मुख्य है, ये सारी गंदगियां उस योगी में नहीं हैं । क्या करें, जिस प्रकार की वार्ता को कोई एक सुनने आता है उस ही निज सहजपरमात्म प्रभु की वार्ता सुनने वाले अनेक योगी हैं । एक समय नियत कर दिया । बराबर बोलना तो पसंद नहीं, बैठ गए, वार्ता हो रही । वे सभी योगी केवल अपने आपको दृष्टिगत करके उस बोलने वाले योगी की बातों को सुन रहे हैं, समझ रहे हैं । उन सुनने वाले योगियों को उस बैठी हुई सभा का कोई दूसरा व्यक्ति नजर नहीं आ रहा है । उसको तो एक अपने आपसे प्रयोजन है, और वह योगी उस ही का रस ले रहा है । इस बोलने वाले योगी को थोड़ा पता तो है कि ये सब योगीजन यहाँ बैठे है, पर वह योगी अपने सहजपरमात्मतत्त्व में ऐसा लीन हो गया है कि वे सब योगी उसकी दृष्टि में नहीं रहते । और दृष्टि में कभी-कभी आते भी हैं आखिर प्रमत्त दशा ही तो है । वह वार्ता किसकी कर रहा है? वार्ता कर रहा है, वह इस ही सहजपरमात्मतत्त्व की । काम क्या है? इस ही एकस्वभाव की उपासना करके तृप्त बने रहना, यही काम है ।
साधु संतों की अन्य कार्य ढूंढने की व्यग्रता न होने का कारण―देखो भैया ! मनुष्य दूसरा काम तब ढूंढ़ता है जब उस काम में भी ऊब जाता हे । यदि किसी को एक ऐसा काम मिले कि जिसमें जी न ऊबे और क्षमता से जी लगा रहे, बढ़कर जी लगे, वह भी बनाकर नहीं यों जो बढ़ेगा सो घटेगा । किसी समय किसी पदार्थ में बड़ी भावुकता के साथ तेज लगन लगा करे तो सदा कहां कायम रहेगी वह लगन? हां लगन सहज ही हो होकर तीव्रता से लग जाये तो उस लगन लगने के बाद फिर लगन हटनी पड़े, ऐसी स्थिति न आयेगी । तो जब चित्त ऊबता है तब दूसरे काम के करने की बात सोची जाती है चित्त ऊबेगा तो उन पदार्थों में जो पदार्थ भिन्न हैं, जिन पर साधक का कोई अधिकार नहीं है जो अपने परिणमन से परिणमते हैं, जिनका साधक पर कुछ प्रभाव नहीं है, उनमें जो होगा, सो होगा । ऐसे भिन्न पदार्थों में राग हो, स्नेह हो, दृष्टि हो तो जी ऊब जायेगा, लेकिन जो तत्त्व मैं स्वयं ही हूँ, जिसके वियोग का संदेह ही नहीं, हम ही हट जाये, वियोग हो गया, फिर भी वियोग नहीं हुआ, उपयोग नहीं लग रहा । जो सहजपरमात्मतत्त्व स्वयं है, स्वयं में है, जिसके वियोग की कभी संभावना भी नहीं, जिसका परिणमन किसी अन्य वस्तु के अधीन नहीं, वही तो मैं हूँ जिस पर मेरा वश चल सकता है, जिसको मैं दृष्टि में लेकर समाये रहूं, ऐसा जिस पर अधिकार चल सकता है उसकी ओर लगन हो तो वह काम सुगमता से बनता है, उसका प्रमाण यह है कि ऐसे-ऐसे साम्राज्य नौकर चाकर आदि छोड़कर योगीजन कंकरीली पथरीली जमीनों पर आनंद से पड़े रहते हैं किसी भी वृक्षतल में, किसी भी गुफा कंदरा में, कहीं भी ठहरे हुए हैं ।
साधु संतों की विलक्षण अमीरी―देखो भैया ! कैसी अमीरी है साधु संतो में, जिसका मुकाबला लोक के धनिक लोग, राजा महाराजा लोग भी नहीं कर सकते । जो अपने चित्त में शुद्धता के साथ सत्य प्रसन्न हो, तृप्त हो, संतुष्ट हो उससे बड़ा वैभवशाली और कौन? यहाँ के धनिकों के पास तो किसी के पास एक घर है, किसी के पास दो घर हैं, किसी के पास कुछ और ज्यादह हैं, पर उन योगीजनों के पास कितने घर हैं ?....अरे जितनी भी गुफा हैं, जितनी कंदरायें हैं, जितनी शिलायें हैं वे सब उनके घर हैं । बड़े संतोष के साथ वे जिस चाहे घर में रहें, सारे उनके घर हैं, उनके पास एक दो घर नहीं है । कैसा उनका सुलभ आहार है सदा तैयार आहार, इन घर वालों को तो आहार प्राप्त करने में बड़ी तकलीफ करनी होगी, बड़े परिश्रम करने होगे, बाट जोहनी होगी तब कहीं आहार मिल पाता है, पर उन योगियों को सुगमता से आहार मिल जाता है । अभी आंतरिक आहार की बात नहीं कह रहे, बाह्य आहार की बात कह रहे कि आहार उन योगियों को घर में रहने वाले लोगों की अपेक्षा अधिक सुगमता से मिल जाता है । उन योगीजनों के पास विवेक है इसलिए रात्रि में तो आहार करने जाते नहीं, दिन में ही खुले प्रकाश में जाते हैं । जब क्षुधा की तीव्र वेदना हुई तो जिस चाहे ओर चल देते हैं, सभी घर उनके हैं, जहाँ मन माफिक मिला वहाँ से भोजन करके चले आते हैं । मनमाफिक के मायने हैं जिसमें मन खुश हो ऐसा आहार मिलना । कोई बड़े प्रेम से बुला रहा हो, खुद बड़ी पवित्रता से रहता हो, बड़ा शुद्ध आहार करता हो वह यदि आहार देता है तो उन योगीजनों का मन खुश होता है । ऐसा मनमाफिक आहार करके वे योगीजन चले आते हैं । कितना सुगम आहार है उन योगीजनों का । यह बात कही जा रही है उनकी कि जहां श्रावक भी सहजपरमात्मतत्त्व के अनुरागी हैं, अन्यथा न गृहस्थों को कुछ न साधुवों को कुछ । ऐसा स्वतंत्र विचरण करने वाले योगीजन अमीर हैं । एक दूसरे से घुल मिलकर वे किसकी बात करें, इस ही सहजपरमात्मतत्त्व की वे चर्चा किया करते हैं और दूसरा कोई चाहे उनकी बात का लाभ न ले सके, मौज न लूट सके, पर जो उन ही जैसा बनकर उनके ही संग में रहें वे ही वास्तव में उन योगियों की चर्चा सुनने के अधिकारी हैं और वे ही उनसे वास्तविक लाभ लूट सकेंगे ।
योगियों की दार्शनिक वार्ता का विज्ञात अथवा अविज्ञात मूल आधार―अपने कल्याण की चाह से घर परिवार आदिक तजकर घर में रहने वाले अनेक प्रकार के योगी अपने-अपने अवधारित मंतव्य के अनुसार भी जो चर्चा किया करते हैं, मूल में उनकी चर्चा का विषय है यह सहजपरमात्मतत्त्व, पर इसका उन्हें पता हो या न हो, लेकिन जितने भी दर्शनों का विस्तार है, सबके मूल में बात सहजपरमात्मतत्त्व की ही कही गई थी । कुछ योगी इस ब्रह्मस्वरूप की चर्चा करते है, अपरिणामी, अविकार एकस्वरूप जैसा कि अद्वैत ब्रह्म माना गया है, चर्चा करते हैं । उस चर्चा का भी उद्देश्य क्या है? अपने उपयोग को अविकार अथवा निर्विकल्प रूप में ठहराना । भले ही एकांतवाद होने से पर्यायशून्य ब्रह्म कुछ नहीं रहता, लेकिन उनकी दृष्टि में तो वही मात्र एक सहजपरमात्मतत्त्व से कुछ सहजता रखने वाला विषय रहा करता है । योगीजन पहिले किसी एक मंतव्य में थे । मानों सभी योगी आत्महित की अभिलाषा से एक सभा में बैठकर विशुद्ध इस सहजपरमात्मतत्त्व की चर्चा सुनकर आनंद लूटते थे । उन्हीं में से इतनी वार्ता के बाद जब यह चर्चा बड़े ताव पर पहुंची थी उस समय इसका स्वरूप सुनकर कि यह नय से परे है, प्रमाण से परे है, निक्षेप से परे है इसमें कोई भेद नहीं है । वह अभिन्न तत्त्व एक और अनेक से भी परे है, केवल एक शुद्ध चित्प्रतिभासमात्र है । जब इस चर्चा को औरभी गहराई के साथ सुना तो अनेक योगीजनों का इस प्रकार का भाव बना कि वहाँ तों बस कुछ भी नहीं है ꠰ केवल शून्य ही शून्य है । जिस तत्त्व के लिए कहा जा रहा है, वह तो शून्य है, और किसी दृष्टि में वह शून्य है ही । जहाँ रागादिक विकार नहीं, विकल्प तरंग नहीं, जानकारी का, प्रतिभास का भी जहाँ भेद नहीं है, ऐसी स्थिति शून्यवाद ही तो है, किंतु एक शून्य का एकांत कर लिया और शून्याद्वैतवाद सिद्धांत चला । उसके मूल में भी क्या बात होगी? यही सहजपरमात्मतत्त्व । कुछ लोग शून्य से और ऊपर चलकर इस चिंतना में आयें कि शून्य अभावरूप नहीं, तुच्छाभावरूप नहीं, तब मात्र शून्य नहीं है, किंतु है प्रतिभास, तो वह प्रतिभासाद्वैत में आया । तब कुछ योगियों ने सोचा कि प्रतिभास तो निराधार नहीं होता है, प्रतिभास में कुछ आधार तो होगा । वह आधार हुआ ब्रह्म । इस तरह इस ही सहजपरमात्मतत्त्व के मूल की चर्चा सुनने के बाद कुछ स्खलित होने के कारण जो अनेकविध मंतव्य बने हैं और उन मंतव्यों की चर्चा भी योगीजन करते हैं, उसे भी परखकर ज्ञानी यह सोचता है कि सभी लोग चर्चा दस सहजपरमात्मतत्त्व की कर रहे हैं पर यह पता नहीं है अनेकों को कि हम किसी की चर्चा कर रहे हैं?
योगियों की चर्चा का आधार सहजपरमात्मतत्त्व―जैसे किसी पुरुष की कोई चर्चा तो करे, पर चर्चा ऐसी करे जो उस पुरुष में बात ही न हो, विरुद्ध, छोटी, सुनी सुनाई बात की चर्चा करे, तो चर्चा तो की गई उस पुरुष की, मगर इन रूपों में की गई, जो रूप उस पुरुष में नहीं हैं । इसी प्रकार चर्चा तो करते हैं, सभी योगी इस सहजपरमात्मतत्त्व की, किंतु वे इस रूप में करते हैं कि उन्हें स्वरूप समझ में नहीं आ पाता । ठीक है, स्वरूप न भी समझ में आये, तो भी समझने वाले लोग जानते हैं कि इस सहजपरमात्मतत्त्व के सिवाय और कुछ भी गुणगान करने योग्य नहीं है । भले ही यह चर्चा विस्तृत होकर कभी ईश्वर कर्तृत्व के रूप में भी आये । वह तो सब एक है और वही जगत की सृष्टि का करने वाला है, उसकी मंशा बिना पत्ता भी नहीं हिलता है । सुनने में यों आ रहा है कि यह चर्चा बहुत दूर और बाहर बन गई है, लेकिन धर्म के नाम पर जितनी भी चर्चायें हैं वे सब चर्चायें मूल में इस ही सहजपरमात्मतत्त्व के लिए थीं । अब चाहे किसी भी रूप में बन गया हो, यह सहजपरमात्मतत्त्व, इसके विलासों में ही पर्यायों का विस्तार है । और, पर्यायों के विस्तार का ही नाम जगत है । तो इस जगत की सृष्टि का मूल कारण यह सहजपरमात्मतत्त्व है या नहीं? माना कि अनेक अचेतन पदार्थ भी पड़े हुए हैं, जिनसे इस सहजपरमात्मतत्त्व का इस समय संबंध भी कुछ नहीं । जब चेतन ही नहीं हैं, ये काठ चौकी आदिक तो सहजपरमात्मतत्त्व की क्या बात है अब ? लेकिन रचना तो इसकी भी चल रही है । चल रही है, किंतु यह रचना बनी कैसे थी ? कोई इनमें चेतन आया था । ये जो कुछ भी ईंट भींट वगैरह दिखते हैं, ये काय हैं, शरीर हैं, किंतु अब निर्जीव हैं । ये काय बने कैसे थे? इनमें चेतन आया था । लो उस चेतन में सहजपरमात्मतत्त्व होता कि नहीं? होता । लो सबका मूल यह सहजपरमात्मतत्त्व है । लेकिन इस मर्म का पता न होने से अब सीधे इस ही रूप में जैसे कुम्हार घड़ा बना देता है, ऐसे ही ईश्वर भी जगत की सृष्टियों को कर देता है यों कुछ भी रूपांतर आ गया हो । तो जो विरक्त लोग हैं, जो कुछ भी आत्महित की अभिलाषा रखनेवाले त्यागी जन हैं वे जंगल में चर्चा करते हैं, तो चाहे किस ही रूप में बढ़ते गए हों, पर सर्वत्र इस सहजपरमात्मतत्त्व की चर्चा है । तो ये योगकुशल संतजन जिसकी चर्चा करते हैं, जिसको कहा करते हैं वह हूँ मैं सहजपरमात्मतत्त्व ।
योगियों की चर्चा के विषय की जिज्ञासा―कोई दो पुरुष यदि धीरे-धीरे बात कर रहे हों तो देखने वाले की यह इच्छा होती है कि मैं समझूं तो सही कि ये लोग क्या बात कर रहे हैं? तो योगीजन परस्पर बैठकर जिसकी बात कर रहे हैं, उसमें भी तो हमें यह इच्छा होनी चाहिये कि समझें तो सही कि वे क्या बात कर रहे हैं? कोई कहे कि यदि न मिलें वे पुरुष तो? नहीं है जंगल, नहीं हैं वे योगी, नहीं हैं ऐसी बात करनेवाले लोग तो कहां बैठ करके चर्चा सुनी जाये, समझी जाये? तो भाई, योगीजन अब भी हैं । कौन योगीजन? जो पहिले हुए ये वे । वे सब ग्रंथ रचना के रूप में मौजूद हैं । उनका शरीर नहीं है, वे तो स्वर्गस्थ हो गए । लेकिन इस ग्रंथरचना में उनकी जगह-जगह फोटो मिलेगी । अक्षर-अक्षर में उनकी फोटो है । पर जो समझ सकते हैं वे समझ लेते हैं कि ये हैं वे वीतराग ऋषि संत । किसके लिये वे इतना अनुरक्त हुए कि घर द्वार सब कुछ छोड़कर, बड़े-बड़े परीषह के बीच रहकर भी प्रसन्न रहा करते थे? किसके लिये वे अनुरक्त थे? वह यही है सहजपरमात्मतत्त्व, जो हम आप सबों में मौजूद है ।
सहजपरमात्मतत्त्व का अन्वेषण―अच्छा बताओ भैया ! दूध में घी है कि नहीं? दिखता कहाँ है? मगर समझने वाले जानते हैं कि दूध में घी है । किस तरह से पड़ा हुआ है घी और किस तरह प्रकट होगा । सबको उसकी विधि मालूम है । कोई लोग सीधे दूध को मथकर ही घी निकाल लेते हैं, तो कोई लोग दूध को बिगाड़कर दही बना कर, मथकर घी निकाल लेते हैं, पर मालूम सबको है कि दूध में घी पड़ा है, अव्यक्त है, उसे प्रकट किया जा सकता है । इसी तरह ज्ञानी संतों को विदित है कि आत्मा में वह सहजपरमात्मतत्त्व पड़ा हुआ है । कोई तो बड़े आराम से ज्ञानदृष्टि के द्वारा सीधे ही वहाँ सहजपरमात्मतत्त्व को निरख लेते हैं और कोई तपश्चरण करके अनेक प्रकार से अपने ज्ञान को विषयकषायों से मोड़कर सहजपरमात्मतत्त्व के दर्शन करते हैं । तो जैसे दूध में घी है, किंतु कुछ प्रयोग किए बिना उसमें से घी नहीं निकल सकता, इसी तरह हम सब आत्माओं में जो प्रभुता है, जो अनंत ज्ञान, अनंत दर्शन, अनंत शक्ति, अनंत सुख संपन्न होकर प्रकट हो सकता है, वह निज में ही है, किंतु प्रयोग की आवश्यकता है और प्रयोग चाहिये अंत: संयम । हम अपने ज्ञान को सब तरफ से हटाकर केवल एक इस सहज ज्ञानस्वभाव में ही लगायें । ऐसा करने के लिए अनेक बाह्य संयम भी किए जायेंगे ।
स्वच्छंद प्रवृत्ति में सहजपरमात्मतत्त्व के दर्शन की अशक्यता―जिनकी प्रवृत्ति इतनी स्वच्छंद है कि जब भूख लगी तब खाया, जो मिला सो खाया, जिनके संयम की कोई बात नहीं हे, वे चाहे किसी दिन दो ही बार खा सके लेकिन बासना बनी रहने के कारण उनमें वह पात्रता नहीं आती कि जिससे शीघ्र ही धर्म की गहरी बात सुनने में रुचिमान तो बन जायें । बाह्य संयम का भी कितना महत्त्व है? वह महत्त्व चूंकि अंत: संयम का उद्देश्य बनने पर ही होता है, तो अंत: संयम की दृष्टि से उसका महत्त्व कूता जायेगा । जब यह ज्ञान अंतःसंयत होकर अपने आपकी इस सहजप्रभुता की ओर लगता है, तो उसे अपने आपमें सहजपरमात्मतत्त्व का अनुभवन होता है । कहने में कठिन हो रहा है, यह सहजपरमात्मतत्त्व का अनुभवन, पर प्रयोग में लाने वालों के लिए यह अतिसुगम है । आत्मानुभूति वचनों से, क्रियावों से नहीं जगती, किंतु अंत: ज्ञानप्रयोग से जगा करती है । तो ऐसे उस उत्कष्ट तत्त्व की हम प्राप्ति करने चले कि जिसके पाने के बाद फिर दुनिया में कोई चीज उत्कृष्ट न रहे । जब हम उस उत्कृष्ट तत्त्व की प्राप्ति करने चलेंगे तो यहाँ का सर्व कुछ जीर्ण तृणवत् लगने लगेगा ।
अंतस्तत्त्व की साधना के लिए अंतर्बाह्यसंयम की आवश्यकता―अंतस्तत्त्व की हमें यदि साधना करना है, तो यथाशक्ति अंतर्बाह्य संयम करना चाहिये । हम जब थोड़ा-थोड़ा भी त्याग नहीं कर सकते, थोड़ा भी अपना कुछ बलिदान नहीं कर सकते, इच्छाओं का परिहार नहीं कर सकते, थोड़ा भी परिग्रह का परिमाण नहीं कर सकते तब इतने बड़े उत्कृष्ट तत्त्व की बात कैसे बन सकती है? जो पुरुष जिस पर अनुरक्त होता है, उसके लिए अपना सर्वस्व भी न्यौछावर कर देता है और तत्त्व की प्राप्ति में संतोष करता है । जिस तत्त्व की प्राप्ति के समक्ष ये धन वैभव आदिक कुछ भी न जचें जिसको, वही तो इस तत्त्व के दर्शन कर सकता है । और जिसे ये प्राप्त समागम धन वैभव सब कुछ ऐसे लगते हैं कि ये खूब हमारे पास रहें, अधिकाधिक ये बढ़ते रहें, धर्म की बात, तत्त्व की बात तो फिर देख ली जायेगी, वे इस सहजपरमात्मतत्त्व के दर्जन नहीं कर पाते । जिसे जिस चीज की रुचि है वह अपना अधिक समय उसी ओर लगायेगा । उसी की ओर वह अपना सर्व कुछ न्यौछावर करेगा । देखिये, धन वैभव परिग्रह तृष्णा मोह जंजाल इनसे अवकाश मिले, तो हम धर्म करने चलें, कुछ बात सुनें, एक तो इस तरह के लोग होते हैं और कुछ विरले लोग इस प्रकार के होते हैं कि धर्म की बात सुनकर धर्मधारण कर, बोलकर, चर्चा सुनकर जब अच्छी तरह से अपने आपको पाल-पोस लिया, अब अगर समय मिलेगा, तो घर की भी खबर लगे, परिग्रह की खबर लेंगे, परिजनों की खबर लेंगे । अब समझ लीजिये कि ऐसे लोगों की रुचि में व विषयप्रिय लोगों की रुचि में कितना बड़ा भारी अंतर है?
अंतस्तत्त्व की रुचि में सब कुछ संकट सह कर भी अंत: साधना की उमंग―जिन जीवों ने इस अंतस्तत्त्व के दर्शन के अतिरिक्त अन्य चीजों को महत्त्व दिया है वे इस दर्शन को कैसे पा सकते हैं? अंतस्तत्त्व की ही रुचि वालों को सहजपरमात्मतत्त्व के दर्शन होते हैं । एक कोई जिज्ञासु पुरुष संन्यासी के पास पहुँचा, बोला―महाराज । हमें आत्महित का उपदेश दीजिए । संन्यासी ऊंची साधना वाला पुरुष था । उसे ज्यादह बोलना पसंद न था । लोक व्यवहार से भी वह परे रहता था । तो उस समय केवल इतना ही कहा―अहं ब्रह्मास्मि । थोड़ी देर बाद वह जिज्ञासु पुन: बोला―महाराज ꠰ कुछ और बताओ । तो फिर संन्यासी ने कहा―अहं ब्रह्मास्मि । यों दसों बार वह जिज्ञासु संन्यासी से कहे कि महाराज और कुछ सुनाओ तो वह संन्यासी बस यही कहे―अहं ब्रह्मास्मि । तो जिज्ञासु बोला कि अभी हमारी समझ में कुछ नहीं आया, आप विस्तार से बताइये । तो संन्यासी बोला―अमुक गांव में एक पंडित रहता है । उसके पास जावो तो वह तुम्हें विस्तार से बतायेगा । गया वह जिज्ञासु उस संन्यासी के पास, बोला―हमें अमुक संन्यासी ने आपके पास भेजा है । आप हमें आत्महित की दृष्टि से कुछ शिक्षा दीजिए । तो यह पंडित बोला ठीक है तुम हमारे पास रहो, थोड़ा बहुत काम कर लिया करना और खूब पढ़ना । अच्छी बात । महाराज काम कौन-सा किया करेंगे? देखो―हमारी इस गौशाला में 10-20 गाय, भैंस आदिक जानवर रहते हैं, सो इस गौशाला की सफाई का काम तुम कर लिया करना । अच्छी बात । अब वह जिज्ञासु प्रतिदिन उस गौशाला का गोबर मूत्रादिक उठाये, उसे जल से साफ करे और वहीं पर रहकर विद्याध्ययन करे । यों उसे 10-12 वर्ष व्यतीत हो गए । वह बड़ा विद्वान् बन गया । सब प्रकार के विषयों को अच्छी तरह से समझ गया । जब अंत में वह अपने घर जाने को हुआ तो पंडित से कहा कि गुरुजी―आपने हमें बहुत-बहुत शिक्षा दी, मुझे आपने बड़ा योग्य बना दिया, पर अब आप हमें अंतिम शिक्षा दीजिए ताकि जीवनभर एक मात्र बही शिक्षा हमारी दृष्टि में रहे । तो वह पंडित बोला―अहं ब्रह्मास्मि । कुछ लोग सोचते होंगे कि इतनी बात तो संन्यासी ने 10-12 वर्ष पहिले ही बता दी थी, फिर तो उसने 10-12 वर्ष व्यर्थ ही गोबर मूत्र उठाया । तो भाई ऐसा नहीं है । व्यर्थ कहाँ उठाया? परे इस ही एक लक्ष्यभूत तत्त्व को समझने के लिए उन सब विद्यावों की आवश्यकता थी जिनका कि उसने 10-12 वर्ष अध्ययन किया । अब उस अध्ययन के बाद अहं ब्रह्मास्मि कहते ही वह तुरंत उसका सारा मर्म समझ गया ।
अपनी चर्चा सुनने की आकांक्षा―योगी जन बड़ी लंबी कथायें करके अथवा कम शब्दों में बोलकर अथवा धीरे-धीरे कहकर जो कुछ बताना चाहते हैं, जिसकी चर्चा किया करते हैं, वह है कौन हैं? वह हूँ मैं । हमारा नाम लेकर यदि दो आदमी कुछ चर्चा कर रहे हों, गुनगुना रहे हों तो हम कितना रुचि से उन शब्दों को सुनते हैं? तो जब बड़े-बड़े योगीजन हमारे बारे में कोई चर्चा कर रहे हों तो क्या उसे हमें रुचि से सुनाना न चाहिए? जो कुछ इस सहजपरमात्मतत्त्व के संबंध में अन्य में लिखा हुआ है वह किसकी चर्चा है? मेरी चर्चा है । मेरा नाम लेकर यह सब कह रहे हैं । सभी ग्रंथों में मेरा नाम जगह-जगह लिखा है । करणानुयोग, चरणानुयोग, द्रव्यानुयोग आदिक में सभी जगह देख लो―मेरा नाम लेकर बड़ी-बड़ी चर्चायें उन ऋषिजनों ने कर डाली । मेरा नाम क्या है चेतन, आत्मा, सहजपरमात्मतत्त्व, इन नामों को लेकर इन योगियों ने बड़ी-बड़ी चर्चायें कीं । चलें देखें तो सही कि ये लोग मेरे बारे में क्या कह गए थे । बड़ी रुचिपूर्वक इस चर्चा को सुनें तो अपने आपका अवगम हो कि ओह ! यह बात थी, इस तरह से ये लोग मेरी चर्चा कर रहे थे । तो जिस तत्त्व के बारे में योगीजन निःशंक वर्णन किया करते हैं वही मैं सहजपरमात्मतत्त्व हूँ ।
धर्मपालन का मूल आधार―धर्म का पालन सहजपरमात्मतत्त्व की प्रतीति पर आधारित है । जिस किसी पुरुष को अपने आपके इस सहज चैतन्यस्वभाव की प्रतीति नहीं है-―मैं स्वयं अपने आप उपाधि के बिना सहज किस रूप में हूँ, इसका यदि परिचय नहीं है तो वह करेगा क्या? धर्मपालन का उसका अर्थ क्या होगा? विकल्प करना, बाह्य पदार्थ में दृष्टि जमाना यह तो धर्मपालन नहीं है । धर्मपालन सहजपरमात्मतत्त्व के परिचय बिना कभी संभव ही नहीं हो सकता, क्योंकि इस तत्त्व के परिचय से शून्य पुरुष से पूछा जाये कि क्या करना है तुम्हें? तो क्या उत्तर देगा? उसके पास कोई एक उत्तर हो ही नहीं सकता? कोई सोचेगा कि स्वर्ग में जाना है, वैकुंठ में जाना है, नाम मात्र को यह भी कह देगा कि मुझे मोक्ष प्राप्त करना है, पर उसे पता ही नहीं है कि मोक्ष नाम है किसका? किस स्थिति को हमें पाना है? जिसे इस सहजपरमात्मतत्त्व का परिचय नहीं है उसे मोक्ष का भी पता नहीं हो सकता । मैं केवल अपने आपमें जिस स्वरूप को लिए हुए होऊं, उस ही स्वरूपमात्र रह जाऊं, यही तो मोक्ष है । तो सहजपरमात्मतत्त्व के परिचय पर ही सब धर्म अवलंबित हैं ।
आदेय समाधिभाव में सहजपरमात्मतत्त्व का आलंबन―जिस पुरुष ने जीवन भर धर्मपालन किया उसको यह भी उपदेश है कि जीवनभर व्रतपालन करने के पश्चात् अंत समय में समाधि को अंगीकार करना चाहिए । तो व्रतों की जड़ तो है यही । अब समाधि का स्वरूप क्या है? समाधि में भी लोग करते क्या हैं? इस पर दृष्टिपात करो । समाधि नाम भी है इस ही का है कि उत्तमरूप से इस सहजपरमात्मतत्त्व का ध्यान बनाना । समाधि का इतना ही अर्थ है । समाधि के लिए विधिविधान है कि उसे काय की सल्लेखना और कषाय की सल्लेखना करना चाहिए । इन दो में भी उद्देश्य में तो कषाय की सल्लेखना है, काय की सल्लेखना उसकी सहचर है । याने कषाय सल्लेखना के साथ कायसल्लेखना जुड़ी हुई है, इसलिए यह उपदेश है कि कषायों की सल्लेखना करो और काय की भी सल्लेखना करो । मरण समय में संक्लेश परिणाम न हो, कषाय भाव न जगे, ऐसी परिस्थिति लाने के लिए सोचिए तो सही, यदि मनमाना भरपेट खाने की ही प्रवृत्ति रही तो उसमें रोग अधिक आयेंगे । उन रोगों के काल में आत्मा की सावधानी होना कठिन है । तो रोगों के दूर करने के लिए आहार का त्याग करना साधक हो जाता है । नीरोग अवस्था में मृत्यु हो, यद्यपि मृत्यु का कारण एक रोग भी है पर उस मरण के समय में कोई शारीरिक रोग न रहे, शरीर स्वस्थ दशा में रहे, तो इस प्रकार की स्थिति में एक बड़ी लाभदायक बात बनती है । बहुत से लोगों को देखा होगा जो कि आहार में अधिक लंपटी नहीं होते हैं वे मरण के समय में नीरोग स्वस्थ रहते हैं और जो लोग खूब खानेपीने में आसक्ति रखते हैं खाते ही जावे तो उनका शरीर ऐसा रोगी हो जाता है कि मरण समय तक रोगी रहता है तो अपने भले के लिए ही आहार का त्याग बताया गया है, और आहार के परित्याग में काय की सल्लेखना हो जाती है तो काय की सल्लेखना होती है तो हो जाये, पर उस सल्लेखना लेने वाले व्यक्ति के काय में दुश्मनी नहीं है, काय से कोई विरोध नहीं है । काय सल्लेखना से काय को क्षीण करने से इस ज्ञानी का कोई प्रयोजन नहीं है पर आत्मरक्षा के लिए जो काम करने चाहिये वे काम किए जा रहे हैं । उसमें यदि यह काय क्षीण होती है तो हो उस पर हम क्या करें?
समाधि के अभिलाषी को कषायविजय की अत्यावश्यकता व क्रोधविजयाभ्यास का कथन ―समाधिभाव में कषाय के सल्लेखन की मुख्यत है कि कषायभाव न जगे, तो कषाय न जगे एतदर्थ अनेक प्रकार से पाठ सुनाये जाये, ये सब काम हो रहे, पर इन समस्त कार्यों का मूल उद्देश्य क्या है? इस सहजपरमात्मतत्त्व का उत्कृष्ट रूप से बनाना यही मात्र एक समाधिभाव है समाधिभाव में सफलता पाने वाले पुरुषों को कषाय के त्याग का बहुत पहिले से अभ्यास करना चाहिए, मंद कषाय रहने का अभ्यास बढ़ना चाहिए और जान-जानकर भी जैसे वे कषाय मिटे उस प्रकार कि वर्तमान में चाहे अनिष्ट भी लगे, लेकिन वह प्रवृत्ति करनी चाहिए जिससे कि कषायों का परिहार हो जैसे जिसको यह रुचि जगी है कि मुझे क्रोध नहीं करना है, क्रोध के कारण उपस्थित हों तो उस समय झट अपनी सावधानी बनाता है यह तो मैं एक अमूर्त आत्मतत्त्व हूँ, इसमें अन्य कोई भी चीज प्रवेश ही नहीं कर पाती । दूसरों के द्वारा की गई निंदा, दूसरों के द्वारा दी गई गालियां ये मेरे में प्रवेश न कर सकेंगी । दूसरों की प्रतिकूल प्रवृत्ति पर विषाद न आवे बल्कि एक हँस सा जावें । देखो―क्या हो रहा है पर में, मुझमें इससे क्या आता? तो क्रोध जीतने का अभ्यास करें ।
समाधि के अभिलाषी को अहंकार से दूर होने के अभ्यास का कर्त्तव्य―अहंकार दूर करने का अभ्यास करें, इसमें तो यह वश चल सकता है कि हम कोई अपनी ऐसी परिणति बना दे दिखाने को कि जिसमें दूसरों को बुरा मालूम पड़े और वे हमारा अपमान करें, यों अपना अपमान कराने का ढंग बनाकर अपमान से दूर रहने का अगर कोई अभ्यास करता है तो एक दृष्टि में यह भी उसका एक प्रगति के लिए कदम है जैसे कि चक्कू आदिक की धार बनाने के लिए लोग मसान पर उसे घिसते हैं और थोड़ी देर में उस पर हाथ फेरकर या उसे कागज पर फेरकर उसकी परीक्षा करते हैं कि हमारी चक्कू की धार ठीक बनी या नहीं तो यों ही कोई विरला पुरुष ऐसा भी बन सकता है कि जानबूझकर दूसरों से अपना अपमान कराये और यह निरखें कि मुझमें इस अपमान से दूर रह सकने की क्षमता आ सकी या नहीं । यों तो परीक्षा कराने की ज्यादह जरूरत नहीं है क्योंकि लोक में सभी लोग अपनी-अपनी कषाय को लिए हुए हैं और इन सब लोगों के बीच रहने में अपमान के साधन अनायास मिल जाया करते हैं । जान बूझकर हमें चेष्टा करने की आवश्यकता नहीं है । तो उन अपमानों के बीच कुछ अपने को सावधान बना सकें, ऐसा अभ्यास करना चाहिए और इसका अभ्यास इस सहजपरमात्मतत्त्व के ध्यान के प्रताप से सुगम हो सकता है । झट दृष्टि दें कि मैं तो यह हूँ सहज चिदानंदस्वरूप, जिसे कोई जान ही नहीं रहा है, कोई जानता ही नहीं है, कोई जाने मुझे तब तो मैं अपमान की बात सोचूं कि मेरा अपमान हो गया । अकेले में कोई अपमानभरी बात कह ले तब तो बुरा नहीं लगता, पर कुछ लोगों के बीच में अगर कोई अपमानभरी बात बोल दे तो वह बात बड़ी बुरी लगती है । फिर तो यह समझते कि देखो इन लोगों के बीच में मेरा अमुक अपमान कर रहा है, पर जरा सोचो तो सही कि जो व्यक्ति अपमान कर रहा है वह तुम्हें जानता ही कहां है अरे वह तो तुम्हारी इस शकल सूरत को ही देखकर अपमान कर रहा है और यह शकलसूरत जो दिख रही है वह तुम हो नहीं, तुम तो एक ज्ञानदर्शन सामान्यात्मक चैतन्य तत्त्व हो, तुम्हारा कोई अपमान कर ही कैसे सकेगा ? तुम्हें तो कोई जानता ही नहीं है, यों सल्लेखना मरण करनेवाले व्यक्ति को चाहिए कि वह मान कषाय पर विजय प्राप्त करे ꠰
समाधि के अभिलाषी को मायाचार से दूर रहने की अनिवार्यता―मायाचार भी क्या करना, इस जगत में कौनसा पदार्थ हितरूप है जिसकी प्राप्ति के लिए मायाचार किया जाये जब मायाचार किया जाता है तो कितनी ही यहाँ वहाँ की बातें बनानी पड़ती हें उससे चित्त उलझन में पड़ता है । यह मायाचार तो एक बहुत बड़ी विपदा है । इस मायाचार के फल में इस अनादिअनंत संसार में मुझे कौनसी चीज की प्राप्ति हो जाती है । रहूंगा मैं अकेला का ही अकेला । अकेले ही आये, अकेले ही जायेंगे, साथी कोई न होगा । जिनके लिए बड़े-बड़े छल प्रपंच किये हैं वे कोई बात भी न पूछेंगे । किसलिए मायाचार करना? इस मायाचार के कारण इस जीव की कितनी हानि हो रही है? शांत नहीं रह पाते, पवित्र नहीं रह सकते । धर्म के पात्र नहीं हो पाते, प्रभु के दर्शन नहीं कर पाते । सुबुद्धि करके इस मायाचार से भी दूर रहने का अभ्यास होना चाहिए ।
समाधिभाव के इच्छुक को निर्लोभ होने की आवश्यकता―समाधि के इच्छुक को लोभकषाय से दूर रहने का अम्यास होना चाहिए । मरते-मरते तक भी लोभकषाय, लोभ का रंग वैसा का ही वैसा रखे रहें, कुछ भी धीरता की बात चित्त में न आये, उस ही संचय के लोभ को पकड़े रहें तो ऐसे लोभ भरे चित्त में न तो इस ही समय प्रभुदर्शन की बात बनती है और न उम्मीद है कि वह इस सहजपरमात्मतत्त्व का दर्शन कर सकेगा । रंग तो उस पर एक चढ़ेगा । और लोभकषाय सब कषायों में एक तीव्र लिपटाव वाली कषाय है । माया लोभ की सहेली है, ऐसी तीव्र लिपटाव की कषाय माया को भी कह सकते हैं लोभ के प्रसंग में मायाकषाय भी विकट कही जायेगी, पर मुख्य है यह लोभकषाय माया लोभ से उत्पन्न होती है माया से लोभ उत्पन्न नहीं होता । छल कपट करने से लोभ कषाय जने ऐसी बात समझ में न आयेगी । लोभकषाय करने से छलकपट का भाव बने, यह बात समझ में आती है । इसलिए इन दोनों ही खराब मलिन कषायों में मुख्यता लोभकषाय की है ।
अन्य कषायों से लोभकषाय के रंग की विकटता―क्रोध आ गया तो आ गया, पर यह क्रोध रातदिन घर न बनाये रहेगा । क्रोध में क्या था? आ गया कुछ से कुछ बक डाला, कुछ से कुछ चेष्टा हो गई, पीछे कुछ शांति हुई तो अपने किए हुए क्रोध का पछतावा करने लगा । घमंड की भी बात रातदिन नहीं बनी रहा करती है । यह एक व्यक्तरूप की अपेक्षा कह रहे हैं, जैसे घमंड में भौंहें चढ़ाये रहना, नाक सिकोड़ना अपने आपमें बड़प्पन बसाये रहना आदिक क्रियायें हैं ये रातदिन नहीं रहतीं । कोई समय आता है कि मान कषाय जग जाती है, जग गयी, मिट गई, पर लोभकषाय, यह तृष्णा पिशाचिनी रातदिन साथ नहीं छोड़ती । यह इतनी तीव्र लगाव वाली चीज है, और है क्या? यह आत्मा अकेला ही आया, अकेला ही जायेगा । जिसके साथ में रहते है वह अब भी अपना नहीं है, पर मोह का भूत सवार है, तृष्णा पिशाचिनी साथ लगी है तो रातदिन उस ही रंग में रंगे रहते हैं । तो तृष्णा पर विजय प्राप्त किए बिना कोई अपनी समाधि की आशा रखे तो उसकी आशा मात्र है । अभ्यास करना चाहिए निर्लोभ होने का । जानबूझकर भी त्याग करके लोभकषाय पर विजय प्राप्त करें । तो यों चारों प्रकार को कषायों की सल्लेखना की जाती है समाधि के समय में, और उस सल्लेखना का आधार क्या? की जा रहो सिर्फ एक ही बात सहजपरमात्मतत्त्व का ध्यान । कुछ भी क्रिया की जायें―यह छोड़ा, भोजन छोड़ा, दूध छोड़ा, छाछ छोड़ा, पानी भी छोड़ा, तखत से हट जावे, नीचे पड़ जावे, कपड़े त्याग दे, ये क्रियायें चाहे बहुत की जा रही हों, मगर अंत: बात एक ही है, दूसरी नहीं है, अपने आपके सहज स्वरूप का ध्यान करना । सहजतत्त्व का ध्यान यह समाधिभाव है । तो जिसका उत्तमरूप से ध्यान करने का नाम समाधि है, यह हूँ मैं चिदानंदस्वरूप सहजपरमात्मतत्त्व ।
गांठ में लाल होने पर भी भीख मांगने की वृत्ति में धर्मपालन की अशक्यता―जैसे किसी की गाँठ में लाल बंधा है और वह भीख मांग रहा हो दूसरे समझने वाले लोगों को उस पर विषाद होता है कि देखो तो लाखों रुपयों का कीमती लाल उसकी गांठ में बंधा है, पर दूसरों से वह भीख मांग रहा है उसे पता नहीं है कि हमारी ही गाँठ में कीमती लाल बंधा हुआ है । और, लोभ का रंग होता है ऐसा भी किसी-किसी के कि पता भी है फिर भी भीख मांगता है, अनेक मनुष्य तो ऐसे हैं जो कि बड़े धनिक हैं, आजीविका का बड़ा उत्तम साधन है फिर भी अपना धन नहीं खर्च किया जा सकता, दूसरों से भीख मांगने की ही उनकी वृत्ति रहती है । कोई किसी तरह खिला दे, थोड़ा भी भाव हो खिला दे, थोड़ी भी बात बन जाये, जो भी चीज आवश्यक है उसे दूसरे लोग दे-दे और अपना धन सुरक्षित रखना या अपने रुपये अपने मोह की चीज में ही लगाना अपना गुजारा अन्य ढंग से कर लेना यह सब क्या है? यह सब तीव्र लोभकषाय ही तो है । लोभकषाय वाले को आत्मदर्शन नहीं होता । और ज्योंज्यों धन बढ़ता है त्यों-त्यों लोभी पुरुष का लोभ और गहरा होता जाता है । जब कम धन था तब तो खर्च करता था, उदारता भी थी लेकिन जब धन बढ़ गया तो धन खर्च नहीं कर सकते । यह लोभकषाय में बड़े हुए कृपण पुरुषों की बात कह रहे हैं । अपने लिए तो खर्च करना ही पड़ा है, भूख लगती ही है, कपड़े पहिनने ही पड़ते हैं, स्त्री पुत्रों पर कुछ खर्च करना ही पड़ता है इनमें खर्च करने से निर्लोभता न कहलायेगी । निर्लोभता तो वहां है जहाँ धन दूसरों के उपकार में खर्च हो, धार्मिक कार्यों में खर्च हो ।
सहजपरमात्मतत्त्व के उत्तम ध्यान में ही वास्तविक समाधिभाव―समाधिभाव करने चले कोई और कषायों की सल्लेखना पर ध्यान दे नहीं, तो उसके समाधिभाव बन नहीं सकता है । तो जिसका उत्तम रीति से ध्यान करने से समाधि भी बन जाती है वह है कौन? यही सहजपरमात्मतत्त्व । इसकी योगीजन जंगलों में चर्चा करते हैं, इस ही का योगीजन निरंतर ध्यान बनाये रहते हैं । इस ही का आलंबन रखकर जीवनभर धर्म का पालन किया जाता है, और इस ही सहजपरमात्मतत्त्व का ध्यान रखकर समाधिभाव बनाया जाता है । तो प्रारंभ से लेकर अंत तक सब धर्म पालनों में एक ही बात मिलेगी―इस सहजपरमात्मतत्त्व का आलंबन । सम्यक्त्व होता तो इस ही तत्त्व के आलंबन से होता । सम्यग्ज्ञान की शुद्ध वृत्ति रहती है तो इस ही सहजपरमात्मतत्त्वस्वरूप के आलंबन से रहती है ꠰ चारित्र बनता है, स्थिरता होती है, तो इस ही सहजपरमात्मतत्त्व के आश्रय में हुआ करती है । तो प्रारंभिक साधन और अंतिम साधन ये सब कुछ सहजपरमात्मतत्त्व के आलंबन पर निर्भर हैं । तो जिस तत्त्व का उत्तम रीति से ध्यान लेने का नाम समाधि है, वह सहजपरमात्मतत्त्व हूँ मैं । इसकी दृष्टि रहेगी तो कर्मछेदन, निराकुलता, निर्वाणलाभ, सर्वकल्याण प्राप्त होंगे ।
स्वयं के पौरुष से ही संकटों से छुटकारा पाने की शक्यता―सब से निराला अमूर्त चेतना साथ यह पावन द्रव्य प्रभु होकर भी आज ऐसे कठिन बंधनों में पड़ा हुआ है । छुटकारा का थोड़ा-सा ही मूल में उपाय है, जो बड़ा सुगम है, जिसके कर लेने में तो आनंद है ही, जिसके विचार में भी आनंद है ꠰ करने के बाद भी आनंद है आदि, मध्य, अंत सब ही जगह जो आनंद का हेतुभूत है, ऐसा यह उपाय जो कि सुगम है, यह नहीं कर रहा । तो स्वभावतो नहीं है ऐसा कि उल्टा चले, हठ करे । इस कारण इसमें प्रभु का ही ऐकांतिक अपराध क्या बताया जाये, सारा अपराध तो इस ही का है, किंतु साथ में कोई एक उपाधि ऐसी लगी हुई है, जिससे कि ऐसा बल और उत्साह प्रकट नहीं होता कि जो थोथी बात अर्थात् सारहीन बात है, जिसमें कुछ दम नहीं है, केवल विकल्प ही विकल्प की बात है, वह नहीं टूट सकती और सारभूत अपने स्वरूप में यह प्रभु नहीं आ सकता है । है कोई विकट उपाधि, लेकिन उस विकट उपाधि का विनाश भी करेगा कौन? उस उपाधि का अभाव तो खुद को ही करना होगा, हमारा स्वभाव तो प्रभुवर है लेकिन ऐसी कोई कठिन उपाधि लगी है, जिससे कि इस सरल उपाय को भी हम नहीं कर पा रहे ꠰ करना पड़ेगा स्वयं को ही । जब से सम्हल जायें, तब से ही अपना भला हो । उसी से अपना पूरा पड़ेगा । यह संसार एक ऐसा विषम गहन वन है कि यदि आज नहीं सम्हलते, तो आगे का कोई दावा नहीं किया जा सकता कि हम कब सम्हल सकेंगे और कब अपना कल्याण कर सकेंगे? इस कारण हमें कल्याण के लिये इसी समय से तैयार होना है ।
आत्मदेव पर संकट और संकटमोचन की चिंतना―यह प्रभु आज बंधन में पड़ा है । इस पर बड़ा संकट छाया है । जैसे लौकिक जन सूर्यग्रहण के समय कहते हैं कि देखो सूर्य नारायण पर आज संकट छाया है । और, जब ग्रहण मिट गया, तो कहते कि अब सूर्य नारायण को मोक्ष हो गया । वहाँं यद्यपि संकट कुछ नहीं । सूर्य विमान पृथ्वीकायिक जीव है, नीचे जो राहुविमान है, वह भी पृथ्वीकायिक जीव है ꠰ उनका अधिष्ठाता पंचेंद्रिय देवगति के जीव हैं । संकट क्या आया, पर लोग जैसे उपाधि के आने पर संकट समझते हैं, यों ही समझिये कि उपाधि साथ लगी रहने से इस प्रभु पर संकट आया है । इसको मोक्ष चाहिये इसके मोक्ष का उपाय क्या है? बस शुद्ध चित्स्वरूप सहजपरमात्मतत्त्व का दर्शन । लौकिक जन तो लौकिक संकट दूर करने के लिए अन्य-अन्य उपाय करते हैं, जैसे―इतनी लागत की दूकान खोलेंगे, उससे धड़ाधड़ सारे काम अच्छी तरह चल जायेंगे । ठीक है, उपाय तो करते हैं, पर यह नियम तो नहीं है कि वैसा हो ही जायेगा । यहाँ के छोटे से छोटे काम भी अपने मन-माफिक हो ही जायें ऐसा कोई नियम नहीं है, लेकिन यह सहजपरमात्मतत्त्व का दर्शन मोक्ष अवश्य करा देगा, इसमें कुछ संदेह की बात नहीं है ।
सहजपरमात्मतत्त्व के दर्शन के अतिरिक्त अन्य विकल्पों में धोखा ही धोखा―अन्य लौकिक बातों में तो धोखे भरे हैं । काम बने न बने, उपाय कर रहे हैं । लोग जानते हैं, घर का कुल चलाने के लिए, संतान बढ़ाने के लिए विवाह आदिक करते हैं, पर किसी के हाथ की बात नहीं है कि कुल चल ही जाये, संतान चल ही जायें । हो गया अटपट, और प्राय: होता ही है अटपट । संसार ही अटपट है । हो गया पुत्र तो वह रहा ही आये सदा । वियोग न हो अपने सामने इस पर भी किसी का वश नहीं । योग है, पुण्य का उदय है । निमित्तनैमित्तिक मेल से चल रहा है । वश तो इस पर भी नहीं है कि थाली में भोजन है, पड़ा है और उसे हाथ से उठाया, वह खाने में आ ही जाये, वश इस तक का भी नहीं है, पर विघ्न मालूम नहीं हो रहे । कुछ पुण्य का योग ऐसा है । इस पर विश्वास क्या है? हमारा घर पर वश है क्या? भोगसाधनों पर वश है क्या? अरे वश नहीं है, पर लोग व्यर्थ ही ऐसा अहंकार बनाये हैं कि ये भोग साधन मेरे हैं इन पर मेरा अधिकार है । इन भोगसाधनों पर भी किसी का वश नहीं है, लेकिन इस सहजपरमात्मतत्त्व का दर्शन करता हुआ मेरा उपयोग, यह निष्फल न जायेगा ।
सहजपरमात्मतत्त्व के दर्शन से मोक्षलाभ का अनिवार्य नियम―पुद्गल-पुद्गल में परस्पर का निमित्तनैमित्तिक भाव में जो होता है, सो होता है, वहाँ धोखा नहीं । जीव का अजीव के साथ संबंध करने में धोखा है । जीव का अन्य जीव के साथ संबंध करने में धोखा है । जीव का किसी अन्य पर वश नहीं चल सकता । उनमें नियम नहीं बन सकता कि मैं ऐसा सोचूं तो यह काम हो ही जायेगा, मैं ऐसा करूं तों यह बात बन ही जायेगा । कोई वश नहीं है । वहाँ हम आपका, किंतु अपने आपमें अंत: प्रकाशमान अविशेष स्वसंवेदन प्रत्यक्षरूप इस सहजपरमात्मतत्त्व के दर्शन होंगे तो मोक्ष नियम से होगा, इसमें धोखा कुछ नहीं है । बनावटी और परकीय कार्यों में तो धोखा है, नियम नहीं बनता, मगर खुद का, खुद में जो दर्शन है, अनुभवन है, उससे धोखा नहीं है । नियम से अनुपम आनंद आयेगा और मुक्ति प्राप्त होगी । यह प्रभु बंधन में है । जैसे कि सूर्यग्रहण के समय लोग, कहते हैं कि सूर्य नारायण बंधन में हैं, सूर्यग्रहण समाप्त हुआ कि लोग कहने लगते कि अब सूर्य नारायण का मोक्ष हो गया, यों ही अपने आपमें विचारें कि मैं हूँ एक चित्स्वरूप और चित्स्वरूप में कितनी पवित्रता व उत्कटता है, जिसकी उपमा के लायक अन्य कुछ नहीं है । जो एक चेतने का ही प्रतिभासन का ही काम करेगा । जिसमें अन्य कोई तरंग नहीं है । उसकी सानी की अन्य कोई वस्तु बतायी ही नहीं जा सकती । पर रागद्वेषादिक, जो इसमें उत्पन्न हो रहे हैं, ये प्रकृति के धर्म हैं यों कह लीजिए । प्रकृति जो 8 प्रकार की है अथवा 148 है अथवा असंख्यात है और अनुभागरस की अपेक्षा अनंत है, उन अनंत प्रकृतियों का यह प्रभाव है कि हम आपमें ये विकल्प उठ रहे हैं, जिससे हैरान हो रहे हैं ।
संकटमुक्त्युपाय सुगम होने पर भी कठिन बन जाने का अनर्थ―देखिये―आनंद पाने की अर्थात् समस्त संकटों से छुटकारा पाने की कुंजी कितनी सरल है? स्वाधीन है, लेकिन यह काम करना बड़ा कठिन लग रहा है । अपने आपकी बात, अपने स्वरूप का बोध प्रवेश यह इसे कठिन जच रहा है, और जो बात कठिन है, कठिन क्या? असंभव है, किया ही नहीं जा सकता है ऐसी बाहरी बातें घर, धन, दूकान, व्यापार, परिवारजन आदिक ये ऊपरी थोथी बातें जो इसकी कोई साथी नहीं हैं वे इसे सरल लग रही हैं, बस इसी के मायने हैं संसार । यही है गोरखधंधा । इससे छूटने का उपाय सिवाय अपने आपके सहजस्वरूप के दर्शन के और कोई नहीं है । अपने आपकी बात सोचिये कि में आत्मा हूँ, जाननेवाला पदार्थ हूँ, वह संकटों में पड़ा है, उसके संकट दूर करना है, बस यह तो चाहिए, अन्य कुछ न चाहिए । यह चाहिए तो यह बात यहीं मिलेगी अपने आपमें, कहीं बाहर में न मिलेगी । मेरे में जो भी संकट, विडंबनायें, आपत्तियाँ आदि आयी हैं वे कहीं बाहर से नहीं आयीं, हां निमित्त अवश्य होते हैं । तो इनका छुटकारा बाहर से तो हो ही नहीं सकता । किसका शरण गहे कि हम संकटों से छूट सकें? वह कारणभूत तत्र अपने आपमें है । जैसे दूध में घी है, यों दिखता नही है पर विधि से निकल सकता है । इसी तरह हम आपमें वह स्वरूप है जो सहज आनंदमय विज्ञानमय है मगर दिखता तो नहीं है, उसे स्वरूपदृष्टि करके निहारें तो दृष्टि में आ जाएगा । अहो भैया ! कैसे हो प्रभु दर्शन? हो तो रहे, पागल, छा रही है कुबुद्धि । क्या अधिकार है कि जगत के अनंत जीवों में से उन ही की तरह कुछ जीव अपने घर में आ गए तो उन्हें मानें कि ये मेरे हैं । अरे इन पर तुम्हारा कुछ भी तो अधिकार नहीं । जो अपने अधिकार की बात नहीं उसमें दखल देने से तो दुर्गति ही होगी ।
प्रभुभक्ति के पथ से चलकर अंतर्धाम में सहज परमात्मतत्त्व का दर्शन―सत्यज्ञान के विकास में ही सत्य शांति व आनंद की प्राप्ति होगी । अज्ञान अंधेरे में रहकर तो कभी शांति न मिल सकेगी । मैं क्या हूं? इसका जितना अधिकाधिक चिंतन होगा उतना ही उत्तरोत्तर शांति का धाम बनता जाएगा । मैं क्या हूं? शुद्ध चित्स्वरूप सहजपरमात्मतत्त्व―इसकी उपासना साक्षात् तो अनुभव द्वारा होती है और परंपरया भगवद्भक्ति द्वारा होगी । भगवान का चूंकि यही व्यक्त रूप है इस कारण प्रभुभक्ति में हमें उस अंत: मर्म का जल्दी बोध हो जाता है । एक तो यहाँ वहाँ बाहर के साधनों से दिमाग हट गया, उपयोग हट गया, दूसरे भगवान के स्वरूप में अपना उपयोग लगाने से परमार्थलाभ भी होगा । भगवान का स्वरूप सशरीर भगवान की शरीर की मुद्रा निरखकर नहीं जाना जा सकता । हालांकि थोड़ा बहुत आधार उपयोग वहाँ पहुँचता है लेकिन यों समझने से कि देखो―ये प्रभु पद्मासन से बैठे हैं, कैसे ध्यान में हैं, इनकी नासादृष्टि है, कैसा पावन तेजोमय इनका देह है, ये त्रिशला के नंदन हैं, इच्छवाकुवंश के हैं । इनका ऐसा राजपाट था, ऐसी न्यायनीति से राजपाट चलाते थे, यों कितना ही भगवान के गुण बखानते जायें, पर उससे भगवान के स्वरूप का परिचय न होगा । जिनको हम भगवान मानते हैं, तीर्थंकर हुए―महावीरस्वामी भगवान हुए, राम भगवान हुए, हनुमान भगवान हुए, विदेह के तीर्थंकर हुए, उनका जो बाह्य प्रवर्तन है, उनका जो देह है, उनके जो मातापिता है, उनका जो लौकिक चमत्कार है उस सबका वर्णन करके भी हम भगवत᳭स्वरूप तक नहीं पहुँच सकते ।
सहजपरमात्मतत्त्व के दर्शन का प्रयोग―यद्यपि सर्वप्रथम प्रभुचरित्र, पुभुमुद्रा आदि सब बातें आयेंगी सीखने में, पर इस शिक्षण से अभी हम प्रभुस्वरूप तक नहीं पहुँचे । प्रभुस्वरूप तक हम तब पहुँचेंगे जबकि प्रभु के स्वरूपमात्र पर दृष्टि जाये । ऐसा ध्यान बने कि यह ज्ञानमात्र प्रभु क्या है? ज्ञानपुंज, केवल ज्ञान प्रकाशमात्र, इस प्रकार जब हम व्यक्ति में न बंधकर एक उस ज्योतिस्वरूप में रहेंगे, एक रसरूप से केवल उस ज्योति पर ही दृष्टि हम लगायेंगे तो अपने आप ही अंदर से अनुपम आल्हाद उत्पन्न होगा और उस आल्हाद के साथ ही जो ज्ञान ज्योति का दर्शन है बस वहाँ हम समझ पायेंगे कि प्रभु का स्वरूप यह है जिस स्वरूप के कारण प्रभु अनंत आनंदमय हैं, व्याकुलता से रहित है और कृतार्थ हैं । तो यह अनुभव प्रभु का दर्शन हुआ । हम आप अपने आपमें जितना केंद्रित होंगे, संयत होंगे, उतने ही निर्विकल्प बनेंगे, बाह्य भोगों से हटेंगे, चिंताओं से दूर होंगे । अपने को केवल Pure मात्र अनुभव करें, रागद्वेषमोह, विचार, विकल्प, वितर्क इन सब मलों से रहित सर्व से निराला केवल एक चैतन्यमात्र अपने आपको निरखने पर उस सहजपरमात्मतत्त्व का दर्शन और अनुभव होता है । उसके प्रताप से इस प्रभु का मोक्षमार्ग प्रकर्षरूप से उत्पन्न होता है । मैं वह हूं जिसके आलंबन से सारे संकट दूर होते हैं । सीधा निष्कर्ष यह है कि कोई मैं का स्वरूप तो ठीक-ठीक समझे नहीं, और सोचे कि मैं मुक्त हो जाऊंगा तो ऐसा कैसे हो सकेगा ? जब तक अपना विशुद्ध स्वरूप समझ में न आएगा तब तक परमात्म रहस्य ज्ञात नहीं हो सकता ।
अंत: संयत होकर ही सहजपरमात्मतत्त्व के दर्शन की शक्यता―भैया, वैसे भी हम आप लोग किसी भी स्थिति में निश्चय से किसी दूसरे से न राग करते हैं, न दूसरे को जानते भी हैं, यह सब व्यवहार में कहा जाता है कि हम दूसरे से राग करते हैं । वहाँ वास्तविकता यह है कि हम दूसरे को अपने ज्ञान में बसाकर अपने आपमें ही अपने को रंजित करते हैं, राग युक्त करते हैं, क्योंकि किसी अन्य पदार्थ की क्रिया अपने प्रदेशों से बाहर हो नहीं सकती । यह अंगुलि अंगुली से बाहर कुछ काम कर दे, इसमें सामर्थ्य नहीं है । भले ही लोगों को दिखता है कि इन अंगुलियों ने देखो पुस्तक उठाकर घर दिया, पर अंगुलियों ने इस प्रसंग में भी अपने प्रदेशों से बाहर कुछ काम नहीं किया । बस अंगुलियां चली थीं, उस बीच संपर्क में पुस्तक थी । तो अंगुलियों ने वहाँ अपना काम किया, पुस्तक अपने में चली । यों ही सब जगह देखें तो कोई भी पदार्थ अपने से बाहर कोई काम नहीं कर पाता, लेकिन लोगों को विश्वास नहीं, इसलिए कर्तृत्वबुद्धि लगाये हैं मैं ऐसा कर दूंगा, मैं ऐसा करता हूँ आदि । अरे आत्मभूत सिवाय अपने ज्ञान और विकल्प के कुछ भी नहीं करता । तेरा अहंकार व्यर्थ है । तू तो ज्ञानस्वरूप अपने प्रदेशों में है । उस ज्ञान गुण का प्रयोग ज्ञान के आघार में होता है । जैसे दर्पण की स्वच्छता का प्रयोग दर्पण में होता है । वस्तुत: हम जो कुछ समझ पाते हैं, यहीं समझ पाते हैं, बाहर समझा नहीं करते । जैसे कोई पुरुष दर्पण में देख रहा है और उसके पीठ पीछे खड़े हुए बालक हाथ पैर चलाने, मुंह बनाने आदिक की जो भी क्रियायें कर रहे हैं उनका वर्णन वह पुरुष करता जाता है, तो जैसे वह देख तो रहा दर्पण और वर्णन करता है बाहरी क्रियाओं का ऐसे ही वस्तुत: जान तो रहे हैं हम अपने आपमें, पर ज्ञेयाकाररूप से समस्त पदार्थ ज्ञान में आ रहे हैं । इसे उपचार से व्यवहार से हम यह कहते कि हम इतने पदार्थों को जानते हैं । भला बतलाओ जब इन पदार्थों के साथ निश्चय से मेरा जानने तक का भी संबंध नहीं तो फिर राग का क्या संबंध? स्व-स्वामित्व का क्या संबंध? वस्तु की स्वतंत्रता के ज्ञान से परवस्तुओं से हटकर अपने आपमें जितना विश्राम पाकर प्रवेश करेंगे, निर्विकल्प होंगे उतना ही हम उस निर्विकल्प अनुभव में सहजपरमात्मतत्त्व के दर्शन पायेंगे और जिस सहजपरमात्मतत्त्व के दर्शन से हमारे ये सारे संकट छूटेंगे, मोक्ष मार्ग चलेगा बस वही मैं सहजपरमात्मस्वरूप हूँ । सहज का अर्थ है―मैं हूँ अपने आप अपने ही सत्त्व के कारण स्वयं जिस स्वरूप हूँ बस वह तो मेरा स्वरूप है और उपाधि देह कर्म आदिक इनके संबंध में जो ये तरंगे उठती हैं वह मेरा स्वरूप नहीं है । मैं शुद्ध चिन्मात्र सहजपरमात्मतत्त्व हूँ ।