शीलपाहुड गाथा 32
From जैनकोष
आगे कहते हैं कि यदि नरक में भी शील हो जाय और विषयों में विरक्त हो जाय तो वहाँ से निकलकर तीर्थंकर पद को प्राप्त होता है -
जाए विसयविरत्तो सो गमयदि णरयवेयणा पउरा ।
ता लेहदि अरुहपयं भणियं जिणवड्ढाणेण ।।३२।।
य: विषयविरक्त: स: गमयति नरकवेदना: प्रचुरा: ।
तत् लभते अर्हत्पदं भणितं जिनवर्द्ध मानेन ।।३२।।
यदि विषयविरक्त हो तो वेदना जो नरकगत ।
वह भूलकर जिनपद लहे यह बात जिनवर ने कही ।।३२।।
अर्थ - विषयों से विरक्त है सो जीव नरक की बहुत वेदना को भी गँवाता है वहाँ भी अति दु:खी नहीं होता है और वहाँ से निकलकर तीर्थंकर होता है ऐसा जिन वर्द्धमान भगवान् ने कहा है ।
भावार्थ - जिनसिद्धान्त में ऐसे कहा है कि तीसरी पृथ्वी से निकलकर तीर्थंकर होता है यह भी शील का माहात्म्य है । वहाँ सम्यक्त्व सहित होकर विषयों से विरक्त हुआ भली भावना भावे तब नरक वेदना भी अल्प हो जाती है और वहाँ से निकलकर अरहंतपद प्राप्त करके मोक्ष पाता है, ऐसा विषयों से विरक्तभाव वह शील का ही माहात्म्य जानो । सिद्धान्त में इसप्रकार कहा है कि सम्यग्दृष्टि के ज्ञान और वैराग्य की शक्ति नियम से होती है, वह वैराग्यशक्ति है वही शील का एकदेश है इसप्रकार जानना ।।३२।।