शीलपाहुड गाथा 38
From जैनकोष
आगे कहते हैं कि यह प्राप्ति जिनवचन से होती है -
जिणवयणगहिदसारा विसयविरत्ता तवोधणा धीरा ।
सीलसलिलेण ण्हादा ते सिद्धालयसुहं जंति ।।३८।।
जिनवचनगृहीतसारा विषयविरक्ता: तपोधना धीरा: ।
शीलसलिलेन स्नाता: ते सिद्धालयसुखं यांति ।।३८।।
जो शील से सम्पन्न विषय विरक्त एवं धीर हैं ।
वे जिनवचन के सारग्राही सिद्ध सुख को प्राप्त हो ।।३८।।
अर्थ - जिनने जिनवचनों से सार को ग्रहण कर लिया है और विषयों से विरक्त हो गये हैं, जिनके तप ही धन है तथा धीर हैं ऐसे होकर मुनि शीलरूप जल से स्नानकर शुद्ध हुए वे सिद्धालय, जो सिद्धों के रहने का स्थान उसके सुखों को प्राप्त होते हैं ।
भावार्थ - जो जिनवचन के द्वारा वस्तु के यथार्थ स्वरूप को जानकर उसका सार जो अपने शुद्ध स्वरूप की प्राप्ति का ग्रहण करते हैं वे इन्द्रियों के विषयों से विरक्त होकर तप अंगीकार करते हैं-मुनि होते हैं धीर वीर बनकर परिषह उपसर्ग आने पर भी चलायमान नहीं होते हैं तब शील जो स्वरूप की प्राप्ति की पूर्णतारूप चौरासी लाख उत्तरगुण की पूर्णता वही हुआ निर्मल जल, उससे स्नान करके सब कर्मल को धोकर सिद्ध हुए, वह मोक्षमंदिर में रहकर वहाँ परमानन्द अविनाशी अतीन्द्रिय अव्याबाध सुख को भोगते हैं, यह शील का माहात्म्य है । ऐसा शील जिनवचन से प्राप्त होता है, जिनागम का निरन्तर अभ्यास करना उत्तम है ।।३८।।