शीलपाहुड गाथा 39
From जैनकोष
आगे अंतसमय में सल्लेखना कही है, उसमें दर्शन ज्ञान चारित्र तप इन चार आराधना का उपदेश है ये भी शील ही से प्रगट होते हैं, उसको प्रगट करके कहते हैं -
सव्वगुणखीणकम्मा सुहदुक्खविवज्जिदा मणविसुद्धा ।
पप्फोडियकम्मरया हवंति आराहणापयडा ।।३९।।
सर्वगुणक्षीणकर्माण: सुखदु:खविवर्जिता: मनोविशुद्धा: ।
प्रस्फोटितकर्मरजस: भवंति आराधनाप्रकटा: ।।३९।।
सुख-दुख विवर्जित शुद्धमन अर कर्मरज से रहित जो ।
वह क्षीणकर्मा गुणमयी प्रकटित हुई आराधना ।।३९।।
अर्थ - सर्वगुण जो मूलगुण उत्तरगुणों से जिसमें कर्म क्षीण हो गये हैं, सुख-दु:ख से रहित हैं, जिसमें मन विशुद्ध है और जिसमें कर्मरूप रज को उड़ा दी है ऐसी आराधना प्रगट होती है ।
भावार्थ - पहिले तो सम्यग्दर्शन सहित मूलगुण व उत्तरगुणों के द्वारा कर्मो की निर्जरा होने से कर्म की स्थिति अनुभाग क्षीण होता है, पीछे विषयों के द्वारा कुछ सुख दु:ख होता था उससे रहित होता है, पीछे ध्यान में स्थित होकर श्रेणी चढ़े तब उपयोग विशुद्ध हो, कषायों का उदय अव्यक्त हो, तब दु:ख-सुख की वेदना मिटे, पीछे मन विशुद्ध होकर क्षयोपशम ज्ञान के द्वारा कुछ ज्ञेय से ज्ञेयान्तर होने का विकल्प होता है वह मिटकर एकत्ववितर्क अविचार नाम का शुक्लध्यान बारहवें गुणस्थान के अन्त में होता है यह मन का विकल्प मिटकर विशुद्ध होना है । पीछे घातिया कर्म का नाश होकर अनन्त चतुष्टय प्रकट होते हैं, यह कर्मरज का उड़ना है, इसप्रकार आराधना की संपूर्णता प्रकट होना है । जो चरमशरीरी हैं उनके तो इसप्रकार आराधना प्रकट होकर मुक्ति की प्राप्ति होती है । अन्य के आराधना का एकदेश होता है अंत में उसका आराधन करके स्वर्ग प्राप्त होता है, वहाँ सागरों पर्यंत सुख भोग कर वहाँ से चयकर मनुष्य हो आराधना को संपूर्ण करके मोक्ष प्राप्त होता है, इसप्रकार जानना, यह जिनवचन का और शील का माहात्म्य है ।।३९।।