शीलपाहुड गाथा 4
From जैनकोष
आगे कहते हैं कि यह जीव जबतक विषयों में प्रवर्तता है तबतक ज्ञान को नहीं जानता है और ज्ञान को जाने बिना विषयों से विरक्त हो तो भी कर्मो का क्षय नहीं करता है -
ताव ण जाणदि णाणं विसयबलो जाव वट्टए जीवो ।
विसए विरत्तमेत्तो ण खवेइ पुराइयं कम्मं ।।४।।
तावत् न जानाति ज्ञानं विषयबल: यावत् वर्त्तते जीव: ।
विषये विरक्तमात्र: न क्षिपते पुरातनं कर्मं ।।४।।
विषय बल हो जबतलक तबतलक आतमज्ञान ना ।
केवल विषय की विरक्ति से कर्म का हो नाश ना ।।४।।
अर्थ - जबतक यह जीव विषयबल अर्थात् विषयों के वशीभूत रहता है, तबतक ज्ञान को नहीं जानता है और ज्ञान को जाने बिना केवल विषयों में विरक्तमात्र ही से पहिले बाँधे हुए कर्मो का क्षय नहीं करता है ।
भावार्थ - जीव का उपयोग क्रमवर्ती है और स्वस्थ (स्वच्छत्व) स्वभाव है, अत: जैसे ज्ञेय को जानता है, उससमय उससे तन्मय होकर वर्तता है, अत: जबतक विषयों में आसक्त होकर वर्तता है, तबतक ज्ञान का अनुभव नहीं होता है, इष्ट अनिष्ट भाव ही रहते हैंे और ज्ञान का अनुभव किये बिना कदाचित् विषयों को त्यागे तो वर्तमान विषयों को छोड़े, परन्तु पूर्व कर्म बाँधे थे उनका तो ज्ञान का अनुभव किये बिना क्षय नहीं होता है, पूर्व कर्म के बंध का क्षय करने में (स्वसन्मुख) ज्ञान ही का सामर्थ्य है इसलिए ज्ञानसहित होकर विषय त्यागना श्रेष्ठ है, विषयों को त्यागकर ज्ञान की ही भावना करना यही सुशील है ।।४।।