शीलपाहुड गाथा 9
From जैनकोष
आगे इसप्रकार शीलसहित ज्ञान से जीव शुद्ध होता है उसका दृष्टान्त कहते हैं -
जह कंचणं विसुद्धं धम्मइयं खडियलवणलेवेण ।
तह जीवो वि विसुद्धं णाणविसलिलेण विमलेण ।।९।।
यथा कांचनं विशुद्धं धमत् खटिकालघणलेपेन ।
तथा जीवोsपि विशुद्ध: ज्ञानविसलिलेनं विमलेन ।।९।।
जिसतरह कंचन शुद्ध हो खड़िया-नमक के लेप से ।
बस उसतरह हो जीव निर्मल ज्ञान जल के लेप से ।।९।।
अर्थ - जैसे कांचन अर्थात् सुवर्ण खडिय अर्थात् सुहागा (खड़िया क्षार) और नमक के लेप से विशुद्ध निर्मल कांतियुक्त होता है, वैसे ही जीव भी विषयकषायों के मलरहित निर्मल ज्ञानरूप जल से प्रक्षालित होकर कर्मरहित विशुद्ध होता है ।
भावार्थ - ज्ञान आत्मा का प्रधान गुण है, परन्तु मिथ्यात्व विषयों से मलिन है इसलिए मिथ्यात्व-विषयरूप मल को दूर करके इसकी भावना करे इसका एकाग्रता से ध्यान करे तो कर्मो का नाश करे, अनन्तचतुष्टय प्राप्त करके मुक्त होकर शुद्धात्मा होता है, यहाँ सुवर्ण का तो दृष्टान्त है वह जानना ।।९।।