संग्रह कृष्टि
From जैनकोष
क्षपणासार/494-500 भाषा
–एक प्रकार बँधता (बढ़ता) गुणाकार रूप जो अंतरकृष्टि, उनके समूह का नाम संग्रहकृष्टि है।494। कृष्टिनि कै अनुभाग विषै गुणाकार का प्रमाण यावत् एक प्रकार बढ़ता भया तावत् सो ही संग्रहकृष्टि कही। बहुरि जहाँ निचली कृष्टि तै ऊपरली कृष्टि का गुणाकार अन्य प्रकार भया तहाँ तै अन्य संग्रहकृष्टि कही है। प्रत्येक संग्रहकृष्टि के अंतर्गत प्रथम अंतरकृष्टि से अंतिम अंतरकृष्टि पर्यंत अनुभाग अनंत अनंतगुणा है। परंतु सर्वत्र इस अनंत गुणकार का प्रमाण समान है, इसे स्वस्थान गुणकार कहते हैं। प्रथम संग्रहकृष्टि के अंतिम अंतरकृष्टि से द्वितीय संग्रहकृष्टि की प्रथम अंतरकृष्टि का अनुभाग अनंतगुणा है। यह द्वितीय अनंत गुणकार पहले वाले अनंत गुणकार से अनंतगुणा है, यही परस्थान गुणकार है। यह द्वितीय संग्रहकृष्टि की अंतिम अंतरकृष्टि का अनुभाग भी उसकी इस प्रथम अंतरकृष्टि से अनंतगुणा है। इसी प्रकार आगे भी जानना।498। संग्रहकृष्टि विषै जितनी अंतरकृष्टि का प्रमाण होइ तिहि का नाम संग्रहकृष्टि का आयाम है।495। चारों कषायों की लोभ से क्रोध पर्यंत जो 12 संग्रहकृष्टियाँ हैं उनमें प्रथम संग्रहकृष्टि से अंतिम संग्रहकृष्टि पर्यंत पल्य/असमख्यात भाग कम करि घटता संग्रहकृष्टि आयाम जानना।496। नौ कषाय संबंधी सर्वकृष्टि क्रोध की संग्रहकृष्टि विषै ही मिला दी गयी है।496। क्रोध के उदय सहित श्रेणी चढ़ने वाले के 12 संग्रह कृष्टि होती है। मान के उदय सहित चढ़ने वाले के 9; माया वाले के 6; और लोभवाले के केवल 3 ही संग्रहकृष्टि होती है, क्योंकि उनसे पूर्व पूर्व की कृष्टियाँ अपने से अगलियों में संक्रमण कर दी गयी है।497। अनुभाग की अपेक्षा 12 संग्रहकृष्टियों में लोभ की प्रथम अंतरकृष्टि से क्रोध की अंतिम अंतरकृष्टि पर्यंत अनंत गुणित क्रम से (अंतरकृष्टि का गुणकार स्वस्थान गुणकार है और संग्रहकृष्टि का गुणकार परस्थान गुणकार है जो स्वस्थान गुणकार से अनंतगुणा है–(देखें आगे कृष्ट्यंतर कृष्टि-5) अनुभाग बढ़ता बढ़ता हो है।499। द्रव्य की अपेक्षा विभाग करने पर क्रम उलटा हो जाता है। लोभ की जघन्य कृष्टि के द्रव्यतैं लगाय क्रोध की उत्कृष्टकृष्टि का द्रव्य पर्यंत (चय हानि) हीन क्रम लिये द्रव्य दीजिये।500।
अधिक जानकारी के लिये देखें कृष्टि 4।