संविति
From जैनकोष
नयचक्रवृहद् गाथा 350
लक्खणदो णियलक्खे अणुहवयाणस्स जं हवे सोक्खं। सा संवित्ती भणिया सयलवियप्पाण णिद्दहणा ॥350॥
= निजात्मा के लक्ष्य से सकल विकल्पों को दग्ध करने पर जो सौख्य होता है उसे संवित्ति कहते हैं।
अधिक जानकारी के लिये देखें अनुभव - 1.6।