आतमज्ञान लखैं सुख होइ
From जैनकोष
आतमज्ञान लखैं सुख होइ
पंचेन्द्री सुख मानत भोंदू, यामें सुखको लेश न कोइ।।आतम. ।।
जैसे खाज खुजावत मीठी, पीछैंतैं दुखतैं दे रोइ ।
रुधिरपान करि जोंक सुखी ह्वै, सूँतत बहुदुख पावै सोई ।।आतम. ।।१ ।।
फरस-दन्ति रस-मीन गंध-अलि, रूप-शलभ मृग-नाद हिलोइ ।
एक एक इन्द्रनितैं प्राणी, दुखिया भये गये तन खोइ ।।आतम. ।।२ ।।
जैसे कूकर हाड़ चचोरै, त्यों विषयी नर भोगै भोइ ।
`द्यानत' देखो राज त्यागि नृप, वन वसि सहैं परीषह जोइ ।।आतम. ।।३ ।।