ग्रन्थ:पंचास्तिकाय संग्रह-सूत्र - गाथा 47 - समय-व्याख्या
From जैनकोष
णाणी णाणं च तहा अत्थंतरि दो दु अण्णमण्णस्स । (47)
दोण्हं अचेदणत्तं पसजदि सम्मं जिणावमदं ॥54॥
अर्थ:
यदि ज्ञानी और ज्ञान सदा परस्पर अर्थान्तरभूत / पूर्ण भिन्न हों तो दोनों को अचेतनता का प्रसंग आएगा; जो सम्यक् प्रकार से जिनों को सम्मत नहीं है ।
समय-व्याख्या:
द्रव्यगुणानामर्थांतरभूतत्वे दोषोऽयम् । ज्ञानी ज्ञानाद्यद्यर्थांतरभूतस्तदा स्वकरणांशमंतरेण परशुरहितदेवदत्तवत्करणव्यापारासमर्थत्वादचेतयमानोऽचेतन एव स्यात् । ज्ञानं च यदि ज्ञानिनोऽर्थांतरभूतं तदा तत्कर्त्रंशमंतरेण देवदत्तरहितपरशुवत्तत्कर्तृत्वेव्यापारासमर्थत्वादचेतयमानमचेतनमेव स्यात् । न च ज्ञानज्ञानिनोनोर्युतसिद्धयोस्संयोगेन चेतनत्वं, द्रव्यस्य निर्विशेषस्य गुणानां निराश्रयाणां शून्यत्वादिति ॥४७॥
समय-व्याख्या हिंदी :
द्रव्य और गुणों को अर्थान्तर-पना हो तो यह दोष आयेगा ।
यदि ज्ञानी (आत्मा) ज्ञान से अर्थान्तर-भूत हो तो (आत्मा) अपने करण-अंश बिना, कुल्हाड़ी रहित देवदत्त की भांति, करण का व्यापार करने में असमर्थ होने से नहीं चेतता (जानता) हुआ अचेतन ही होगा । और यदि ज्ञान ज्ञानी से (आत्मा से) अर्थान्तर-भूत हो तो ज्ञान अपने कर्तृ-अंश के बिना, देवदत्त रहित कुल्हाड़ी की भांति, अपने कर्ता का व्यापार करने में असमर्थ होने से नहीं चेतता (जानता) हुआ अचेतन ही होगा । पुनश्च, युतसिद्ध ऐसे ज्ञान और ज्ञानी (आत्मा) को संयोग से चेतन-पना हो ऐसा भी नहीं है, क्योंकि निर्विशेष द्रव्य और निराश्रय गुण शून्य होते हैं ॥४७॥