ग्रन्थ:पद्मपुराण - पर्व 122
From जैनकोष
एक सौ बाईसवां पर्व
अथानंतर जिनके राग-द्वेष शांत हो चुके थे ऐसे श्री भगवान् बलदेव ने सामान्य मनुष्यों के लिए अशक्य अत्यंत कठिन तप किया ॥1॥ जब सूर्य आकाश के मध्य में चमकता था तब तेला आदि का उपवास धारण करने वाले राम वन में आहारार्थ भ्रमण करते थे और गोपाल आदि उनकी उपासना करते थे ॥2॥ वे व्रत गुप्ति समिति आदि के प्ररूपक शास्त्रों के जानने वाले थे, जितेंद्रिय थे, साधुओं के साथ स्नेह करने वाले थे, स्वाध्याय में तत्पर थे, अनेक उत्तम कार्यों के विधायक थे, अनेक महाऋद्धियाँ प्राप्त होने पर भी निर्विकार थे, अत्यंत श्रेष्ठ थे, परीषह रूपी योद्धा तथा मोह को जीतने के लिए उद्यत रहते थे, तप के प्रभाव से व्याघ्र और सिंह शांत होकर उनकी ओर देखते थे, जिनके नेत्र हर्ष से विस्तृत थे तथा जिन्होंने अपनी गरदन ऊपर की ओर उठा ली थी ऐसे मृगों के झुंड बड़े प्रेम से उन्हें देखते थे, उनका चित्त मोक्ष में लग रहा था, तथा जो इच्छा और आसक्ति से रहित थे। इस प्रकार उत्तम गुणों को धारण करने वाले भगवान् राम वन के मध्य बड़े प्रयत्न से ईर्या समितिपूर्वक मार्ग में विहार करते थे ॥3-6॥
कभी शिलातल पर खड़े होकर अथवा पर्यंकासन से विराजमान होकर उस तरह ध्यान के भीतर प्रवेश करते थे जिस तरह कि सूर्य मेघों के भीतर प्रवेश करता है ॥7॥ वे प्रभु कभी किसी सुंदर स्थान में दोनों भुजाएँ नीचे लटकाकर मेरु के समान निष्कंपचित्त हो प्रतिमायोग से विराजमान होते थे ।।8।। कहीं अत्यंत शांत एवं वैराग्य रूपी लक्ष्मी से युक्त राम जूड़ा प्रमाण भूमि को देखते हुए विहार करते थे और वनस्पतियों पर निवास करने वाली देवांगनाएँ उनकी पूजा करती थीं ॥9॥ इस प्रकार अनुपम आत्मा के धारक महामुनि राम ने जो उस प्रकार कठिन तप किया था, इस दुःषम नामक पंचम काल में अन्य मनुष्य उसका ध्यान नहीं कर सकते हैं ॥10॥ तदनंतर विहार करते हुए राम क्रम-क्रम से उस कोटिशिला पर पहुँचे जिसे पहले लक्ष्मण ने नमस्कार कर अपनी भुजाओं से उठाया था ॥11॥ जिन्होंने स्नेह का बंधन तोड़ दिया था तथा जो कर्मों का क्षय करने के लिए उद्यत थे ऐसे महात्मा श्री राम उस शिला पर आरूढ़ हो रात्रि के समय प्रतिमा योग से विराजमान हुए ॥12॥
अथानंतर जिसने अवधिज्ञान रूपी नेत्र का प्रयोग किया था तथा जो अत्यधिक स्नेह से युक्त था ऐसे सीता के पूर्व जीव अच्युत स्वर्ग के प्रतींद्र ने उन्हें देखा ॥13॥ उसी समय उसने अपने पूर्व भव तथा जिन शासन के महोत्तम माहात्म्य को क्रम से स्मरण किया ॥14॥ स्मरण करते ही उसे ध्यान आ गया कि ये संसार के आभूषण स्वरूप वे राजा राम हैं जो मनुष्य लोक में जब मैं सीता थी तब मेरे पति थे ॥15॥ वह प्रतींद्र विचार करने लगा कि अहो ! कर्मों की विचित्रता से होने वाली मन की विविध चेष्टा को देखो जो पहले अन्य प्रकार की इच्छा थी और अब अन्य प्रकार की इच्छा हो रही है ॥16॥ अहो ! कार्यों की शुभ-अशुभ कर्मों में जो पृथक् पृथक् प्रवृत्ति है उसे देखो। लोगों का जन्म विचित्र है जो कि यह साक्षात् ही दिखाई देता है ॥17॥ ये बलभद्र और नारायण जगत् को आश्चर्य उत्पन्न करने वाले थे पर अपने-अपने योग्य कर्मों के प्रभावक वे ऊर्ध्व तथा अधः स्थान प्राप्त करने वाले हुए अर्थात् एक लोक के ऊर्ध्व भाग में विराजमान होंगे और एक अधोलोक में उत्पन्न हुआ ॥18॥ इनमें एक बड़ा तो क्षीण संसारी तथा चरम शरीरी है और दूसरा छोटा-लक्ष्मण, पूर्ण संसारी नरक में दुःखी हो रहा है ॥16॥ दिव्य तथा मनुष्य संबंधी भोगों से जिसकी आत्मा तृप्त नहीं हुई ऐसा लक्ष्मण पाप कर अभिमान के कारण नरक में दुःखी हो रहा है ॥20॥ यह कमललोचन श्रीमान् बलभद्र, लक्ष्मण के वियोग से जिनेंद्र भगवान् की शरण में आया है ॥21॥ यह सुंदर, पहले हल रत्न से बाह्य शत्रुओं को पराजित कर अब ध्यान की शक्ति से इंद्रियों को जीतने के लिए उद्यत हुआ है ।।22।। इस समय यह क्षपक श्रेणी में आरूढ़ है इसलिए मैं ऐसा काम करता हूँ कि जिससे यह मेरा मित्र ध्यान से भ्रष्ट हो जाय ॥23॥ [ और मोक्ष न जाकर स्वर्ग में ही उत्पन्न हो ] तब महामित्रता से उत्पन्न प्रीति के कारण इसके साथ सुखपूर्वक मेरुपर्वत और नंदीश्वर द्वीप को जाऊँगा उस समय की शोभा ही निराली होगी। विमान के शिखर पर आरूढ़ तथा परम विभूति के सहित हम दोनों एक दूसरे के लिए अपने दुःख और सुख बतलावेंगे ॥24-25॥ फिर अधोलोक में पहुंचे हुए लक्ष्मण को प्रतिबुद्धता प्राप्त कराने के लिए शुभकार्य के करने वाले उन्हीं राम के साथ जाऊँगा ॥26।। यह तथा इसी प्रकार का अन्य विचारकर सीता का जीव स्वयंप्रभ देव, अन्य देवों के साथ आरणाच्युत कल्प से उतरकर सौधर्म कल्प में आया ॥27॥ तदनंतर सौधर्म कल्प से चलकर वह पृथिवी के उस विस्तृत वन में उतरा जो कि नंदन वन के समान जान पड़ता था और जहाँ महामुनि रामचंद्र ध्यान लगाकर विराजमान थे ॥28॥
उस वन में अनेक फूलों की पराग को धारण करने वाली सुखदायक वायु बह रही थी और सब ओर पक्षियों का मनोहर कल-कल शब्द हो रहा था ।।29॥ वकुल वृक्ष के ऊपर भ्रमरों का सबल समूह चश्चल हो रहा था तथा कोकिलाओं के समूह जोरदार मधुर शब्द कर रहे थे ॥30॥ नाना प्रकार के सुंदर शब्द प्रकट करने में निपुण मैनाएँ मनोहर शब्द कर रहीं थीं और पलाश वृक्षों पर बैठे शुक स्पष्ट शब्दों का उच्चारण करते हुए क्रीड़ा कर रहे थे ॥32॥ भ्रमरों से सहित आमों की मंजरियाँ कामदेव के नूतन तीक्ष्ण बाणों के समान जान पड़ती थीं ॥32॥ कनेर के फूलों से पीला-पीला दिखने वाला वन ऐसा जान पड़ता था मानो पीले रंग के चूर्ण से क्रीड़ा करने के लिए उद्यत ही हुआ हो ॥33॥ मदिरा के गंडूषरूपी दौहद की उपेक्षा करने वाला वकुल वृक्ष ऐसा बरस रहा था जैसा कि वर्षा काल मेघों के समूह से बरसता है ।।34।।
अथानंतर इच्छानुसार रूप बदलने वाला वह स्वयंप्रभ प्रतींद्र जानकी का वेष रख मदमाती चाल से राम के समीप जाने के लिए उद्यत हुआ ॥35।। वह वन मन को हरण करने वाला, एकांत, नाना प्रकार के वृक्षों से युक्त एवं सब ऋतुओं के फूलों से व्याप्त था ॥36॥ तदनंतर सुखपूर्वक वन में घूमती हुई सीता महादेवी, अकस्मात् उक्त साधु के आगे प्रकट हुई । ॥37॥ वह बोली कि हे राम ! समस्त जगत् में घूमती हुई मैंने बहुत भारी पुण्य से जिस किसी तरह आपको देख पाया है ॥38॥ हे नाथ ! वियोगरूपी तरंगों से व्याप्त स्नेहरूपी गंगा की धार में पड़ी हुई मुझ सुवदना को आप इस समय सहारा दीजिए― डूबने से बचाइए ॥39॥ जब उसने नाना प्रकार की चेष्टाओं और मधुर वचनों से मुनि को अकंप समझ लिया तब मोहरूपी पाप से जिसका चित्त ग्रसा था, जो कभी मुनि के आगे खड़ी होती थी और कभी दोनों वगलों में जा सकती थी, जो काम ज्वर से ग्रस्त थी, जिसका शरीर काँप रहा था और जिसका लाल-लाल ऊँचा ओंठ फड़क रहा था ऐसी मनोहारिणी सीता उनसे बोली कि हे देव, अपने आपको पंडिता मानने वाली मैं उस समय बिना विचारे ही आपको छोड़कर दीक्षिता हो गई और तपस्विनी बनकर इधर-उधर विहार करने लगी ॥40-42।। तदनंतर विद्याधरों की उत्तम कन्याएँ मुझे हरकर ले गई। वहाँ उन विदुषी कन्याओं ने नाना उदाहरण देते हुए मुझसे कहा कि ऐसी अवस्था में यह विरुद्ध दीक्षा धारण करना व्यर्थ है क्योंकि यथार्थ में यह दीक्षा अत्यंत वृद्धा स्त्रियों के लिए ही शोभा देती है ॥43-44।। कहाँ तो यह यौवनपूर्ण शरीर और कहाँ यह कठिन व्रत ? क्या चंद्रमा की किरण से पर्वत भेदा जा सकता है ? ॥45॥ हम सब तुम्हें आगे कर चलती हैं और हे देवि ! तुम्हारे आश्रय से बलदेव को वरेंगी― उन्हें अपना भर्ता बनावेंगी ॥46॥ हम सभी कन्याओं के बीच तुम प्रधान रानी होओ। इस तरह राम के साथ हम सब जंबूद्वीप में सुख से क्रीड़ा करेंगी ॥47॥ इसी बीच में नाना अलंकारों से भूषित तथा दिव्य लक्ष्मी से युक्त हजारों कन्याएँ वहाँ आ पहुँची ॥48॥ राजहंसी के समान जिनकी सुंदर चाल थी ऐसी सीतेंद्र की विक्रिया से उत्पन्न हुई वे सब कन्याएँ राम के समीप गई ॥49॥ कोयल से भी अधिक मधुर बोलने वाली कितनी ही कन्याएँ ऐसी जान पड़ती थीं मानो साक्षात् लक्ष्मी ही स्थित हो ॥50॥ कितनी ही कन्याएँ मन को आह्लादित करने वाले, कानों के लिए उत्तम रसायन स्वरूप तथा बाँसुरी और वीणा के शब्द से अनुगत दिव्य संगीतरूपी अमृत को प्रकट कर रही थीं। जिनके केश भ्रमरों के समान काले थे, जिनकी कांति बिजली के समान थी, जो अत्यंत सुकुमार और कृशोदरी थीं, स्थूल और उन्नत स्तनों को धारण करने वाली थीं, सुंदर शृंगार पूर्ण हास्य करने वाली थी, रंग बिरंगे वस्त्र पहने हुई थीं, नाना प्रकार के हाव-भाव तथा आलाप करने वाली थीं और कांति से जिन्होंने आकाश को भर दिया था ऐसी वे सब कन्याएँ मुनि के चारों ओर स्थित हो उस तरह मोह उत्पन्न कर रही थीं, जिस तरह कि पहले बाहुबली के आसपास खड़ी देव-कन्याएँ ।।51-54॥ कोई एक कन्या छाया की खोज करती हुई वकुल वृक्ष के नीचे पहुँची। वहाँ पहुँचकर उसने उस वृक्ष को खींच दिया जिससे उस पर बैठे भ्रमरों के समूह उड़कर उस कन्या की ओर झपटे और उनसे भयभीत हो वह कन्या मुनि की शरण में जा खड़ी हुई ॥55॥ कितनी ही कन्याएँ किसी वृक्ष के नाम को लेकर विवाद करती हुई अपना पक्ष लेकर मुनिराज से निर्णय पूछने लगी कि देव ! इस वृक्ष का क्या नाम है ? ॥56॥ जिसका वस्त्र खिसक रहा था ऐसी किसी कन्या ने ऊँचाई पर स्थित माधवी लता का फूल तोड़ने के छल से अपना बाहुमूल दिखाया ॥57।। जिनके हस्तरूपी पल्लव हिल रहे थे तथा जो हजारों प्रकार के तालों से युक्त संगीत कर रही थीं ऐसी कितनी ही कन्याएँ मंडली बाँधकर रासक क्रीड़ा करने के लिए उद्यत थीं ॥58।। किसी कन्या ने जल के समान स्वच्छ लाल वस्त्र से सुशोभित अपने नितंबतट पर लज्जा के कारण आकाश के समान नील वर्ण का लहँगा पहन रक्खा था ॥59॥
गौतम स्वामी कहते हैं कि अन्य मनुष्यों के चित्त को हरण करने वाली इस प्रकार की क्रियाओं के समूह से राम उस तरह क्षोभ को प्राप्त नहीं हुए जिस प्रकार कि वायु से मेरुपर्वत क्षोभ को प्राप्त नहीं होता है ॥60॥ उनकी दृष्टि अत्यंत सरल थी, आत्मा अत्यंत शुद्ध थी और वे स्वयं परीषहों के समूह को नष्ट करने के लिए वन स्वरूप थे, इस तरह वे सुप्रभ के समान शुक्ल ध्यान के प्रथम पाये में प्रविष्ट हुए ॥61।। उनका हृदय सत्त्व गुण से सहित था, अत्यंत निर्मल था, तथा इंद्रियों के समूह के साथ आत्मा के ही चिंतन में लग रहा था ॥62॥ बाह्य मनुष्य इच्छानुसार अनेक प्रकार की क्रियाएँ करें परंतु परमार्थ के विद्वान् मनुष्य आत्म कल्याण से च्युत नहीं होते ॥63।। ध्यान में विघ्न डालने की लालसा से युक्त सीतेंद्र, जिस समय सर्व प्रकार के प्रयत्न के साथ देवमाया से निर्मित चेष्टा कर रहा था उस समय अत्यंत पवित्र मुनिराज अनादि कर्म समूह को जलाने के लिए उद्यत थे ॥64-65॥ दृढ़ निश्चय के धारक पुरुषोत्तम, कर्मों की साठ प्रकृतियाँ नष्ट कर उत्तरवर्ती क्षपक श्रेणी पर आरूढ़ हुए ॥66।। माघ शुक्ल द्वादशी के दिन रात्रि के पिछले पहर में उन महात्मा को केवलज्ञान उत्पन्न हुआ ॥67॥ सर्वदर्शी केवलज्ञान रूपी नेत्र के उत्पन्न होने पर उन प्रभु के लिए लोक अलोक दोनों ही गोष्पद के समान तुच्छ हो गये ॥68॥
तदनंतर सिंहासन के कंपित होने से जिन्होंने अवधिज्ञानरूपी नेत्र का प्रयोग किया था ऐसे सब इंद्र संभ्रम के साथ प्रणाम करते हुए चले ॥69॥ तदनंतर जो देवों के महा समूह के बीच वर्तमान थे, श्रद्धा से युक्त थे और केवलज्ञान की उत्पत्ति की पूजा करने के लिए उद्यत थे ऐसे सब इंद्र बड़े वैभव के साथ वहाँ आ पहुँचे ॥70॥ घातिया कर्मों का नाश करने वाले सिंहासनासीन राम के दर्शन कर चारणऋद्धिधारी मुनिराज तथा समस्त सुर और असुरों ने उन्हें प्रणाम किया ॥71।। जिन्हें आत्मरूप की प्राप्ति हुई थी, तथा जो संसार के समस्त इंद्रों के द्वारा वंदनीय थे ऐसे परमेष्ठी पद को प्राप्त श्री राम के संपूर्ण समवसरण की रचना हुई ॥72॥ तदनंतर स्वयंप्रभ नामक सीतेंद्र ने केवलज्ञान की पूजा कर मुनिराज को प्रदक्षिणा दी और बार-बार क्षमा कराई ॥73॥ उसने कहा कि हे भगवन् ! मुझ दुर्बुद्धि के द्वारा किया हुआ दोष क्षमा कीजिए, प्रसन्न हूजिए और मेरे लिए भी शीघ्र ही कर्मों का अंत प्रदान कीजिए अर्थात् मेरे कर्मों का क्षय कीजिए ॥74॥
गौतम स्वामी कहते हैं कि इस प्रकार अनंत लक्ष्मी द्युति और कांति से सहित तथा प्रसन्न मुद्रा के धारक भगवान बलदेव ने श्री जिनेंद्रदेव की उत्तम भक्ति से केवलज्ञान तथा अनंत सुख रूपी समृद्धि को प्राप्त किया ॥75॥ मुनियों में सूर्य के समान तेजस्वी श्री राम मुनि जब विहार करने को उद्यत हुए तब हर्ष से भरे देव शीघ्र ही भक्तिपूर्वक पूजा की महिमा, स्तुति तथा प्रणाम कर यथाक्रम से अपने-अपने स्थानों पर चले गये ॥76।।।
इस प्रकार आर्ष नाम से प्रसिद्ध श्री रविषेणाचार्य द्वारा रचित पद्मपुराण में श्री राममुनि को केवलज्ञान उत्पन्न होने का वर्णन करने वाला एक सौ बाईसवाँ पर्व पूर्ण हुआ ॥122।।