ग्रन्थ:प्रवचनसार - गाथा 246 - तत्त्व-प्रदीपिका
From जैनकोष
अरहंतादिसु भत्ती वच्छलदा पवयणाभिजुत्तेसु । (246)
विज्जदि जदि सामण्णे सा सुहजुत्ता भवे चरिया ॥286॥
अर्थ:
[श्रामण्ये] श्रामण्य में [यदि] यदि [अर्हदादिषु भक्ति:] अर्हन्तादि के प्रति भक्ति तथा [प्रवचनाभियुक्तेषु वत्सलता] प्रवचनरत जीवों के प्रति वात्सल्य [विद्यते] पाया जाता है तो [सा] वह [शुभयुक्ता चर्या] शुभयुक्त चर्या (शुभोपयोगी चारित्र) [भवेत्] है ।
तत्त्व-प्रदीपिका:
अथ शुभोपयोगिश्रमणानां प्रवृत्तिमुपदर्शयति -
सकलसंगसंन्यासात्मनि श्रामण्ये सत्यपि कषायलवावेशवशात् स्वयं शुद्धात्मवृत्तिमात्रेणा-वस्थातुमशक्तस्य, परेषु शुद्धात्मवृत्तिमात्रेणावस्थितेष्वर्हदादिषु, शुद्धात्मवृत्तिमात्रावस्थितिप्रतिपादकेषु प्रवचनाभियुक्तेषु च भक्त्या वत्सलतया च प्रचलितस्य, तावन्मात्ररागप्रवर्तित-परद्रव्यप्रवृत्तिसंवलितशुद्धात्मवृत्ते:, शुभोपयोगि चारित्रं स्यात् । अत: शुभोपयोगिश्रमणानां शुद्धात्मानुरागयोगिचारित्रत्वलक्षणम् ॥२४६॥
तत्त्व-प्रदीपिका हिंदी :
अब, शुभोपयोगी श्रमण का लक्षण सूत्र द्वारा (गाथा द्वारा) कहते हैं :-
सकल संग के संन्यासस्वरूप श्रामण्य के होने पर भी जो कषायांश (अल्पकषाय) के आवेश के वश केवल शुद्धात्मपरिणतिरूप से रहने में स्वयं अशक्त है ऐसा श्रमण, पर ऐसे जो
- केवल शुद्धात्मपरिणतरूप से रहने वाले अर्हन्तादिक तथा
- केवल शुद्धात्मपरिणतरूप से रहने का प्रतिपादन करने वाले प्रवचनरत जीवों
- भक्ति तथा
- वात्सल्य
इससे (यह कहा गया है कि) शुद्धात्मा का अनुरागयुक्त चारित्र शुभोपयोगी श्रमणों का लक्षण है ।