ग्रन्थ:प्रवचनसार - गाथा 268 - तत्त्व-प्रदीपिका
From जैनकोष
णिच्छिदसुत्तत्थपदो समिदकसाओ तवोधिगो चावि । (268)
लोगिगजणसंसग्गं ण चयदि जदि संजदो ण हवदि ॥280॥
अर्थ:
[निश्चितसूत्रार्थपद:] जिसने सूत्रों और अर्थों के पद को—अधिष्ठान को (अर्थात् ज्ञातृतत्त्व को) निश्चित किया है, [समितकषाय:] जिसने कषायों का शमन किया है, [च] और [तपोऽधिक: अपि] जो अधिक तपवान् है ऐसा जीव भी [यदि] यदि [लौकिकजनससर्गं] लौकिकजनों के संसर्ग को [न त्यजति] नहीं छोड़ता, [संयत: न भवति] तो वह संयत नहीं है ।
तत्त्व-प्रदीपिका:
अथासत्संगं प्रतिषेध्यत्वेन दर्शयति -
यत: सकलस्यापि विश्ववाचकस्य सल्लक्ष्मण: शब्दब्रह्मणस्तद्वाच्यस्य सकलस्यापि सल्लक्ष्मणो विश्वस्य च युगपदनुस्यूततदुभयज्ञेयाकारतयाधिष्ठानभूतस्य सल्लक्ष्मणो ज्ञातृ-तत्त्वस्य निश्चयनान्निश्चितसूत्रार्थपदत्वेन, निरुपरागोपयोगत्वात् समितकषायत्वेन, बहुशो- ऽभ्यस्तनिष्कम्पोपयोगत्वात्तपोऽधिकत्वेन च सुष्ठु संयतोऽपि सप्तार्चि:संगतं तोयमिवावश्यं-भाविविकारत्वात् लौकिकसंगादसंयत एव स्यात् । ततस्तत्संग: सर्वथा प्रतिषेध्य एव ॥२६८॥
तत्त्व-प्रदीपिका हिंदी :
अब, असत्संग निषेध्य है ऐसा बतलाते हैं :-
- विश्व के वाचक, 'सत्' लक्षणवान् ऐसा जो शब्दब्रह्म और उस शब्दब्रह्म के वाच्य 'सत्' लक्षण वाला ऐसा जो सम्पूर्ण विश्व उन दोनों के ज्ञेयाकार अपने में युगपत् गुंथ जाने से (ज्ञातृतत्त्व में एक ही साथ ज्ञात होने से) उन दोनों का अधिष्ठानभूत 'सत्' लक्षण वाले ज्ञातृत्व का निश्चय किया होने से जिसने सूत्रों और अर्थों के पद को (अधिष्ठान को) निश्चित किया है ऐसा हो,
- निरुपराग उपयोग के कारण 'जिसने कषायों को शमित किया है ऐसा' हो, और
- निष्कंप उपयोग का बहुश: अभ्यास करने से 'अधिक तप वाला हो'