ग्रन्थ:सर्वार्थसिद्धि - अधिकार 2 - सूत्र 19
From जैनकोष
297. उक्तानामिन्द्रियाणां संज्ञानुपूर्वीप्रतिपादनार्थमाह -
297. अब उक्त इन्दियोंके क्रमसे संज्ञा दिखलानेके लिए आगेका सूत्र कहते हैं –
स्पर्शनरसनघ्राणचक्षु:श्रोत्राणि।।19।।
स्पर्शन, रसना, घ्राण, चक्षु और श्रोत्र ये पाँच इन्द्रियाँ हैं।।19।।
298. लोके इन्द्रियाणां पारतन्त्र्यविवक्षा दृश्यते। अनेनाक्षणा सुष्ठु पश्चामि, अनेन कर्णेन सुष्ठु श्रृणोमीति। तत: पारतन्त्र्यात्स्पर्शनादीनां करणत्वम् वीर्यान्तरायमतिज्ञानावरणक्षयोपशमाङ्गोपाङ्गनामलाभा-वष्टम्भादात्मना [1]स्पृश्यतेऽनेनेति स्पर्शनम्। रस्यतेऽनेनेति रसनम्। घ्रायतेऽनेनेति घ्राणम्। चक्षेरनेकार्थत्वा-द्दर्शनार्थविवक्षायां चष्टे अर्थान्पश्यत्यनेनेति चक्षु:। श्रूयतेऽनेनेति श्रोत्रम्। स्वातन्त्र्यविवक्षा च दृश्यते। इदं[2] मे अक्षि सुष्ठु पश्यति। अयं मे कर्ण: सुष्ठु श्रृणोति। तत: स्पर्शनादीनां कर्तरि निष्पत्ति:। स्पृशतीति स्पर्शनम्। रसतीति रसनम्। जिघ्रतीति घ्राणम्। चष्टे इति चक्षु:। श्रृणोतीति श्रोत्रम्। एषां निर्देशक्रम: एकैकवृद्धिक्रमप्रज्ञापनार्थ:।
298. लोकमें इन्द्रियोंकी पारतन्त्र्य विवक्षा देखी जाती है। जैसे इस आँखसे अच्छा देखता हूँ, इस कानसे मैं अच्छा सुनता हूँ। अत: पारतन्त्र्य विवक्षामें स्पर्शन आदि इन्द्रियोंका करणपना बन जाता है। वीर्यान्तराय और मतिज्ञानावरणकर्मके क्षयोपशमसे तथा अंगोपांग नामकर्मेके आलम्बनसे आत्मा जिसके द्वारा स्पर्श करता है वह स्पर्शन इन्द्रिय है, जिसके द्वारा स्वाद लेता है वह रसन इन्द्रिय है, जिसके द्वारा सूँघता है वह घ्राण इन्द्रिय है। चक्षि धातुके अनेक अर्थ हैं। उनमें-से यहाँ दर्शनरूप अर्थ लिया गया है इसलिए जिसके द्वारा पदार्थोंको देखता है वह चक्षु इन्द्रिय है तथा जिसके द्वारा सुनता है वह श्रोत्र इन्द्रिय है। इसीप्रकार इन इन्द्रियोंकी स्वातन्त्र्य विवक्षा भी देखी जाती है। जैसे यह मेरी आँख अच्छी तरह देखती है, यह मेरा कान अच्छी तरह सुनता है। और इसलिए इन स्पर्शन आदि इन्द्रियोंकी कर्ताकारकमें सिद्धि होती है। यथा – जो स्पर्श करती है वह स्पर्शन इन्दिय है, जो स्वाद लेती है वह रसन इन्द्रिय है, जो सूँघती है वह घ्राण इन्द्रिय है, जो देखती है वह चक्षु इन्द्रिय है और जो सुनती है वह कर्ण इन्द्रिय है। सूत्रमें इन इन्द्रियोंका जो स्पर्शनके बाद रसना और उसके बाद घ्राण इत्यादि क्रमसे निर्देश किया है वह एक-एक इन्द्रियकी इस क्रमसे वृद्धि होती है यह दिखलाने के लिए किया है।
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सर्वार्थसिद्धि अनुक्रमणिका
- ↑ जिघ्रत्यनेन घ्राणं गन्धं गृह्णातीति। रसयत्यनेनेति रसनं रसं गृह्णातीति। चेष्टेऽनेनेति चक्षु रूपं पश्यतीति x x श्रृणोत्यनेनेति श्रोत्रं शब्दं गृह्णातीति। -वा. भा. 1, 1, 12।
- ↑ इमानीन्द्रियाणि कदाचित्स्वातन्त्र्येण विवक्षितानि भवन्ति। तद्यथा—इदं मे अक्षि सुष्ठु पश्यति, अयं मे कर्ण: सुष्ठु श्रृणोतीति। कदाचित्पारतन्त्र्येण विवक्षितानि भवन्ति—अनेनाक्ष्णा सुष्ठु पश्यामि। अनेन कर्णेन सुष्ठु श्रृणोमि इति। -पा. म. भा. 1।2।2।59।