ग्रन्थ:हरिवंश पुराण - सर्ग 36
From जैनकोष
अथानंतर गूंजते हुए भ्रमररूपी प्रत्यंचा से युक्त बाणासन जाति के वृक्षरूपी धनुष से सुशोभित, कबूतररूपी शंख और कलहंसरूपी शय्या से सहित तथा शत्रुरूपी मयूरों के मद और पंखों को नष्ट करने वाली शरद् ऋतु आयी सो ऐसी जान पड़ती थी मानो कृष्ण की नवीन लक्ष्मी की लीला से ही सहित हो । भावार्थ― जिस प्रकार कृष्ण ने उज्ज्वल नागशय्या पर आरूढ़ हो शंख बजाया था और धनुष धारण किया था उसी प्रकार वह शरद् ऋतु भी कलहंसरूपी नागशय्या पर आरूढ़ हो कबूतररूपी शंख को बजा रही थी तथा बाणासन वृक्षरूपी धनुष को धारण कर रही थी ॥1॥ उस समय आकाश में मेघों का समूह नष्ट हो गया था तथा चंद्रमा का प्रकाश फैलने लगा था इसलिए वह अत्यधिक सुशोभित हो रहा था । इसी प्रकार पृथिवी की विपुल कीचड़ नष्ट हो गयी थी तथा उस पर काश के फूल-फूल उठे थे इसलिए वह ऐसी जान पड़ती थी मानो कुछ दिन बाद जो अतिशय बलवान् कंस का घात होने वाला है उससे प्रकट होने वाले कृष्ण के अट्टहास को ही पहले से धारण करने लगी हो ॥2॥ उस समय स्वच्छ नदियों में विशाल पुलिनों की टक्कर से फेन निकल रहा था, स्वाभाविक जल से भरे सरोवरों में सफेद-सफेद कमल फूल रहे थे और पर्वतों के अपने वनों में सफेद-सफेद फूल खिल उठे थे उनसे वे ऐसे जान पड़ते थे मानो उन सबके बहाने श्रीकृष्ण के शुक्ल यश को ही शीघ्र धारण कर रहे हों ॥3॥ फलरूपी स्तनों के भारी भार से आक्रांत, सर्वत्र व्याप्त धान की सातिशय कांतिरूपी चोली से सुशोभित और हर्षातिरेक से सब ओर विकसित― नये-नये अंकुरों को धारण करने वाली उपजाऊ भूमिरूपी रमणी उस समय नये राजा श्रीकृष्ण के कंठालिंगन के लिए उत्सुक के समान जान पड़ती थी॥4॥ उस शरद् ऋतु में संतति के भाररूप विभूति से प्राप्त होने वाली व्यग्रता से व्यग्र एवं गर्भधारण के योग्य समय पाकर हर्षित होने वाली गायों और बैलों के जोरदार शब्द श्रीकृष्ण के हृदय संबंधी संतोष को मानो इसलिए ही बरबस पुष्ट कर रहे थे कि वे उनके शत्रुओं के नष्ट होने की घोषणा कर रहे थे ॥5॥
यद्यपि कंस श्रीकृष्ण की चेष्टा को जान चुका था तथापि उनके नष्ट करने के उपायों में बुद्धि लगाने वाले उस दुष्ट ने फिर भी उस समय कमल लाने के लिए समस्त गोपों के समूह को यमुना के उस ह्रद केसम्मुख भेजा जो प्राणियों के लिए अत्यंत दुर्गम था और जहाँ विषम साँप लहलहाते रहते थे ॥6॥
अपनी भुजाओं के बल से सुशोभित कृष्ण अनायास ही उस ह्रद में घुस गये और जो कुपित होकर सामने आया था, महाभयंकर था, फण पर स्थित मणियों की किरणों के समूह से जो अग्नि के तिलगों की शोभा प्रकट कर रहा था तथा अत्यंत काला था ऐसे कालिया नामक नाग का उन्होंने शीघ्र ही मर्दन कर डाला ॥7॥ किनारे के वृक्ष की शाखाओं पर चढ़े घबड़ाये हुए गोपों की जय-जयकार तथा बलभद्र के गंभीर शब्द से जिनका समस्त शरीर रोमांचित एवं हर्षित हो रहा था तथा भुजाओं से जिन्होंने कालिय भुजंग को नष्ट किया था ऐसे श्रीकृष्ण कमल तोड़कर वायु के समान शीघ्र ही तट के समीप आ गये ॥8॥ देदीप्यमान पीतांबर से सुशोभित श्रीकृष्ण ज्यों ही ह्रद से बाहर निकले त्यों ही आनंद के समूह से विवश, नीलांबर से सुशोभित बलभद्र ने दोनों भुजाओं से उनका गाढालिंगन किया । उस समय नीलांबर धारी गौरवर्ण बलभद्र से आलिंगित पीतांबर धारी श्याम सलोने कृष्ण, ऐसे जान पड़ते थे जैसे बिजलीसहित श्याममेघ, काली और सफेद शिलाओं के अग्रभाग से आलिंगित हो रहा हो ॥9॥
दूसरों के गुणों को सहन नहीं करने वाला वैरी कंस, गोपालों के द्वारा सामने रखे हुए कमलों के समूह को देखकर गरम-गरम उच्छ्वास भरने लगा । तदनंतर उसने शीघ्र ही यह आज्ञा दी । नंद गोप के पुत्र को आदि लेकर समस्त गोप यहाँ मल्लयुद्ध के लिए अविलंब तैयार हो जावें ॥10॥ इस प्रकार मल्लयुद्ध के लिए कड़ी आज्ञा देकर चक्र और करोंत के समान तीक्ष्ण चित्त का धारक कंस मल्लयुद्ध के लिए इच्छुक हो शीघ्र ही अत्यंत बलवान् छोटे-बड़े और मध्यम श्रेणी के मल्लों को उसी समय बुलाकर अपने पास रख लिया ॥11॥ स्थिर बुद्धि के धारक वसुदेव ने, अपने अनावृष्टि पुत्र के साथ सलाह कर शत्रु की इस चेष्टा को तत्काल समझ लिया और अपने समस्त बड़े भाइयों को बतलाने तथा उन्हें शीघ्र ही मथुरा में उपस्थित होने के लिए खबर भेज दी ॥12॥ जिन्होंने शत्रु की चेष्टा को जान लिया था ऐसे वसुदेव के नौ ही बड़े भाई, रथ, घोड़े पदाति और मदोन्मत्त हाथियों से युक्त अपनी सेनाओं के द्वारा पृथिवी तल को भूषित करते और अकस्मात् आग मन से दुष्ट कंस के अहंकार पूर्ण हृदय को विदीर्ण करते हुए शीघ्र ही मथुरा की ओर चल पड़े ॥13॥
यदुवंशी राजाओं को विशाल मथुरा नगरी की ओर आया देख यद्यपि कंस शंका से युक्त हो गया था तथापि जब उसे यह बताया गया कि ये चिरकाल से वियुक्त छोटे भाई― वसुदेव को देखने के लिए आये हैं तब उसने निःशंक हो सामने जाकर उनका स्वागत किया, उन्हें अच्छी तरह नमस्कार किया और छोटे भाइयों से सहित उन समस्त भाइयों का नगर में प्रवेश कराया ॥14॥ विशाल मथुरा नगरी के घरों की शोभा देखने से जिनके नेत्र संतुष्ट हो गये थे तथा नगरी के अधिपति― कंस ने जिन्हें उत्तमोत्तम भवन प्रदान किये थे, ऐसे वे सब यदुवंशी राजा मथुरा नगरी में रहने लगे । कंस दान, मान तथा नमस्कार के द्वारा प्रतिदिन उनकी सेवा करता था । यद्यपि वे बाह्य में ऐसी चेष्टा दिखाते थे जैसे प्रेम ही धारण कर रहे हों तथापि अंतरंग में अत्यधिक दाह रखते थे ॥15॥
तदनंतर जिन्होंने समस्त कार्य का अच्छी तरह निश्चय कर लिया था, जिनके अवयव वृषभ के समान सफेद थे, जो अत्यंत विज्ञ थे, जिनकी बुद्धि अत्यंत निपुण थी और जो कृष्ण के हृदय में युद्ध की अभिलाषा उत्पन्न करना चाहते थे ऐसे धीर-वीर बलभद्र ने गोकुल जाकर कृष्ण के सामने ही यशोदा से कहा कि जल्दी स्नान कर ॥16॥ क्यों इस तरह देर कर रही है, तू अपने शरीर को संभाल में ही भूली हुई है, एक बार नहीं अनेक बार कहा फिर भी अपनी आदत नहीं छोड़ती । ठीक ही है उज्ज्वल एवं शुभ शुक्तियों के द्वारा उत्तम मुक्ता मणियों को उत्पन्न करने वाली समुद्र की वेला अपनी चंचलता नहीं छोड़ती है । चिरकाल तक साथ-साथ रहने पर भी बलभद्र ने यशोदा से ऐसे कटुक वचन पहले कभी नहीं कहे थे इसलिए वह बहुत ही चकित तथा भयभीत हो गयी । यद्यपि उसने कहा कुछ नहीं फिर भी उसके नेत्रों से आंसू निकल आये । वह चुपचाप शीघ्र ही स्नान कर भोजन बनाने के लिए प्रकृत-अवसरानुकूल यत्न करने लगी । इधर कृष्ण और बलभद्र दोनों स्नान करने के लिए नदी चले गये ॥17-18॥
एकांत में पहुँचने पर बलभद्र ने कृष्ण से कहा कि आज तुम्हारा यह मुख लंबी-लंबी साँसों तथा अश्रुओं से युक्त क्यों है ? तुषार से कुम्हलाये हुए कमल के समान कांति से रहित तुम्हारा यह मुख किसी भारी मानसिक संताप को प्रकट कर रहा है सो उसका कारण कहो ॥19॥ इस प्रकार प्रेमसहित पूछे हुए कृष्ण ने, प्रसन्न मुख कमल से युक्त बलभद्र की ओर देखकर यह वचन कहे कि हे आर्य ! मेरे वचन सुनिए । मेरे मुख पर प्रकट हुए विकार से मेरा मानसिक दुःख प्रकट हो रहा है, यह ठीक है । आप शास्त्रज्ञान से श्रेष्ठ विद्वान् हैं, लोक की रीति को जानते हैं और हे पूज्य ! आप नगरवासी लोगों को श्रेष्ठ उपदेश देते हैं फिर यह तो बताइए कि आज आपको हमारी पूज्य माता यशोदा का अत्यंत कठोर वचनों से तिरस्कार करना क्या उचित था ? ॥20॥ इस प्रकार के वचनों द्वारा शोक प्रकट करते हुए कृष्ण का बलभद्र ने दोनों भुजाओं से गाढ़ आलिंगन कर लिया । हर्ष से उनका शरीर रोमांचित हो गया । तदनंतर अविरल अश्रुधारा से हृदय की स्वच्छ वृत्ति को सूचित करते हुए उन्होंने कृष्ण के लिए सब वृत्तांत कह सुनाया ॥21 ॥ उन्होंने सबसे पहले तीव्र अहंकार को वशीभूत जरासंध की पुत्री कंस की स्त्री जीवद्यशा के लिए अतिमुक्तक मुनि ने जो अवंध्य― सत्य वचन कहे थे वे सुनाये । तदनंतर क्षुभितहृदय कंस ने देवकी के गर्भ से उत्पन्न हुए छह पुत्रों को अपनी जान में मार डाला यह क्रोध वर्धक समाचार सुनाया । फिर, तुम प्रसव के समय से पहले ही उत्पन्न हुए थे और उत्पन्न होते ही तुम्हें हम गोकुल में छिपाकर यशोदा के यहाँ रख गये थे यह कहा । तदनंतर बाल्यकाल से ही लेकर शत्रु ने मारने के जो नाना साधन जुटाये उनका निरूपण किया । अंत में यह बताया कि इस समय कंस भयंकर मल्लयुद्ध का निश्चय कर तुम्हारे मारने में चित्त लगा रहा है ॥ 22-24॥ इस प्रकार ज्योंही कृष्ण ने बड़े भाई बलभद्र से समस्त हरिवंश, पिता, गुरु, बंधु तथा भाइयों का हाल जाना त्योंही वे आनंद से अत्यधिक मुख-कमल की शोभा को धारण करने लगे― हर्षातिरेक से उनके मुख-कमल की लक्ष्मी खिल उठी और वे बड़े भाई रूपी पर्वत से प्राप्त अत्यधिक रक्षा से युक्त हो सिंह के समान सुशोभित होने लगे ॥25॥
तदनंतर जन्मजात हितबुद्धि से उत्पन्न स्नेह से जिनके अंतःकरण परस्पर मिल रहे थे, जो महामच्छों की लीला धारण कर रहे थे एवं जलक्रीड़ा में जो अत्यंत चतुर थे ऐसे दोनों भाइयों ने यमुना नदी में स्नान किया । तत्पश्चात् गोप समूह से सेवनीय दोनों भाई उन्हीं गोपों के साथ-साथ अपने घर आ गये ॥26 ॥ घर पर दोनों साथ-साथ मणिजिड़त भूमि में गये और वहाँ उन्होंने साथ-ही-साथ, जिसके सीथ अत्यंत कोमल और उज्ज्वल थे ऐसा शालिधान का भात, शुभ सुगंधित एवं तत्काल तपाये हुए घी से स्वादिष्ट दाल, शाक, दूध और दही के साथ जीमा । जीमने के बाद अत्यंत कोमल और सुगंधित चंदनादि द्रव्यों के चूर्ण से कुल्ला किया, हाथों में उन्हीं का उद्वर्तन किया, अपने कर-किसलय में लेकर गाढ़ा-गाढ़ा सुंदर लेप लगाया, कटी हुई हरी सुपारी तथा इलायची आदि से युक्त पान खाया । पान की लाली से उनके मुख की स्वाभाविक लाली और भी अधिक बढ़ गयी जिससे उनके अधर तथा ओठ अत्यंत सुंदर दिखने लगे ॥27-28॥ तदनंतर जो नाना आसनों के लगाने में चतुर थे, मल्ल विद्या के निर्दोष ज्ञाता थे, नीलांबर और पीतांबर धारण कर जिन्होंने चलने के योग्य सुंदर वेष धारण किया था, लंबे चौड़े वक्षस्थल पर उत्तम सिंदूर की रज लगाकर जिन्होंने नूतन वनमाला और मालती का सेहरा धारण किया था और जो अपने दृढ़ मन में वैरी कंस के मारने का निश्चय कर चंचल चरणों के आघात से पृथिवी को कंपित कर रहे थे ऐसे दोनों भाई, अतिशय भयानक मल्लों के वेग से युक्त एवं अपने-अपने वर्ग के लोगों से सहित गोपों के साथ शीघ्र ही मथुरा की ओर चले ॥29-30॥ मार्ग में कंस के भक्त एक असुर ने नाग का रूप बनाया, दूसरे ने कटु शब्द करने वाले गधा का और तीसरे ने दुष्ट घोड़े का रूप बनाया तथा नगर-प्रवेश में विघ्न डालते हुए सबके-सब मुंह फाड़कर सामने आये परंतु कृष्ण ने उन सबको मार भगाया ॥3॥
नगर में प्रवेश करते हुए दोनों भाई जब द्वार पर पहुंचे तो शत्रु की आज्ञा से उनपर एक साथ चंपक और पादाभर नामक दो हाथी हूल दिये गये । उन हाथियों के भूरे रंग के गंडस्थल, निरंतर झरती हुई मद को रेखाओं से सुशोभित थे । उन हाथियों को सामने आते जानकर दोनों भाई ऐसे संतुष्ट हुए जैसे युद्ध की रंगभूमि में आगत प्रथम मल्लों को देखकर ही संतुष्ट हो रहे हों ॥32॥ उनमें से बलभद्र तो बड़ी सुंदरता के साथ चंपक हाथी के सामने अड़ गये और कृष्ण पादाभर हाथी के सामने जा डटे । तदनंतर नरमल्ल और हस्तिमल्लों की जोड़ियों में ऐसा मल्ल युद्ध हुआ जो देखने वाले मनुष्यों के लिए बिल्कुल नया तथा आश्चर्य उत्पन्न करने वाला था ॥33॥ यद्यपि हाथियों ने अपने दाँत टेढ़ी सूंडों से छिपा रखे थे तथापि उन दोनों ने उन्हें पैरों के मजबूत प्रहार और बहुत भारी चपेट से उखाड़ लिया था । उस समय वे हाथियों के दाँत ऐसे जान पड़ते थे मानो अत्यधिक बाहुबल की लीला से जिसका अग्रभाग उखाड़ा जा रहा था ऐसे किसी पर्वत के साँपों से घिरे हुए बड़े बाँसों के अंकुरों का समूह ही हो ॥34॥
तदनंतर निर्दयता पूर्वक जड़ से उखाड़े हुए अपने सुशोभित दाँतों के परिघात से जो भयंकर वज्रपात के समान जोरदार― विरस शब्द कर रहे थे ऐसे उन दोनों हाथियों को मारकर दोनों भाई नगर में प्रविष्ट हुए । उस समय वह मथुरा नगर जोर से जय-जयकार करने वाले गोपों से व्याप्त होने के कारण बहुत बड़ा जान पड़ता था ॥35 ॥
तदनंतर कमल की कलिकाओं से जिसके तोरण-द्वार की शोभा बढ़ रही थी एवं जिसके भीतर घेरकर बैठे हुए राजाओं तथा नगरवासियों से सुशोभित, कुश्ती के लिए गोलाकार स्थान बनाये गये थे ऐसी बहुत बड़ी रंगभूमि में दोनों भाई, अपने कंधों से बड़े-बड़े मल्लों के उन्नत कंधों को धक्का देते हुए, हर्षपूर्वक प्रविष्ट हुए ॥36 ॥ उस समय रंगभूमि में अपने चरणों और भुजदंडों के संकोच तथा विस्तार से जिनकी शोभा बढ़ रही थी, जो अभिनय के अनुरूप दृष्टि के दढ़ निक्षेप से अत्यंत रमणीय थीं एवं हिलते हुए चंचल वस्त्रों के छोर से जो सुंदर थीं ऐसी कृष्ण और बलभद्र की क्रीड़ापूर्वक उछलना तथा ताल ठोकना आदि चेष्टाएँ अत्यधिक सुशोभित हो रही थीं ॥37 ॥ रंगभूमि में पहुँचते ही बलभद्र ने यह यहाँ शत्रु कंस बैठा है ये जरासंध के आदमी हैं और ये अपने-अपने पुत्रों सहित समुद्रविजय आदि दशों भाई विराजमान हैं इस प्रकार इशारे से कृष्ण को समस्त मनुष्यों का परिचय करा दिया । वे समस्त लोग भी उसी गोल की ओर देख रहे थे जो बलभद्र तथा कृष्ण से सहित था ॥38॥
अथानंतर जहाँ अनेक नगरवासी और राजा आदि श्रेष्ठ पुरुष देखने के लिए एकत्रित थे तथा क्षोभ को प्राप्त हुए समस्त मल्लों की उछल-कूद एवं ताल के शब्दों से जो अत्यधिक मनोहर जान पड़ता था ऐसे अखाड़े में बारी-बारी से कंस की आज्ञा पाकर अन्य अनेक मल्ल जंगली भैंसाओं के समान अहंकारी हो मल्ल-युद्ध करने लगे ॥39 ॥ जब साधारण मल्लों का युद्ध हो चुका तब दुष्ट कंस ने कृष्ण से लड़ने के लिए उस चाणूर मल्ल को आज्ञा दी जो पर्वत की विशाल दीवाल के समान विस्तृत वक्षःस्थल से युक्त था और जिसने अपने मजबूत भुज यंत्र से बड़े-बड़े अहंकारी मल्लों को पेल डाला था । यही नहीं, पीछे से मुष्टिक मल्ल को भी उसने उन पर रूर पड़ने के लिए अपनी विषम-विषमयी दृष्टि से इशारा कर दिया ॥40॥
तदनंतर समर्थ सिंह के समान आकार और खड़े होने की मुद्रा विशेष को प्रकट करने वाले कृष्ण और चाणूर मल्ल, स्थिर चरण रख एवं तीक्ष्ण नखों से कठोर मुट्टियाँ बाँधकर अविराम रूप से मुष्टि-युद्ध में जुट गये― परस्पर मुक्केबाजी करने लगे ॥41॥ वज्र के समान कठोर मुट्टि का धारक मुष्टिक मल्ल पीछे से मुट्ठि का प्रहार करना ही चाहता था कि इतने में बलभद्र मल्लने शीघ्रता से बस-बस ! ठहर-ठहर ! यह कहते हुए चवड़े और सिर में जोर से मुक्का लगाकर उसे प्राणरहित कर दिया ॥ 42 ॥ इधर सिंह के समान शक्ति के धारक एवं मनोहर हुंकार से युक्त श्रीकृष्ण ने भी चाणूर मल्ल को जो उनसे शरीर में दूना था अपने वक्षःस्थल से लगाकर भुजयंत्र के द्वारा इतने जोर से दबाया कि उससे अत्यधिक रुधिर की धारा बहने लगी और वह निष्प्राण हो गया ॥43॥ कृष्ण और बलभद्र में एक हजार सिंह और हाथियों का बल था । इस प्रकार अखाड़े में जब उन्होंने हठपूर्वक कंस के दोनों प्रधान मल्लों को मार डाला तो उन्हें देख, कंस हाथ में पैनी तलवार लेकर उनकी ओर चला । उसके चलते ही समस्त अखाड़े का जनसमूह समुद्र की नाईं जोरदार शब्द करता हुआ उठ खड़ा हुआ ॥44॥ कृष्ण ने सामने आते हुए शत्रु के हाथ से तलवार छीन ली और मजबूती से उसके बाल पकड़ उसे क्रोधवश पृथिवी पर पटक दिया । तदनंतर उसके कठोर पैरों को खींचकर उसके योग्य यही दंड है यह विचार उसे पत्थर पर पछाड़ कर मार डाला । कंस को मारकर कृष्ण हंसने लगे ॥45 ॥
कंस की सेना क्षुभित हो सामने आयी तो उसे देख बलराम की भौंहें कुटिल हो गयीं । उन्होंने उसी समय क्रोधवश मंच का एक खंभा उखाड़ लिया और गर्व से सब ओर दिये हुए उसके वज्रतुल्य कठोर आघातों से चिल्लाती हुई उस सेना को क्षणभर में खदेड़ दिया ॥46॥ कंस के कार्य में नियुक्त जरासंध को स्वच्छंद एवं मदोन्मत्त सेना यद्यपि क्षुभित हुई थी तथापि ज्योंही विषम दृष्टि के धारक शक्तिशाली यादव लोग चंचल समुद्र के समान शब्द करने वाली अपनी-अपनी सेनाओं के साथ एक ही समय उठ खड़े हुए त्यों ही वह समस्त सेना नष्ट-भ्रष्ट हो गयी ॥47॥
तदनंतर मल्ल के वेष से युक्त दोनों भाई अनावृष्टि के साथ-साथ, चार घोड़ों से वाहित रथ पर सवार हो अपने पिता के घर गये । पिता का वह घर समुद्रविजय आदि राजाओं तथा अन्य अनेक यदुवंशियों के समूह से भरा हुआ था ॥48॥ वहाँ जाकर दोनों भाइयों ने क्रम से समुद्रविजय आदि गुरुजनों को नमस्कार कर उनकी पूजा की तथा गुरुजनों ने उन्हें आशीर्वाद दिया । इस प्रकार अपने संयोगरूप प्रथम जल की धारा से युक्त दोनों भाइयों ने चिरकाल के विरह से उत्पन्न सबके मानसिक संताप को अस्त कर दिया ॥49॥ कुबेर की उपमा धारण करने वाले वसुदेव और देवकी, शत्रुरूपी अग्नि को शांत करने वाले पुत्र के मुख को निःशंक रूप से देखकर अनुपम सुख को प्राप्त हुए । इसी प्रकार कंस ने जिसकी नाक चपटी कर दी थी उस कन्या ने भी भाई का मुख देख अनुपम सुख का अनुभव किया सो ठीक ही है क्योंकि संसार में पुत्र-पुत्रियों का समागम सुख के लिए होता ही है ॥50॥ जिनकी बेड़ियों का कलंक नष्ट हो गया था और जो कंस को शंका से विमुक्त हो चुके थे ऐसे राजा उग्रसेन उस समय यादवों की आज्ञा से कृष्ण के द्वारा प्रदत्त, चिरकालीन विरह से दुबली पतली राज्यलक्ष्मीरूपी स्त्री का मथुरा में पुनः उपभोग करने लगे । भावार्थ― कृष्ण ने राजा उग्रसेन की बेड़ी काटकर उन्हें पुनः मथुरा का राजा बना दिया और वे चिरकाल के विरह से कृश राज्यलक्ष्मी का पुनः सेवन करने लगे ॥51॥ उधर कुटुंबीजन तथा अपनी स्त्रियों के रुदन आदि से सहित कंस जब अंतिम शारीरिक संस्कार को प्राप्त हो चुका तथा यादवों के ऊपर जिसका चित्त अत्यंत कुपित हो रहा था एवं आँसुओं से जिसका गला रुंधा हुआ था ऐसी जीवद्यशा अपने पिता जरासंध के पास पहुंची ॥52॥
अथानंतर किसी समय ऊपर की ओर मुखकमल किये हुए मथुरा निवासी समस्त लोगों ने आकाश में विद्याधरों के राजा सुकेतु का दूत देखा । वह दूत हर्ष से लहराते हुए आकाशरूपी समुद्र में बड़े वेग से आ रहा था, मच्छ की उत्कट लीला को धारण कर रहा था और देदीप्यमान मणियों के आभूषणों से युक्त था ॥53॥ उसका शरीर चंदन से आर्द्र था तथा वह महीन और श्वेत वस्त्र पहने था इसलिए मानसरोवर में स्नान करने वाले हंस के समान जान पड़ता था । वह शीघ्र ही प्रत्येक दिशाओं में विचरण करने वाले श्रेष्ठ राजाओं (पक्ष में राजहंस पक्षियों) से गंगानदी के समान सुशोभित मथुरा नगरी की गली में आया ॥54॥ तदनंतर द्वारपाल ने जिसे प्रवेश दिया था ऐसा वह दूत, यादवों से सुशोभित सभा में सावधानी से प्रविष्ट हो नमस्कार कर बैठ गया । फिर कुछ देर बाद अवसर को जानने वाले उस दूत ने यादवों के समक्ष, शत्रुओं को जीतने वाले कृष्ण से निम्नांकित वचन कहे ॥55॥ उसने कहा कि हे राजाओं के द्वारा स्तुत ! आप मेरी प्रार्थना सुनिए― विजयार्ध पर्वत के ऊपर एक सुकेतु नाम का राजा है जो नमि और विनमि की कुल लक्ष्मी की मानो विजय-पताका है, नीति में अत्यंत चतुर है और दक्षिण श्रेणी में स्थित रथनूपुर चक्रवाल नामक नगर में रहता है ॥56 ॥ शंख फूंकना, नागशय्या पर चढ़ना और धनुष चढ़ाना इन लक्षणों से आपकी परीक्षा कर उसने शीघ्र ही प्रेमपूर्वक मुझे यहाँ आपके पास भेजा है तथा कहलाया है कि यद्यपि आप उत्तमोत्तम वस्तुओं को प्रदान करने वाले लोगों से घिरे रहते हैं तथापि मेरी एक तुच्छ प्रार्थना है वह यह कि आप मेरी पुत्री सत्यभामा को स्वीकृत कर लें । आपका यह कार्य विद्याधर लोक के वैभव को बढ़ाने वाला एवं समस्त कल्याणों का मूल होगा ॥57॥ समस्त यादवों के लिए रुचिकर दूत के वचन सुनकर प्रसन्नचित्त कृष्ण ने यह उत्तर दिया कि विद्याधरों के राजा सुकेतुरूपी कुबेर के द्वारा रची सत्यभामा नामक रत्नों की धारा मुझ रत्ना चल पर शीघ्र ही पड़े । भावार्थ― मुझे सत्यभामा का वर होना स्वीकृत है अथवा कुछ पुस्तकों में धनपति के स्थान पर नगपति पाठ है इसलिए इस श्लोक का यह अर्थ भी होता है कि विद्याधररूपी विजयार्ध पर्वत के द्वारा रची सत्यभामा रूपी जल की धारा मुझ रत्नाचल पर शीघ्र ही पड़े ॥58॥
तदनंतर कृष्ण की ओर से जिसका सत्कार किया गया था और जिसकी बुद्धि अत्यंत प्रसन्न थी ऐसा राजा सुकेतु का वह दूत अपने स्थान पर चला गया । वहाँ जाकर उसने पहले कृष्ण के उत्तम गुणों की स्तुति की, उसके पश्चात् संतुष्ट होकर, वल्लभा के साथ बैठे हुए संतोषी राजा सुकेतु के लिए सर्व कार्य के सिद्ध होने की सूचना दी ॥59॥ पृथिवी पर श्रीकृष्ण और बलदेव दोनों अत्यंत देदीप्यमान हैं तथा शत्रुओं के तेज, रूप और कांति को खंडित करने वाले हैं । इस प्रकार अपने दूत के मुख से जानकर विद्याधरों का राजा सुकेतु और उसका भाई रतिमाल अपनी-अपनी कन्याओं के साथ मथुरा आ पहुंचे ॥60॥ रतिमाल की कन्या का नाम रेवती था और वह रूप में साक्षात् रति के समान जान पड़ती थी । रतिमाल ने अपनी वह सुंदर कन्या बड़े भाई बलभद्र के लिए दी और अत्यंत प्रसन्न सुकेतु ने स्वयंप्रभा रानी के गर्भ से उत्पन्न अपनी सत्यभामा नामक पुत्री कृष्ण के लिए दी ॥ 61॥ इस विवाह-मंगल के अवसर पर जो स्तनरूपी कलश और नितंबों के बहुत भारी भार से खिन्न थीं, जिनके वस्त्र, मेखला, केशपाश और उत्तरीय वस्त्र शिथिल हो रहे थे, जो नूपुरों की झनकार से मनोहर जान पड़ती थीं और उज्ज्वल वेष को धारण करने वाली थीं ऐसी भूमिगोचरी एवं विद्याधरों की स्त्रियों ने नृत्य किया था ॥62॥ जो पहली-पहली नयी वधुओं से सहित थे, नील और पीत वस्त्र धारक थे, नाना प्रकार के मणिमय आभूषणों की कांति से जिनके शरीर देदीप्यमान हो रहे थे तथा जो चारों ओर बैठे हुए यदुवंशी राजाओं से घिरे हुए थे ऐसे अपने पुत्रों को देखकर यादवों की स्त्रियों से युक्त रोहिणी तथा देवकी अत्यधिक संतुष्ट हो रही थीं ॥3॥ प्रथम समागम में ही सत्यभामा ने कृष्ण के तथा अतिशय प्रिय रेवती ने बलभद्र के हृदय को हर लिया था । इसी प्रकार कृष्ण तथा बलभद्र ने भी अभ्यस्त गुण और कलाओं के उत्तमोत्तम प्रयोगों से उन दोनों का हृदय हर लिया था सो ठीक ही है क्योंकि चतुर मनुष्य उचित कार्य के करने के समय कभी नहीं चूकते हैं ॥ 64 ॥
तदनंतर जिसका हृदय अत्यंत कलुषित था, जो अत्यधिक व्याकुल थी और जिसके तमालपुष्प के समान काले-काले केश बिखरे हुए थे ऐसी कंस की स्त्री जीवंद्यशा, राजा जरासंध के पास जाकर यदुवंशियों के द्वारा किये हुए दोष का बखान करती हुई रोने लगी तथा जिस प्रकार वेला समुद्र को क्षुभित कर देती है उसी प्रकार उसने राजा जरासंध को क्षुभित कर दिया ॥65॥ वह कह रही थी कि हे तात ! जब आप समस्त पृथिवी का शासन कर रहे हैं तब मैं पतिरहित हो वैधव्य के दुःख को कैसे प्राप्त हो गयी ? हे पिताजी! अब तक मैंने जो यह वैधव्य का दुःख सहा है वह गर्व से फले यादवों के रक्तरूप पंक से युक्त शिरों से वैर का बदला चुकाने के लिए ही सहा है ॥66 ॥ इस प्रकार प्रायः विलाप से युक्त पुत्री के वचन सुनकर राजा जरासंध ने कहा कि बेटी ! अत्यधिक शोक छोड़ । इस संसार में जो होता है वह होनहार दैव के योग से ही होता है । दूसरों की शक्ति का तिरस्कार करने वाला दैव ही इस संसार में प्रधान है ॥ 67 ॥ खेत में घुसने का इच्छुक पशु भी वध की शंका कर सबसे पहले निकलने के लिए निरुपद्रव मार्ग का विचार कर लेता है परंतु तेरे पति को मारते हुए इन अत्यंत मत्त यादवों ने इस स्पष्ट बात को भी भुला दिया इससे सिद्ध है कि ये मरना चाहते हैं ॥68॥ हे वत्से ! ये भले अब तक तेरे चरण की शरण प्राप्त कर निष्कंटक रहे हों और भले ही ये बल तथा कुल की शाखाओं से युक्त हों परंतु यह निश्चित है कि ये शीघ्र ही मेरे क्रोध से बरसने वाली दावानल की ज्वालाओं से भस्म होने वाले हैं, इनका नाम भी नष्ट हो जाने वाला है और ये श्रवण मार्ग को अतिक्रांत कर चुके हैं― अब इनका नाम भी नहीं सुनाई देगा ॥ 69॥
इस प्रकार प्रियवचनरूपी जल के द्वारा पुत्री की क्रोधाग्नि के समूह को शांत कर क्षोभ को प्राप्त हुए क्रोधानल से युक्त राजा जरासंध ने यादवों को मारने के लिए यमराज के तुल्य अपने कालयवन नामक पुत्र को शीघ्र ही आदेश दिया ॥70॥ कालयवन, चंचल समुद्र के समान दिखने वाली हाथी, घोड़ा और रथ आदि से युक्त सेना के साथ शीघ्र ही शत्रु के सम्मुख चला और यादवों के साथ सत्रह बार भयंकर युद्ध कर अतुल मालावर्त नामक पर्वत पर नष्ट हो गया― मर गया ॥7॥ तदनंतर राजा जरासंध ने शीघ्र ही अपने भाई अपराजित को भेजा जो कि शत्रुओं को जीतने वाला था, प्राणों के तुल्य था, अपने संयोग से प्रलय काल की अग्नि की शिखाओं के समूह को नष्ट करने वाला था, अपनी सेनारूपी प्रबल पवन से प्रेरित था और शत्रुरूपी जगत् के ग्रसने के लिए सतृष्ण था ॥72॥ वीर अपराजित ने संतुष्ट होकर शत्रुओं के बीच यादवों के साथ तीन सौ छियालीस बार युद्ध किया परंतु अंत में वह श्रीकृष्ण के बाणों के अग्रभाग से निष्प्राण हो पृथ्वी पर गिर पड़ा । पृथिवी पर पडा यशस्वी अपराजित ऐसा जान पड़ता था मानो थकावट को दूर करने वाली वीर शय्या पर ही शयन कर रहा हो ॥73 ॥
अथानंतर जो निरंतर हर्ष को धारण कर रहे थे, कृष्णपुरी मथुरा में निवास करते थे और कृष्ण तथा बलभद्र के अवार्य वीर्य के गर्व से जिनकी शत्रु की शंका नष्ट हो गयी थी ऐसे यादव लोग मथुरा वासी नागरिक जनों के साथ क्रीड़ा करने लगे ॥74॥ गौतम स्वामी कहते हैं कि जो समस्त जीवों के लिए बंधु के समान है, पृथिवी मंडल के फलों की समृद्धि को बढ़ाने वाली है तथा लक्ष्मी और यश की माला से सहित है ऐसी यह जिनेंद्र मतरूपी मेघ के जल की धारा शत्रु समूहरूपी प्रचंड दावानल के गर्व को शांत करती है और बंधुजनों के प्रकृष्ट बहुत भारी हर्ष को उत्पन्न करती है ॥75॥
इस प्रकार अरिष्टनेमि पुराण के संग्रह से युक्त, जिनसेनाचार्य रचित हरिवंशपुराण में कंस और अपराजित के वध का वर्णन करने वाला छत्तीसवाँ सर्ग समाप्त हुआ ॥36॥