छांडत क्यौं नहिं रे
From जैनकोष
छांडत क्यौं नहिं रे, हे नर! रीति अयानी ।
बारबार सिख देत सुगुरु यह, तू दे आनाकानी ।।छांडत ।।
विषय न तजत न भजत बोध व्रत, दुख सुखजाति न जानी ।
शर्म चहै न लहै शठ ज्यौं घृतहेत विलोवत पानी।।१ ।।छांडत. ।।
तन धन सदन स्वजनजन तुझसौं, ये परजाय विरानी ।
इन परिनमन विनश उपजन सों, तैं दु:ख सुख-कर मानी।।२ ।।छांडत. ।।
इस अज्ञानतैं चिरदुख पाये, तिनकी अकथ कहानी ।
ताको तज दृग-ज्ञान-चरन भज, निजपरनति शिवदानी।।३ ।।छांडत. ।।
यह दुर्लभ नर-भव सुसंग लहि, तत्त्व लखावत वानी ।
`दौल' न कर अब पर में ममता, धर समता सुखदानी।।४ ।।छांडत. ।।