धनि मुनि निज आतमहित कीना
From जैनकोष
धनि मुनि निज आतमहित कीना ।
भव प्रसार तप अशुचि विषय विष, जान महाव्रत लीना ।।धनि. ।।
एकविहारी परिग्रह छारी, परीसह सहत अरीना ।
पूरव तन तपसाधन मान न, लाज गनी परवीना।।१ ।।धनि. ।।
शून्य सदन गिर गहन गुफामें, पदमासन आसीना ।
परभावनतैं भिन्न आपपद, ध्यावत मोहविहीना।।२ ।।धनि. ।।
स्वपरभेद जिनकी बुधि निजमें, पागी वाहि लगीना ।
`दौल' तास पद वारिज रजसे, किस अघ करे न छीना।।३ ।।धनि. ।।