मोहिड़ा रे जिय!
From जैनकोष
मोहिड़ा रे जिय! हितकारी न सीख सम्हारै ।
भववन भ्रमत दुखी लखि याको, सुगुरुदयालु उचारै ।।मोहिड़ा. ।।
विषय भुजंगमय संग न छोड़त, जो अनन्तभव मारै ।
ज्ञान विराग पियूष न पीवत, जो भवव्याधि विडारै।।१ ।।मोहिड़ा. ।।
जाके संग दुरैं अपने गुन, शिवपद अन्तर पारै ।
ता तनको अपनाय आप चिन-मूरतको न निहारै।।२ ।।मोहिड़ा. ।।
सुत दारा धन काज साज अघ, आपन काज विगारै ।
करत आपको अहित आपकर, ले कृपान जल दारै।।३ ।।मोहिड़ा. ।।
सही निगोद नरककी वेदन, वे दिन नाहिं चितारै ।
`दौल' गई सो गई अबहू नर, धर दृग-चरन सम्हारै।।४ ।।मोहिड़ा. ।।