योगसार - जीव-अधिकार गाथा 51
From जैनकोष
ध्याता, ध्येय के अनुसार हो जाता है -
परद्रव्यी भवत्यात्मा परद्रव्यविचिन्तक: ।
क्षिप्रमात्मत्वमायाति विविक्तात्मविचिन्तक: ।।५१ ।।
अन्वय :- परद्रव्यविचिन्तक: आत्मा परद्रव्यी भवति, विविक्तात्मविचिन्तक: क्षिप्रं आत्मत्वं आयाति ।
सरलार्थ :- जो मूढ़ आत्मा परद्रव्यों की चिंता में मग्न रहता है, वह आत्मा परद्रव्य जैसा हो जाता है । जो साधक आत्मा पर से भिन्न निज शुद्धात्मा के ध्यान में मग्न/लीन रहता है, वह आत्मा शीघ्र आत्मतत्त्व/मोक्ष या मोक्षमार्ग को प्राप्त कर लेता है ।