वर्णीजी-प्रवचन:कार्तिकेय अनुप्रेक्षा - गाथा 223
From जैनकोष
कारण-कज्ज-विसेसा तीसु वि कालेसु हुंति वत्थुणं ।
एककेक्कम्मि य समए पुव्वुत्तर-भावमासिज्ज ।।223।।
वस्तु में कारणकार्यपरंपरा―इस गाथा में यहाँ बताया जा रहा है कि तीनों काल में वस्तु के कार्यकारण भाव का निर्णय उस ही वस्तु में है । वस्तु के पूर्ण और उत्तर परिणमन को लेकर तीनों काल में प्रत्येक समय कार्यकारण भाव है । इस समय जो पर्याय बन रही है वह पूर्वपर्याय का तो कार्य है और उत्तरपर्याय का कारण है । प्रत्येक अवस्था कार्यरूप भी है और कारणरूप भी है । पदार्थ में प्रतिसमय उत्पादव्ययध्रौव्य होता है और तीनों के तीनों एक ही समय में होते हैं । जैसे कोई मनुष्य मरकर देव बना तो अब देवपर्याय में निर्णय करिये―उत्पाद हुआ देव का, व्यय हुआ मनुष्य का और ध्रौव्य रहा जीव का । तो देव का सद्भाव, मनुष्य का अभाव और जीव को ध्रुवता ये तीनों एक समय में हैं कि नहीं? तो प्रत्येक पदार्थ का उत्पादव्ययध्रौव्य का स्वभाव है । जैसे मिट्टी का पिडोला घड़ा बन जाता है तो जब वह घड़ा बन गया तो घड़े का सद्भाव, पिंडोले का अभाव और मिट्टी की ध्रुवता ये तीनों एक समय में हैं । तो पर्याय का उत्पाद विनाश होकर भी जो मूलभूत वस्तु है उसकी सदा ध्रुवता रहती है और यों, तीनों काल में प्रत्येक द्रव्य में कारणकार्य की परंपरा चल रही है । पूर्वपर्यायसंयुक्त द्रव्य उत्तरपर्याय का कारण है, उत्तरपर्याय पूर्वपर्याय का कार्य है अर्थात् द्रव्य में निरंतर अवस्थायें चलती रहती हैं ।
एकत्वदृष्टि का लाभ―केवल एक वस्तुस्वरूप को निहार निश्चय देखें तो यही प्रतीत होगा कि प्रत्येक पदार्थ हैं और उनमें लगातार परिणमन चलता है । विश्वास यदि यह हो जाय कि मेरे में मेरा परिणमन मेरे स्वभाव से चल रहा है, उस स्वभाव को कोई दूसरा उत्पन्न नहीं करता तो सारतत्त्व पर दृष्टि जायगी और वहाँ विदित होगा कि इस सत् चैतन्य का तो मैं ही अधिकारी हूँ, मैं ही सर्वस्व हूं, अन्य कुछ इसका कुछ नहीं है । जीवों को दुःख है नहीं, क्योंकि दुःख का स्वभाव नहीं । स्वभाव न होकर भी चूँकि इसमें विभावशक्ति है तो कारणकूट में और अपने अपराध से यह जीव आनंद स्वभाव का अनुभव न करके दुःखरूप परिणम जाता है । तो यहाँ इतना निश्चय कर लीजिए कि दुःख तो बनाने से होता है और आनंद स्वयं होता है । जैसे कि लोग ऐसा यत्न करते हैं कि आनंद मिले । अरे आनंद के लिए यत्न नहीं करना है । यत्न तो दुःख के लिए बना करता है । हाँ वह दुःख मिटे तो वहाँ आनंद स्वयं ही प्रकट होता है । तो करने की चीज खोटी है और स्वयं होने की चीज भली है । न करें कुछ, कोई विकल्प न करे यह जीव, स्वयं एक अपने विश्राम में आये तो इस पर स्वयं क्या होगा? आनंद ही होगा, दुःख न आयगा । हम विकल्प करते हैं, परवस्तु को उपयोग में दृढ़ करते हैं, उसका आग्रह बनाते हैं, तो हम में जो इतने यत्न हो रहे हैं ये दुःख के कारण बन रहे हैं । जरा इन सब यत्नों को, श्रमों को छोड़कर पूर्ण विश्राम के साथ स्थित तो हो जाय, वहाँ फिर क्लेश का कोई निदान न रहेगा । जब ज्ञान में ज्ञानस्वरूप ही ज्ञात होता है उस समय इस जीव को कोई संकट नहीं रहता । तो हमें भेदविज्ञान करके इस
तत्त्वज्ञान को दृढ़ करना है और उसके बल पर विकल्पों को त्यागना है । विकल्पों को त्यागें तो हममें बसे हुए परमात्मा को दर्शन होगा और उससे ही हमें शांति प्राप्त होगी । अन्य उपायों में शांति नहीं है । जन्ममरण करना, भटकना, यही इन समस्त बाह्य परिश्रमों का फल है । संसारभ्रमण नहीं चाहिये असंसरणस्वभावी निज अंतस्तत्त्व की दृष्टि करें ।
अनुप्रेक्षा प्रवचन षष्ठ भाग