वर्णीजी-प्रवचन:ज्ञानार्णव - श्लोक 1021
From जैनकोष
अपास्य करणग्रामं यदात्मन्यात्मना स्वयम्।
सेव्यते योगिभिस्तत्रि सुखमाध्यात्मिकं मतम्।।1021।।
इंद्रियग्राम का निवारण करके आत्मा में आत्मा द्वारा अध्यात्मसुख― इंद्रियसमूह का निवारण करके याने इंद्रिय का व्यापार समाप्त करके आत्मा में आत्मा के द्वारा जो सेवित किया जाता है याने आत्मा से आत्मा में ही जो पाया जाता है वह हे आध्यात्मिक सुख।इंद्रियज ज्ञान और इंद्रियज सुख इन दोनों से भी वैराग्य की आवश्यकता है। अपने विशुद्ध स्वभाव को निरखकर अपनी अनंत शक्ति का स्मरण कर अपनी इस कला की याद करके कि मैं ज्ञानस्वरूप हूँ तो स्वयं ज्ञानरूप वर्तता ही रहेगा। अब और कुछ किसी साधन से करने की क्या जरूरत है? ऐसी प्रतीति रखकर इंद्रियजज्ञान से और इंद्रियसुख से दोनों से विरक्ति की आवश्यकता है। इंद्रियजसुख तो बहुत-बहुत उलहने में आया ही करता है। यह पराधीन है, विनाशीक है, पर इंद्रियज ज्ञान की भी बात देखो तो यह भी इतना परतंत्र हे कि जब इंद्रिय हों तब हो, पर्याप्ति हो तब हो। इंद्रिय बिगड़ी न हों, अपने उपयोग की तरफ हों आदि कितनी ही इसमें जरूरत पड़ती है अपेक्षा की। तो ऐसा परापेक्ष, अस्वभाविक क्षायोपशमिक यह इंद्रियज ज्ञान, यह भी मेरे से निराला तत्त्व है, याने परापेक्ष है, सहजभाव नहीं है। इसमें भी क्या अनुराग करना। इंद्रिय में प्रीति है इंद्रियज ज्ञान के कारण और इंद्रिय ज्ञान के ही कारण इंद्रियज सुखों में रति होने का अवसर होता है। तो दोनों से विरक्त हों इसी की सूचना इस छंद में दी है। इंद्रिय समूह का निराकरण इसमें जाहिर किया है कि जो योगिसेवित होता है ऐसा आध्यात्मिक सुख जिसने यह सेवित करना हो, उसे इंद्रियसुख से विरक्त होना चाहिए। अब बतलाओ जो कोई महात्मा संत इंद्रियज सुख से और इंद्रियज्ञान से अनुराग न रखता हो उसको जगत में क्या संकट रह गया। संकट तो इस इंद्रियसुख के वातावरण का है। कोई संबंध नहीं एक जीव का दूसरे जीव के साथ, पृथक्-पृथक् सत्ता है मगर विषयलोभ से एक दूसरे में स्नेह करते हैं, बंध जाते हैं। तो दूसरे से क्या बंधा, अपने आपमें जो कल्पना जगी, उससे यह बंध गया। अपने में कल्पना उठाया और परतंत्र बना, दु:खी हो जाता। तो इस इंद्रियसुख और इस इंद्रियज्ञान की भी आवश्यकता नहीं है। मुझे तो एक आत्मा में आत्मा के द्वारा जो कुछ बात आयी ज्ञान की और आनंद की। जो हो सो हो, पर जब जान लिया कि यह बाह्य संपर्क यह असार है, भिन्न है तो उसकी हमें आवश्यकता नहीं है, ऐसा दृढ़चित्त होकर जो परमविश्राम लेता है अपने आपमें उसे आध्यात्मिक सुख का अनुभव होता है।