वर्णीजी-प्रवचन:ज्ञानार्णव - श्लोक 1039
From जैनकोष
अनंतबोधवीर्यादिनिर्मला गुणिभिर्गुणा:।
स्वस्मिन्नेव स्वयं मृग्या अपास्य करणांतरम्।।1039।।
आत्मवीर्य के परिचय में गुणविकास―यह ध्यान का प्रकरण हे, ध्यान में मूल तत्त्व अथवा मूल उपाय एक आत्मध्यान है। और आत्मा का ध्यान तब बन सकता है जब पहिले अपने आत्मा की शक्ति का परिचय हो। जब प्रतीति में यह बात बैठ जाय कि यह में आत्मतत्त्व सर्व पदार्थों में सारभूत और अपने लिए शरण हूँ। जब आत्मा की शक्ति का परिचय हो जाता है तब ही आत्मध्यान में रुचि जगती है। आत्मध्यान के इच्छुक पुरुषों को आत्मा के जो अनंत ज्ञानादिक गुण हैं उन गुणों को इंद्रिय का आलंबन त्यागकर स्वयं अपने आपमें उन्हें निरखना चाहिए। आत्मशक्ति अथवा आत्मगुण का अनुभव करने के लिए सर्व प्रथम तो पर्यायबुद्धि का परिहार हों। अर्थात् जो पर्यायें चल रही हैं गुणपर्याय अथवा यह असमानजातीय द्रव्यपर्याय, इज्जत, ऊँच-नीच कुल आदिक जो कुछ भी चल रहा है इसमें अहं बुद्धि न हो अर्थात् जो आत्मतत्त्व नहीं है परभाव है, परपदार्थ है उसमें यह मैं हूँ इस तरह का आशय न रहे तब आत्मध्यान का पात्र होगा। तो प्रथम ऐसी तैयारी करें कि देह का भान अहं रूप में न करें। यह में हूँ, यहाँ बैठा हूँ ऐसी स्थिति का हूँ, धनिक हूँ, अमुक जाति का हूँ, कुल का हूँ इन सब बातों में अहंपना न लायें तब ऐसी स्वच्छता प्रकट होगी कि जिसमें आत्मगुण निरखे जा सकेंगे। और, फिर आत्मगुण निरखने के लिए इंद्रिय का आलंबन न करें अर्थात् आँखों से देखने का श्रम न करें, कानों से सुनने का श्रम न करें कि में इन कानों से धुन लूँ, आँख आदि से विकल्प करने का श्रम न करें कि में देख लूँ, सुध लूँ, स्वाद लूँ यह इंद्रियों के द्वारा गम्य नहीं होता है। अत: इंद्रिय का परिहार करके स्वयं एक अपने आप में अहंकार और ममकार से दूर होकर विश्राम से निरखें तो वह निर्मल गुण जो अनंत बोध अनंत वीर्य जो कुछ भी आत्मा में अपने सत्त्व के कारण स्वरूप पाया जाता है वह खोजने में आ जायगा। जब अपनी महत्ता का ज्ञान हो अहो यह मैं स्वयं आनंदमय हूँ, निराकुल हूँ, मेरे को इस लोक में करने को कुछ नहीं है यह में परिपूर्ण हूँ, जब अपने आपके स्वरूप की महिमा विदित होगी तब आत्मध्यान बनेगा। भैया ! लोक में कहीं कुछ शरण नहीं है। किसकी प्रीति, किसका द्वेष, किसका मोह, क्या यहाँ करना? जहाँ जावो, जिसका शरण गहो, जिसका आलंबन लो वह चूँकि पर है ना, अतएव वहाँ शरण मिलना तो दूर रहोबल्कि एक धोखा मिलता है। कुछ चाह करके किसी पदार्थ के निकट पहुँचे तो वहाँ प्रतिकूल बात बन जाती है। लोक में कोई भी पर पदार्थ मेरे लिए शरण नहीं है। यह मैं स्वयं अपने सहज इस आत्मस्वरूप का भान व ध्यान करूँ, तो इस सुस्थिति में स्वयं ही अनुपम आनंद का अनुभव होता है और इस ज्ञान और वैराग्य अथवा आनंद में ही सामर्थ्य है कि हमारे भव-भव के कर्म छेदें जा सकते हैं।