वर्णीजी-प्रवचन:ज्ञानार्णव - श्लोक 118
From जैनकोष
कदाचिछ्रेवगत्यायुर्नागकर्मोदयादिह।
प्रभवंत्यंगिन: स्वर्गे पुण्यप्राग्भारसंभृता:।।118।।
बारह भावनाओं का वर्णन करते हुये तीसरी संसार भावना का वर्णन करते हैं। उनमें प्रथम देवगति का वर्णन करते हैं कि कभी तो यह जीव देवगति नाम कर्म तथा देवायुकर्म के उदय से पुण्यकर्म के समूहों से भरे हुये स्वर्गों में देवों का शरीर धारण करता है। परंतु इन स्वर्गों में भी उसे किंचित् सुख प्राप्त नहीं होता है क्योंकि देवगति में कल्पनाओं का जाल बड़ा विस्तृत है।
लोकमहंतों की व्यथायें― कभी यह जीव देव बनता है तो देवगति में भी कल्पनाजालों से बंधा हुआ यह आकुलित रहता है। जैसे यहाँ किसी बड़े करोड़पति सेठ को क्या दु:ख है? इसको हजारपति लोग नहीं जान सकते, उनकी दृष्टि में तो ये बड़े सुखी नजर आते हैं, अनेक कार हैं, ठंडा मकान है, ठंड के दिनों में गरम मकान बन जाते हैं, अनेक नौकर-चाकर हैं, अनेक वैभव हैं, मित्रजन द्वार पर खड़े रहते हैं, बड़ी उनमें भावभक्ति होती हैं उस करोड़पति के प्रति। समाज में, सभाओं में जहाँ भी वह करोड़पति पहुँच जाता है वहाँ वह बड़ा आदर पाता है। हजारपति लोग सोचते हैं कि यह तो बड़ा सुखी है। पर उसके दु:ख को वे भाँप नहीं सकते। पर वह करोड़पति अपने आपके दु:ख को कितना महसूस करता है? गरीब लोग तो बड़ी शान से रात्रि में सो सकते हैं, पर वह करोड़पति रात्रि में भी ठीक तरह से सो नहीं सकता। बड़ा बेचैन रहता है। उनको अनेक चिंताएँ सताती रहती हैं और बड़ों की बातें देखो― सभी में यही बात पायी जाती है, यही पोल पायी जाती है। हम नहीं समझ पाते हैं कि उन बड़ों को क्या कष्ट है? ऐसे ही देवगति के सुखों की बात सुन-सुनकर साधारणतया लोग यह निर्णय कर लेते हैं कि सुख है तो वहाँ है। उन देवों पर क्या बीतती है वे परस्पर में किस प्रकार की एक दूसरे से ईर्ष्या द्वेष रखा करते हैं, इस बात को तो वे ही समझ सकते हैं। किंतु एक युक्ति है, कसौटी से इसका निर्णय तो हम आप भी कर सकते हैं कि चूँकि वे अपने स्वरूप की ओर नहीं झुकते, बाहरी भोगों की ओर उपयोग दिये रहते हैं इस कारण वे नितांत दु:खी हैं। ऐसा देव बन जाय कदाचित् देवगति देव आयुकर्म के उदय से, तो बन जाय किंतु होता क्या है? चिरकाल तक अर्थात् असंख्यात वर्षों तक वे दिव्य सुख को भोगकर आखिर इस भूमि पर ही उन्हें जन्म लेना होता है। वहाँ वे किस प्रकार रहते हैं? इसे सुनिये।