वर्णीजी-प्रवचन:ज्ञानार्णव - श्लोक 1228
From जैनकोष
अभिलषति नितांतं यत्परस्यापकारं, व्यसनविशिखभिन्नं वीक्ष्य यत्तोषमेति।
यदिह गुणगरिष्ठं द्वेष्टि दृष्ट्वान्यभूतिं भवति हृदि सशल्यस्तद्धि रौद्रस्य लिंगम्।।1228।।
निरंतर दूसरे का अपकार चिंतन करना रौद्रध्यान है। कषाय बसी है, मन ही मन गुड़गुड़ाते रहते है, अमुक का नाश हो, और कितने ही लोग तो ऐसे भी होते हैं जो मंदिर में जाकर भगवान की डेरी में पड़कर यह ध्यान करते हैं कि हे भगवन् ! अमुक व्यक्ति का नाश हो जाय। अब तो खैर धर्म में श्रद्धा ही नहीं लोगों को रही। भगवान के मंदिर में जायेंगे ही क्या, पर कभी यह बात थी कि लोगों में धर्म की श्रद्धा थी और लोगों का मंदिर जाने का नियम रहता था, तो कोई लोग मंदिर में भगवान से निवेदन करते कि हे भगवन् ! अमुक का नाश हो जाय। तो यह खोटी कल्पना कितनी मूढ़ता भरी कल्पना है? वह हृदय पवित्र है जिसमें सब जीवों के प्रति सुखी होने की भावना बने। किसी का बुरा न विचारे। गृहस्थी है तो अपना काम काज करिये, धर्मपालन भी कीजिए। पर इतना ध्यान तो सभी को रखना चाहिए कि अपने लाभ के लिए किसी भी मनुष्य का प्राणी का बुरा चिंतन न करें कि अमुक का नाश हो, अमुक की बरबादी हो। वह पुरुष श्रेष्ठ है जिसमें यह धीरता है कि अपने काम में डटे जावो और तुमसे कोई विरोध करे, नुकसान पहुँचाये इतने पर भी उसका हृदय से बुरा न सोचना। यह एक बड़ा आंतरिक तपश्चरण है। जो ऐसी भावना भरेगा वह सोने की तरह तप जायगा, कुंदन हो जावेगा, पवित्र बन जायगा, यह अभ्यास कीजिए कि किसी का भी बुरा मत होवे। चाहे किसी के द्वारा हम पर उपसर्ग आया हो और उपद्रव ढा गया हो इतने पर भी किसी का अकल्याण न विचारना ऐसा चित्त बन जाय वह एक ऊँचा तपश्चरण है। धर्म के हित उपवास करते न बने न सही, तप सामायिक ये सब चीजें न बने न सही, पूजा भी नहीं बन पाती, न सही, किंतु इतनी सी बात जो केवल चित्त के आधीन है, भावनामयी बात है, फिर भी जिसमें कोई व्यय नहीं है और विडंबना भी जहाँ नहीं आती, ऐसी यह भावना हृदय से बनाये तो सही, किसी ने उपद्रव भी किया हो तिस पर भी उसका बुरा न सोचना, उसका अकल्याण न सोचना, ऐसा हृदय बने तो खुद को तो लाभ हो ही गया और फिर दूसरों में भी उसकी महिमा प्रकट होगी। धर्म तो वीतराग प्रभु और ऋषियों की परंपरा से चला आया है। उनकी संतान में हम आप भी जन्मे हैं। तो यह जानकर कि धर्म कुछ अलग चीज नहीं है, यह व्यवहार धर्म, यह सब सामायिक व्यवस्था यह सब धर्म की परंपरा है। उस परंपरा में हम भी एक सहयोग दे रहे हैं। इस लोक में मेरा कोई मालिक नहीं, अधिकारी नहीं, मेरा कुछ उसमें विशेष रूप से कुछ लाभ होता हो कुछ भी नहीं है। एक धर्म यों परंपरा से चलता जाता है, उसकी ही परंपरा बनाने में एक हम भी सहयोगी हैं। तो बिना कुछ चाहे, कीर्ति चाहे बिना, अन्य प्रकार का लाभ कुछ भी चाहे बिना जितना बन सकता है, हम उस परिपाटी में सहयोग दे रहे हैं। उस परिपाटी में सहयोग देने से कहीं हमारा अलग अस्तित्त्व नहीं बन गया। हम जीव ही परिपाटी चलाने वालों में घुलमिलकर अपना कर्तव्य निभायें यह बात युक्त है। तो ऐसा विचार बने, ऐसी पवित्र भावना बने कि किसी भी जीव का अहित न सोचें तो वह धर्मभावना है, और किसी का अनिष्ट सोचना वह सब रौद्रध्यान है। किसी विपत्ति में पड़े हुए पुरुष को देखकर संतोष करना, देखो अच्छा हुआ, बहुत ऊधम करता था, बड़ी उद्दंडता से रहता था, अब ठीक हुआ, होनी ही चाहिए ऐसी विपत्ति, यों किसी की विपत्ति को निरख कर कोई संतोष करता हो तो यह भी रौद्रध्यान है, खोटी भावना है। गुणों में कोई बड़ा हो, गुणवान हो, उसको देखकर द्वेष करना सो रौद्रध्यान है। गुणीजनों को देखकर मन में रोष आना। कैसे रोष आ गया? जैसा अहंकार है, अभिप्राय है और उसको डर लगा कि इसके आने के कारण हमारी बात मिट्टी में न मिल जाय, हमें फिर कोई न पूछेगा, इससे तो हमारी पोजीशन बिगड़ेगा, ऐसा आशय रहता है तब जो गुणी पुरुष हैं उनके प्रति द्वेषभाव जगता है, कहाँ से यह काँटा आ गया है, कब यह टलेगा, यों चिंतन करना सब रौद्रध्यान है। दूसरे की विभूति को देखकर द्वेष करना, किसी के ज्यादा धन बढ़ रहा है, अपने आराम के साधन अच्छे बढ़ रहा है, और वैभव का भी विस्तार कर रहा है ऐसी विभूति देखकर द्वेष करना यह भी रौद्रध्यान है। किसी के बड़ा बन जाने से, धनी हो जाने से किसी दूसरे का क्या नुकसान पड़ता है? फायदा जितना चाहे हो सकता है। कोई धन बढ़ाकर आखिर करेगा क्या? कुछ दिन कंजूसी भले ही कर ले, किंतु उसी का ही परिणाम कभी बदलेगा और न बदला तो मर गया। उसके पुत्रों का वह धन बनेगा, परोपकार में वह धन लगेगा। कमाने वाला अपने पेट में खाता है क्या उस वैभव को? किसी के धन बढ़ रहा है तो बढ़ने दो, उससे भला ही है। देश का लाभ है, गाँव का लाभ है, पड़ौसियों का लाभ है, सबका ही लाभ है। कोई अगर विभूति में बढ़ रहा है तो उसको निरखकर द्वेष करना यह खोटा ध्यान है। जो रौद्रध्यानी पुरुष है वह शल्यसहित रहता है, ऐसे ध्यान का त्याग करना चाहिए और शांति के पथ में बढ़ना चाहिए।