वर्णीजी-प्रवचन:ज्ञानार्णव - श्लोक 127
From जैनकोष
देवलोके नृलोके च तिरश्चि नरकेपि च।
न सा योनिर्न तद्रूपं न तत्कुलम्।।127।।
न तद्दु:खं सुखं किंचिन्न पर्याय: सविद्यते।
यत्रैते प्राणिन: शश्वद् यातायातैर्न खंडिता:।।128।।
देवलोक में अनेक जन्म― देवलोक में, मनुष्यलोक में, तिर्यंच में और नारकों में ऐसी योनि नहीं बची, वह रूप, देश, कुल, दु:ख, सुख आदिक कोई ऐसे परिणमन नहीं बचे जिन परिणमनों को इस प्राणी ने संसार में जन्म मरण करते हुये न पाये हों। देवलोक से प्रयोजन व्यवहार की अपेक्षा तो ऊर्ध्वलोक से है और देव जहाँ-जहाँ रहते हैं उस अपेक्षा से भवनवासी, व्यंतर, ज्योतिषी, वैमानिक चारों प्रकार के देवों को देवलोक में उत्पन्न होने का साधन उत्पाद है। माता पिता से देव उत्पन्न नहीं होते, किंतु विशिष्ट स्थानों पर शैया बनी है और वहाँ देव स्वयं ही अपने आप वहाँ की वैक्रियक वर्गणावों को ग्रहण करके बालक की तरह लेटे हुये प्रकट हो जाते हैं और फिर वे देव अंतर्मुहूर्त में ही जवान हो जाते हैं।
प्रभुभक्त दर्दुर का देवलोक में उत्पाद― भगवान् महावीर स्वामी के समवशरण में राजा श्रेणिक जा रहा था हाथी पर चढ़ा हुआ और समवशरण में प्रभुदर्शन के लिये प्रभुभक्ति से एक मेंढक भी अपने मुख में कमल की एक पाँखुरी दबाये हुये जा रहा था। रास्ते में वह मेंढक राजा श्रेणिक के हाथी के पैरों के नीचे आकर दबकर मर गया। प्रभु पूजा की परिणति के प्रसाद से मरकर वह देव हुआ और अंतर्मुहूर्त में ही जवान होकर अवधिज्ञान से अपना पूर्वभव और प्रभुभक्तिभाव की महिमा जानकर भगवान महावीर स्वामी के समवशरण की भावना का ध्यान करके अपने मुकुट में मेंढक का चिन्ह बनाकर समवशरण में पहुँच गया राजा श्रेणिक से भी पहिले। वहाँ जब एक अद्भुत रूपधारी तेजस्वी देव को देखा और देखा कि इसके मुकुट में मेंढक का भी चिन्ह है, मेंढक कोई बढ़िया चीज तो नहीं है। मुकुट में तो मेंढक की फोटो यदि बनायी जाय तो भद्दी लगेगी। जैसे पुरानी चाल की स्त्री अपने सिर पर एक मेंढक सा रख लेती हैं, उस मेंढक से फायदा तो था कि सिर के ऊपर की जो साड़ी है वह चिकनी न होती होगी, पर लगता बड़ा भद्दा सा, उठा हुआ सा है। कोई मुकुट में मेंढक का चिन्ह बना ले तो वह बढ़िया तो नहीं लगता। उस चिन्ह को देखकर श्रेणिक के यह जिज्ञासा हुई कि यह कौन है और ऐसा चिन्ह क्यों बनाया है? तो वहाँ समाधान मिला कि तेरे ही हाथी के पैर के नीचे दबकर मरकर यह देव बना है और तुमसे पहिले प्रभुदर्शन के लिये समवशरण में आ गया है। तो देवलोक में उत्पाद शैया होती है वहाँ जन्म होता है।
नृलोक, तिर्यग्लोक व नरलोक में अनेक जन्म― मनुष्यलोक में जन्मस्थान मनुष्यों की तरह है, तिर्यंचों में तिर्यंचों के योग्य है, किंतु नरकगति में नारकियों के उत्पन्न होने के स्थान ऐसे हैं जैसे छत के नीचे कोई आकार बने हुये हों ऊटपटाँग तिरछे, यों इस पृथ्वी में पोल के भीतरी भाग में ऊपर अनेक तरह के बहुत आकार के स्थान बने हैं, वे हैं नारकियों के जन्म लेने के स्थान। वहाँ से नारकी औंधे सिर टपकते हैं और जमीन पर सैकड़ों बार उछलते हैं। जैसे गेंद किसी जगह गिरने पर सैकड़ों बार उछलती है ऐसे ही नारकियों का जन्म होता है।
जन्म सुख दु:ख आदि की अनंतानंत घटनायें― इन योनियों में कोई योनि ऐसी नहीं बची जो इस जीव ने अनेक बार न पायी हो। न ऐसा रूप, न ऐसा देश, न ऐसा कुल, न ऐसा दु:ख सुख, न अन्य प्रकार का किसी भी प्रकार का विभावपरिणमन कोई नहीं बचा, जिसको इस जीव ने अनेक बार पाया न हो। सभी अवस्थाओं में इस जीव ने अनेक बार सुख दु:ख भोगे हैं बिना भोगे कुछ भी नहीं बचा। तब किसी भी पदार्थ को निरखकर हे आत्मन् ! तू अपूर्व क्यों मानता है, नवीन क्यों मानता है? जो भी तेरे उपभोग में आ रहे हैं वे सब अनेक बार भोगकर छोड़े हैं। ये तो सब तेरे जूठे हैं। तू इन जूठे विषय भोगों में इतनी प्रीति करता है कि जिस आसक्ति के कारण तू अपने आनंदधाम निजस्वरूप को भी भूल गया है। परिवर्तनरहित शुद्ध ज्ञानस्वरूप की भावना करें तो संसार के ये सारे परिवर्तन समाप्त हो सकते हैं और अपने आपको ज्ञानस्वरूप में लीन करके सदा के लिये संकटों से छूट सकते हैं। इन संसारसमागमों को असार जानकर इनसे प्रीति मत करो और अपने शाश्वत स्वरूप में ही अनुराग करो।