वर्णीजी-प्रवचन:ज्ञानार्णव - श्लोक 1521
From जैनकोष
य: स्वमेव समादत्ते नादत्ते य: स्वतोऽपरम्।
निर्विकल्प: स विज्ञानी स्वसंवेद्योस्मि केवलम्।।1521।।
जगत में जितने प्राणी हैं उन सबकी एक यह अभिलाषा है कि दु:ख से छूटें और शांत रहें, आनंद प्राप्त करें और जितने भी तो कोई भी प्राणी प्रयत्न करते हैं वह सब इस ही प्रयोजन से करते हैं कि दु:ख हमारा दूर हो और आनंद प्राप्त हो। किंतु अनेक प्रयत्न करने पर भी कभी आनंद नहीं मिल सका, तृप्ति नहीं मिल सकी। इसका क्या कारण है? इस पर विचार करना चाहिए और हम उसका निर्णय करके उस मार्ग पर चलें ऐसा हमारा प्रयत्न होना चाहिए। प्रथम तो मोटे रूप से यह ही विचार कीजिए कि जिस भव में जो-जो समागम मिलाहै उन समागमों से हमने लाभ क्या प्राप्त किया? भव-भव की बात छोड़कर इस ही भव की बात का विचार कीजिए। जो भी समागम प्राप्त हुए हैं उन सबकी वृद्धि के लिए हमने 50-60 वर्ष खोया है। अगर पूछें कि उन समागमों से अभी तक आपने क्या लाभ पाया है? तो सभी का हृदय यह बोल उठेगा कि मिला कुछ नहीं। इतने वर्ष खोया, घरगृहस्थी चलाया, कुटुंब भी बनाया, अनेक लोगों से परिचय भी बनाया किंतु वह सब बेकार रहा। यहाँ तो संतोष मिला ही नहीं, आनंद मिला ही नहीं। जब कुछ अपना उपयोग अपने आप पर दया करे तो वह अपने कल्याण के लिए बनेगा, यह निर्णय रखियेगा। जगत में जितने भी जीव हैं वे सब अपना-अपना अस्तित्त्व रखते हैं, उनके भावों के अनुसार उनके साथ उनका कर्मबंधन है। उनका सुख-दु:ख उनमें है, उनका पुण्य पाप उनके साथ है, उसी के अनुसार उनका बर्ताव होता है। हम उनकी जिम्मेदारी अपने आप पर क्यों अधिक मानें? साथ ही यह भी निर्णय रखें कि हम जितने भी प्रयत्न करते हैं कुटुंब को सुखी रखने के, परिजनों में, बंधुवों में, मित्रजनों में तो ये सब बातें एक कल्पना भर की हैं। आप ऐसा कुछ करने में समर्थ नहीं हैं। इसको निर्णय में रखते हुए कुछ समागमों से विरक्ति धारण करें। घर में रहकर भी यदि अपने आपके स्वरूप की ओर दृष्टि चलती हैं तो वहाँ भी आप कल्याण मार्ग पर चल रहे हैं। जब अपने आपके कल्याण की इच्छा जगेगी तब सब बातें सहज ही स्पष्ट रूप से समझ में आने लगेंगी। प्रथम बात तो यह है कि हमें कल्याण की इच्छा बलवती प्रेरणा के साथ नहीं जगी है और जब तक हममें आत्महित की भावना तीव्रता के साथ नहीं जगती है तो हमारा सब कुछ हाथ पैर सिर पीटना किसी भी मेाड़में बेकार चीज है। श्रोता किसे कहते हैं? श्रोता के लक्षण में सबसे पहिले यह बताया कि वह भव्य है, वास्तविक श्रोता है जिसके चित्त में यह भावना जग रही हो कि मेरा हित क्याहै? मैं आत्महित कैसे करूँ? आत्महित करने के लिए अपना सर्वस्व समर्पित करने के लिए तैयार रहना चाहिए। इस मुझ आत्मा का अहित अभी तक भ्रम में हुआ है। जो पदार्थ जैसा है, पदार्थ का जो स्वरूप है उसको इस रूप में न मानकर एक दूसरे में मिलाकर परवस्तुवों में ‘यह मैं हूँ’ ऐसा भ्रम करके अपना अहित किया है। और ऐसा भ्रम होने के कारण क्या बना कि अनादिकाल से निमित्तनैमित्तिक संबंध के साथ जो परिणतियाँचल रही थी उन परिणतियों को हमने अपनाया और आपा माना। यह एक भ्रम था। ये भ्रम भी अटपट नहीं बने, कोई विधिपूर्वक बने थे। अब कोई विधि ऐसी भीहै कि हम इस भ्रम को दूर कर सकते हैं और अपने आपमें अपने सहजस्वरूप के दर्शन कर सकते हैं। सर्वप्रथम तो यह ध्यान दीजिए कि मूल में समस्त जीव एक समानहैं अथवा नहीं।उपाधि औपाधिकभाव इनकी ओरदृष्टि न देकर केवल एक अस्तित्वमात्र के द्वार से निरखें तो सब जीवों में वही एक चैतन्यभाव है अथवा नहीं। जिसके कारण अस्तित्व रहा करता है वह स्वरूप सब जीवों में एक समान है। सब जीवों में वह चिद्रूप एक समान हुआ करता है। जो आज परिणमनों में विषमता देख रहे हैं वह विषमता क्यों हुई है? उसका कारण अशुद्ध उपादानहै। जो अशुद्ध परिणमन कर सके ऐसा निमित्त है, सन्निधान मिला है।
देखिये जब वस्तु का हम निर्णय करें तो हम केवल आत्महित का ध्यान रखकर निर्णय करें। किसी द्वंद्व प्रतिद्वंद्व में किसी मंतव्य को ध्यान में न रखा करें और जो हमारी आगम परंपरा चली आयी हे उन वचनों का सहारा लेकर निर्णय करें। यह तो प्रकट सिद्ध है कि प्रत्येक पदार्थ अपना-अपनाही स्वरूप रखते हैं। कोई पदार्थ किसी दूसरे का स्वरूप नहीं ले सकता है। यदि कोई पदार्थ किसी दूसरे का स्वरूप स्वभाव ग्रहण कर लेता होता तो शंकरता होकर आज जगत में कुछ न रहता। सब शून्य रहता। जगत में इतने पदार्थ मौजूद हैं यह इसके बल पर कि प्रत्येक पदार्थ अपने ही अपने स्वरूप को ग्रहण किए हुए हैं, कोई पदार्थ किसी दूसरे पदार्थ के स्वरूप को नहीं ग्रहण करता। द्रव्य की जातियाँ 6 हैं― जीव, पुद्गल, धर्म, अधर्म, आकाश और काल― ये चार पदार्थ विभावरूप नहीं परिणमते। विभावरूप परिणमने वाले केवल एक जाति के ही द्रव्य हैं― जीव और पुद्गल। तो विभावरूप परिणमने की यह विधि है कि विभावरूप परिणमने वाले पदार्थ परिणमते तो हैं अपने ही परिणमन से विभावरूप, पर अपने विभावरूप परिणमन में जैसा खुद उपादान हे ऐसा खुद ही निमित्त बन जाय तो यह विभावपरिणमन सदा काल रहा करे। सो किसी परनिमित्त को पाकर यह उपादान अपनी परिणति से विभावरूप परिणमता है।परिणमों, लेकिन हम अपनी एक ऐसी धुन रखें एकत्व भावना की कि उन समस्त संपर्कों से अपने को हटा हटाकर केवल अपने आपके स्वरूप की ओरलगायें अपने उपयोग को ऐसी हम अपनी धुन बनायें, ऐसी हम अपनी दृष्टि बनायें। जब वस्तु के परिणमन का निर्णय करना होता है तब तो निमित्त उपादान की चर्चा चला करती है और जब केवल अपने आत्महित की दृष्टि होती है तब वहाँ केवल एक अद्वैत निज अंतस्तत्त्व की दृष्टि लगायी जाया करती है ऐसे दो प्रयोजनों में दो विधियाँहैं। निर्णय की बात एक बार दृढ़कर ली जाय तो आत्महित के अर्थ सबसे निराले केवल विविक्त इस आत्मतत्त्व की दृष्टि का यत्न करना चाहिए। और इस दृष्टि में रहकर जब हम निरखते हैं तो सर्वत्र यह देखते हैं कि प्रत्येक पदार्थ अपने आपकी परिणति से परिणमता है, किसी दूसरे की परिणति से नहीं परिणमता है। इस निर्णय में यह बात जरूर है कि जीव और पुद्गल ये दोनों जब विभावरूप परिणमते हैं तो किसी परनिमित्त को पाकर ही परिणम सकते हैं। निमित्त सन्निधान बिना विभाव नहीं होता लेकिन साथ ही साथ आत्मकृपा की भी बात सुनिये। आत्मदया किसमें है, परदृष्टि बनाकर हम अपने आपकी रक्षा न कर सकेंगे, निजदृष्टि बनाकर ही हम अपने आपकी रक्षा कर सकेंगे।
अनादिकाल से हम परपदार्थों की ओर दृष्टि लगाकर, उनसे रागस्नेह लगाकर, उनमें मुग्ध होकर अपने आपके जन्म मरण की परंपरा बनाये-बनाये चले आ रहे हैं। जब हम देह से निराले केवल ज्ञानानंदस्वरूप निज अंतस्तत्त्व की दृष्टि बनाते हैं और वहाँ ही हम यह अनुभव करते हैं कि यह चित् चमत्कार मात्र मैं हूँ तो वहाँ जन्ममरण की परंपरा हमारी मिट जायगी। और जन्म-मरण ही इस संसार का सबसे बड़ा अनर्थ है। जितने भी क्लेश हैंवे सब केवल एक इस शरीर के लगे रहने के कारण हैं। यद्यपि क्लेश मानता है यह आत्मा, उन सब क्लेशों के होने का एक आधार है यह शरीर। कल्पना करो कि यदि यह शरीर न होता, केवल मैं ही मैं होता तो मेरी क्या परिस्थिति होती? मेरी वह परिस्थिति होती जो सिद्ध भगवान की परिस्थिति है। सिद्ध भगवान के शरीर नहीं है, कर्म नहीं है, केवल वह आत्मा ही आत्मा है। तो उसकी यह परिस्थिति हैकि गुण तो सब विकसित हैं और दोष सिद्ध प्रभु के अंदर एक भी नहीं है। अर्थात् दोषों से रहित गुणों से परिपूर्ण स्थिति हमारी होती है, पर शरीर का संपर्क है तो उसका फल यह है कि जरा जरासी बातों में हम क्लेश मानते हैं। तो हम यह भावना करें कि हे प्रभो ! मैं शरीररहित स्वरूप वाला हूँ और मेरी ऐसी स्थिति बने कि शरीररहित केवल अपने आपके स्वरूप में बस सकूँ। इस ही स्थिति में हम आप सबका कल्याण है। देखिये जब जिस बात का वर्णन चलता हो उस नय को मुख्य करके, उस दृष्टि को मुख्य करके हमें उसका निर्णय लेना चाहिए और यह बात जब हम नहीं कर पाते हैं तो हमें विवाद मालूम होने लगता है। यह स्थिति आज करीब-करीब फैल रही है कि जोजिस नय से बात करता है, जिसे जो नय प्रिय है वह अपने उस नय को ही एकांत करके चर्चा करता है और यह कुछ विवाद का स्थान बन जाता है और जैनसिद्धांत का प्रतिपादन करने वाले सभी लोग चाहे कोई निश्चय के पक्ष का हो, चाहे व्यवहार के पक्ष का हो, सबमें सबकी बात उन उनकी दृष्टि से यथार्थ जँचती है लेकिन जब अपने नय के एक अभिनिवेश में आकर अन्य नय की बात को असत्य कहींतब वहाँ विवाद हो जाता है।
हम आप सबको ऐसे एक मध्य मार्ग से चलना चाहिए जिससे हमें कोई भी अपना विरोधी न जँचे और वास्तव में कोई किसी का विरोधी है भी नहीं। जैसे लौकिक कामों में हम किसी को अपना विरोधी मान लें तो दु:खी हमको ही होना पड़ता है। कोई जीव किसी का विरोधी नहीं है―इस बात को पहिले इस तरह उतारिये। जगत में जितने भी जीव हैं उन सबकी यह चाह नहीं है कि मैं किसी का विरोध करूँ। सभी के इन कषायों से जो वेदना उत्पन्न होती है वह वेदना शांत हो जाय ऐसा चाहते हैं। तब प्रत्येक प्राणी अपनी कल्पना के अनुसार जो कुछ भाव लिए हुए है और उसमें जो कुछ भी अशांति है, अपनी अशांति को शांत करने के लिए अपना प्रयत्न करता है।
किंतु अन्य जन अपने साधन में समर्थन न मिलने के कारण उसे विरोधी मान लेते हैं। जगत में कोई भी मेरा विरोधी नहीं है। कोई गाली गलौज भी देता हो तो उसका एक भाव है, अपने भावों के अनुसार वह अपनी शांति के लिए अपनी चेष्टा करता है। मेरा कुछ नहीं कर रहा है। ऐसा अपने में निर्णय रखकर उसे अब विरोधी न समझिये।एक कथानक है कि एक राजा अपने शत्रु पर चढ़ाई करने चला जा रहा था और उस ओर से वह शत्रु भी अपनी सेना साथ लेकर उसकी ओर आ रहा था। रास्ते में इस राजा को एक मुनिराज के दर्शन हुए, जंगल में मुनिराज के समीप बैठ गया। मुनि से उपदेश सुनने लगा। इस बीच में शत्रु सेना के शब्द सुनाई पड़ने लगे। राजा कुछ सावधानी सहित तलवार पर हाथ रखकर बैठ गया। कुछ और ज्यादा शब्द सुनाई देने लगे। तलवार उठाकर खड़ा हो गया। तो मुनिराज कहते हैं कि राजन् ! यह क्या करते हो? तो राजा बोला― महाराज ! जैसे-जैसे शत्रु सेना मेरे निकट आती जाती है वैसे ही वैसे मेरा क्रोध बढ़ रहा है कि मैं इस शत्रु का घात कर दूँ। तो मुनिराज बोलते हैं कि राजन् ! तुम बहुत अच्छा काम करते हो।शत्रु निकट आये तो उस शत्रु को ध्वस्त कर देना ही चाहिए।लेकिन एक शत्रु तुम्हारे बिल्कुल अंदर आ चुका है उसको तो ध्वस्त करो। राजा बोला―महाराज वह कौन शत्रु है? मुनिराज बोले कि तुम दूसरे राजा को अपना विरोधी मानते हो, उससे द्वेष करते हो, ऐसा तो द्वेषरूप परिणाम तुममें आया है, यह द्वेषरूप परिणाम तुम्हारा शत्रु है उसको ध्वस्त करो। राजा की समझ में आ गया। वह झट निर्ग्रंथ मुनिपद धारण करके बैठ गया। विरोधी सेना के जितने भी लोग आये वे सब उसके पैरों पड़कर वापिस लौट गए। हम सबको यह भाव रखना चाहिए कि इस जगत में मेरा कोई विरोधी नहीं है। मेरा मात्र मैं ही विरोधी बन जाता और मैं ही अपना उद्धारक बन जाता। जैसा हम भाव करते हैं उस प्रकार कर्मबंधन होता है। उनका जैसा उदय होता है उस प्रकार यह विभाव परिणमन चलता है और इस बीच हम निमित्त से अपना भेद नहीं कर पाते। आस्रवों से भिन्न हम अपने को नहीं समझ पाते हैं। सबसे निराला चैतन्यस्वरूप अपने को नहीं समझ पाते तो यह निमित्तनैमित्तिक संबंध की परंपरा चलती है और उसका फल होता है संसार में क्लेश भोगना। तो अपने आपकी रक्षा के लिए यह जरूरी बात है कि अपने सहजस्वरूप का परिचय प्राप्त करें। अब इस दृष्टि में आकर के इस प्रकरण को सुनिये जो इस श्लोक में कहा जा रहा है।
मैं क्या हूँ ? जो हूँसो हूँ। सीधा उत्तर तो यह है कि तब हम वचनों का प्रतिपादन करते हैं तो यह करना होगा कि मैं अपने चतुष्टय से हूँ और पर के चतुष्टय से नहीं हूँ। स्याद्वाद में जो सप्तभंग बताये गए हैं वे सप्तभंग केवल एक ही किसी भी बात के बोलने पर बन जाते हैं। जो कुछ आप कहते होंगे वह एक भंग हुआ, उसके विरुद्ध जो दूसरी बात है उसका निषेध हुआ, यह दूसरा भंग हुआ और दोनों बातों को एक साथ नहीं बोल सकते हैं तो यह एक तीसरा अवक्तव्य भंग हुआ। जब यह एक स्वतंत्र भंग हो गया तो इसके प्रतिपक्षी धर्मों को मिला करके जो भंग बनेगा वह दूसरा और बनेगा, तीनों को दो-दो बनायेंगे तो तीन बनेंगे। जैसे तीन वस्तु हैं― सोंठ, पीपल और मिर्च। इनको 7 प्रकार से खाया जा सकता है। केवल सोंठ, केवल मिर्च, केवल पीपल, सोंठ ,मिर्च, मिर्च पीपल, और इन सबको दो-दो मिलाकर स्वाद लिया जा सकता है। इसमें मुख्य तीन पदार्थ हैं। केवल इस समय उन 3 पर दृष्टि रखिये। मैं हूँ, अपने स्वरूप से हूँ, पर के स्वरूप से नहीं हूँ।स्वरूप में चार चीजें होती हैं― द्रव्य, क्षेत्र, काल और भाव। तब इसका अर्थ यह हुआ कि मैं अपने द्रव्य से हूँ, अपने क्षेत्र से हूँ, काल से हूँ और भाव से हूँ। पर के द्रव्य, क्षेत्र, काल, भाव से नहीं हूँ। देखिये इस तरह की दृष्टि बनाकर आप निरखियेगा। तो प्रत्येक पदार्थ स्वतंत्र समझ में आना चाहिए। प्रत्येक पदार्थ अपने चतुष्टय से रहा करते हैं, पर उस चतुष्टय के परिणमन में यदि कोई विभावपरिणमन है तो उपादान अपनी कला से विभावरूप परिणमता है, इसमें कोई संदेह नहीं। पर उपादान अपनी कला को विकसित करे ऐसे उसके वातावरण परिणमन अनुकूल पर निमित्त सन्निधान पाकर हुआ करता है। तो मूल में तो प्रत्येक पदार्थ स्वतंत्र है। अपने द्रव्य, क्षेत्र, काल, भाव से हैं, तो मैं अपने द्रव्य से हूँ, अपने गुणपर्याय वाला हूँ, अपने प्रदेश में ही हूँ, अपने ही परिणमन में हूँ और अपने ही गुणों में हूँ। ऐसा अपने आपका निर्णय करके देखा जाय तो यह मैं अपने स्वरूप को ही ग्रहण करता हूँ, मैं किसी परपदार्थ का ग्रहण नहीं कर सकता। तब फिर हम अपने स्वरूप को देखें और परस्वरूप से अपने को निराला समझें तो यह मैं एक अभेद निर्विकल्प ही था, और ऐसा यह मैं आत्मतत्त्व स्वसम्वेद्य हूँ। अपने आपके द्वारा ही मैं अनुभव में आने योग्य हूँ।
देखिये एक आत्मरक्षा के प्रकरण में आत्मा के स्वतंत्रता की यह बात कही जा रही है। यद्यपि हम जब इस लोक पर दृष्टिपात करते हैं तो ये विभिन्नताएँ कैसे बनी? ये विभिन्नताएँ कैसे हुई? तो वहाँ यह निर्णय है कि सब हम अनुकूल कर्मों का सन्निधान पाते हैं तो उस-उस प्रकार हम क्रोधादिक भाव रूप परिणम जाते हैं। फर्क यह है। पर जब हम आत्मरक्षा की दृष्टि में चलते हैं तो हमें इस ओर अपनी दृष्टि गड़ानी चाहिए कि जिससे विकल्प दूर हों और शांति प्राप्त हो। लोकव्यवहार में भी जब हम अनेकों से परिचय बढ़ा लेते हैं, अनेकों के साथ स्नेह भाव रखते हैं तब हम बहुत से विकल्पों में पड़जाते और एक किंकर्तव्यविमूढ़ हो जाते। तब यह निर्णय करनाहै कि परिचय बढ़ाना, स्नेह बढ़ाना, मोह बढ़ाना―ये हमारे हित के लिए ठीक नहीं हैं। मूल प्रयोजन यह है कि आत्मा में मोहभाव न रहे, जितने भी क्लेश हैं इन जीवों को वे मोह भाव के कारण है। माना कि यह मेरी स्त्री है, जहाँममता की बस सब बोझ अपने पर आ गया, क्योंकि उसे अपना मान लिया ना। माना कि यह मेरा वैभव है तो सब बोझ अपने आप पर आ गया। माना कि मेरी नामवरी है, मेरा यश है, लोग मुझे अच्छा कह दें यह आशा यदि बन गयी तो ऐसी आशा वाले को शांति कहाँ से आयगी? और एक बात इसके संबंध में यह देखियेकि लोग उसी को बुरा कहते हैं जो जगह-जगह जाकर रोटी की, पैसों की भीख माँगे। दूकान पर जाकर भिखारी पैसा मांगता है तो लोग उसे बुरी निगाह से देखते हैं। यदि दो एक रोटी मांगता है तो यह भिखारी दया का पात्र है, मंदभाग्य है, बेचारा कष्ट में है यों अनेक परिचयों से उसे देखते हैं। तो दूसरे से कुछ मांगना यह एक भीख है और उसे हम अच्छे रूप में नहीं निरखते। लेकिन कोई इस ओरही दृष्टि की जाय, यदि हम यह चाह रहे हों कि ये लोग मुझे कुछ अच्छा कह दें, लोक में मेरा नाम हो और मुझे अच्छी तरह समझें, मेरे को एक बात बोल दें ऐसी यदि लोगों से आशा बना रखी हो तो इसके मायने क्या यह नहीं है कि लोगों से हम कुछ मांग रहे हैं और मांगना ही भीख है। तो यह भीख उन भीखों से भी गंदी है। यदि हम यह चाहते हैं कि लोक में मेरा नाम हो, यश हो, लोग मुझे अच्छा कहें तो यह उस भीख से भी गंदी है जो भिखारी लोग मांगते हैं। और रोटी से तो पेट भरता है किंतु इससे कहाँपेट भरता है बल्कि एक अतृप्ति बढ़ती है।
भीख बिल्कुल न मांगता हो ऐसा बिरला ही पुरुष है। लोग बड़े धनिक बनना चाहते हैं, धन की ओर अपनी धुन लगाये हुए हैं। ताकि लोग समझ जायें कि यह भी कुछ हैं और नाना प्रकार की विद्याएँपढ़ने में अपनी धुन बनाये हैं। लोग परिवार क्यों चाहते हैं? मेरे घर संतान अच्छे हों, पुत्र हों, कुल चले ताकि लोग यह कह सकें कि यह कुल वाले हैं, अच्छे हैं, प्रशंसा कर सकें। तो मुझे संतान चाहिए, धन चाहिए, विद्या चाहिए, नेतागिरी चाहिए। जो-जो बातें यहाँ लोग दूसरों से चाह रहे हैं वे भीख नहीं है तो फिर और क्याहै? अरे जरा अपने आपके आत्मस्वरूप की ओरदृष्टि कीजिए, यह आत्मा स्वयं ज्ञानानंदस्वरूप है, हमारा ज्ञान पर से नहीं मिला, हमारा आनंद पर से नहीं मिला। सब कुछ वैभव एक अपने आपमें है, अपनी ओरसे आया है, हम अपनी ओरआयें, अपने को पहिचानें, मोह का परित्याग करें तो हम शांति को प्राप्त कर सकते हैं, दु:ख से छूट सकते हैं, अन्यथा दु:ख से छुटकारा पाने वाले हम कितना ही यत्न कर डालें पर दु:ख से नहीं छूट सकते हैं। अपने आपके स्वरूप को समझें और मुक्त होने का प्रयत्न करें, मोह ममता अज्ञान मिथ्यात्वभाव से निवृत्ति पायें तो हम शांति पा सकते हैं, ऐसा बनने के लिए हमें स्वाध्याय में, तत्त्वचर्या में, परस्पर के वात्सल्यभाव में रहकर बढ़ना चाहिए और अपने स्वरूप के निकट पहुँचकर हम अपना उद्धार कर लें तो समझ लीजिए कि हमारा मनुष्य जन्म पाना सफल है। श्रावककुल, जैनधर्म जो-जो कुछ प्राप्त हुआ है उसकी सफलता भी तभी समझें।