वर्णीजी-प्रवचन:ज्ञानार्णव - श्लोक 1557
From जैनकोष
स्वबोधादधिकं किंचिन्न स्वांते विभृयात्क्षणम्।
कुर्यात्कार्यवशात्किंचिद्वाक्कायाभ्यामनादृत:।।1557।।
आत्महित का इच्छुक तत्त्वज्ञानी पुरुष आत्मबोध के सिवाय अन्यत्र अपना मन क्षणभर को भी नहीं रखता। एक आत्मा में ही मेरा उपयोग रहे ऐसी इच्छा तत्त्वज्ञानी की रहती है। यह काम बहुत उत्कृष्ट है। साधुजन इस कार्य को कुछ-कुछ अथवा यथावत् कर सकते हैं। गृहस्थ को कभी-कभी इसकी झलक जगती है। गृहस्थ भी जो अपने आपको ऐसा रिटायर बना लेता है, जिसमें सत्संगति, ज्ञानाभ्यास, तत्त्वचर्चा, वीतरागता की रुचि―जिनकी संगति में रहकर यथासंभव आत्मबोध बहुत-बहुत बार बना सके। आत्मोपयोग कर सके ऐसी स्थिति पा लेता है। आत्मबोध के सिवाय अन्य कोई काम जीव के हित का नहीं है। आत्महिताभिलाषी को आत्मज्ञान से परे अन्यत्र कोई काम मन में न रखना चाहिए। जिसका उपयोग विकाररहित, कुसंगरहित केवल विज्ञानघन आनंदस्वरूपी अपने आपमें विराजमान होता हो उस उपयोग में किसी भी प्रकार का क्लेश आना असंभव बात है। जहाँ शांति के लिए, सुख के लिए अनेक उपाय रचते हैं वहाँ एक यह भी उपाय करके देखिये। जिस कुटुंब के बीच आप रह रहे हैं वे सब यों ही फाल्तू हैं क्या? अरे वे अपने स्वरूप में स्वरक्षित हैं और उनके अनेक प्रकार के कर्मों का भार लदा हुआ है। अपने पुण्य पाप के अनुसार वे अपनी स्थिति पायेंगे। कोई सोचे कि इस सारे घर में एक मैं ही हूँ जो कमाता हूँ औरइस घरभर को खिलाता हूँ तो उसका यह सोचना गलत है। अरे कमाने वाले! आपसे बढ़कर पुण्य का उदय उनका है जिनको कमाने की भी चिंता नहीं करनी पड़ रही है और बैठे-बैठे आनंद पाते हैं, विषयसाधन भोगते हैं। क्या अहंकार करना? घर में जितने भी जीव हैं उनकी आप फिकर छोड दो, उनका अधिक भार आप अपने ऊपर न समझिये। आखिर उनमें से किसी के पाप का उदय आये और आप उसे सुभीता देना चाहें तो बन न सकेगा यह काम। उनमें किसी के प्रबल पुण्य का उदय हो और आपको अपने ही घर वालों से ईर्ष्या हो जाय। भाई बंधु से, और उनका बिगाड़करने की चेष्टा करेंगे वैसे ही वैसे वे वैभव समृद्धि प्राप्त करने लगेंगे। छोड़िये उन सबको उनके भवितव्य पर, उनके भाग्य पर। आप पर किसी का बोझ नहीं है। आज चाहे कोई समझता हो कि हमारी स्थिति कमजोर है, कच्ची गृहस्थीहै, छोड नहीं सकते, सबकी रक्षा करनी पड़रही है, कोई भी परिस्थिति आप महसूस करते हों लेकिन वहाँ तो पूर्ण परिस्थिति है, पूरे डटे हुए हैं। जैसे आप अपने में भरपूर हैं वैसे ही वे सब भी अपने में भरपूर हैं। यह बात इसलिए बतायी जा रही है कि अपने आपके दिल पर कल्पनाओं का, चिंतावों का, शोक का बोझ न डालें। कदाचित् कुछ वैभव की हानि हो रही हो, कोई कठिनाई आ रही हो तो सोच लीजिए कि घर वालों का भाग्य अभी अनुकूल नहीं है क्योंकि यह भाग का बंटवारा तो सभी को है ना, कौन क्या करे? कभी वृद्धि हो जाय वैभव में तो सोचिये कि इसमें हम खुशी क्या मानें? इस घर वालों का ऐसा पुण्य का उदय है जो वैभव बढ़ रहा है, उसमें आनंदमग्न मत होइये। ये सब लौकिक बात हैं, ये सब विपत्ति और विडंबना की बातें हैं, ये मेरे हित में नहीं हैं। मेरा हित तो आत्मबोध से ही है। आत्मबोध के सिवाय और कोई भी कार्य अपने मन में न धारण करें और कभी कर्मोदयवश तीव्र उदय की प्रेरणा पर समझिये ऐसी विकट परिस्थिति में कुछ काय करना भी पड़रहा हो तो कार्य बस वचन और काय से कर लीजिए पर अनाद्रित होकर न कीजिए। उसमें यह विश्वास न रखिये कि ये सब कार्य मेरा भला करने वाले हैं। इनसे ही मेरा जीवन है, अस्तित्त्व है। एक आत्मबोध ही वास्तविक शरणभूत है। इसके लिए ही भगवंत जिनेंद्रदेव की पूजा की जाती है, किस प्रयोजन से कि अरहंतदेव के द्रव्य गुण पर्याय को जानकर हम अपने आपमें एक विशदता आती है। उस विशदता को प्राप्त कर प्रभु के स्वरूप से मिलाकर ऐसा अभेद बनने का यत्न कीजिए कि वहाँ केवल वह चिद्विलास ही उपयोग में रहे। गुरुवों की संगति कीजिए तो ज्ञान के प्रयोजन से। और भाव न रखिये।हमारा वैभव बढ़ जायगा, पुण्य बढ़ जायगा गुरुजनों की संगति सेवा से, यह भाव न रखिये। क्या करना है विभूति बढ़ाकर? इसे जोड़कर जाना होगा, यह भिन्न चीज है आकुलतावों का हेतु है―ऐसा भाव रखिये, और भाव न रखिये। एक आत्मबोध कि लिए ही गुरु सेवा कीजिए। ऐसी बात तो ज्ञानी जीवों में होती है। गुरुजनों के प्रति उपासकों की यह श्रद्धा होती है कि ये आत्मज्ञानी हैं आत्मध्यान में ही रत रहा करते हैं। धन्य है इनके उपयोग को। ऐसी मन की प्रशंसा में गुण, स्मरण में उपयोग जाता है तो उससे आत्मबोध ही होता है। गुरुवों की सेवा का लक्ष्य भी आत्मबोध का होना चाहिए।
स्वाध्याय में भी स्व का अध्ययन करें, जो भी विषय पढ़ें उससे मेरा क्या संबंध है, उससे हमें क्या शिक्षा लेना है ऐसा विवेक जरूर करना चाहिए। कुछ भी पढ़ रहे हों―कल्पना करो कि आप यह पढ़ रहे है कि यह जंबूद्वीप है, यह मेरु पर्वत है, ऐसे-ऐसे असंख्यात द्वीप समुद्र हैं, यह एक राजू भी नहीं पूरा हुआ। ऐसा भी कथन पढ़ रहे हो तो यह उससे शिक्षा लीजिए कि ऐसी विशाल जगह में कोई प्रवेश नहीं बचा जहाँमैं अनंत बार जन्मा मरा न होऊँ। ऐसे अनंत जन्मों में जब मैं तृप्त न हो सका, अज्ञानी भूखा रीता दीन ही रहा तो इस रफ्तार में हम क्या हित पा लेंगे? आप मानो स्वाध्याय में कुछ अतीत का इतिहास पढ़ रहे हों, पहिले चौथा काल था, चौबीस तीर्थंकर हुए। उससे पहिले तीसरा काल था, मनु आदिक हुए, वहाँ वैसी-वैसी व्यवस्था हुई, यह पढ़ रहे हों तो उससे यह शिक्षा निकालें कि ऐसा-ऐसा समय गुजारा, ऐसे-ऐसे लोग हुए वे भी न रहे। हमने भी ऐसा-ऐसा समय देखा, पर यहाँ हम भी न रह सकेंगे। जब वे पर्यायें न रही तो इस पर्याय का भी हम क्या विश्वास करें और इसकी साधना में क्या जागरूक रहना?
स्वाध्याय कर रहे हों तो उन सब वचनों को आत्मबोध पर ले जाइये। आपके स्वाध्याय में यदि यह आ रहा हो कि ऐसे-ऐसे जीव हैं, ऐसी-ऐसी पर्याय वाले हैं। पंचेंद्रिय में सबसे बड़ा यह मगरमच्छ है जो स्वयंभूरमण समुद्र में हजार योजन का लंबा, 500 योजन का चौड़ा और 250 योजन का मोटा है। इसको सुनकर ऐसा लगता होगा कि यह तो कोरी बात है। लेकिन इसमें भी आत्महित की शिक्षा लीजिए। जिस आत्मतत्त्व के बोध बिना इस जीव ने ऐसे-ऐसे शरीरों को धारण किया उस आत्मतत्त्व का श्रद्धान ही वास्तव में शरण है। बाहर में अन्य कुछ शरण नहीं है। स्वाध्याय में आ कुछ भी पढ़ रहे हों, सभी विषयों से आप आत्मबोध का नाता लगा सकते हैं।
संयम में तो अधिक नम्रता आती है, अपने आपकी ओर झुकाव होता है, क्योंकि उपयोग बहुत कुछ बाहर से हटा रखा है ना, संयत कर रखा हे ना। तो आत्मबोध की तो प्रेरणा ही मिलती है। यही बात तपश्चरण में है। इच्छावों का निरोध किया तो यह जीव अपने आपके आत्मतत्त्व की ओर बढ़ेगा ही। दान में भी आत्मबोध की बात लगायें। यह वस्तु मेरी क्याहै? कुछ भी नहीं। मैं तो इन रूप आदिक से विलक्षण हूँ, ये बाह्यतत्त्व हैं, पुद्गल हैं, समीप आये हैं, इनमें विकल्प रखकर में अपना अनर्थ कर रहा हूँ। इसको त्याग दें। त्यागना तो है ही, क्योंकि हमें अपनी रक्षा चाहिए। ये विकल्पों के उत्पादक हैं। अतएव इन वैभवों को छोड़ना ही पड़ेगा, छोड़े बिना गुजारा नहीं।छोड़ें तो ऐसी जगह छोड़ें कि जहाँ कुछ धर्म का संबंध तो बने प्रचार तो हो, प्रभावना तो बने, और प्रभावना करने वाले इस धर्म का पोषण तो हो। बस यही आधार दान का है। जो कुछ भी हम कर्तव्य करें उन सबसे एक इस आत्मबोध की शिक्षा लें। आत्मबोध के सिवाय अन्य कुछ करतूत तत्त्वज्ञानी पुरुष अपने मन में क्षण भर को भी नहीं धारण करता। इसके विरुद्ध बनकर आप भी सोच लीजिए, आत्मबोध नहीं करते, हम तो घर में ही चित्त लगायेंगे, । वैभव के बढ़ाने में ही चित्त लगायेंगे तो देख लो एक तो यह चित्त स्थिर नहीं रहता। विश्रांत, अनाकुल नहीं रहता, और कभी-कभी तो इस परवस्तु के प्रसंग में इसके बड़ा झंझट बढ़ जाता है कि यह खुद फिर उससे सुलझ नहीं सकता। तत्त्वज्ञानी पुरुष आत्मबोध के सिवाय अन्य काय को चित्त में क्षण भर भी नहीं धारण करता और प्रयोजनवश किसी अन्य कार्य में लगना पड़ता है तो वचन और काय से लगता है, मन से नहीं लगता। भीतर में उन बाह्य कर्तव्यों के प्रति आदर नहीं है कि ये सब मेरे स्वरूप हैं, मेरा हित है, इससे मेरा भलाहै। ऐसी विरक्त बुद्धिपूर्वक तत्त्वज्ञानी पुरुष अपना जीवन व्यतीत करते हैं, इसमें ही सार है, हित है। हम भी उनके ही कदमों के अनुसार कदम रखकर चलें तो हम भी अपने आपकी रक्षा कर सकते हैं।